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संदेश

क्रोध की उर्जा का रूपांतरण

जब कभी तुम्हें यह पता चले कि तुम्हें क्रोध आ रहा है तो इसे सतत अभ्यास बना लो कि क्रोध में प्रवेश करने के पहले तुम पांच गहरी सांसें लो। यह एक सीधा—सरल अभ्यास है। स्‍पष्टतया क्रोध से बिलकुल संबंधित नहीं है और कोई इस पर हंस भी सकता है कि इससे मदद कैसे मिलने वाली है? लेकिन इससे मदद मिलने वाली है। इसलिए जब कभी तुम्हें अनुभव हो कि क्रोध आ रहा है तो इसे व्यक्त करने के पहले पांच गहरी सांस अंदर खींचो और बाहर छोड़ो। क्या होगा इससे? इससे बहुत सारी चीजें हो पायेंगी। क्रोध केवल तभी हो सकता है अगर तुम होश नहीं रखते। और यह श्वसन एक सचेत प्रयास है। बस, क्रोध व्यक्त करने से पहले जरा होशपूर्ण ढंग से पांच बार अंदर—बाहर सांस लेना। यह तुम्हारे मन को जागरूक बना देगा। और जागरूकता के साथ क्रोध प्रवेश नहीं कर सकता। और यह केवल तुम्हारे मन को ही जागरूक नहीं बनायेगा, यह तुम्हारे शरीर को भी जागरूक बना देगा, क्योंकि शरीर में ज्यादा ऑक्सीजन हो तो शरीर ज्यादा जागरूक होता है। जागरूकता की इस घड़ी में,अचानक तुम पाओगे कि क्रोध विलीन हो गया है। दूसरी बात, तुम्हारा मन केवल एक—विषयी हो सकता है। मन दो बातें साथ—साथ

अपने अवचेतन मन को आदेश दीजिए ! “वो कहेगा जो हुक्म मेरे आका” !

******************************************* 1 / 8 हम अपनी हर समस्या का समाधान औरों में ही क्यों ढूंढते हैं ? हम क्यों ये चाहते हैं कि मेरी समस्या का हल कोई दूसरा बता दे ? या हम किसी ऐसे महापुरुष की खोज में ही रहते हैं जो हमें हमारी जिंदगी का सही किनारा दिखा दे। खैर, अगर दूसरों से बात करने पर आपको अपनी समस्या का समाधान मिल जाता है तो अच्छा है लेकिन यहां ज़रा सोचने वाली बात ये है कि औरों से बात करने से पहले क्या आपने अपने भीतर उपस्थित अपने अवचेतन मन से बात करने की कोशिश की ? जी हां जिस महापुरुष की खोज में हम बाहरी दुनियां में भटक रहे हैं असल में एक ऐसी महाशक्ति हमारे भीतर ही स्थित है जो सर्वशक्तिमान है, और एक निश्चित समय पर वो जागृत होती है। हमारा मन दो प्रकार का होता है। पहला चेतन व दूसरा अवचेतन। चेतन मन के द्वारा हम जाग्रत अवस्था में सोचते हैं और बाहरी दुनिया का अनुभव प्राप्त करते हैं। अवचेतन मन इन्हीं सब बातों को ग्रहण कर सुरक्षित रख लेता है और उसे पूरा करने में जुट जाता है। 2 / 8 डॉ जोसेफ मर्फी की रिसर्च क्या कहती है ? मनोवैज्ञानिक डॉ. जोसेफ मर्फी ने एक शोध से पता लगाया थ

तत्त्वासार

{{{ॐ}}}                                                             #  वास्तव मे सृष्टि मे एक ब्रह्म की ही सत्ता है जो विभिन्न रूपों मे अभिव्यक्त हुआ है । इसलिए सभी रूप उससे भिन्न नही है बल्कि भ्रम के कारण आत्मज्ञान के अभाव के कारण ये भिन्न भिन्न प्रतीत होते है । इसी प्रकार शरीर भी भ्रम वश उससे भिन्न प्रतीत होता है तथा जिस भ्रम के कारण प्रतीत होने वाले की सत्ता नही होती ,जिस भ्रम से रस्सी मे सर्प दिखाई देता है किन्तु उसमे सर्प की सत्ता नही होती ,वह रस्सी ही है ।इसी प्रकार शरीर भी भ्रम मात्र ही है । जिनको ऐसी शंका होती है कि यदि ज्ञान से अज्ञान का मूल सहित नाश हो जाता है, तो ज्ञानी का यह देह स्थूल कैसे रह जाता है उन मूर्खों को समझाने के लिए श्रुति ऊपरी दृष्टि ऊपरी दृष्टि से प्रारब्ध को उसका कारण बता देती है वह विद्वान को देहादि का सत्य स्व समझाने के लिए ऐसा नही कहती ; क्योंकि श्रुति का अभिप्राय तो एकमात्र परमार्थ वस्तु का वर्णन करने से ही है। ज्ञानी और अज्ञानी को समझाने की भाषा मे भिन्नता रखनी ही पड़ती है। जिस भाषा मे ज्ञानी अथवा विद्वान को समझाया जाता है उस भाषा मे मूर्ख को

आकाश तत्व को कैसे शुद्ध करें?

हमारी पंचतत्व श्रृंखला में आज पढ़ते हैं आकाश तत्व के बारे में। यह एक ऐसा तत्व है जिस पर बाकी के चारों तत्व टिके हुए हैं। क्या कुछ ऐसा है जो हम आकाश को अर्पित कर के उसे अपने लिए फायदेमंद बना सकते हैं? आकाश तत्व को कैसे शुद्ध करें? आज पढ़ते हैं आकाश तत्व के बारे में। यह एक ऐसा तत्व है जिस पर बाकी के चारों तत्व टिके हुए हैं। क्या कुछ ऐसा है जो हम आकाश को अर्पित कर के उसे अपने लिए फायदेमंद बना सकते हैं? आधुनिक विज्ञान यह स्वीकार करने लगा है कि आकाशीय बुद्धि या ज्ञान जैसी कोई चीज होती है। इसका मतलब है कि आकाश में एक खास तरह की बुद्धि होती है। सूर्योदय के बाद, इससे पहले कि सूर्य तीस डिग्री का कोण पार करे, फिर दिन में एक बार और सूर्य के अस्त होने के बाद एक बार आकाश की ओर देखें और शीश झुकाएं - वहां बैठे किसी देवता के लिए नहीं, बस आकाश के लिए। यह आकाशीय बुद्धि आपके साथ कैसा व्यवहार करती है - वह आपके हित में काम करती है या आपके खिलाफ, इससे तय होगा कि आपका जीवन कैसा होगा। आप एक खुशकिस्मत प्राणी हैं या आप अपना बाकी का जीवन धक्के खाते हुए बिताएंगे, यह आपकी इस योग्यता पर निर्भर करता है कि जाने या अनजा

जन्म और मृत्यु

परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन  जीवितो यस्य कैवल्यम् विदेहो$पि स केवलः।  समाधि निष्ठितामेत्य निर्विकल्पो भवानघ:।।       अर्थात्--जिसको जीवन काल में ही कैवल्य उपलब्ध् हो गया है, वह शरीरसहित होने पर भी ब्रह्मरूप रहेगा। इसीलिये समाधिष्ठ होकर सभी प्रकार के विकल्पों से शून्य हो जाना चाहिए।       उपनिषद के इस श्लोक में कितना गूढ़ अर्थ छिपा हुआ है। वास्तव में मनुष्य का जीवन कितना मूल्यवान है ? लौकिक और पारलौकिक  दृष्टि से जो कुछ मनुष्य को पाने योग्य वस्तु है, उसे जीवन के रहते ही पाया जा सकता है। लेकिन ऐसे बहुत से व्यक्ति भी हैं जो मृत्यु के बाद की प्रतीक्षा करते हैं। उनका कहना है कि इस संसार में, इस शरीर में रहते हुए मुक्ति को, ब्रह्म को नहीं प्राप्त किया जा सकता। यह सब मृत्यु के बाद ही सम्भव है।        जो लोग ऐसा सोचते हैं, वास्तव में वे भारी भ्रम में हैं। सच बात तो यह है कि जो जीवन के रहते नहीं पाया जा सकता, वह मृत्यु के बाद भी नहीं पाया जा सकता।         मनुष्य का जीवन एक अवसर है--

मुक्ति कैसे प्राप्त हो?

----------: आणवमल ही जन्म-जन्मान्तर के सुख-दुःख, क्लेश- चिंता का कारण हैं :----------- ****************************** परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन              मुक्ति कैसे प्राप्त हो?             *****************       चौरासी लाख योनियों का भ्रमण करने के बाद कहीं जाकर मानव योनि प्राप्त होती है। अन्य योनियों में सब कुछ रहता है पर 'मन' नहीं रहता। 'मन' की उपलब्धि होती है केवल मनुष्य को। इसीलिए उसे 'मनुष्य' कहते हैं। मन से मनुष्य बना। मनुष्य मानव इसलिए कहलाता है क्योंकि वह मनु की सन्तान है। जब पहली बार जीव मानव-तन को उपलब्ध होता है ,तो उस अवस्था में उससे लिप्त पिछले चौरासी लाख योनियों के पशुत्व भरे न जाने कौन-कौन से संस्कार रहते हैं। इन्हें तंत्र कहता है--'आणव मल'-- "मिथ्याज्ञानमधर्मश्चासक्तिहेतुश्च्युतिस्तथा। पशुत्वमूलं पंचैते तन्त्रे हेयाधिकारितः।। अर्थात्--असत्य, अज्ञान, अधर्म, आसक्ति और पशुता--ये पांच ऐसे प्रमुख हेय और त्याज्य दुर्गुण आ

अष्टांग योग आसन और प्राणायाम

शरीर धर्म को साधने का सबसे पहला साधन है यह सुत्र अपने आप मे अति महत्वपुर्ण है लेकिन इस परम वचन को बिना उसका मर्म समझे उन लोगो ने अपना लिया है जो केवल शरीर को महत्व देते है शरीर कोस्वस्थ और मजबुत बनाने के प्रयास मे रहते है जो कसरत करते व्यायाम करते है और करते है पहलवानी धर्म साधना के प्रथम चरण की तरह नही  ध्यान व योग के प्रचलित रूप भी शरीर की उपेक्षा करना सिखाते है अष्टांग योग केवल आसन और प्राणायाम की कुछ क्रियाओं मे ही सिमट कर रह गया है योगासनों का उपयोग लोग स्वास्थ्य का लाभ के लिये ही करते है देह के रहस्य को जानने समझने  के लिए नही वेशरीर मन का गुलाम बनाकर प्रसन्न होते है उनके लिये  योग का अर्थ है इन्द्रियो का दमन कर शरीर को अपने वश मे करना योग का लोकप्रिय रूप त्याग पर आधारित है योग पर नही  एकमात्र तंत्र ही एक एसा शास्त्र है जो शरीर को अन्तर्विज्ञानकी दृष्टि से देखता है मनऔर तन के संघर्ष में तन को जीतने दे तन को मन पर हावी होने दे तन बहुत अनुभवी है उसकी प्रज्ञा लाखो वर्ष पुरानी है तन सीधे प्रकृति से जुडा है इस विश्व को चलाने वाला जो नियम है उसी को धाराएं शरीर के भीतर भी स्पन्दित होती