सप्तशती के प्रयोग

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अनेक बार अनेक तरह की बात का स्पष्टीकरण दिन कर देने के बाद भी कुछ भाग्यवादी ऐसे मिल जाते हैं जो भीतर से उत्तेजित कर देते है उत्तेजित इसलिए कि भाग्यवाद के सिद्धांत को पूरी तरह समझे बिना वह एक प्रतिबद्धता प्रमाणित करते हैं aकर्म नहीं कांड करते हैं वाद को समझाने वाला भाग्य को स्वीकार नहीं करेगा पर केवल भाग्य को ही सर्वस्व मानने वाला कर्म के यथार्थ को नहीं समझता यह निश्चित है।
इसमें कोई संशय नहीं कि देश श्रंखला के कर्म से मनुष्य के रूप में जो रचना है वह संपूर्ण है समर्थ है और स्वतंत्र भी है मनुष्य तक जितने देह हैं वह सब बद्ध हैं उतना ही शारीरिक स्तर पर भी और बौद्धिक स्तर पर भी जितनी बुद्धि विकसित है उतना ही देह परिमार्जित है दुख तब होता है जब हम भाग्य की पूजा करते हुए प्रकृति का अपमान करते हैं अपमान इस तरह की यह उन्नत दे देकर प्रकृति ने हमें कर्म करने की स्वतंत्रता दे दी है और हम उस स्वतंत्र का पता का उपयोग न कर के भाग्य के अधीन समझ बैठते हैं।
लोग दही का व्यापार करते हैं वह दूध के बारे में जानते हैं तो हैं पर विश्वास दही पर और उसके समर्थन एक अन्य स्थितियों एवं शैलियों पर ही करते हैं sवे मानते हैं कि अच्छे दही के लिए बढ़िया दूध रहा करता है पर उनका ध्यान दही पर ही घूम फिर कर आ टिकता है हम जानते हैं कि भाग्य के रूप में जो प्रस्तुत है वह कर्म का ही परिणाम है कर्म हमारा ही था भाग्य भी हमारा ही रहेगा।
भाग्यवादी भाग्य को अपरिहार्य मानते हैं पर केवल भाग्य की परीक्षा करने को भी अनावश्यक भी कहते हैं कि उनकी दृढ़ धारणा है कि भाग्य को बदला नहीं जा सकता कृष्ण भगवान अपना निर्णय सुनाते हैं कि शुभ अथवा अशुभ रूप से में जो कर्म हम कर चुके हैं उसका फल हमें भोगना ही होगा यह प्रकृतिक आवश्यक व्यवस्था है इससे अस्वीकार या असहमति नहीं हैk पर कर्म का बल भी एक प्रकृतिक व्यवस्था है।
हम भाग्य को बदलने की बात नहीं करते प्रत्यूत प्रतिभाग्य अथवा समांतरभाग्य की कहते हैं मनुष्य में यह सामर्थ्य है कि वह चाहे तो बेहतर भाग्य का निर्माण कर सकता है यह कर्म स्वतंत्र यह मान लेते हैं की विशेषता है कर्म पर इतना विशद गंभीर विवेचन करने वाले भारतीय वांग्मय में मनुष्य तक किसी अन्य देहधारी की को तपस्या करते नहीं बताया गया है।
इसका कारण यह नहीं है कि सारा कर्म शास्त्र एवं साधन मार्ग मनुष्य की ही गवेषणा है बल्कि इसलिए है की अन्य देही की रचना एवं रचना अनुसार बुद्धि का विकास होता है और उस स्तर पर जीव के कर्म को समझ पाता है ने कर्म को करने में स्वाधीन रहता है।
कौवा लाख प्रयत्न करके भी का एक अक्षर ही बोल पाएगा का काली नहीं कह पाएगा यह दृश्य व्यवस्था और बुद्धि के स्तर को भी सूचित करती है पुराणों में नहुष स्वर्ग जाना चाहता है उसके परोहित एवं कुलगुरु उसे मना कर देते हैं वह विवश होकर विश्वामित्र के पास जाता है 
विश्वामित्र वशिष्ठ से के से विपरीत है क्योंकि वशिष्ठ भाग्य के रूप में इसमें कर्म  स्वर्ग जाना चाहता है उसके प्रवाहित एवं कुल गुरु से मना कर देते हैं वह विवश होकर विश्वामित्र के पास जाता है विश्वामित्र वशिष्ठ से विपरीत है क्योंकि वशिष्ठ भाग्य के रूप में इस में कर्मफल को महत्व देते है।
और विश्वामित्र कर्म बल की स्थापना करते हैं नहुष की कातर प्रार्थना सुनकर विश्वामित्र उसे अपने उत्कृष्ट बल के आधार पर सहदेह स्वर्ग भेज देते हैं नहुष विश्वामित्र की शक्ति से चमत्कृत एवं आभार मान होकर वशिष्ठ की निंदा करने लगता हैo इस पर देवराज कुपित होकर कहते हैं गुरु की निंदा करने वालों के लिए स्वर्ग में कोई स्थान नहीं है इसके साथ ही नहीं इस धरती पर आने लगता है विश्वामित्र उसे देख वही अधर में रोक देते हैं।
बलिष्ठ विश्वामित्र एक नई सृष्टि रचने लगते हैं उनके इश्क उपकरण से सभी स्तब्ध रह जाते हैं इंद्र स्वयं आकर पानीपत पूर्वक उन्हें निवेदन करता है कि भगवान आपके आदेश की अवहेलना करने का साहस किसमें है मैं आपका ज्ञानू चार हूं आप चाहे सारे मनुष्य को स्वर्ग में सहदेह भेज देंh पर इससे मर्यादा लुप्त हो जाएगी संसार में के सारे व्यवहार मर्यादा से बद्ध है यह ही टूट जाएगी तो फिर सभी कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा।
विश्वामित्र बोले इंद्र तेरी व्यवस्था का अतिक्रमण में कहां कर रहा हूं तेरे स्वर्ग की मर्यादा का तू पालन कर मैं सभी कुछ नया और इससे उत्तम बना रहा हूं यह मैं कर सकता हूं विश्वामित्र की हद को जानते हुए देवराज की प्रार्थना पर ब्रह्म आए और उनके कहने पर विश्वामित्र बिरत हुए।
यह एक आख्यान था इसमें कर्म वाद का रहस्य स्पष्ट रूप से उद्घाटित है भाग्य के रूप में कर्म फल की मर्यादा अपने स्थान पर और नवीन कर्म के भाग्य का निर्माण करने वाला कर्म बल अपने स्थान पर यह व्यवस्था कर्म बाद की सीमा का उल्लंघन नहीं हैs माना किसी व्यक्ति के लिए नहीं रहने का योग है ऋण को चुकाना ही पड़ेगा यह प्राकृत व्यवस्था है पर व्यक्ति धना गमन के लिए कोई प्रयोग करें और उसके परिणाम स्वरूप उसके आय के साधन जुटतेते जाए जिससे वह ऋण चुका सके।
यह कर्म वाद का सार्थक पक्ष है यह दूसरी बात है कि ऋण ग्रस्त करने वाले योग से अधिक हमारे बल प्रयोग का बल रहे मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि शुद्ध और विधि पूर्वक किया गया प्रयोग फल नहीं दे रहा है तो निश्चय से मात्रा कम है व्यक्ति को इतना विवश मान लेना कि वह भाग्य के आगे उपाय है अन्याय है  अनंत भाग्य नाम से जो कुछ मिल रहा है वह हमारा कर्म का है।
भाग्य के विधाता हम हैं तो दूसरे भारतीय का निर्माण भी हम कर सकते हैं यह विश्वास हमारे बल को उद्दीप्त करता रहे और अन्यथा यह सारा उपचार शास्त्र असत्य हो जाएगा कर्म वंश वाद का सिद्धांत अधूरा रह जाएगा न्यू शास्त्रों ने काम में प्रयोग करने से मना किया है aपर साथ ही विषमताओं से मुक्त होने के लिए विधि भी बताई है और प्रयोग भी बताए हैं वास्तविकता यह है कि व्यक्ति काम ना करत होकर कोई प्रयोग करता है और प्रयोजन पूर्ण होने पर उसे भूल जाता है यह स्वार्थ वृत्ति हुई अथ च सपण साधना वैसे ही साधना के स्तर को निम्न कर देती है।
यह व्यवहार काम में कर्म के निषेध के मूल में रहा है प्रयोजन के अधिष्ठाता देवता का विधिवत अर्चन करके सम्मान पूर्वक विसर्जन करने पर कोई दोष नहीं है ऐसा नहीं होना चाहिए कि हमारा प्रयोजन को प्रयोग पूर्ण होने से पहले ही सिद्ध हो गया है और हम उस प्रयोग को वहीं छोड़ दें।

क्रमश कल की पोस्ट में दुर्गा सप्तशती के काम्य प्रयोग पर वर्णन किया जाएगा

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