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देवताओं का भौतिक अवतरण

                                   परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वन्दन       श्रीमद्भगवद्गीता की रचना संभवतया ईसवी पूर्व 300 और 300 ईसवी के मध्य में हुई। भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा--मैं ही बलिदान और बलि तथा वरदान और पवित्र पौधा हूँ। मैं ही पवित्र शब्द, पवित्र भोजन, पवित्र अग्नि और अग्नि को समर्पित वस्तु भी हूँ। मैं ही ब्रह्माण्ड का रचयिता और ईश्वर का स्रोत भी हूँ। मैं अमर हूँ और मृत्यु भी जो कुछ है, वह मैं ही हूँ और जो नहीं है, वह भी मैं ही हूँ।       मूर्तियों का विशेष आकार होता है। उनमें मनुष्य या  किसी पशु विशेष के गुण होते हैं, किन्तु हर हालत में वे इंसान से परे किसी अलौकिक शक्ति की प्रतीक हैं जो हमारे सामान्य जीवन से परे किसी दूसरे जगत में रहती हैं।       मूर्तियों की उत्पत्ति कब हुई और उनके विशेष आकार-प्रकार कहाँ से आये ?--यह अभी तक रहस्यमय है। क्या उन्हें बनाने वालों को उन दैवीय शक्तियों ने स्वप्न में दर्शन दिए थे या कि वे गहन ध्यान से उत्पन्न हुईं ?  

छाया पुरुष और छाया शरीर

           ************************************* परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन  पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन       प्राणमय कोष सूक्ष्म और स्थूल सत्ता के सन्धि स्थल पर विद्यमान है। उसके एक ओर छाया शरीर है और दूसरी ओर है--स्थूल शरीर। प्राणमय कोष का मूलकेंद्र 'नाभि' है। नाभि पर मन को एकाग्र करने पर प्राणमय कोष से तादात्म्य स्थापित हो जाता है। परिणाम यह होता है कि जिस जीवित या मृत व्यक्ति के रूप का उस अवस्था में ध्यान करेंगे, उस व्यक्ति का छाया शरीर आपके सामने स्पष्ट रूप से आ जायेगा। इस क्रिया को अनुभवी और परिपक्व लोग अपने सामने इच्छित व्यक्ति के चित्र को भी रखकर करते हैं। इससे सफलता शीघ्र मिलती है। छाया शरीर से कोई भी कार्य कराया जा सकता है। यदि जीवित व्यक्ति है तो उसके छाया शरीर पर अपना मानसिक प्रभाव डालकर उसे अपने मन के अनुकूल भी किया जा सकता है। उसकी रोग-व्याधि भी दूर की जा सकती है और उसकी समस्याएं भी दूर की जा सकती हैं। यदि व्यक्ति मृत है तो उससे अज्ञात रहस्यों की जानकारी प्राप्त की ज

योग और विज्ञान

साठ के दशक में योग के सामने कठिन दौर था वैज्ञानिक साबित होने का. क्योंकि अमेरिका के लैब में योग सफल न हुआ तो उसका पश्चिम में प्रवेश निषेध हो जाता. इसी कठिन दौर में हिमालय के एक महान योगी स्वामी राम डॉ एल्मर ग्रीन के बुलावे पर 1969 में अमेरिका जाते हैं. मैनिन्जर फाउण्डेशन की लेबोरेटरी में उनके योग संबंधी दावों की लंबी जांच पड़ताल चलती है लेकिन स्वामी राम की पराभौतिक शक्तियों के आगे विज्ञान असंभव को संभव मान लेता है. परीक्षण के दौरान उन्होंने16 सेकेण्ड के लिए हृदय गति रोक दी लेकिन वे जिन्दा रहे और सबसे बात करते रहे. उन्होंने अपने हथेली के अलग अलग हिस्से में 11 डिग्री का तापमान अंतर पैदा करके शरीर विज्ञान के असंभव को संभव कर दिखाया. लेकिन योग का इससे भी बड़ा एक अचंभा उन्होंने कैमरे में कैद किया. और वह था चक्र की शक्ति. शरीर के भीतर षट्चक्रों को विज्ञान कल्पना ही मानता था. लेकिन स्वामी राम ने दावा किया कि वे हर चक्र पर आभामंडल (औरा) पैदा करेंगे जिसे कैमरे में कैद किया जा सकता है. उनके हृदय स्थल (अनाहत चक्र) पर उभरा आभामंडल न सिर्फ कैमरे में कैद हुआ बल्कि विज्ञान के सामने पहली बार योग का षट

नाद अनुसंधान

******************************************** नाद अर्थात शब्द, अनुसंधान कोई वस्तु जो पहले से विद्यमान है उसे दोबारा  खोजना।   नाद अनुसंधान अथवा शब्दों को खोजना, और शब्दों की यह खोज किसी बाह्य जगत में नहीं की जाती है।  बल्कि यह खोज तो स्वयं के आंतरिक जगत की है। शास्त्रों में कहा गया है,की जो कुछ भी इस जगत में है वो सब कुछ इस शरीर में है। अर्थात पंचतत्व से बने सभी पदार्थ जो इस ब्रहमांड में उपस्थित है।वो सभी सूक्ष्म रूप में इस शरीर में उपस्थित है।  बाह्य जगत अनेक ध्वनियां जो हमें सुनाई देती है,वो सब ध्वनियाँ हमारे शरीर में भी होती रहती है।  परन्तु वे ध्वनियाँ बड़ी सूक्ष्म होती है,इसलिए सुनाई नहीं देती।योग के द्वारा बुद्धि जब सूक्ष्म होने लगती है तो उसकी पकड़ में सूक्ष्म विषय स्वभाव से ही आने लगे है।इन सूक्ष्म ध्वनियों को सुनने के लिए की जाने वाली यौगिक क्रिया ही नाद अनुसंधान कही गयी है।   महर्षि गोरखनाथ ने नाद अनुसंधान की उपासना का वर्णन किया है,उन्होंने कहा है की वे सामान्य लोग जो तत्त्व ज्ञान को पाने में असमर्थ रहते है,उनको नाद की उपासना करनी चाहिए।   घेरण्ड सहिंता में इसका वर्णन नहीं किया

करी पत्ता/ मीठा नीम

...  इसका वैज्ञानिक अथवा वानस्पतिक नाम Murraya Koenigii है। दोस्तो करी पत्ता से तो आप सभी लोग परिचित ही होंगे। इसे मीठा नीम भी कहते हैं। नीम से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन इसकी पत्तियों का आकार- प्रकार नीम की तरह होने के कारण इसे मीठा नीम कह दिया जाता है। नीम वृक्ष काफी बड़ा होता है जबकि यह झाड़ी नुमा आकर में होता है। नीम के पत्ते बहुत कड़ुए होते हैं, जबकि इसके पत्तों का स्वाद बहुत हल्का कड़ुआ पन लिए हुए होता है। इसकी खुशबू और स्वाद नमकीन व्यंजनों की रंगत बढ़ा देती है। रसदार सब्जियों में इसका प्रयोग किए जाने की वजह से इसे कड़ी पत्ता कहा जाता है। वैसे इसका प्रयोग सूखे, गीले, रसदार सभी प्रकार के व्यंजनों में किया जाता है। दक्षिण भारत में लगभग सभी प्रकार के नमकीन व्यंजनों में इसका प्रयोग बहुतायत में किया जाता है। अब उत्तर भारत सहित समूचे भारत में भी इसका प्रयोग होने लगा है। व्यंजनों में इसकी ताजी पत्तियों को छोंक के रूप में प्रयोग किया जाता है। सांथ ही इसकी पत्तियों को सुखा कर भी रखा जा सकता है। इसकी पत्तियों को तोड़ कर अखबार में फैला कर एक दिन छाया में सुखा लें, दूसरे दिन किसी टोकरी में अखब

लिंगुडे/ ल्यून

...  दोस्तो, आप में से कई मित्र शायद इस साग को पहली बार देख रहे होंगे। आप में से कितने लोगों ने इसका स्वाद लिया है?  दरसल ये fern फर्न (टेरिडोफाईटा) की कलियॉं हैं, जो नम स्थानों में पायी जाती हैं, वनस्पति विज्ञान की भाषा में इसे Diplazium esculentum के नाम से जानते हैं। शहरों में इसकी कुछ प्रजातियों को नमी वाले स्थानों के करीब शो के लिये भी लगाया जाता है।  आजकल हमारी सब्जी बाजार में यह सरलता से उपलब्ध है। यदि आप लोगों के यहाँ भी ये उपलब्ध हो तो एक बार अवश्य ट्राई करें।  यह उत्तराखंड के कुमाऊं, गढ़वाल के सांथ ही मिलती जुलती जलवायु के चलते हिमाचल में भी होता है। सम्भवतः यह भारत के सभी पर्वतीय राज्यों पाया जाता होगा।  इसे कुमाऊं में कहीं लिंगडे, कहीं ल्यून के नाम से जाना जाता है। हरा साग होने के कारण इसकी सरसों के तेल में बहुत ही स्वादिष्ट सब्जी बनती है। स्वाद और पौष्टिकता दोनों ही दृष्टि से इसे ओवर ग्रो होने से पहले ही खा लेना चाहिए। विदेशों में भी इसे बहुत चाव से खाया जाता है, साग के अतिरिक्त इसका अचार भी बनाया जाता है।  हमारे उत्तराखंड में लिंगुडे की सब्जी को बहुत अच्छा माना जाता है, आ

श्री दुर्गासप्तशती पाठ

श्री दुर्गासप्तशती पाठ (हिंदी अनुवाद सहित सम्पूर्ण) (प्रथम अध्याय) ।।ॐ नमश्चण्डिकायै।। 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ वध का प्रसंग सुनाना... विनियोगः ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः, नन्दा शक्ति:, रक्तदन्तिका बीजम्, अग्निस्तत्त्वम् , ॠग्वेदः स्वरूपम् , श्रीमहाकाली प्रीत्यर्थे प्रथम चरित्र जपे विनियोगः। प्रथम चरित्र के ब्रह्मा ऋषि, महाकाली देवता, गायत्री छन्द, नन्दा शक्ति, रक्त दन्तिका बीज, अग्नि तत्त्व और ऋग्वेद स्वरूप है। श्रीमहाकाली देवता की प्रसन्नता के लिये प्रथम चरित्र के जप में विनियोग किया जाता है। ध्यानम् ॐ खड्गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम् । नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥ १ ॥ भगवान् विष्णु के सो जाने पर मधु और कैटभ को मारने के लिये कमलजन्मा ब्रह्माजी ने जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवी का मैं सेवन करता हूँ। वे अपने दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्ड