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सोमवार, 27 सितंबर 2021

चेतना उच्च शिखर

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चेतना जब भी उच्च शिखर पर विराजती है तब व्यक्ति ज्योतिर्शिखर के प्रकाश से सम्पूर्णं दिशाओं में  प्रकाश से भर  जाता  है  ।  तब  उन क्षणों  में  वह  🌼 🌼 सम - गुण  🌼🌼 में   तो  जीता  है  बस समबन्ध , बन्धित नहीं होता ।
 🏵  सम-बन्ध  🏵 तो उसे शिखर  से  नीचे  उतर हृदय तल पर आकर समग्र जीवन जीने के लिए अभिनित  करने पड़ते है । जिससे जीवन शुष्क नहीं रस पूर्ण जीया जा सके । तभी जीवन सार्थक जीया जा सकता है । उच्च-शिखर पर जो आनन्द है वह निचले पड़ाव पर लौट आने में कहां ? 
हालाकि निचले पड़ाव पर कभी अनन्द  , कभी विषाद में झूलती  जिन्दगी , सृजन में सहयोगी होती है ।
वहीं उच्च-शिखर पर  व्यक्ति प्रेमपूर्ण  ,  स्वीकार  पूर्ण  तो होता है । कर्ता नहीं ! और जब वह करता होता है तो ! 
भरोसे योग्य नहीं रह जाता है ।
यही परम सत्य है I स्वयं के लिए उच्च शिखर !  
संसार के लिए  सभी तलों का योगदान होता है ! 
होश , जागरण  दोनो  में चाहिये ।  
इनके बिना न स्वयं में , न संसार में आनन्दपूर्ण , सुखमय जीवन जिया जा सकता है !

संसार में तौले जाते हैं कर्म, परमात्मा में तौला जाता है भाव। संसार हिसाब रखता है, क्या तुमने किया; परमात्मा हिसाब रखता है, क्या तुम हो। तो यह भी हो सकता है, तुम मोक्ष में उन लोगों को पाओ, जिनको तुमने पूजा पाठ-में कभी नहीं देखा हो। और तुम नर्क में उन लोगों को पाओ जो सदा  पूजा पाठ का दिखावा ही करते रहे मंदिर में ही जिंदगी गुजारे। संसार तो कृत्य देख सकता है। क्योंकि उतनी गहरी आंख नहीं है, जो भाव को देख ले।

एक संन्यासी हिमालय की यात्रा पर था। और उसने देखा कि एक पहाड़ी लड़की अपने कंधे पर एक बड़े मोटे बच्चे को लेकर पहाड़ चढ़ रही है। लड़की की उम्र मुश्किल से नौ साल होगी। और बच्चा बड़ा तगड़ा है। कम से कम चार साल का होगा। और भारी वजन। और संन्यासी भी थक गया है। गर्मी है, धूप तेज है, पसीना-पसीना हो रहा है। वह भी अपने कंधे पर अपना थोड़ा बहुत जो भी बिस्तर सामान है, वह बांधे हुए है। लड़की के करीब पहुंच कर उसने उस लड़की को कहा, ‘बेटी, वजन बहुत है, थक गई होगी।’ और पसीना-पसीना बह रहा है उस लड़की को। उस लड़की ने ऊपर देखा और कहा, ‘स्वामी जी, वजन आप लिए हैं। यह मेरा छोटा भाई है।’

तराजू पर कोई फर्क पड़ेगा, बिस्तर में और छोटे भाई में? तराजू बराबर वजन बता देगा। अगर तुम बाहर ही बाहर देखते हो तो तुम्हारी स्थिति तराजू से ज्यादा नहीं है। उस संन्यासी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उस लड़की ने मुझे चौंका दिया। जब उसने कहा कि स्वामी जी, वजन आप लिए हैं; यह मेरा छोटा भाई है। छोटे भाई में कैसा वजन। वजन तो होता ही है, लेकिन भाव वजन को काट देता है।

तुम्हारा उठना-बैठना, तुम्हारा चलना-फिरना, तुम्हारा भोजन, तुम्हारा सोना, यह सब ऊपर के कृत्य हैं। और हर कृत्य से तुम्हारी आत्मा बाहर झांकती है। तुम देखना; कृत्य का बहुत हिसाब मत रखना, भाव का हिसाब रखना। और अगर भाव का हिसाब साफ होने लगा तो तुम पाओगे, कृत्य बदलने लगे। उनमें से नकल खो जायेगी और प्रामाणिकता आ जायेगी। और तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर के प्रकाश ने तुम्हारे बाहर के कृत्यों को आच्छादित कर दिया। और तब तुम पाओगे कि उनका गुणधर्म और हो गया। उनका मूल्य ही और हो गया। सदगुरु कोई बहुत बड़े-बड़े कृत्य नहीं करता।

झेन फकीर रिंझाई से किसी ने पूछा कि आप क्या करते हैं? तो उसने कहा, ‘जब मुझे भूख लगती है मैं भोजन कर लेता हूं। और जब नींद आती है तब सो जाता हूं। और कुछ विशेष नहीं।’ तो उस आदमी ने कहा, ‘यह तो हम सभी करते हैं।’ रिंझाई हंसने लगा और उसने कहा, ‘काश, इतना सभी करते तो मोक्ष दूर कहां!’

तुम नहीं करते; तुम्हें खयाल है। क्योंकि जब तुम भोजन करते हो, तब तुम हजार काम और भी कर रहे हो। मन कहीं और है, प्राण कहीं और हैं; भोजन तो तुम किसी तरह कर रहे हो। वह तुम्हारी प्रार्थना नहीं है। जब तुम सो रहे हो, तब तुम सिर्फ सोते हो? तुम कितनी यात्रायें करते हो। कितने सपने हैं!

रिंझाई कह रहा है कि जब मैं सोता हूं, तब सिर्फ सोता हूं। जब भोजन करता हूं, तब सिर्फ भोजना करता हूं। मेरे होने और मेरे कृत्य में एकता है। मैं इकाई हूं, अद्वैत हूं। जो भी हो रहा है, वह मेरी समग्रता से, मेरी पूर्णता से हो रहा है। जब भूख लगी है, तो मैं भोजन कर रहा हूं। वह मेरी पूर्णता वहां संलग्न है। मेरे पीछे कुछ भी नहीं बचा है जो अलग खड़ा होगा। और जब मैं सो रहा हूं, तो मैं पूरा सो रहा हूं। फिर मेरे पीछे कोई नहीं बचा है, जो सपने देख रहा हो। मेरा पूरा जीवन, मेरी पूरी आत्मा, एक-एक कृत्य में अपनी समग्रता से प्रविष्ट है।

यही तो जीवन-मुक्त का लक्षण है। तब वह किसी भी क्षण मर जाये, तो पश्चात्ताप नहीं है। क्योंकि सब पूरा है। सदा पूरा है। वह ठीक से रात सो लिया था, सुबह उसने ठीक से भोजन कर लिया था; करने को कुछ बचा नहीं था। हर कृत्य पूरा होता जाता है अगर तुम पूरे उसमें हो। अगर तुम पूरे उसमें नहीं हो, तो तुम्हारा कोई कृत्य पूरा नहीं है। सब अधूरा है। तुम्हारी जिंदगी अधूरे-कृत्यों का जोड़ है। और वे अधूरे-कृत्य तुम्हारा पीछा करते हैं।

💥दीया तले अंधेरा💥

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तंत्र और जप साधन

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{{{ॐ}}}

                                                                #

मंत्र साधन के लिए मोक्ष प्राप्ति के लिए अथवा  सर्व प्रकार की सिद्धि के लिए विद्वान महर्षियों ने जप को एक बहुत ही उत्तम साधन माना है उन्होने ने तीन प्रकार के जपो का वर्णन किया है:----१,मानस जप । २वाचिक जप ।३ उपांशु जप ।
१:- मानसजप--जिस जप में मंत्र की अक्षर- पंक्ति के एक वर्ण से दुसरे वर्ण, एक पद से दुसरे पद तथा शब्द और अर्थ का मन द्वारा बार बार मात्र चिंतन होता है उसे मानस जप  कहते है । यह सिद्धि और साधना की उच्चकोटि का जप कहलाता है ।
२:-- वाचिकजप  जप करने वाला जब उंचे नीचे स्वर से  स्पष्ट तथा अस्पष्ट पद व अक्षरों के साथ मंत्र बोलकर पाठ किया जाता है तो उसे वाचिकजप कहते है ।
३:--,उपांशुजप जिसे केवल जिह्वां हिलती है अथवा इतने मद्धिम स्वर  मे जप होता है जिसे कोई सुन न सके उसे उपांशुजप कहा जाता है इसे मद्धम प्रकार का जप माना गया है।
 कुछ महर्षियों ने दो प्रकार के जपो का और भी वर्णन किया है:----१:- सगर्भजप और अगर्भजप सगर्भजप तो प्राणायाम के साथ किया जाता है और जप के प्रारंभ और अंत में प्राणायाम  किया जाए तो उसे अगर्भजप कहते है इसमे प्राणायाम और जप एक दुसरे के पुर्वक होते है ।
विशेष मंत्रों का प्रयोग मंत्र साधना मे तो किया ही जाता है तंत्र और यंत्रो मे भी उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है ।

मंत्र विशारदों का मत है कि वाचिकजप एक गुना फल प्रदान करता है उपांशुजप सौ गुना फल प्रदान करता है और मानसजप हजार गुना फल प्रदान करता है तथा सगर्भजप को मानसजप से भी अधिक श्रेष्ठ माना गया है
नये साधको को मानस अथवा उपांशुजप पर ही अधिक प्रयास करना चाहिए
शास्त्रो मे मुख्यत १३ प्रकार के जपो का वर्णन किया है जो निम्न प्रकार के है
रेचकजप:--नाक के नथुनों से श्वास को बहार निकालते हुए जो जप किया जाता है उसे रेचकजप कहा जाता है ।

पूरकजप:---नाक से श्वास को भीतर लेते हुए जो जप किया जाए उसे पूरकजप कहा जाता है ।

कुभंकजप:--श्वास को भीतर स्थिर करके जो जप किया जाता है वो कुभंकजप माना जाता है
सात्त्विकजप:-- ,शान्तिकर्म के लिए जो जप किया जाता है उसे सात्त्विकजप कहते है
राजसिकजप:- वशीकरण आदि के लिए किए जीने वाले जव को राजसिक जप करते है ।
तामसिकजप:-- उच्चाटन और मारण आदि क्रियाओं के लिए किया जाने वाला जप तामसिकजप कहा जाता है ।
तत्त्वजप, स्थिरकृतिजप, ध्येयक्यजप, स्मृतिजप, ध्यानजप, हक्काजप, व नादजप का वर्णन भी है

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रविवार, 26 सितंबर 2021

उम्र और यौवन का वैदिक विज्ञान

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प्रश्वास की उचित विधि मनुष्य को न केवल स्वस्थ, सुंदर और
दीर्घजीवी बनाती है बल्कि ईश्वरानुभूति तक करा सकती है।
सदा युवा बने रहने और जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए
सांसों पर संयम जरूरी है। श्वास की गति का संबंध मन से जुड़ा है।

मनुष्य के दोनों नासिका छिद्रों से एक साथ श्वास-प्रश्वास
कभी नहीं चलती है। कभी वह बाएं तो कभी दाएं नासिका
छिद्र से सांस लेता और छोड़ता है। बाएं नासिका छिद्र में इडा
यानी चंद्र नाडी और दाएं नासिका छिद्र में पिंगला यानी
सूर्य नाड़ी स्थित है। इनके अलावा एक सुषुम्ना नाड़ी भी
होती है जिससे सांस प्राणायाम और ध्यान विधियों से ही
प्रवाहित होती है।

शिवस्वरोदय ज्ञान में स्पष्ट रूप से लिखा है कि प्रत्येक एक घंटे
के बाद यह श्वास नासिका छिद्रों में परिवर्तित होता रहता
है। 

कबहु डडा स्वर चलत है कभी पिंगला माही।
सुष्मण इनके बीच बहत है गुर बिन जाने नाही।।

योगियों का कहना है कि चंद्र नाड़ी से श्वास-प्रश्वास
प्रवाहित होने पर वह मस्तिष्क को शीतलता प्रदान करता है।
चंद्र नाड़ी से ऋणात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है। जब सूर्य
नाड़ी से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होता है तो शरीर को
उष्मा प्राप्त होती है यानी गर्मी पैदा होती है। सूर्य नाड़ी से
धनात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है।

प्राय: मनुष्य उतनी गहरी सांस नहीं लेता और छोड़ता है जितनी एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए जरूरी होती है। प्राणायाम मनुष्य को वह तरीका बताता है जिससे मनुष्य ज्यादा गहरी और लंबी सांस ले और छोड़ सकता है। अनुलोम-विलोम प्राणायाम की विधि से दोनों नासिका छिद्रों से बारी-बारी से वायु को भरा और छोड़ी जाता है। अभ्यास करते-करते एक समय ऐसा आ जाता है जब चंद्र और सूर्य नाड़ी से समान रूप से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होने लगता है। उस अल्पकाल में सुषुम्ना नाड़ी से श्वास प्रवाहित होने की अवस्था को ही 'योग' कहा जाता है।

प्राणायाम का मतलब है- प्राणों का विस्तार। दीर्घ श्वास-
प्रश्वास से प्राणों का विस्तार होता है। एक स्वस्थ मनुष्य को
एक मिनट में 15 बार सांस लेनी चाहिए। इस तरह एक घंटे में उसके श्वासों की संख्या 900 और 24 घंटे में 21600 होनी चाहिए। स्वर विज्ञान के अनुसार चंद्र और सूर्य नाड़ी से श्वास-प्रश्वास के जरिए कई तरह के रोगों को ठीक किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि चंद्र नाड़ी से श्वास-प्रश्वास को
प्रवाहित किया जाए तो रक्तचाप, हाई ब्लड प्रेशर सामान्य
हो जाता है।

आज बस इतना ही ....

अष्टावक्र वैदिक विज्ञान संशोधन

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शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

ध्वनि का विज्ञान

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"एकः शब्द: सम्यग्ज्ञात: संप्रयुक्त: स्वर्गे लोके च कामधुग भवति"।

अर्थात-
'एक ही शब्द के पूर्ण ज्ञान और सम्यक प्रयोग से लौकिक और पारलौकिक दोनों फलों की प्राप्ति सम्भव है'।यही वैदिक ज्ञान का रहस्य है। 

जैसा कि हमें ज्ञात होना चाहिए कि कोई भी ध्वनि सदा विशुद्ध नहीं रहती। यौगिक क्रिया और श्वास-प्रश्वास से ही उसमें शुद्धता लायी जा सकती है। इस शुद्धिकरण के बाद ज्ञान की उपलब्धि स्वतः होने लगती है। उसमें विशेष ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है। शब्द के माध्यम से साधक या योगी के हाथ एक नैसर्गिक शक्ति लग जाती है और वह नैसर्गिक गुणों से परिपूर्ण हो शक्तिशाली बन जाता है। 

ऋषियों ने स्पष्टरूप से कहा है कि वेद ब्राह्मण में अंतर्भूत आध्यात्मिक शक्ति के सार हैं। वेद में गायत्री मन्त्र का अपना विशेष महत्व है। वैदिक ब्राह्मण को संस्कार, उपनयन या शुद्धिकरण के समय सर्वप्रथम गायत्री मंत्र ही गुरु द्वारा प्रदान किया जाता है।

वैदिक साहित्य में 'भू: का अर्थ निम्नतम मेखला (भूमि) तथा 'स्व:' का उच्चतम यानी निराकार लोक और इन दोनों के मध्य स्थित 'भुव:' अर्थात अंतरिक्ष। यद्यपि भू:, भुव: तथा स्व: विभिन्न लोकों के रूप में जाना गया है (पृथ्वी लोक, भुवर्लोक यानी प्रेतलोक और स्वर्गलोक) लेकिन वास्तव में यदि देखा जाय तो ये तीनों 'भूमण्डल' के अंतर्गत ही माने जाते हैं। 

तीनों लोक एक दूसरे से दूध-पानी की तरह से मिले हुए हैं। निम्न लोक यानी पृथ्वी का सार स्वयं प्रकाश रूप में प्रकट होता है जिसे 'अग्नि' कहा जाता है। आध्यात्मिक उत्थान की सारी विधि जिसे वैदिक वाणी में 'क्रतु' यानी यज्ञ कहा गया है, इसी पवित्र और गुप्त अग्नि के जलने के साथ आरम्भ हुई। जिसे अग्नि उत्पन्न करती है, जिसे तंत्र और योग कुण्डलिनी में उद्दीपन उत्पन्न करना कहा गया है। जब अग्नि पृथ्वी पर विस्तृत हो जाती है, तब वह संस्कृत (शुद्ध ध्वनि) होने लगती है। तत्पश्चात वह प्रकाश का सत्य धारण करती है और अंतरिक्ष का सार बन जाती है। इसे कहते हैं पूर्णरूप से परिमार्जित हो जाने पर वह 'दिव्य दीप्ति' का रूप धारण कर लेती है जिसे 'रवि' कहते हैं। तब ये तीनों तरह के प्रकाश जो उपर्युक्त लोकों के सार हैं, एकोभूत होकर दिव्य प्रकाश हो जाते हैं जिसे 'वेद' कहते हैं। इसलिए संस्कृत को 'देववाणी' और 'वेद' को 'देवग्रंथ' कहा गया है। वैदिक धर्म में उपनयन के बाद ही ब्राह्मण वेदविद्या अध्ययन के लिए योग्य माना जाता था।

सोलह संस्कारों में उपनयन का महत्व बहुत अधिक है। देखा जाए तो उपनयन आध्यात्मिक पुनर्जन्म है। पहले जन्म में अस्तित्व की शुद्धता बाह्य रूप से होती है। दूसरे जन्म का मतलब है कि गहरे आंतरिक स्तर पर जन्म लेना यानी उपनयन संस्कार से मनुष्य का दूसरा जन्म माना जाता है। उपनयन संस्कार में जो गायत्री मंत्र है, उसमें सविता (सूर्य ) की प्रार्थना की गई है जो सृष्टि का मूल उद्गम है और जो प्रकाश और जीवन का स्रोत है। दिव्यता ईश्वर की प्रकृति का सबसे प्रमुख आविर्भाव है। जो दैवीय प्रकाश को देदीप्यमान महिमा के रूप में ध्यान करते हैं और जो हमारी आत्मिक दिव्यता को पूर्ण करे। 

एक और विचारणीय प्रश्न है ?

हमारे ऋषियों ने कैसे वेदों की रक्षा की और उनका मूल स्वरूप आज भी हज़ारों वर्षों से वही अपने मूल रूप में विद्यमान है। हिन्दू धर्म के लिए वेद इतना महत्वशाली होने के कारण आर्ष ऋषियों ने इसकी पूर्ण रक्षा हेतु ऐसे सूत्र का निर्माण किया जो अपने आप में कम महत्व नहीं रखता। इतने दीर्घ काल से वेद का एक भी अक्षर विकृत नहीं हुआ। आज भी हमारे वेद- पाठियों के मुख वेदों का सस्वर उच्चारण उसी प्रकार से शुद्ध रूप से सुना जा सकता है, जैसा यह प्राचीन वैदिक युग में था। इसके आठ सूत्रों की व्यवस्था की गई थी। इन सूत्रों के कारण वेद का पद क्रमोच्चरण तथा विलोक उच्चारण में अनेक बार आता है जिसके रूप ज्ञान में किसी भी प्रकार की त्रुटि की संभावना नहीं है।

आज बस इतना ही .....

अष्टावक्र वैदिक विज्ञान संशोधन sabhar Facebook wall sat sangh

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विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र (ऋषि मुनियो पर किया अनिल अनुसंधान )

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■ काष्ठा = सैकन्ड का  34000 वाँ भाग
■ 1 त्रुटि  = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
■ 2 त्रुटि  = 1 लव ,
■ 1 लव = 1 क्षण
■ 30 क्षण = 1 विपल ,
■ 60 विपल = 1 पल
■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,
■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,
■ 7 दिवस = 1 सप्ताह
■ 4 सप्ताह = 1 माह ,
■ 2 माह = 1 ऋतू
■ 6 ऋतू = 1 वर्ष ,
■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी
■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,
■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग
■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,
■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,
■ 4 युग = सतयुग
■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
■ 72 महायुग = मनवन्तर ,
■ 1000 महायुग = 1 कल्प
■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
■ महालय  = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )

सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यही है। जो हमारे देश भारत में बना। ये हमारा भारत जिस पर हमको गर्व है l
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।

तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच  उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।

सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।

*उक्त जानकारी शास्त्रोक्त 📚 आधार पर... हैं ।*
*यह आपको पसंद आया हो तो अपने बन्धुओं को भी शेयर जरूर कर अनुग्रहित अवश्य करें यह संस्कार का कुछ हिस्सा हैं 🌷 💐*

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बुधवार, 22 सितंबर 2021

ध्यान के प्रकार

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आपने आसन और प्राणायाम के प्रकार जाने हैं, लेकिन ध्यान के प्रकार बहुत कम लोग ही जानते हैं। निश्चित ही ध्यान को प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा के अनुसार ढाला गया है।

मूलत: ध्यान को चार भागों में बांटा जा सकता है– 1.देखना, 2.सुनना, 3.श्वास लेना और 4.आंखें बंदकर मौन होकर सोच पर ध्‍यान देना। देखने को दृष्टा या साक्षी ध्यान, सुनने को श्रवण ध्यान, श्वास लेने को प्राणायाम ध्यान और आंखें बंदकर सोच पर ध्यान देने को भृकुटी ध्यान कह सकते हैं। उक्त चार तरह के ध्यान के हजारों उप प्रकार हो सकते हैं।

उक्त चारों तरह का ध्यान आप लेटकर, बैठकर, खड़े रहकर और चलते-चलते भी कर सकते हैं। उक्त तरीकों को में ही ढलकर योग और हिन्दू धर्म में ध्यान के हजारों प्रकार बताएं गए हैं जो प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा अनुसार हैं। भगवान शंकर ने मां पार्वती को ध्यान के 112 प्रकार बताए थे जो ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ में संग्रहित हैं।

देखना : ऐसे लाखों लोग हैं जो देखकर ही सिद्धि तथा मोक्ष के मार्ग चले गए। इसे दृष्टा भाव या साक्षी भाव में ठहरना कहते हैं। आप देखते जरूर हैं, लेकिन वर्तमान में नहीं देख पाते हैं। आपके ढेर सारे विचार, तनाव और कल्पना आपको वर्तमान से काटकर रखते हैं। बोधपूर्वक अर्थात होशपूर्वक वर्तमान को देखना और समझना (सोचना नहीं) ही साक्षी या दृष्टा ध्यान है।

सुनना : सुनकर श्रवण बनने वाले बहुत है। कहते हैं कि सुनकर ही सुन्नत नसीब हुई। सुनना बहुत कठीन है। सुने ध्यान पूर्वक पास और दूर से आने वाली आवाजें। आंख और कान बंदकर सुने भीतर से उत्पन्न होने वाली आवाजें। जब यह सुनना गहरा होता जाता है तब धीरे-धीरे सुनाई देने लगता है- नाद। अर्थात ॐ का स्वर।

श्वास पर ध्यान : बंद आंखों से भीतर और बाहर गहरी सांस लें, बलपूर्वक दबाब डाले बिना यथासंभव गहरी सांस लें, आती-जाती सांस के प्रति होशपूर्ण और सजग रहे। बस यही प्राणायाम ध्यान की सरलतम और प्राथमिक विधि है।

भृकुटी ध्यान : आंखें बंद करके दोनों भोओं के बीच स्थित भृकुटी पर ध्यान लगाकर पूर्णत: बाहर और भीतर से मौन रहकर भीतरी शांति का अनुभव करना। होशपूर्वक अंधकार को देखते रहना ही भृकुटी ध्यान है। कुछ दिनों बाद इसी अंधकार में से ज्योति का प्रकटन होता है। पहले काली, फिर पीली और बाद में सफेद होती हुई नीली।

अब हम ध्यान के पारंपरिक प्रकार की बात करते हैं। यह ध्यान तीन प्रकार का होता है- 1.स्थूल ध्यान, 2.ज्योतिर्ध्यान और 3.सूक्ष्म ध्यान।

1.स्थूल ध्यान- स्थूल चीजों के ध्यान को स्थूल ध्यान कहते हैं- जैसे सिद्धासन में बैठकर आंख बंदकर किसी देवता, मूर्ति, प्रकृति या शरीर के भीतर स्थित हृदय चक्र पर ध्यान देना ही स्थूल ध्यान है। इस ध्यान में कल्पना का महत्व है।

2.ज्योतिर्ध्यान– मूलाधार और लिंगमूल के मध्य स्थान में कुंडलिनी सर्पाकार में स्थित है। इस स्थान पर ज्योतिरूप ब्रह्म का ध्यान करना ही ज्योतिर्ध्यान है।

3.सूक्ष्म ध्यान– साधक सांभवी मुद्रा का अनुष्ठान करते हुए कुंडलिनी का ध्यान करे, इस प्रकार के ध्यान को सूक्ष्म ध्यान कहते हैं।

ध्यान के चमत्कारिक अनुभव
ध्यान के अनुभव निराले हैं। जब मन मरता है तो वह खुद को बचाने के लिए पूरे प्रयास करता है। जब विचार बंद होने लगते हैं तो मस्तिष्क ढेर सारे विचारों को प्रस्तुत करने लगता है। जो लोग ध्यान के साथ सतत ईमानदारी से रहते हैं वह मन और मस्तिष्क के बहकावे में नहीं आते हैं, लेकिन जो बहकावे में आ जाते हैं वह कभी ध्यानी नहीं बन सकते।

प्रत्येक ध्यानी को ध्यान के अलग-अलग अनुभव होते हैं। यह उसकी शारीरिक रचना और मानसिक बनावट पर निर्भर करता है कि उसे शुरुआत में क‍िस तरह के अनुभव होंगे। लेकिन ध्यान के एक निश्चित स्तर पर जाने के बाद सभी के अनुभव लगभग समान होने लगते हैं।

शुरुआती अनुभव : शुरुआत में ध्यान करने वालों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं। पहले भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर अंधेरा दिखाई देने लगता है। अंधेरे में कहीं नीला और फिर कहीं पीला रंग दिखाई देने लगता है।

यह गोलाकार में दिखाई देने वाले रंग हमारे द्वारा देखे गए दृष्य जगत का रिफ्‍लेक्शन भी हो सकते हैं और हमारे शरीर और मन की हलचल से निर्मित ऊर्जा भी। गोले के भीतर गोले चलते रहते हैं जो कुछ देर दिखाई देने के बाद अदृश्य हो जाते हैं और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। यह क्रम चलता रहता है।

कुछ ज्ञानीजन मानते हैं कि नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है। नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है। पीला रंग जीवात्मा का प्रकाश है। इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण भी माना जाता है।

इसका लाभ : कुछ दिनों बाद इसका पहला लाभ यह मिलता है कि व्यक्ति के मन और मस्तिष्क से तनाव और चिंता हट जाती है और वह शांति का अनुभव करता है। इसके साथ ही मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे वह असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेता है। ऐसा व्यक्ति भूत और भविष्य की कल्पनाओं में नहीं जिता।

दूसरा लाभ यह कि लगातार भृकुटी पर ध्यान लगाते रहने से कुछ माह बाद व्यक्ति को भूत, भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति को भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उसकी छटी इंद्री जाग्रत होने लगी है और अब उसे ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। यदि आगे प्रगति करना है तो ऐसे व्यक्ति को लोगो से अपने संपर्क समाप्त करने की हिदायत दी जाती है, लेकिन जो व्यक्ति इसका दुरुपयोग करता है उसे योगभ्रष्ट कहा जाता है।

कैसे करें ध्यान की तैयारी
यदि आपने ध्यान करने का पक्का मन बना ही लिया है और इसे नियमित करने का संकल्प ले ही लिया है तो फिर आप अब ध्यान की तैयारी करें। इससे कहले हम ‘ध्यान की शुरुआत’ और ‘कैसे करें ध्यना’ पर लिख चुके हैं। नीचे इस संबंध में लिंक देखें। यहां प्रस्तुत है ध्यान की तैयारी के संबंध में सामान्य जानकारी।

बेहतर स्थान : ध्यान की तैयारी से पूर्व आपको ध्यान करने के स्‍थान का चयन करना चाहिए। ऐसा स्थान जहां शांति हो और बाहर का शोरगुल सुनाई न देता हो। साथ ही वह खुला हुआ और हरा-भरा हो। आप ऐसा माहौल अपने एक रूम में भी बना सकते हो।
जरूरी यह है कि आप शोरगुल और दम घोंटू वातावरण से बचे और शांति तथा सकून देने वाले वातारवण में रहे जहां मन भटकता न हो। यदि यह सब नहीं हैं तो ध्यान किसी ऐसे बंद कमरे में भी कर सकते हैं जहां उमस और मच्छर नहीं हो बल्कि ठंडक हो और वातावरण साफ हो। आप मच्छरदारी और एक्झास फेन का स्तेमाल भी कर सकते हैं।

वातावण हो सुगंधित : सुगंधित वातावरण को ध्यान की तैयारी में शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिए सुगंध या इत्र का इस्तेमाल कर सकते हैं या थोड़े से गुड़ में घी तथा कपूर मिलाकर कंडे पर जला दें कुछ देर में ही वातावरण ध्यान लायक बन जाएगा।
ध्यान की बैठक : ध्यान के लिए नर्म और मुलायम आसान होना चाहिए जिस पर बैठकर आराम और सूकुन का अनुभव हो। बहुत देर तक बैठे रहने के बाद भी थकान या अकड़न महसूस न हो। इसके लिए भूमि पर नर्म आसन बिछाकर दीवार के सहारे पीठ टिकाकर भी बैठ सकते हैं अथवा पीछे से सहारा देने वाली आराम कुर्सी पर बैठकर भी ध्यान कर सकते हैं।
आसन में बैठने का तरीका ध्यान में काफी महत्व रखता रखता है। ध्यान की क्रिया में हमेशा सीधा तनकर बैठना चाहिए। दोनों पैर एक दूसरे पर क्रास की तरह होना चाहिए या आप सिद्धासन में भी बैठ सकते हैं।

4.समय : ध्यान के लिए एक निश्चित समय बना लेना चाहिए इससे कुछ दिनों के अभ्यास से यह दैनिक क्रिया में शामिल हो जाता है फलत ध्यान लगाना आसान हो जाता है।

सावधानी : ध्यान में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इस क्रिया में किसी प्रकार का तनाव नहीं हो और आपकी आंखें बंद, स्थिर और शांत हों तथा ध्यान भृकुटी पर रखें। खास बात की आप ध्यान में सोएं नहीं बल्कि साक्षी भाव में रहें।

अज्ञात

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शिवलिंग कोई साधारण (मूर्ती) नहीं है पूरा विज्ञान है

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शिवलिंग में विराजते हैं तीनों देव:---
सबसे निचला हिस्सा जो नीचे टिका होता है वह ब्रह्म है, दूसरा बीच का हिस्सा वह भगवान विष्णु का प्रतिरूप और तीसरा शीर्ष सबसे ऊपर जिसकी पूजा की जाती है वह देवा दी देव महादेव का प्रतीक है, शिवलिंग के जरिए ही त्रिदेव की आराधना हो जाती है तथा अन्य मान्यताओं के अनुसार, शिवलिंग का निचला नाली नुमा भाग माता पार्वती को समर्पित तथा प्रतीक के रूप में पूजनीय है....अर्थात शिवलिंग के जरिए ही त्रिदेव की आराधना हो जाती है। अन्य मान्यता के अनुसार, शिवलिंग का निचला हिस्सा स्त्री और ऊपरी हिस्सा पुरुष का प्रतीक होता है। अर्थता इसमें शिव और शक्ति, एक साथ में वास करते हैं।

▪️ #शिवलिंग_का_अर्थ: 
शास्त्रों के अनुसार 'लिंगम' शब्द 'लिया' और 'गम्य' से मिलकर बना है, जिसका अर्थ 'शुरुआत' व 'अंत' होता है। तमाम हिंदू धर्म के ग्रंथों में इस बात का वर्णन किया गया है कि शिव जी से ही ब्रह्मांड का प्राकट्य हुआ है और एक दिन सब उन्हीं में ही मिल जाएगा।

▪️ #शिवलिंग_में_विराजते_त्रिदेव: 
हम में लगभग लोग यही जानते हैं कि शिवलिंग में शिव जी का वास है। परंतु क्या आप जानते हैं इसमें तीनों देवताओं का वास है। कहा जाता है शिवलिंग को तीन भागों में बांटा जा सकता है। सबसे निचला हिस्सा जो नीचे टिका होता है, दूसरा बीच का हिस्सा और तीसरा शीर्ष सबसे ऊपर जिसकी पूजा की जाती है।

निचला हिस्सा ब्रह्मा जी ( सृष्टि के रचयिता ), मध्य भाग विष्णु ( सृष्टि के पालनहार ) और ऊपरी भाग भगवान शिव ( सृष्टि के विनाशक ) हैं। अर्थात शिवलिंग के जरिए ही त्रिदेव की आराधना हो जाती है। तो वहीं अन्य मान्यताओं के अनुसार, शिवलिंग का निचला हिस्सा स्त्री और ऊपरी हिस्सा पुरुष का प्रतीक होता है। अर्थता इसमें शिव-शक्ति, एक साथ वास करते हैं।

▪️ #शिवलिंग_की_अंडाकार_संरचना
कहा जाता है शिवलिंग के अंडाकार के पीछे आध्यात्मिक और वैज्ञानिक, दोनों कारण है। अगर आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो शिव ब्रह्मांड के निर्माण की जड़ हैं। अर्थात शिव ही वो बीज हैं, जिससे पूरा संसार उपजा है। इसलिए कहा जाता है यही कारण है कि शिवलिंग का आकार अंडे जैसा है। वहीं अगर वैज्ञानिक दृष्टि से बात करें तो 'बिग बैंग थ्योरी' कहती है कि ब्रह्मांड का निमार्ण अंडे जैसे छोटे कण से हुआ है। शिवलिंग के आकार को इसी अंडे के साथ जोड़कर देखा जाता है।

🚩🚩🔱🔱🔱 ॐ नम:शिवाय: 🔱🔱🔱🚩🚩

दिनांक - १८.०९.२०२१
---#राज_सिंह---

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मंगलवार, 21 सितंबर 2021

क्या हैआदि शंकराचार्य कृत दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्( Dakshinamurti Stotram) का महत्व

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1-दक्षिणामूर्ति स्तोत्र ;-

02 FACTS;-

दक्षिणा मूर्ति स्तोत्र मुख्य रूप से गुरु की वंदना है। श्रीदक्षिणा मूर्ति परमात्मस्वरूप शंकर जी हैं जो ऋषि मुनियों को उपदेश देने के लिए कैलाश पर्वत पर दक्षिणाभिमुख होकर विराजमान हैं। वहीं से चलती हुई वेदांत ज्ञान की परम्परा आज तक चली आ रही  हैं।व्यास, शुक्र, गौड़पाद, शंकर, सुरेश्वर आदि परम पूजनीय गुरुगण उसी परम्परा की कड़ी हैं। उनकी वंदना में यह स्त्रोत समर्पित है।भगवान् शिव को गुरु स्वरुप में दक्षिणामूर्ति  कहा गया है, दक्षिणामूर्ति ( Dakshinamurti ) अर्थात दक्षिण की ओर मुख किये हुए शिव इस रूप में योग, संगीत और तर्क का ज्ञान प्रदान करते हैं और शास्त्रों की व्याख्या करते हैं। कुछ शास्त्रों के अनुसार, यदि किसी साधक को गुरु की प्राप्ति न हो, तो वह भगवान् दक्षिणामूर्ति को अपना गुरु मान सकता है, कुछ समय बाद उसके योग्य होने पर उसे आत्मज्ञानी गुरु की प्राप्ति होती है। 

2-गुरुवार (बृहस्पतिवार) का दिन किसी भी प्रकार के शैक्षिक आरम्भ के लिए शुभ होता है, इस दिन सर्वप्रथम भगवान् दक्षिणामूर्ति की वंदना करना चाहिए।दक्षिणामूर्ति हिंदू भगवान शिव का एक अंश है जो सभी प्रकार के ज्ञान के गुरु हैं। परमगुरु के प्रति समर्पित भगवान परमाशिव का यह अंश परम जागरूकता, समझ और ज्ञान के रूप में उनका व्यक्तित्व है।यह रूप शिव को योग, संगीत और ज्ञान के शिक्षक के रूप में प्रस्तुत करता है, और शास्त्रों पर प्रतिपादक देता है। उनकी पूजा इस रूप में की जाती है। ज्ञान के देवता, पूर्ण और पुरस्कृत ध्यान।आदि शंकराचार्य ने बहुत सारे महान स्तोत्र (प्रार्थना) लिखे हैं, लेकिन यहां एक अनोखी प्रार्थना है, जो न केवल एक प्रार्थना है, बल्कि उन सभी दर्शन का सारांश है जो उन्होंने सिखाया है। अपने समय के दौरान भी, इस स्तोत्र को समझना मुश्किल था और उनके एक शिष्य के लिए यह आवश्यक हो गया, सुरेश्वराचार्यो ने इस स्तोत्र को मानसोलासा नामक एक टीका लिखी।

आदि शंकराचार्य का दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्;-

ध्यानम्;- 

मौन व्याख्या प्रकटित परब्रह्म तत्त्वं युवानं। वर्षिष्ठांते वसद् ऋषिगणैः आवृतं ब्रह्मनिष्ठैः ।। 

आचार्येन्द्रं कर कलित चिन्मुद्रमानंद रुपम । स्वात्मारामं मुदित वदनं दक्षिणामूर्ति मीडे ।1। 

जिनकी मौन व्याख्या उनके शिष्यों के हृदय में परम ब्रह्म के ज्ञान को जागृत कर रही है, जो युवा हैं तथापि (फिर भी) ब्रह्म में लीन वृद्ध ऋषियों से घिरे हुए हैं [अर्थात वृद्ध ऋषि जिनके शिष्य हैं], जिन ब्रह्म ज्ञान के सर्वोच्च आचार्य के हाथ चिन्मुद्रा (ऊपर फोटो में देखें) में हैं, जिनकी स्थिर और आनंदमय है, जो स्वयं में आनन्दमय हैं यह उनके मुख से प्रतीत होता है; उन दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।। 

वटविटपि समीपे भूमिभागे निषण्णं। सकल मुनि जनानां ज्ञान दाता रमारात्।। 

त्रिभुवन-गुरुमीशं दक्षिणामूर्ति देवं। जनन मरण दुः खच्छेद दक्षं नमामि ।2। 

 जो वटवृक्ष (बरगद) के नीचे भूमि पर बैठे हैं, जिन ज्ञानदाता के समीप सभी मुनि जन बैठे हैं, जो दक्षिणामूर्ति तीनों लोकों के गुरु हैं, उन जन्म-मरण के दुः ख से भरे चक्र को नष्ट करने वाले देव को नमन करता हूँ ।। 

चित्रं वट तरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा। गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं; शिष्या स्तुच्छिन्न संशयाः ।3। 

वास्तव में यह विचित्र है कि वट वृक्ष की जड़ पर वृद्ध शिष्य (ऋषिगण) अपने युवा गुरु (शिव) के समक्ष बैठे हुए हैं, और गुरु का मौन व्याख्यान उन शिष्यों के संशय (doubts) को दूर कर रहा है।

।। निधये सर्व विद्यानां भिषजे भवरोगिणाम् । गुरवे सर्व लोकानां दक्षिणामूर्तये नमः ।4। 

जो सभी विद्याओं के निधान (भण्डार) हैं, संसार के सभी रोगों के उपचारक [औषधि] हैं, उन सभी लोकों के गुरु श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।

।। ॐ नमः प्रणवार्थाय शुद्ध ज्ञानैक मूर्तये। निर्मलाय प्रशान्ताय दक्षिणामूर्तये नमः ।5। 

ॐ, जो प्रणव (ॐ) और शुद्ध अद्वैत (Non-Dual) ज्ञान के मूर्त-रूप हैं, उन्हें नमस्कार है, निर्मल और शान्ति समाहित (जो शान्ति से परिपूर्ण हो ऐसे) श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।

।। चिद्घनाय महेशाय; वटमूल निवासिने । सच्चिदानन्द रूपाय दक्षिणामूर्तये नमः ।6। 

सघन चेतना के रूप को, महा-ईश्वर (महादेव) को, वटवृक्ष (बरगद) के मूल पर निवास करने वाले, सत-चित-आनंद (Existence, Consciousness, Bliss) के मूर्त रूप को, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।

।। ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्ति भेद विभागिने । व्योम वद् व्याप्त देहाय; दक्षिणामूर्तये नमः ।7। 

ईश्वर, गुरु, और आत्मन्- इन तीनों विभिन्न रूपों में जो आकाश (आध्यात्मिक आकाश या चिदाकाश) की तरह जो व्याप्त हैं, उन दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।

 स्तोत्रम्;-

 1- विश्वं दर्पण दृश्यमान नगरी ..तुल्यं निजान्तर्गतं। पश्यन्नात्मनि मायया बहिरि वोद्भूतं यथा निद्रया ।। 

यः साक्षात्कुरुते प्रबोध समये स्वात्मान मेवाद्वयं। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।1। 

स्वयं के अंतर्मन में देखने पर सम्पूर्ण विश्व एक दर्पण (mirror) में बसे नगर के समान है, अपने आत्मन के भीतर से देखने पर (नींदनीं के स्वप्न की तरह, माया से बना) यह बाहरी संसार आत्मन की आध्यात्मिक जागृति के समय, स्वयं अद्वैत आत्मन के भीतर साक्षात दिखाई देता है, अपने गहन मौन से इस ज्ञान को जागृत करने वाले उन गुरु रूप श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।। 

NOTE;-

उपर्युक्त श्लोक हमें बताता है कि जो दुनिया हमारे बाहर है वह हमारी आत्मा के समान है लेकिन हम उन्हें अज्ञानता के घूंघट के कारण अलग-अलग संस्थाओं के रूप में देखते हैं। जैसे ही हम जागते हैं, हम महसूस करते हैं कि सपना झूठा है और यहां तक कि दर्पण में हमारी छवि को देखते हुए, हम जानते हैं कि हम हमें दर्पण में नहीं बल्कि हमारी छवि देख रहे हैं। जब हम गुरु से ज्ञान प्राप्त करते हैं तो हम अज्ञान के घूंघट के बिना जाग्रत अवस्था में होते हैं। 

2-बीज अस्याऽन्तरि वाङ्कुरो जगदिदं प्राङ्ग निर्विकल्पं पुनः । माया कल्पित देशकाल कलना वैचित्र्य चित्रीकृतम् ।। 

मायावीव विजृम्भ यत्यपि महा ..योगी व यः स्वेच्छया। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये ..नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।2। 

यह जगत जो बीज के अन्दर स्थित अंकुर की भांति है, यह माया के द्वारा रचित आकाश (space) और समय से मिलकर बार-बार अनेकों रूपों में जन्म लेता है। वे महायोगी जो एक मायावी की भांति अपनी इच्छा मात्र से इस जगत की गतियों को नियंत्रित करते हैं, मैं अपने गुरु के रूप में उन श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ

 3-यस्यैव स्फुरणं सदात्मकम सत्कल्पार्थकं भासते। साक्षा त्तत्त्वमसीति वेद वचसा.. यो बोध यत्याश्रितान् ।। 

यत्साक्षात्करणा अंद्भवेन्न पुनरावृत्ति र्भवाम्भोनिधौ। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।3। 

जिनका स्पंदन (फड़क, गति) ही सत-चित-आनंद की प्रकृति को दर्शाता है, जिनका वास्तविक रूप एक आभासी (अवास्तविक) रचना लगता है, जो अपने आश्रितों को साक्षात ही तत्-त्वम-असि का वेद वचन सुनाते हैं। जिनका साक्षात ज्ञान प्राप्त कर व्यक्ति फिर कभी जन्म और मृत्यु के समुद्र में नही फंसता, मैं अपने गुरु के रूप में उन श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।।  

4-नानाच्छिद्र घटोदर-स्थित महादीप-प्रभा भास्वरं। ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरण-द्वारा वहिः स्पन्दते ।। 

जानामीति तमेव भान्तमनु भात्ये तत्समस्तं जगत्। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।4।  

जिस प्रकार कई छिद्रों वाले बर्तन में रखे एक चमकते दीपक की रोशनी उस बर्तन के बाहर से चमकती दिखती है, इसी प्रकार मात्र उसका [आत्मन का, स्वयं का ] ज्ञान हो जाने से मनुष्य की आँखें भी बाहर से चमकती दिखाई देती हैं।  "मैं जानता हूँ" इस रूप में जिस अकेले की प्रभा से समस्त जगत प्रभावान होता है, मैं अपने गुरु के रूप में उन श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।

5-देहं प्राण अमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः । स्त्री बालान्ध जडोप मास्त्वह मिति भ्रान्ता भृशं वादिनः ।। माया शक्ति विलास कल्पित महा.. व्यामोह संहारिणे। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।5। 

जो लोग देह (शरीर), प्राण, इन्द्रियों, यों प्राचल (गतिमान) बुद्धि या परम शून्य को ही, "मैं" का अर्थ, मानते हैं वे एक भोली लड़की की भांति और अंधे होकर भी अपनी बातों को जोरों से बोलते रहते हैं। माया, शक्ति और विलास से पैदा हुए इस महान व्योम (भ्रान्ति) को नष्ट करने वाले अपने गुरु के रूप में, मैं श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।। 

6-राहुग्रस्त दिवाकरेन्दु सदृशो.. माया समाच्छादनात्। सन्मात्रः करणोप संहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान् ।। 

प्राग स्वाप्समिति प्रबोध समये.. यः प्रत्यभिज्ञायते। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये.. नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।6।

जैसे सूर्य और चंद्रमा को राहु द्वारा ग्रहण किया जाता है, वैसे ही माया के द्वारा ढके हुए, इन्द्रियों के हट जाने पर अजन्मा सोया हुआ पुरुष प्रकट हो जाता है। ज्ञान देते समय जो यह पहचान करा देते हैं कि पूर्व में सोये हुए यह तुम ही थे, उन श्री दक्षिणामूर्ति को गुरु रूप में नमस्कार है।। 

7-बाल्या दिष्वपि जाग्रदा दिषुतथा सर्वास्व वस्था स्वपि। व्यावृत्ता स्वनु वर्तमानं  महमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।। 

स्वात्मानं प्रकटी करोति भजतां यो मुद्रया भद्रया। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये ..नमइदं.. श्रीदक्षिणामूर्तये ।7। 

बाल्य अवस्था और अन्य अवस्थाओं में, जागते हुए या निद्रा आदि जीवन की सभी अवस्थाओं में जो आत्मन (आत्मा) शरीर के भीतर दीप्त रहती है, वह सभी नियमों से मुक्त लेकिन हर समय उपस्थित रहती है। जो अपने भक्तों को चिन्मुद्रा के माध्यम से इस आत्मन का ज्ञान कराते हैं, उन श्री दक्षिणामूर्ति को गुरु रूप में नमस्कार है।। 

8-विश्वं पश्यति कार्य कारण तया ..स्वस्वामि सम्बन्धतः । शिष्या अचार्यतया तथैव.. पितृ पुत्रा अध्यात्मना भेदतः ।। 

स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो.. माया परि भ्रामितः । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये.. नमइदं ..श्रीदक्षिणामूर्तये ।8।

 विश्व में जो अलग-अलग सम्बन्ध जैसे कि- कार्य-कारण, स्व-स्वामी, शिष्य-आचार्य, और पिता-पुत्र आदि दिखाई देते हैं, स्वप्न में और जागृति में ये सभी समबंध पुरुष ( आत्मतत्व ) को भ्रमित करने के लिए माया द्वारा बनाए गये हैं। मैं अपने गुरुरुपी श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।।  

9-भूरम्भांस्यन लोऽनिलोऽम्बर महर्नाथो हिमांशु पुमान् । इत्या भाति चरा चरात्मक मिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम्।। 

नान्यत् किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्मा द्विभोः । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नमइदं.. श्रीदक्षिणामूर्तये ।9। 

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश,सूर्य, चन्द्र और जीव- ये आठ उस [आत्मन] के रूप हैं, जो चर-अचर रूपों में विद्यमान हैं, इस [आत्मन] के अतिरिक्त संसार में कुछ भी नही हैं, यही सर्वव्यापक है, अंतर्मन में लीन योगी इसे ही विश्व का सार मानते हैं, मैं अपने गुरुरुपी श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।। 

10-  सर्वात्मत्व मिति स्फुटी कृतमिदं.. यस्माद मुष्मिन् स्तवे। तेनास्य श्रवणा त्तदर्थ मनना ध्यानाच्च संकीर्तनात् ।। सर्वात्मत्व महाविभूति सहितं ..स्यादीश्वरत्वं स्वतः । सिद्ध्ये त्तत्पुनर अष्टधा ..परिणतं .. ऐश्वर्य मव्याहतम् ।10। 

इस स्तुति में स्वयं [आत्मन] की सर्वव्यापकता स्पष्ट रूप से प्रकट हुई है, जिसके बारे में सुनने से, उसके अर्थ पर विचार करने से, ध्यान और भजन करने से अष्टांगिक ऐश्वर्यों के साथ विश्व के परम सार के ज्ञान की प्राप्ति होती है, बिना बाधा और कठिन प्रयास किये आध्यात्मिक जागृति प्राप्त होती है। 

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सोमवार, 20 सितंबर 2021

क्या है आदि शंकर द्वारा लिखित ''सौंदर्य लहरी''की महिमा

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ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 

अर्थ :'' हे! परमेश्वर ,हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों  (गुरू और शिष्य) को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए। हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें। हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो। हम दोनों परस्पर द्वेष न करें''।   

 
''सौंदर्य लहरी''की महिमा   ;-

17 FACTS;-

1-सौंदर्य लहरी (संस्कृत: सौन्दरयलहरी) जिसका अर्थ है “सौंदर्य की लहरें” ऋषि आदि शंकर द्वारा लिखित संस्कृत में एक प्रसिद्ध साहित्यिक कृति है। कुछ लोगों का मानना है कि पहला भाग “आनंद लहरी” मेरु पर्वत पर स्वयं गणेश (या पुष्पदंत द्वारा) द्वारा उकेरा गया था। शंकर के शिक्षक गोविंद भगवदपाद के शिक्षक ऋषि गौड़पाद ने पुष्पदंत के लेखन को याद किया जिसे आदि शंकराचार्य तक ले जाया गया था। इसके एक सौ तीन श्लोक (छंद) शिव की पत्नी देवी पार्वती / दक्षिणायनी की सुंदरता, कृपा और उदारता की प्रशंसा करते हैं।सौन्दर्यलहरी/शाब्दिक अर्थ सौन्दर्य का सागर आदि शंकराचार्य तथा पुष्पदन्त द्वारा संस्कृत में रचित महान साहित्यिक कृति है।इसमें माँ पार्वती के सौन्दर्य, कृपा का १०३ श्लोकों में वर्णन है।भगवत्पाद शंकराचार्य की सौन्दर्यलहरी प्रथम तान्त्रिक रचना है जिसमें सौ श्लोकों के माध्यम से आचार्य शंकर ने भगवती पराशक्ति पराम्बा त्रिपुरसुन्दरी की कादि एवं हादि साधानाओं के गोप्य रहस्यों का उद्यघाटन किया है और पराशक्ति भगवती के अध्यात्मोन्मुख अप्रतिम सौन्दर्य का वर्णन किया है।ये त्रिपुर-सुंदरी रूप की उपासना का ग्रन्थ है इसलिए भी सौन्दर्यलहरी है।  

 2-भगवत्पाद ने सौन्दर्यलहरी की रचना कर भगवती के स्तवन  से श्रीविद्या की उपासना एवं महिमा, विधि, मन्त्र, श्रीचक्र एवं षट्चक्रों से उनका सम्बन्ध तथा उन षट्चक्रों के वेधरूपी ज्ञान के प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया है।सौन्दर्यलहरी में कुल सौ श्लोक हैं, जिनमें से आदि के इकतालिस श्लोक आनन्दलहरी के नाम से प्रसिद्ध हैं। शेष उनसठ श्लोकों में देवी के सौन्दर्य का नखशिख वर्णन है। वस्तुत: 'आनन्द' ब्रह्मा का स्वरूप है जिसका ज्ञान  हमें भगवती करा देती है। अत: ब्रह्मा के स्वरूप 'आनन्द' को बताने वाली भगवती उमा के स्वरूप का प्रतिपादन शेष उनसठ श्लोकों में वर्णित है।तंत्र में कई यंत्र भी प्रयोग में आते हैं। ऐसे यंत्रों में सबसे आसानी से शायद श्री यंत्र को पहचाना जा सकता है। 

 3-सौन्दर्यलहरी के 32-33वें श्लोक इसी श्री यंत्र से जुड़े हैं। साधकों के लिए इस ग्रन्थ का हर श्लोक किसी न किसी यंत्र से जुड़ा है, जिसमें से कुछ आम लोगों के लिए भी परिचित हैं, कुछ विशेष हैं, सबको मालूम नहीं होते। शिव और शक्ति के बीच कोई भेद न होने के कारण ये अद्वैत का ग्रन्थ भी होता है। ये त्रिपुर-सुंदरी रूप की उपासना का ग्रन्थ है इसलिए भी सौन्दर्य लहरी है। कई श्लोकों में माता सृष्टि और विनाश का आदेश देने की क्षमता के रूप में विद्यमान हैं।सौन्दर्यलहरी केवल काव्य ही नहीं है, यह तंत्रग्रन्थ है। जिसमें पूजा, यन्त्र तथा भक्ति की तांत्रिक विधि का वर्णन है। इसके दो भाग हैं-

आनन्दलहरी - श्लोक १ से ४१

सौन्दर्यलहरी - श्लोक ४२ से १०३

 4-एक बार ऐसा कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य शिव और पार्वती की पूजा करने के लिए कैलाश गए थे। वहां, भगवान ने उन्हें १०० श्लोकों वाली एक पांडुलिपि दी, जिसमें देवी के कई पहलुओं को उन्हें उपहार के रूप में वर्णित किया गया था। जब शंकर कैलाश के दर्शन कर लौट रहे थे, तब नंदी ने उन्हें रास्ते में रोक दिया। उसने उससे पांडुलिपि छीन ली, उसे दो भागों में फाड़ दिया, एक भाग लिया और दूसरा शंकर को दे दिया। शंकर, शिव के पास दौड़े और उन्हें घटना सुनाई। शिव ने मुस्कुराते हुए, उन्हें १०० छंदों के प्रारंभिक भाग के रूप में ४१ छंदों को अपने साथ रखने की आज्ञा दी और फिर, देवी की स्तुति में अतिरिक्त ५९ छंद लिखने की आज्ञा दी। इस प्रकार, श्लोक १-४१ भगवान शिव की मूल कृति है, जो तंत्र, यंत्र और विभिन्न शक्तिशाली मंत्रों के प्राचीन अनुष्ठानों पर बहुत प्रकाश डालते हैं।आदि शंकराचार्य ने सौंदर्य लहरी में कहा-चतुर्भि: श्रीकंठे: शिवयुवतिभि: पश्चभिरपि ../नवचक्रों से बने इस यंत्र में चार शिव चक्र, पांच शक्ति चक्र होते हैं। 

 5-श्लोक १-४१ शिव और शक्ति के मिलन और संबंधित घटनाओं के रहस्यमय अनुभव का वर्णन करता है। शेष श्लोक अर्थात 42-100 की रचना स्वयं आदि शंकर ने की है, जो मुख्य रूप से देवी के स्वरूप पर केंद्रित हैं।सभी १०० श्लोकों को सामूहिक रूप से 'सौंदर्य लहरी' के रूप में जाना जाता है। सौंदर्य लहरी केवल एक कविता नहीं है। यह एक तंत्र पाठ्यपुस्तक है, जिसमें पूजा और प्रसाद, कई यंत्र, प्रत्येक श्लोक के लिए लगभग एक निर्देश दिया गया है; प्रत्येक विशिष्ट श्लोक से जुड़ी भक्ति करने की तंत्र तकनीक का वर्णन करना; और उससे होने वाले परिणामों का विवरण देता है।श्लोक 42-100 अधिक सीधे हैं; वे देवी की शारीरिक सुंदरता का वर्णन करते हैं और कभी-कभी उन्हें सौंदर्य लहरी भी कहा जाता है।  
 6-कुंडलिनी की अवधारणा;-
पहले ४१ श्लोकों में माता की आंतरिक पूजा का विस्तृत विवरण दिया गया है। इसमें कुंडलिनी , श्री चक्र , मंत्र (श्लोक ३२, ३३) की अवधारणा की व्यवस्थित व्याख्या शामिल है। यह सर्वोच्च वास्तविकता को अद्वैत के रूप में दर्शाता है लेकिन शिव और शक्ति, शक्ति धारक और शक्ति, होने और इच्छा के बीच अंतर के साथ। शक्ति, अर्थात् , माता या महा त्रिपुर सुंदरी , प्रमुख कारक बन जाती है और शक्ति धारक या शिव एक आधार बन जाते हैं। प्रथम श्लोक में ही इस विचार का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। "शक्ति के साथ संयुक्त, शिव बनाने की शक्ति के साथ संपन्न है, या अन्यथा, वह एक आंदोलन भी करने में असमर्थ है।"इसी विचार को श्लोक 24 में लाया गया है, "ब्रह्मा ब्रह्मांड का निर्माण करते हैं, विष्णु पालन करते हैं, रुद्र नष्ट करते हैं, और महेश्वर हर चीज को अवशोषित करते हैं और सदाशिव में आत्मसात करते हैं। आपकी लता जैसे भौंहों से जनादेश प्राप्त करने पर, सदाशिव सब कुछ पिछले की तरह गतिविधि में पुनर्स्थापित करता है चक्र।" माता की ऐसी प्रधानता श्लोक ३४ और ३५ में भी देखी जा सकती है। 

 7-सौन्दर्य लहरी आदि शंकर की अप्रतिम सर्जना का अन्यतम उदाहरण है। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है ।पुरानी मान्‍यता है कि जब एक ही जगह पर, एक ही स्‍वर में, एकजुट होकर मंत्र का जाप किया जाए तो उस जगह ऊर्जा का ऐसा चक्र निर्मित होता है, जो मनमंदिर, शरीर, आत्‍मा सभी को अपनी परिधि में ले लेता है। नाद-ब्रह्म की कल्‍पना हमारे यहां उसी संदर्भ में स्‍वीकृत की गई है। आधुनिक विज्ञान भी नाद-ब्रह्म के सामर्थ्‍य का, मंत्रों के उच्‍चारण की ताकत का इन्‍कार नहीं करता है।सौन्‍दर्य लहरी के अदभुत पाठ से पूरे वातावरण में ऊर्जा महसूस होता है।एक दिव्‍य अनुभूति ...जिसमें रस भी है, रहस्‍य भी है और ईश्‍वर के साथ रम जाने की अदम्‍य इच्‍छा भी है।सौन्‍दर्य लहरी के हर मंत्र में एक अलग शक्ति है, एक अलग भाव है।उत्तर भारत में जैसे दुर्गा-सप्तशती का पाठ होता है वैसे ही दक्षिण में सौन्दर्यलहरी का पाठ होता है।शिव   और   शक्ति   के   अभेद   तथा   परस्पर   अपेक्षिता   तथा   शक्ति   के   कल्याणकारी   स्वरूप   का   दर्शन   सौन्दर्यलहरी   में   जिस   प्रकार   से   प्राप्त   होता   हैं; वैसे   अन्यत्र   कहीं   नहीं   हैं।

  8-भगवान् शंकराचार्य ने अपनी शक्ति-साधना के अनुभवों की हलकी-सी झाँकी सौंदर्य लहरी  में प्रस्तुत की है। शक्ति के बिना शिव की प्राप्ति नहीं हो सकती। उपनिषद्कार के अनुसार यह आत्मा बलहीनों को प्राप्त नहीं होती। दुर्बलता के रहते ब्रह्म तक पहुँच सकने की क्षमता कहाँ से आ सकती है। इस दृष्टि से ब्रह्मविद्या के सहारे ब्रह्मवेत्ता बनने और ब्रह्मतत्व को प्राप्त करने के प्रयत्न में भगवान् शंकराचार्य को शक्ति-साधना करनी पड़ी। और इसके लिए योगाभ्यास के—प्रत्याहार,धारणा, ध्यान, समाधि के प्रयोग ही पर्याप्त नहीं रहे, वरन् उन्हें पंच-तत्वों की प्रवृत्ति का संचार और नियंत्रित कर्तीृ अपराविद्या का अवलम्बन लेकर शरीर और मन को भी समर्थ बनाना पड़ा। इस प्रयोजन के अपराविद्या की साधना में कुंडलिनी शक्ति को प्रमुख माना जाता रहा है। इसे कामकला या काम-बीज भी कहते हैं। प्रजनन प्रयोजन में भी यह कला प्रयुक्त होती है और उसका जननेन्द्रिय के गुह्य क्रियाकलापों से भी संबंध है, इसलिये उसे गोपनीय गिन लिया जाता है और उसकी चर्चा अश्लील मानी जाती है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं।
 9-अश्लील कोई अवयव या कोई क्रियाकलाप नहीं। प्रजनन को अपने यहाँ एक धर्म कृत्य माना गया है। सोलह संस्कारों में गर्भाधान भी एक संस्कार है। जिसकी पृष्ठभूमि धर्मकृत्यों के देवता और गुरुजनों के आशीर्वाद के साथ विनिर्मित की जाती है। भगवान् शिव का प्रतीक विग्रह जननेन्द्रिय के रूप में ही है, जिसे धर्मभावना और श्रद्धा के साथ पूजा जाता है। निन्दनीय वह प्रक्रिया ही हो सकती है, जिसके द्वारा पशुप्रवृत्ति को भड़काने में सहायता मिले। शंकराचार्य ने भारती के प्रश्नों को यह कहकर टाला नहीं कि हम संन्यासी हैं, हमें 'कामविद्या' के संदर्भ में कुछ जानना या बताना क्या आवश्यक है? वे जानते थे कि योग परा और अपराविद्या के सम्मिश्रण का नाम है। परा अर्थात् ब्रह्मविद्या ज्ञान-विद्या अपरा अर्थात् शक्तिविद्या आत्मवेत्ता को दोनों ही जाननी चाहिए। 

 10-जो शक्ति है, उसके सदुपयोग-दुरुपयोग की जानकारी होना भी आवश्यक है। शरीर के क्रिया-कलाप और मन के उल्लास, जिस सूक्ष्म शक्ति से प्रेरित, प्रोत्साहित और कर्म प्रवृत्त होते हैं, उस कुण्डलिनी शक्ति को उपेक्षा में नहीं डाला जा सकता। इस उपेक्षा से विकृतियाँ उत्पन्न होने और सदुपयोग की अनभिज्ञता से अहित ही हो सकता है। इसलिए गृहस्थ, ब्रह्मचारी सभी के लिए उसे जानना आवश्यक है।मस्तिष्क के मध्य ब्रह्मरंध्र में 'ज्ञानबीज' और जननेन्द्रिय मूल में 'कामबीज' स्थित हैं। कामबीज को नारी की 'योनि' की संज्ञा दी जाती है और ज्ञानबीज को 'शिश्न' की। यह मात्र आकर्षक कल्पना ही नहीं;  इसमें वैज्ञानिक तथ्य भी हैं।   उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की तरह यह दो अत्यंत सामर्थ्यवान् प्रचण्ड क्षमताओं से परिपूर्ण दो शक्ति-संस्थान विद्यमान हैं। मस्तिष्क का सदुपयोग जानने और करने वाले व्यक्ति जिस प्रकार भौतिक और आत्मिक प्रगति कर सकते हैं, उसी प्रकार कामशक्ति कुंडलिनी का सदुपयोग करके भी जीवन के हर क्षेत्र में उत्साह और उल्लास विकसित किया जा सकता है। न केवल शरीर और मन के विकास के लिए, न केवल भौतिक सफलताएँ, समर्थताएँ प्राप्त करने के लिए, वरन् आत्मिक और भावनात्मक प्रगति के लिए इस शक्ति की प्रक्रिया का ज्ञान एवं अनुभव होना आवश्यक है।  

 11-अध्यात्म शास्त्रों में कुण्डलिनी के संबंध में बहुत कुछ बताया गया है।योग राजोपनिषद केअनुसारअपान स्थल मूलाधार में कंद है। उसे कामरूप-कामबीज कहते हैं। उसे ही वह्नि कुण्ड अथवा कुण्डलिनी तत्त्व कहते हैं। वायु पुराण केअनुसार जीव ने ब्रह्म से कहा। आप बीज हैं, मैं योनि हूँ। यह क्रम सनातन है । कुंडलिनी स्थान पर अधोलिंग का, शिखा स्थान पर पश्चिम लिंग का और भृकुटियों के मध्य ज्योतिर्लिंग का ध्यान करना चाहिए। प्रकृति का प्रतिनिधित्व करने वाला केन्द्र है— जननेन्द्रिय मूल—कुण्डलिनी चक्र। और पुरुष का मनुष्य शरीर से मस्तिष्क के मध्य ब्रह्मरन्ध्र—सहस्रार चक्र में अवस्थित है। जब तक दोनों का मिलन नहीं होता, बिजली की दो धा राएँ-पृथक-पृथक रहने की तरह मानव जीवन में भी सब कुछ सूना रहता है। पर जब इन दोनों शक्ति केन्द्रों का परस्पर संबंध-समन्वय-सहचर्य आरंभ हो जाता है तो ग्रीष्म और शीत के मिलने पर आने वाले बसन्त की तरह जीवन उद्यान भी पुष्प-पल्लवों से भर जाता है। इसी प्रयत्न के किए जाने वाले प्रयोग को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। 

 12-शंकराचार्य के ज्ञान और अनुभव में यही कमी देखकर भारती ने उनकी साधना-अपूर्णता को चुनौती दी थी और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा था। काम केन्द्र में स्फुरणा बड़ी सरस और कोमल है। समस्त कलाएँ और प्रतिभाएँ वहीं पर केन्द्रीभूत हैं। जो लोग उस सामर्थ्य को मैथुन प्रयोजन के तुच्छ क्रीड़ा -कल्लोल में खर्च करते रहते हैं, वे उन दिव्य विभूतियों से वंचित रह जाते हैं जो इस कामशक्ति को सृजनात्मक दिशा में मोड़कर उपलब्ध की जा सकती हैं। आत्मविद्या के ज्ञाता इस कामशक्ति को न तो हेय मानते हैं और न तिरस्कृत करते हैं, वरन् उसके स्वरूप, उपयोग को समझने और सृजनात्मक प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करने के लिए सचेष्ट होते हैं।ब्रह्म को शिव और प्रकृति को शक्ति कहते हैं। इन दोनों के मिलन का अतीव सुखद परिणाम होता है। ब्रह्मरन्ध्र में अवस्थित और ज्ञानबीज और जननेन्द्रिय मूल में सन्निहित कामबीज का मिलन भी जब संभव हो जाता है, तो बाह्य और आन्तरिक जीवन में आनन्द, उल्लास का ठिकाना नहीं रहता है। 

 13-ब्रह्मानन्द की तुलना मोटे अर्थ में विषयानन्द से की जाती रही है। यह अन्ततः शक्तियों का मिलन भी अलंकारिक भाषा में ब्रह्ममैथुन कहा जाता है। कुण्डलिनी-साधना की जब प्राप्ति होती है तो इस स्तर का आनन्द भी साधक को सहज ही मिलने लगता है।योगिनी तंत्र के अनुसार ''हे पार्वती, सहस्रकमल में जो कुल और कुण्डलिनी—महासर्प और महासर्पिणी का मिलन है। उसी को यतियों ने परम मैथुन कहा है। तंत्र सार के अनुसार आत्मा को परब्रह्म के साथ प्रगाढ़ आलिंगन में आबद्ध करके परम रस में निमग्न रहना ..यही यतियों का मैथुन है ; कामसेवन नहीं। इड़ा, सुषुम्ना और जीवात्मा संगम इसे मैथुन सुख कहते हैं। शंकराचार्यकृत सौंदर्यलहरी में कुण्डलिनीशक्ति को रूपवती युवती के रूप में चित्रित किया गया है और उसके ब्रह्ममिलन को काम-कल्लोल, मैथुन की भाषा में चित्रित किया गया है।सन्त कबीर की 'उलटा बासियों” में इसी प्रकार का प्रयोग है। उन्होंने जीवात्मा को प्रेमिका और परमात्मा को प्रेमी के रूप में चित्रित किया है।  

 14-त्रिपुरोपनिषद  के अनुसार उसका अंकुश मधु की तरह अत्यंत मधुर है। क्रूर भी उस पाश में बँध जाते हैं। पाँच बाणों वाले काम-धनुष में वह अरुणा सबको अपनी मुट्ठी में रखती है।''कुण्डलिनी विद्या को इसीलिये भुक्ति और मुक्ति उभयसंपदाएँ प्रदान करने वाली कहा गया है। वह दीप्तिमान देवी सौम्या, भोगिनी, भोगशायिनी, त्रैलोक्य सुंदरी, रम्य, सौम्यरूपा और कामचारिणी है।सौंदर्य लहरी'' के कतिपय श्लोकों में कुण्डलिनी के कामबीज की महत्ता और उसकी उपलब्धियों की ओर संकेत किया है।नीचे उनमें से कई श्लोक इसलिए दिए जा रहे हैं कि आत्मसाधना के पथ पर चलने वाले पथिक यह समझ सकें कि अपने अन्तरंग में भरी हुई क्षमता का श्रेष्ठतम लाभ कैसे उठाया जा सकता है। कामबीज का भोंड़ा लाभ तो पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी उठाते हैं। पर यदि उसका विशिष्ठ उपयोग संभव हो सके, तो उससे असंख्य गुनी आनन्द, उल्लास भरी उपलब्धियाँ प्रा प्त की जा सकती हैं। कुण्डलिनी जागरण से जहाँ ब्रह्मानंद की हिलोरें अन्तःकरण को विभोर करती हैं वहाँ उनमें यह क्षमता भी है कि शारीरिक आनंद को न केवल उत्साहवर्धक बना सकें, वरन् उपयोगी भी बना सकें। ऐसे हास-विलास शरीरों की जितनी क्षति करते हैं, उससे अनेक गुनी उपलब्धियाँ भी लाकर रख देते हैं। इस प्रकार उस शक्ति का भौतिक उपयोग भी उतना ही आनंदमय, उत्साहवर्धक और लाभदायक बन जाता है, जिससे गृहस्थ और ब्रह्मचर्य का समन्वित लाभ प्राप्त किया जा सके। 

15-सौंदर्य लहरी मंत्रोचारण अनुष्ठान में भाग लेने से आपको निम्नलिखित लाभ प्राप्त हो सकते हैं:-
1-समस्त मनोकामनाओं व इच्छाओं की पूर्ति होती है|

2-आपको उत्तम स्वास्थ्य, धन, ज्ञान व समृद्धि की प्राप्ति होती है|

3-संतान सुख व दीर्घायु प्राप्त होती है|

4-संपूर्ण शक्ति, बल व विजय की प्राप्ति होती है|

5-किसी को भी आकर्षित करने व शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की शक्ति मिलती है|

6-रोगों से मुक्ति व सुरक्षा प्राप्त होती है|

7-बुरे जादू व भय का नाश होता है|

8-परम शक्ति व आनंद प्राप्त होता है|

 

सौंदर्य लहरी के विशेष श्लोक  ;-

 सौंदर्य लहरी में इसी तथ्य का प्रतिपादन करने वाली कुछ भगवान् शंकराचार्य की अनुभूतियाँ है, जो समझने योग्य हैं —उनमें से कुछ नीचे देखिये।

1-श्लोक भावार्थ- ''जो स्तन मुख की तरह गोल तथा एक मुख वाला है। उसके नीचे तीन गुहा सदृश घर बने हुए हैं। ऐसी कामकला का कोई कामी मनुष्य उपभोग करता है तो उसकी कामनापूर्ण होती है और वह स्वयं कामरूप हो जाता है।  

2-श्लोक भावार्थ - ''बल खाती हुई कटी, भ्रमरी जैसी चंचलता; अलकावलि से आच्छादित मुख, कमल पुष्पों जैसा परिहास; स्फटिक जैसे दाँतों से युक्त हे देवि, तेरी मुस्कराहट के समय निकलने वाली सुगंध से कामदहन करने वाले शिवजी भी भ्रमर की तरह उन्मत्त हो जाते हैं।'' संकेत—मन को सिकोड़कर बैठे हुए, निष्क्रिय, निराश और नीरस लोग भी कुण्डलिनी की स्फुरणा प्राप्त करके इठलाते हुए, भ्रमरी जैसे सक्रिय अलका वलि जैसे स्निग्ध, शोभित, बढ़ चलने वाले, हँसमुख स्वभाव और अपनी वाणी से सर्वत्र सुगंध फैलाने वाले बन जाते हैं और निष्क्रिय लोगों को भी आशा और स्फूर्ति की उमंग से उन्मत्त कर देते हैं।

3-श्लोक भावार्थ-''तेरे विशाल नेत्र कानों तक जा पहुँचे हैं और दो पलकों को पंखों की तरह धारण किये हुए हैं। यह कान तक तने हुए कामदेव के पुष्पबाण शिवजी के चित्त को भी अशांत कर देते हैं। संकेत—कुण्डलिनी-साधक का दृष्टिकोण विशाल, परिष्कृत और दूरदर्शी हो जाता है। 

4-श्लोक भावार्थ-''विशाल नेत्र अर्थात् विशाल हृदय एवं विशाल दृष्टिकोण का विस्तार।उन पर मर्यादा और लोकहित के दो बंधन अर्थात् पलक पंख। 'इस आंतरिक सुसंपन्नता से समर्थ बना हुआ साधक अपने प्रतिपादन पर भगवान का भी सिंहासन हिला सकता है। और ईश्वर की भी निष्क्रियता को उसी तरह क्रियाशील बना देता है जैसा कि कामदेव ने शिवजी के चित्त को भी अशांत कर दिया था।पूर्वकाल में विष्णु ने तुम्हारी आराधना करके मोहिनी रूप पाया और शिवजी के मन में भी काम विकार उत्पन्न कर दिया। कामदेव भी तुम्हारी ही आराधना से अपनी पत्नी का नयनाभिराम बना हुआ है और बड़े-बड़े मुनियों के मन में भी क्षोभ उत्पन्न करता रहता है।

संकेत -मोहिनी वह जो दूसरों को मोहित कर ले, पर स्वयं मोहित न हो। योग साधना से मनुष्य में वे सद्गुण विकसित होते हैं, जिनके कारण दूसरे सभी लोग उससे प्रभावित एवं आकर्षित होते हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण हो जाने पर मनुष्य स्वभावतः सम्मान और श्रद्धा का केन्द्र बन जाता है, यही व्यक्ति का मोहिनी रूप है। इस सफलता को पाने के साथ-साथ आत्मवेत्ता स्वयं किसी पर मोहित नहीं होता। न व्यक्ति न पदार्थ दोनों में उसे आकर्षण नहीं होता। वह तो अपनी आत्मा पर ही मोहित रहता है, इसलिए उसका प्यार कर्त्तव्य एवं आदर्श की परिधि में सीमाबद्ध हो जाता है। ऐसी मोहिनीवृति कुण्डलिनी साधना के प्रभाव से उपलब्ध होती है। कुण्डलिनी जागरण के साथ−साथ कामवृति का भी परिष्कार होता है। बहिर्मुखी लोगों के मन में उससे काम-क्षोभ भी उत्पन्न हो सकता है और बढ़ सकता है। पर विज्ञसाधक उसे रचनात्मक प्रयोजन में मोड़कर जीवन को अधिक सरस एवं उल्लसित बना लेते हैं।  

5-श्लोक भावार्थ- ''कामदेव पुष्पों का धनुष, भ्रमरी की रस्सी, पाँच विषयों के बाण, वसंत रूपी सेनापति, मलयगंधरूप रथ में बैठकर -शरीर न रहते हुए भी सारे जगत को अकेला जीत लेता है। उस कामदेव को यह सामर्थ्य तुम्हारी कृपा से ही प्राप्त होती है''। 

संकेत ;-कुण्डलिनी का केंद्र जननेंद्रिनेंय मूल में रहने से कामप्रवृत्ति का प्रदीप्त होना स्वाभाविक है। यह प्रवृत्ति इच्छा और क्रिया दोनों का सृजन करती है। मस्तक में उपस्थित ज्ञानकेन्द्र के निर्णयों को आकांक्षा एवं क्रिया के रूप में बदल देना इसी शक्ति का कार्य है। कामप्रवृत्ति मनुष्य का मन, शरीर और स्वभाव सभी प्रफुल्लित, आशान्वित एवं स्फूर्तिवान रहते हैं। इसका सदुपयोग होने से व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से कामदेव सरीखा आकर्षक हो जाता है। पुष्पों की तरह हँसता, मुस्कुराता मुख, भ्रमर जैसी दिव्य रसिकता, पाँचों ज्ञानेन्द्रिय  का निग्रह, मलयगंध जैसी प्रवृत्ति से सम्पन्न होने वाला व्यक्ति अकेला ही संसार को प्रभावित कर सकता है। कामप्रवृत्ति के सदुपयोग का यही स्वाभाविक परिणाम है। कुण्डलिनीशक्ति की कृपा से यह उपलब्धियाँ सहज ही संभव हो जाती हैं।  

 6-श्लोक भावार्थ-''वृद्ध, कुरूप, क्रीड़ा से अनभिज्ञ जड़ मनुष्य भी तुम्हारी दृष्टि पड़ने पर इतना कमनीय और रमणीय हो जाता है कि अनेक युवतियाँ उसके पीछे असंयमी होकर अस्त-व्यस्त की तरह भागने लगती हैं'' ।  

संकेत ;-मानसिक दृष्टि से निराश को वृद्ध, दुर्गुणी को कुरूप और नीरस, कर्कश स्वभाव वाले को मूढ़ कहते हैं। ऐसा व्यक्ति भी कुण्डलिनी साधना से सहृदय, सज्जन, सद्गु णी और सरस बनकर एक प्रकार से अपना आंतरिक कायाकल्प ही कर डालता है। 7-श्लोक भावार्थ - ''ऋद्धि और सिद्धियाँ उसके पीछे ऐसे ही भागती हैं, जैसे कुलटा नारियाँ किसी रूप,  सौंदर्य सम्पन्न आकर्षक स्वभाव वाले कामुक युवक के पीछे बिना बुलाए ही फिरने लगती हैं''।

संकेत ;-महाशक्ति की साधना से उत्पन्न आकर्षण प्राण- प्रवाह (काम) के प्रभाव से अनेक सत्प्रवृत्तियाँ और सफलताएँ आकर्षित होने लगती हैं। जैसे खिले हुए फूल पर तितलियाँ और मधुमक्खियाँ मंडराती हैं वैसे ही उस साधक को विभूतियों का दुलार और सहयोग अनायास ही सब ओर से प्राप्त होता है। यह प्रकृति भी अनुकूल हो जाती है और परिस्थितियाँ उसके इशारे पर नाचती, बदलती, सँभलती रहती हैं।   

 8-श्लोक भावार्थ तेरी काम कला के प्रभाव से मनुष्य के लिए स्त्रियों के मन में तु्रंत क्षोभ उत्पन्न कर देना बाँये हाथ का खेल होता है। सच तो यह है कि तेरी साधना करने वाला इन सूर्य-चन्द्ररूपी दो स्तनों वाली प्रकृति-तरुणी को भी अपने इशारे पर नचा सकता है। 

9-श्लोक भावार्थ तुम्हारी ही दी हुई वाक् शक्ति से तुम्हारी ही स्तुति करना, सूर्य को दीपक दिखाना, ओस से चन्द्रमा को अर्घ चढ़ाने अथवा समुद्र के ही जल-कणों से महासागर करने जैसा ही बाल-प्रयास है। 

संकेत ;-मनुष्य के पास जो कुछ है सो सारा वैभव इस कुण्डलिनी नाम से संबोधित पराशक्ति का ही है। तुम्हारी दी हुई वाणी, काया, चेतना तथा सामग्री से ही तुम्हारा स्तवन वंदन कैसे हो ? इसका विकल्प यही है कि साधक अपना आत्मसमर्पण इस सत्ता के चरणों में करके उसी के दिव्य संकेतों के अनुरूप दिव्य जीवन जीने के लिए कदम बढ़ाए और सच्ची साधना करने वाले सच्चे साधक को लोक-परलोक में आनन्द-उल्लास भरा रखने वाली परम गति को प्राप्त करे।  

10-श्लोक भावार्थ -''तेरे स्तनों से बहने वाले ज्ञानामृतरुपी पयपान करके यह द्रविण शिशु (शंकराचार्य) प्रौढ़ कवियों जैसी कमनीय कविताएँ रच सकने में समर्थ हो गया''। 

 संकेत; -

श्री आद्य शंकराचार्य अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं कि मैं तुच्छ-सा द्रविड़वंश का बालक कुण्डलिनी माता का ज्ञानामृतरूपी पयपान करने के कारण इतना समर्थ हो गया कि बचपन में ही प्रौढ़कवियों जैसा साहित्यसृजन करने लगा। ऐसा ही मेधा- प्रगति का लाभ दूसरे श्रद्धावान साधक भी उठा सकते हैं। एक गाथा यह प्रचलित है कि एक बार शंकराचार्य के पिताजी कहीं प्रवास में गए और अपनी अनुपस्थिति में अपनी पत्नी को भगवती के विग्रह की पूजा करते रहने का निर्देश कर गए। इसी बीच एक दिन शंकराचार्य की माताजी पूजा न कर सकीं, कीं तो उन्होंने बालक को दूध लेकर भगवती का भोग लगाने भेजा। भोग लगाया पर दूध ज्यों का त्यों रखा रहा। तब बालक ने रोकर पीने की प्रार्थना की। भगवती ने उसे पी लिया। अब बालक को और व्यथा हुई। भोग से बचा दूध उन्हें मिलता था, वह तो भगवती पी गई, उसे खाली हाथ रहना पड़ा। दूध न मिलने के कारण रोते हुए शंकराचार्य को भगवती ने छाती से लगा लिया और उसे स्तन पान कराया। इसे पीते ही वे प्रचंड विद्वान और प्रखर कवि हो गए और अद्भुत रचनाएँ करने लगे। इसी घटना का संकेत सौंदर्य लहरी के श्लोक 75 में मिलता है।श्री शंकराचार्य की भावविभोरता देखते ही बनती है। महाशक्ति के अनुग्रह से वे जिस प्रकार कृतकृत्य हुए और उन्होंनेन्हों उसकी महान संभावनाओं तथा अनुकंपाओं का स्वरूप समझा, उसे देखते हुए यह भावविभोरता उचित भी है।   

 श्री आद्य शंकराचार्य के कुण्डलिनी अनुभव -  

11-श्लोक भावार्थ—मैं अपनी छहों इन्द्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ छठा मन) इन छहों पैरों से—षट् पद भ्रमर की तरह तुम्हारे पतितों को उबारने वाले चरणकमलों का मकरंदपान करता रहूँ। 

 संकेत; -

श्री आद्य शंकराचार्य कुण्डलिनी शक्ति की महान उपलब्धियों का रसास्वादन करते हुए आनन्दविभोर होकर एकमात्र यही का मना करते हैं कि उस महासत्ता पद पद्मों का षट् पद—'भौंरे ' की तरह मकरन्दपान करते रहें। षट्चक्रों की आराधना में निरन्तर संलग्नता का भाव भी 'षट्पद' शब्द में है। इस मार्ग पर चलने वाले हर साधक को उपलब्ध आनन्द की अनुभूति करते हुए ऐसी ही आकांक्षा उमड़ती है।  

12-श्लोक भावार्थ—मैं अपनी छहों इन्द्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ छठा मन) इन छहों पैरों से—षट् पद भ्रमर की तरह तुम्हारे पतितों को उबारने वाले चरणकमलों का मकरंदपान करता रहूँ। 

 संकेत; -

श्री आद्य शंकराचार्य कुण्डलिनी शक्ति की महान उपलब्धियों का रसास्वादन करते हुए आनन्दविभोर होकर एकमात्र यही कामना करते हैं कि उस महासत्ता पद पद्मों का षट् पद—'भौंरे ' की तरह मकरन्दपान करते रहें। षट्चक्रों की आराधना में निरन्तर संलग्नता का भाव भी 'षट्पद' शब्द में है। इस मा र्ग पर चलने वाले हर साधक को उपलब्ध आनन्द की अनुभूति करते हुए ऐसी ही आकांक्षा उमड़ती है। 

 13-श्लोक भावार्थ—हे माँ ! मेरे सभी वाक्य जप हों,  हाथों की सभी क्रियाएँ मुद्रा हों, हर कदम प्रदक्षिणा हों,  आहार के ग्रास आहुतियाँ हों, मेरे प्रणाम तुम में तादात्म्य हों, मेरे सभी सुख तुम्हारी अखिल आत्मा में समर्पित हों, हों मैं जो कुछ भी करूँ सो सभी तुम्हारी पूजा में गिने जाएँ। 

 संकेत; -

कुण्डलिनी शक्ति से उपलब्ध आत्मिक शक्ति एवं उत्कृष्ट विचारणा के आधार पर साधक की विचारणा तथा क्रिया देवोपम हो जाती है और उसके द्वारा सोचा गया प्रत्येक विचार, कार्य भगवान की आराधना जैसा ही मंगलमय होता है। मनुष्य शरीर में देवत्व का उदय करने में कुण्डलिनी शक्ति का अनुपम योगदान मिलता है। श्री शंकराचार्य ने बहुत कुछ पा लेने के बाद अंतिम रूप में यह माँगा है कि वे सर्वतोभावेन महाशक्ति में ही लीन हो जाएँ।संयम ही समस्त सिद्धियों का आधार है और संयम की प्रथम सीढ़ी है-वाचोगुप्ति अर्थात् 'वाणी का संयम'।  

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 ''सौंदर्य लहरी''के श्लोक 1 से 16 का हिन्दी  अनुवाद;-

शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं
न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि |
अतस्त्वामाराध्यां हरिहरविरिञ्चादिभिरपि
प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृतपुण्यः प्रभवति || 1
शिव को कल्याण का पर्याय ओर आदि देव माना गया है | उनके वाम विभाग ( दाहिने अंग ) मे गिरिजा शक्ति स्वरूपा हदय स्पंदन वत विध्यमान है  |भगवान शिव शक्ति से युक्त हो कर ही समस्त सृष्टि का संचालन करने मे समर्थ हो पाते है | शिव शक्ति पुराक है ....!! शिव संकल्प हे तो शक्ति उसे पूर्ण करने की क्रिया शक्ति | परा शक्ति भगवती त्रिपुरासुंदरी राजराजेश्वरी  ना हो , तो उन मे स्पंदन भी संभव नही | शिव त्र्यंबक कहे जाते है ... शक्तिहीन सृष्टि ,स्थिति , संहार का संतुलन नियमन रखने मे भी अपने आप को सामर्थ्यवान नही पाते |प्रकृति के बिना पुरुष मात्र कल्पना भर है | हे माँ ...जिनके अनेको जन्म जन्मांतर के पुण्य का उदय हुआ हो वही त्रिदेव ब्रम्हा ,विष्णु , महेश द्वारा आराध्य पूजनीय आपकी ‘श्री’ की स्तुति-पूजन-वंदन-आराधन करने का अधिकारी बन आपके श्री चरणो की धूल ( चरणधूलि-चरणों की रज ) प्राप्त कर सकता है |
  संकेत; -

इच्छा – ज्ञान – क्रिया ये तीन प्रकार की शक्ति मानी गयी है |इस त्रिगुणात्मिका शक्तिओ के बिना - हीन होकर स्वयं शिव भी कोई गति या कार्य करने मे समर्थ नही माने जाते |शिवशक्ति को एक दूसरे के पूरक माना गया हे तभी ये एकात्म स्वरूप से सारी लीलाए करने मे समर्थ हो पाते है |” शिव हं वाच्य है और  शक्ति सः वाच्य “ ओर इस दोनों के भिन्न होने से क्रिया संभव ही नही |ये एकाकार हो तभी हं+सः = हंस: मंत्र सिद्ध होता है |जिसे उल्टा करने पर भी .... सोअहं रूप बनता है | ह ऑर स हादिविध्या के प्रथम दो अक्षर हे यही विशुद्ध ‘श्रीविद्या ’ का संकेत करते है | 
तनीयांसं पांसुं तव चरणपङ्केरुहभवं
विरिञ्चिस्सञ्चिन्वन् विरचयति लोकानविकलम् |
बहत्येनं शौरिः कथमपि सहस्रेण शिरसां
हरस्संक्षुद्यैनं भजति भसितोद्धूलनविधिम् ||2
हे माँ ... उद्भव-स्थिति-संहार कारिणी ! आपके अति कोमल कमल समान श्रीचरणो के स्पर्श से दिव्य बनी धूल की रज की कृपा से ब्रम्हा निरंतर सृष्टि के नवसर्जन करने मे रत रहेते है | प्रतिपालक कहे जाते स्वयं विष्णु शेषवतार धारण कर अपने सहस्त्र सिरो से ... आप की श्रीचरण धुली से उत्पन्न समस्त लोक के प्रतिपालन का सामर्थ्य और दायित्व धारण करते है | सर्व संहारक स्वयं रुद्र आप की दिव्य चरण रज को ही अपने सर्वांग भस्म वत धारण कर लेपन करते है | ये त्रिदेव ब्रमहा , विष्णु , महेश तीनों मूर्ति पराशक्ति और आप के ‘श्री’ बीज का आराधन कर कृतकृत्य हो जाते है | आप की करुणा से ही सभी सामर्थ्य से संमपन्न बने रहेते है|
संकेत; -

गति के भी तीन प्रकार माने गए हे मन – वाचा और देह | गति को क्रियात्मक स्वरूप देने मे चरण प्रमुख देह अवयव है | परा शक्ति की अद्भुत गति ‘स्पंदगति ‘ विद्या -अविद्या का रूप धारण करती है |उन्ही की गति ओर विक्षेप से अनंत सूक्ष्म अणु की सृष्टि हो कर उनसे अनंत ब्राम्हांड सूर्य आदि ग्रह , आकाश गंगा ,नक्षत्र आदि नभमण्डल का प्रादुर्भाव होता है |सप्त आकाश – सप्त पाताल मध्य मे भू लोक(मृत्यु लोक या ये प्राणी जगत ) का सर्जन और  उसमे जीव सृष्टि का प्रारंभ होता है | मूल चेतना  और इन्हे प्राण देकर स्पंदित बनाए रखने का सामर्थ्य आप के श्री चरणों की रज मात्र से प्रगट होता है |यही   मूल चेतना का महात्म सर्व विदित है| 
अविद्यानामन्त-स्तिमिर-मिहिरद्वीपनगरी
जडानां चैतन्य-स्तबक-मकरन्द-स्रुतिझरी |
दरिद्राणां चिन्तामणिगुणनिका जन्मजलधौ
निमग्नानां दंष्ट्रा मुररिपु-वराहस्य भवती || 3
सचराचर जगत मे अज्ञान रूपी अंधकार को ज्ञान और बुद्धि स्वरूप से नष्ट करने वाली मणिद्वीप नगरी का प्राग्ट्य आप के श्रीचरणो की धूल की रज से ही प्रगट होता है |अज्ञानियो के लिए आत्मज्ञान रूपी वांछितफल प्रदान करने वाले कल्पवृक्ष के पुनि से निकालने वाला पराग , अर्थहीन दरारीद्र्यो के लिए सकल संपत्ति का स्वामी बननेवाली चिंतामणि ये सभी और अन्य दुर्लभ मानेजाते इच्छित कामनाओ की पूर्ति के साधन आप ही का कृपा प्रसाद है |जैसे भवसागर मे डूबे हुये समस्त जीवो के उद्धार हेतु भगवान विष्णु के वराह स्वरूप के दो दंत ही उभरने का एक मात्र आश्रय है |
  संकेत ;-

विद्या के दो भेद हे - अविद्या और विद्या .. इन्ही  को परा और अपरा कहा जाता है| चतुर्वेद ,छह वेदांग यह समस्त अपरा विद्या है |और  जिस विद्या  से ब्रह्म की प्राप्ति होती है उसे परा विद्या कहा जाता है| इसीलिए केवल वेद या शास्त्रो का ज्ञान रखनेवालो को विद्वान नहीं कहा जा सकता | ज्ञान से उत्पन्न ‘अहम’ का परित्याग कर सहज भाव से विनम्र ब्र्म्ह ज्ञान का जिज्ञासु मुमुक्ष ही परा विद्या  का अधिकारी बनता है | समस्त इच्छित कामनाओ की पूर्ति करनेवाले माने गए सभी उत्तम साधन जैसे कल्पवृक्ष –चिंतामणि या कामधेनु आदि सभी माँ भगवती की ही कृपा प्रसादी है | 
त्वदन्यः पाणिभ्यामभयवरदो दैवतगणः
त्वमेका नैवासि प्रकटितवराभीत्यभिनया |
भयात् त्रातुं दातुं फलमपि च वांचासमधिकं
शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ || 4
समस्त चर अचर जगत का अंतिम आश्रय ओर शरणालय आप के श्री चरण है| हे माँ ... आप के तेज और चेतना से ही सामर्थ्य वान हो कर अन्य समस्त देवगण अभय या वरदमुद्रा प्रदर्शित कर अपने भक्तो को क्रमश: सभी भय से मुक्ति – सर्व संपदाओ से विभूषित होने का संकेत देते है | केवल आप ही हो जो अभयमुद्रा या आवश्यकता पूर्ति की वरद मुद्रा का प्रदर्शन (अभिनय) नही करते हो|क्योकि आप के श्री चरण की रज मात्र भी उतनी सामर्थ्यवान है| जिससे आप के शरणागत या आश्रित भक्त गण की अनेको जन्मजन्मांतर की सभी कामना , जन्म मरण रूप भवसागर से मुक्ति ,समस्त भय - व्याधि – त्रिविधताप का शमन  और वांछित संपदाओ के उपभोग और  मुक्ति की प्राप्ति की मंशा आप के चरण रज से ही परिपूर्ण हो जाती  है |
संकेत;-  

ऐं – रीं – क्लीं...ये त्रिगुणत्मिका के दिव्य बीज मन्त्र माने जाते है | इनहि का आराधन वाग – चित्त और क्रिया का मूल उद्भव स्त्रोत माना गया है | श्री चक्र के मध्य मे त्रिकोण का स्वरूप इन्ही त्रिगुण शक्तिओ (महासरस्वती –वाग ,महालक्ष्मी –चित्त् ,महाकाली –क्रिया ) का निवास माना जाता है | जो सभी इच्छित कामनाओ की पूर्ति – भक्ति ओर अन्तः परम दुर्लभ मुक्ति भी प्रदान करते है | महादेवी की राजोपचार पूजन प्रणाली मे इन्ही त्रिगुणात्मिक दुर्गा का विविध उपचार प्रणाली से अराधन करने का “पात्रासादन “ से महा पूजन का प्रावधान देखा जाता है |अन्य देवी देवतो के आराधन से इच्छित कामना की या मुक्ति दोनो मे से  एक् की ही पूर्ति संभव है|लेकिन केवल भागवती परांबा का श्रीचक्र अराधन  ही भक्तो का कामनाओ की पूर्ति और मुक्ति दोनो प्रदान करता है... जो अति दुर्लभ माना जाता है  | 
हरिस्त्वामाराध्य प्रणतजनसौभाग्यजननी
नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभमनयत् |
स्मरोऽपि त्वां नत्वा रतिनयनलेह्येन वपुषा
मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम् || 5
आपका आराधन करनेवाले समस्त शरणागत भक्तो को सर्व सौभाग्य प्रदान करने वाली माँ .... समुद्र मंथन से उत्पन्न अमृत की प्राप्ति के विवाद का शमन करने हेतु स्वयं विष्णु ने आप का ही आराधन किया था और नारी का मोहिनी रूप धारण कर त्रिपुरसुर का वध करनेवाले भगवन शिव के मन मे भी क्षोभ उत्पन्न किया था | आप के काम बीज ‘क्लीं’ का अराधन कर के ही स्वयं काम देव स्वयं के सुखो का त्याग कर अपनी पत्नी रति के अधरो से चुंबित सुंदरतम देह से ग्र्विष्ठ होकर बड़े बड़े ज्ञानी ध्यानिओ की तपस्या मे उनके अन्तः करण मे संसार के प्रति मोह और कामासक्ति उत्पन्न करने की शक्ति प्राप्त करते हे |
 संकेत;-  

प्रजनन के देवता कामदेव ने कादिका बीज ‘क्लीं’की उपासना की थी |कामदेव अपने आराधन से इतने समर्थ हो गए के सभी देव और ऋषिगण को मोहित और  देह के प्रति आकर्षित कर जनित क्रियाओ मे रत रहने का चित्तभ्रम स्थापित करते है |माया   बीज ‘रीं’ और काम बीज’ ‘क्लीं’ के योग से ही 'हलीं ब्लें' इस परम साध्य मंत्र का उद्धार है| यही सौभाग्य ,संतति और अन्य नानाविध इच्छाओ की पूर्ति करता है | 
धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पञ्च विशिखाः
वसन्तः सामन्तो मलयमरुदायोधनरथः |
तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपि कृपां
अपांगात्ते लब्ध्वा जगदिद-मनङ्गो विजयते || 6 
हे हिमगिरिसु ते .... कामदेव का धनुष पुष्पो से बना हुआ है और प्रत्यंचा ( डोरी ) मधुर गुंजन करते भ्रमरो से गूँथी गयी है | पाँच विषय – रस , रूप ,गंध ,शब्द ,स्पर्श उनके पाँच तीर (काम बाण) है जो सुवासित पुष्पो के बने माने गए है |बसंत ऋतु उनका मंत्री और उनका रथ माल्यागीरी का मंदगति से चलने वाला , अति सुगंधित वायु है |और  वे स्वयं अनंग ( शिवजी ने देह को भस्म कर दिया था तभी शरीर या देह रहित ) है| फिर भी  वो इस परम दिव्य शस्त्रो को लेकर समस्त जगत को अकेला ही जीत लेता है |उस पर आप के आराधन के फल स्वरूप आपकी अनिर्वचनीय किंचित कृपा का ही ये फल है कि वो सर्वत्र विजयी होता है|
 संकेत;- काम से ककार , मलय से लकार ,मौर्वी से ई , और पुष्प से अनुस्वार लेकर कलीं का उच्चारण किया जाता है | कामभाव को साधना समाधि के लिए बड़ा विज्ञ माना जाता है |जो स्वयं शिव की समाधि मे भी विक्षेप कर सके उसकी प्रबलता सर्वविदित है |काम का क्षय विशुद्ध ब्रम्हज्ञान के उदय से ही संभव होता है | समान्यतः साधक को कामभाव से ग्रसित कर आराधन से दूर करने की मंशा काम मे देखी जाती है |इसीलिए सभी मुमुक्षो को भगवती परा का शरण लेना अनिवार्य माना जाता है  ... माँ की कृपा और उन्ही  के श्रीचरण का निरंतर ध्यान करने से काम का प्रभाव बलहीन होता देखा जाता है |  
क्वणत्काञ्चीदामा करिकलभकुम्भस्तननता
परिक्षीणा मध्ये परिणतशरच्चन्द्रवदना |
धनुर्बाणान् पाशं सृणिमपि दधाना करतलैः
पुरस्तादास्तां नः पुरमथितुराहोपुरुषिका || 7
अपनी कटि प्रदेश ( कमर ) मे ‘कल-कल’ ध्वनि करने वाले घुंघरूओ से यूक्त मेखला धारण किए हुई ;हाथी के बच्चे के मस्तक पर स्थित कुंभो ( घड़ा ) के समान स्तनो के भार से थोड़ी  झुककर खड़ी हुई , अत्यंत पतले कटि प्रदेश वाली , शरदृ ऋतु के पुर्णिमा के चंद्र के समान मुखवाली , हाथो मे ईख से बना हुआ धनुष ,विषय रूपी पाँच पुष्पबाण , राग रूपीपाश एवम क्रोध रूपी अंकुश इत्यादि धारण करने वाली तथा जाग्रत ,स्वप्न और  सुसुप्ति रूपी त्रिपुर का संहार करनेवाले परम शिव के अहंकार स्वरूपिणी वह परम दिव्य परा शक्ति हमारे सामने ( ध्यान मे ) बिराजित रहे |
 संकेत;- 

बाण से ब ,करतल से ल ,मथितु: से उ ओर आस्ता से अनुस्वार लेकर ‘ब्लुं’ बीज का ग्रहण किया जाता है | “रीं ब्लुं” इस बीज का जप आरधक को देवी का सायुज्य सुलभ् कराता है |
सुधासिन्धोर्मध्ये सुरविटपिवाटीपरिवृते
मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणिगृहे |
शिवाकारे मञ्चे परमशिवपर्यङ्कनिलयां
भजन्ति त्वां धन्याः कतिचन चिदानन्दलहरीम् ||8
अमृत समुद्र के मध्य मे , सभी मनोरथों को पूर्ण करनेवाले कल्पवृक्षो की वाटिकाओ से घिरे हुये ,मणियो के द्वीप (पर्वत) मे ; नीप (कदंब) वृक्षो के उपवन के मध्य चिंतामणियो से निर्मित भुवन मे ;परममंगलरूपी रत्नजड़ित त्रिकोणाकृति मंच पर , परम शिव की गोद मे बिराजमान चिदानंद लहरी स्वरूप आप का ध्यान कोई विरल अनेक जन्मो के पुण्य से पुलकित जन ही कर सकता है | वे धन्य  है|भगवती के भजन अराधन से चिदानंद की दिव्य तरंगो की जो अनुभूति होती  है|ऐसे साधक अराधक अल्प ही होते है  |जिन पर भगवती की ऐसी  कृपा हो ..वे ही अपने अराधन मे सफल हुये माने जाते है |
 संकेत;-  

शिवजी की गोद मे शक्ति को देखना.. ये कोई प्रणय मुद्रा ना समझ  कर शिवशक्ति का  एकात्म भाव देखना ही उचित माना जायेगा| 
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि |
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे ||9
मूलाधार चक्र मे पृथ्वी तत्व को ,एवं जल को भी मूलाधार चक्र मे ही ,मणिपुर चक्र मे अग्नि तत्व को जिसकी स्थिति स्वाधिष्ठान चक्र मे है |हदय स्थित अनाहत चक्र मे वायु तत्व को ,और उसके ऊपर विशुद्धि चक्र मे आकाश तत्व को और भौहों के ( भ्रमर) मध्य आज्ञा चक्र मे मन तत्व को |इस प्रकार सकल कुल पथ ( शक्ति के मार्ग ) सुषुम्ना मार्ग के द्वारा सभी चक्रो का भेदन कर के सहस्त्रदल वाले कमल मे अपने पति शिव से युक्त होकर विहार करती है|भेदन के समय शक्ति की गति मूलाधार से सहस्त्रार की ओर होती है |सहस्त्रार से नीचे उतरते समय वह नाड़ीयों को अमृत से सींचती हुई मूलाधार की ओर लौटती है |
 संकेत;-  

पिछले श्लोक मे कुंडलिनी को जाग्रत होकर मूलाधार से सहस्त्रार यात्रा की अत्रेय भूमिका के दिव्य वर्ण  के बाद इस श्लोक मे कुंडलिनी की प्रत्यावृत्त -भूमिका का वर्णन है |कु अर्थात पृथ्वी तत्व जहाँ लीन होता है उसे कुल कहते है ,वही आधार चक्र है |लक्षणा करने से सुषुम्णा मार्ग ही कुल है... यह सिद्धांत होता है |यही कौलमत का रहस्य भी है |सुषुम्णा के मूल मे कमल कनदाकार छिद्र मे विहारने वाली ही कुंडलिनी शक्ति है और वही परम दिव्य “श्री विद्या'' है |
चतुर्भिः श्रीकण्ठैः शिवयुवतिभिः पञ्चभिरपि
प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपि मूलप्रकृतिभिः |
चतुश्चत्वारिंशद्वसुदलकलाश्रत्रिवलय
त्रिरेखाभिः सार्धं तव शरणकोणाः परिणताः || 10
चार शिव चक्र ,उनसे भिन्न पाँच शिव युवतिया (शक्तिचक्र ) तथा प्रपंच के मूल कारण नौ तत्व से युक्त आपका निवास स्थान तिरलिस कणो का बना हुआ है |जो शंभु के बिन्दु स्थान से भिन्न है|वह अष्टदल , सोलहदल , तीन रेखाओ एवम तीन वृत्तो से युक्त है |
 संकेत;- ..!! सहस्त्रार चक्र मे रक्खे हुये आपके श्री चरणो के मध्य मे से जरनेवाली अमृत धाराओ की वर्षा से पञ्चमहाभूतो से रचित शरीर की समस्त नाड़िया ( प्रपंच ) को सींचती हुई अपने मूल स्थान मूलाधार को लौटकर अपना रूप सर्प के समान मंडलाकार मे परिवर्तित कर ( साढ़े तीन कुंडल ) डाल कर छोटे छिद्र वाले कुहर (गुफा) मे सोती है|सहस्त्रार से नीचे मूलाधार को उतारने को अन्वय भूमिका कहते है |
 संकेत;- 

पिछले श्लोक मे कुंडलिनी को जाग्रत होकर मूलाधार से सहस्त्रार यात्रा की अत्रेय भूमिका के दिव्य वर्ण  के बाद इस श्लोक मे कुंडलिनी की प्रत्यावृत्त -भूमिका का वर्णन है |कु अर्थात पृथ्वी तत्व जहाँ लीन होता है उसे कुल कहते है ,वही आधार चक्र है |लक्षणा करने से सुषुम्णा मार्ग ही कुल है... यह सिद्धांत होता है |यही कौलमत का रहस्य भी है |सुषुम्णा के मूल मे कमल कनदाकार छिद्र मे विहारने वाली ही कुंडलिनी शक्ति है और वही परम दिव्य “श्री विद्या'' है |
चतुर्भिः श्रीकण्ठैः शिवयुवतिभिः पञ्चभिरपि
प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपि मूलप्रकृतिभिः |
चतुश्चत्वारिंशद्वसुदलकलाश्रत्रिवलय
त्रिरेखाभिः सार्धं तव शरणकोणाः परिणताः |11 
चार शिव चक्र ,उनसे भिन्न पाँच शिव युवतिया (शक्तिचक्र ) तथा प्रपंच के मूल कारण नौ तत्व से युक्त आपका निवास स्थान तिरलिस कणो का बना हुआ है |जो शंभु के बिन्दु स्थान से भिन्न है|वह अष्टदल , सोलहदल , तीन रेखाओ एवम तीन वृत्तो से युक्त है |
 संकेत;- 

अति गुप्त श्रीचक्र ब्र्महांड ओर पिंड दोनों का प्रतिनिधित्व होता है |इसकी रचना चार शिव त्रिकोण और पाँच शक्तित्रिकोण के योग से होती है|शिव ओर शक्ति त्रिकोणो का मुख एक दूसरे से विपरीत होता है| श्रीयंत्र का लेखन दो प्रकार से होता है १- सृष्टिक्रम २- संहारक्रम|कौलाचार मे संहारक्रम होता है और समयाचार मे सृष्टिक्रम |यहाँ अभिप्राय ये है कि श्रीचक्र के मध्य मे ऊर्ध्व और  अधो त्रिकोण का स्वरूप शिवशक्ति का ही निरूपण है | 

त्वदीयं सौन्दर्यं तुहिनगिरिकन्ये तुलयितुं
कवीन्द्राः कल्पन्ते कथमपि विरिञ्चिप्रभृतयः |
यदालोकौत्सुक्यादमरललना यान्ति मनसा
तपोभिर्दुष्प्रापामपि गिरिशसायुज्यपदवीम् || 12
हे हिमवान की कन्या ... आप के सौंदर्य की उपमा देने के प्रयत्न मे ब्र्म्हाप्रभूति कविश्रेष्ठ इत्यादि कुछ-कुछ कल्पना किया करते  है ,परंतु वे भी पूर्णतः सफल नहीं है |उस सौंदर्य की इच्छा (उत्सुकता) से स्वर्ग की अप्सराये भी ध्यानस्थ हो जाती है और परम शिव के नयनों के मध्य मे उनका दर्शन करने के लिए अनेकों कठिन तपस्याओ से प्राप्त होने वाले दुर्लभ शिव सायुज्य पदवी को मानसिक रूप से प्राप्त करती है| परम शिव के नेत्रो के अलावा अन्य नेत्रो के लिये परा शक्ति के सौंदर्य का आनंद लेना असंभव होने के कारण देवस्त्रीया शिव से आत्मसात हो जाने की अर्थात सायुज्य पदवी की इच्छा करती है |

संकेत;- 

ब्र्म्हा सृष्टि के कर्ता है  इसलिये सर्व प्रथम कवि है |चतुर मुखो से वेदो का गान करते है | इसलिये सभी कवियों मे श्रेष्ठ है | परंतु वे भी भगवती की परम सौंदर्य की उपमा नहीं ढूंढ सके ...!! | इसलिये अन्य कवि तो केवल कल्पना ही कर सकते है | यदि अप्सरा आदि की उपमा दी जाए तो वे सभी भी भगवती का त्रिभुवन मोहन स्वरूप की ही समाधिस्थ हो कर आराधना करती है|यहाँ केवल शिव से युक्त होकर ही शक्ति का ऐक्य होना परम पदवी की उपलब्धि का ही गई है | केवल शिवजी ही कामासक्त नहीं है  तभी वो जगदंबा के अनुपम सौन्दर्य के द्रष्टा माने गये है |बाकी अन्य देव गण माँ के रूप स्वरूप और सौन्दर्य का निरूपण करने मे सर्वथा असमर्थ देखे जाते है |माँ का नारी देह धारण किये होना केवल लीला मात्र है| शक्ति के अनंत स्वरूप है| यहाँ  अन्य देव गण केवल नारी देह के भाव से ग्रसित हो कर कामासक्त होने के कारण देवी के दिव्य स्वरूप की महिमा  समझने और वर्णन मे असमर्थ देखे जाते है |

नरं वर्षीयांसं नयनविरसं नर्मसु जडं
तवापाङ्गालोके पतितमनुधावन्ति शतशः |
गलद्वेणीबन्धाः कुचकलशविस्रस्तसिचया
हठात् त्रुट्यत्काञ्च्यो विगलितदुकूला युवतयः || 13

वृद्धावस्था को प्राप्त , देखने मे कुरूप ,प्रेमक्रीडा से अज्ञान पुरुष भी आप की कृपा द्रष्टि पड़ने मात्र से ऐसा रमणीय ( सुंदर ) हो जाता है कि सैकड़ों की संख्या मे युवतिया “ जिनके केश बिखरे हुये है , कूच –कलशों ( स्तनो ) से वस्त्र फिसल गए है  ,जिनकी मेखलाए जबरन टूट गई है और  जिनकी साड़ी ( वस्त्र –उपवसत्र ) शरीर पर से उतरी जा रही है |ऐसी अति सुंदरतम युवतिया भी जो पहले कुरूप था अब उसके पीछे  गिरते – पड़ते भागने लगती है |अतः स्त्रीरूप मे जिन शक्तिओ का वर्णन किया जाता है वे उससे आकर्षित होती है |
 संकेत;- 

यहा स्थूल कामुक भाव का वर्णन नहीं ....योग दर्शन के अनुसार रूपलावण्य ,बल ओर शरीर का वज्रवत सुगठित होना कायसंपत कहा जाता है |भूतजय से अणिमादि सिद्धियो की भी प्राप्ति होती है |प्रत्येक नाड़ियो मे अमृत का संचार होने का फल यही कायसंपत है |ऊर्ध्वरेता मनुष्य के शरीर की रसोत्पादकता बढ़ जाने से निर्माण शक्ति का हास बंध हो जाता है और स्नायुओ मे जीवन शक्ति का संचार होकर सातो धातुओ का विधिवत पुनः निर्माण होने लगता है |जैसे समस्त शरीर का रक्त हदय की ओर गति करता है|वैसे ही यहाँ युवतियो का दौड़ कर आने की उपमा भर समझना उचित माना जायेगा | 

क्षितौ षट्पञ्चाशद् द्विसमधिकपञ्चाशदुदके
हुताशे द्वाषष्टिश्चतुरधिकपञ्चाशदनिले .
दिवि द्विष्षट्त्रिंशन्मनसि च चतुष्षष्टिरिति ये
मयूखास्तेषामप्युपरि तव पादाम्बुजयुगम् ||14 

पृथ्वीतत्वरूपी मूलाधार मे 46 , जलतत्वरूपी मणिपुरचक्र मे 52, अग्नितत्वरूपी स्वाधिष्ठान मे 62, वायुतत्वरूपी अनाहद मे 54,आकाशतत्व से युक्त विशुद्द मे 62 , तथा मनतत्वरूपी आज्ञाचक्र मे जो 64 मयूख (किरण) है| उन सभी के ऊपर आप के श्री चरण कमल है | उपरोक्त किरणे छः चक्रो से संबंध रखने वाले तत्वो की है और  इन छहों चक्रो से ऊपर (आज्ञाचक्र) के ऊपर भगवती के श्रीचरण युगल शोभित होते है |सभी किरणों को सुषुम्ना मार्ग मे लीन करते हुये ( छःचक्रो ) का अतिक्रमण करते हुए आज्ञाचक्र के ऊपर अर्थात माँ भगवती के श्री चरणो तक पंहुचा जा सकता है |
संकेत;-

भगवती राजराजेश्वरी, त्रिपुरासुंदरी के श्री चरण आज्ञाचक्र के ऊपर बिराजित  है| यहाँ आराधना मार्ग का सुंदर निरूपण किया गया है| आध्यात्म मार्ग मे माँ के सायुज्य के इच्छुक साधक की क्रमश: सभी कामना, इच्छा और स्थूल देहभाव की आसक्तिओ का परित्याग कर एक एक चक्र मे आगे बढ़ते हुये भोग -विलास -काम का निर्मूलन होते ही देवी का शरण सहज होने का निर्देश समझाया गया है| 
शरज्ज्योत्स्नाशुद्धां शशियुतजटाजूटमुकुटां
वरत्रासत्राणस्फटिकघुटिकापुस्तककराम् |
सकृन्नत्वां नत्वा कथमिव सतां संन्निदधते
मधुक्षीरद्राक्षामधुरिमधुरीणाः कणितयः || 15

शरद पुर्णिमा की चन्द्रिका ( चाँदनी ) के समान स्वछ , निर्मल , धवल वर्णो वाली तथा द्वितीय के चंद्रमा युक्त जटाजूट रूपी मुकुटो से  सुशोभित , अपने दोनों हस्त मे वरदमुद्रा एवम सभी भय से मुक्ति की अभयमुद्रा को प्रदर्शित किए हुये तथा दोनों कर कमलो मे ,एक मे अति दिव्य विशुद्ध स्फटिक मणियो की माला एवम दूसरे मे पुस्तक धारण किए हुये  है |ऐसे आप के सौम्य स्वरूप का एक बार भी वंदना ना करने वाले मनुष्य को मधु , दूध एवम द्राक्षा के मिश्रण समान मधुर कविता करने की शक्ति केसे प्राप्त होगी ...??

 संकेत;-

ऋग्वेद  के अनुसार वर्णमयी सरस्वती चतुरपद वाली होती है जिसे विद्वान वेदज्ञ ब्राह्मण आराधते है | उनमे से तीन परा ,  पश्यन्ति और मध्यमा गुहा मे निहित है और चौथी वैखरी को मनुष्य वाचा प्रयोजन बोलते है | इस मंत्र के साथ सरस्वती के बीज ‘ऐं’ की उपासना की जाती है | यहाँ भाव ये बताया गया है कि माँ शारदा का आराधन नहीं करने वाला साधक बिना ज्ञान या भक्ति के माँ भगवती की अनंत महिमा को केसे समझ सकेगा | माँ त्रिगुणत्मिका है और त्रिविद्या  होने के कारण उनके स्वरूप मे शारदा ज्ञान और बुद्धि प्रदान करने का स्त्रोत समझाया गया है| 

कवीन्द्राणां चेतःकमलवनबालातपरुचिं
भजन्ते ये सन्तः कतिचिदरुणामेव भवतीम् | 
विरिञ्चिप्रेयस्यास्तरुणतरशृङ्गारलहरी
गभीराभिर्वाग्भिर्विदधति सतांरञ्जनममी || 16

कवि चक्रवर्तियों  के चित्तरूपी कमल वन को विकसित करने के लिए उदित होते सूर्य के समान ‘अरुणा ‘ नाम से आपको संबोधित करते है|आपका जो कोई महान पुरुष आप का भजन करते है|वे ब्र्म्हाजी की प्रिया (सरस्वती) की समृद्धि तरुणतर श्रुंगाररस की धारा  जैसी गंभीर कविताओ द्वारा ओजस्वी वाक शक्ति के द्वारा सज्जन पुरुष माँ भगवती का मनोरंजन किया करते है|इस रूप मे देवी की आराधना करने वाले पुरुषो को श्रुंगार रस से युक्त कविताओ की रचना करने की सामर्थ्य  शक्ति प्राप्त होती है|कवियों के चित्त रूपी कमल वन को विकसित करने के लिए अरुणादेवी बालाभगवती सूर्य के समान है|

 ... SHIVOHAM...sabhar Chidananda 

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मंगलवार, 14 सितंबर 2021

करोंदा की खेती और फायदे

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----------------++++++++++---------------+++++++++ कई फल और सब्जियां ऐसी हैं जो चलन में काफी कम हैं लेकिन हमारी सेहत के लिए काफी फायदेमंद हैं। लोग इस बात से भी कम ही वाकिफ हैं कि हमारी सेहत के लिए इनमें काफी फायदे छिपे हैं। अब करोंदे फल को ही लीजिए। स्वाद में खट्टे इस फल से लोग अनजान हैं लेकिन ये काफी गुणों से सम्पन्न हैं। गर्मी के मौसम में यह हमें देखने को मिलता है और पुरानी पीढ़ी तो प्रमुखता से इसका इस्तेमाल करती है। इसके सब्जी, आचार ,मुरब्बे ,चटनी सबके स्वाद एक से बढ़कर एक होते हैं। ग्लोबलाइजेशन का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि हम जिंदगी के हर क्षेत्र मैं बेहद सिमट गए हैं।हमारे खान-पान की भी बात की जाए तो अब सालों भर हम कुछ ही चंद चीजों को खाते-पीते रहते हैं। अब पहले जैसी विविधता नही रही है।मार्केटिंग के अभाव में कई सेहतमंद और दुर्लभ चीजों ने अपना दम तोड़ दिया है। करौंदे की फसल किसानों के लिए बहुत फायदेमंद रही है। ये फसल किसानों को मुनाफा देने के साथ-साथ उनकी फसल की सुरक्षा भी करती है। करौंदा झाड़ीनुमा कांटेदार वृक्ष होने की वजह से नीलगाय जैसे जंगली पशुओं को फसल का नुकसान करने के लिए रोकते हैं। करौंदा को किसी भी फसल या बागवानी के चारों तरफ लगाया जाता है, इसके 100 वृक्षों से 20 हजार रुपए की कमाई किसानों को होती है।यह वृक्ष भारत में राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, उत्तरप्रदेश और हिमालय के कई क्षेत्रों में पाया जाता है। करौंदे की फसल में लागत शून्य और मुनाफा भरपूर इसके एक पौधे की कीमत तकरीबन ₹2 के आसपास होती है।पौधे लगाने के बाद इसमें कोई विशेष देखभाल और अन्य लागत की जरूरत नहीं पड़ती। इसका पौधा लगने के डेढ़ साल के बाद फल लगने शुरू हो जाते हैं। अप्रैल के महीने में फूल मई-जून में फल लग जाते हैं। जुलाई का महीना आते-आते फल पूरी तरह से पक जाता है। करौंदे के पौधों की हर साल छटाई होती रहे तो उसके फल तोड़ने में कोई परेशानी नहीं होती है।” किसान भाई करौंदा से चटनी, अचार और मुरब्बा अपने घर में खाने भर का बना लेते हैं। इसका अचार तो कई महीने चलता है। स्थानीय बाजारों में भी इसकी अच्छी खासी मांग रहती है जिसे बेचकर किसान अच्छी इनकम प्राप्त कर सकते हैं। एक करौंदे के पौधे में कम से कम 10 किलो करौंदा आराम से निकल आता है। 1 किलो करौंदा की कीमत ₹20 के आसपास मिलती है। करोंदा के फायदे। करोंदा के कई गुणों में एक गुण यह है कि करोंदा हृदय के लिए फायदेमंद होता है। करोंदा में फ्लैनोनोइड एंटीऑक्सीडेंट गुण होते हैं जो कि हमारी हृदय संबंधी बीमारियों से हिफाजत करता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता करोंदे में एंटीऑक्सीडेंट और फाइटोकेमिकल्स गुण होते हैं, जो हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद करते हैं। इसमें करोंदे का जूस फायदेमंद साबित हो सकता है। पेट का अल्सर एक अध्ययन के अनुसार करोंदे में मौजूद पिग्मेंट पेट में मौजूद बैक्टीरिया से लड़ता हैं। यह आंतों की कोशिकाओं को ठीक करने में सहायक होता हैं, जिससे पेट के अल्सर से बचाव होता है। दांतों के लिए कैल्शियम की अच्छी मात्रा होने के कारण करोंदा दांतों के लिए फायदेमंद होता है। करोंदा में प्रोथेन्थोसाइडिन होता है जो मुंह को स्वस्थ बनाए रखने में सहायक साबित होता है। मूत्र संक्रमण करोंदा मूत्र संक्रमण को रोकने में भी फायदेमंद माना जाता है। करोंदे में फ्लेवोनॉयड होता है, जो बैक्टीरिया को यूरिनरी टै्रक्ट में पैदा होने से रोकने में सहायक होता है। ©लवकुश आवाज एक पहल कम वजन करोंदे का जूस शरीर में जमा फैट को हटाने का काम करता है, इससे आसानी से बढ़ा हुआ वजन कम किया जा सकता है। इसमें काफी मात्रा में फाइबर होता है, जिससे लंबे समय तक भूख नहीं लगती। हड्डियों को मजबूती करोंदा हड्डियों को भी मजबूती देता है। इसकी वजह है करोंदे में प्राकृतिक रूप से कैल्शियम अच्छी मात्रा में पाया जाता है। इससे ऑस्टियोपोरोसिस होने का खतरा कम होता है। दमकती त्वचा करोंदा खाने से हमारी त्वचा में भी निखार आता है। इसमें पानी, विटामिन-सी और एंटीऑक्सीडेंट गुणों की भरमार होती है, जो हमारी त्वचा को निखारने में कारगर साबित होते हैं। रोकते हैं घटती याद्दाश्त करोंदा में उपस्थित फाइटोन्यूट्रिएंट्स और एंटीऑक्सीडेंट गुण बढ़ती उम्र से संबंधित परेशानियां जैसे कि याद्दाश्त में कमी और एकाग्रता की कमी को दूर करने में सहायक होते हैं। कैंसर में फायदा करोंदा में प्रोंथोसाइनिडिन की अच्छी मात्रा होती है, जो कैंसर कोशिकाओं के विकास को रोकता है। करोंदा में एंटी-कैंसर जन्य घटक होते हैं जो कैंसर की कोशिकाओं को बढऩे से रोकते हैं। बढेंग़े बाल करोंदे से बाल भी बढ़ते हैं। करोंदे में विटामिन-सी और विटामिन-ए होता है, जो बालों को बढऩे में मदद करते हैं। नियमित रूप से करोंदे का जूस पीने से बालों की ग्रोथ बढ़ती। मुंहासों में फायदा करोंदा में एंटीसेप्टिक गुण होते हैं जो त्वचा पर मुंहासे और फुंसियों को रोकने में सहायक होते हैं। इसमें एंटीऑक्सीडेंट गुण पर्याप्त मात्रा में होते हैं जो मुंहासों और फुंसियों को कम करते हैं। sabhar Facebook wall

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सोमवार, 13 सितंबर 2021

पूर्णांक 108 का रहस्य

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“ओ३म्” का जप करते समय १०८ प्रकार की विशेष भेदक ध्वनी तरंगे उत्पन्न होती है, जो किसी भी प्रकार के शारीरिक व मानसिक घातक रोगों के कारण का समूल विनाश व शारीरिक व मानसिक विकास का मूल कारण है। बौद्धिक विकास व स्मरण शक्ति के विकास में अत्यन्त प्रबल कारण है।

मेरा आप सभी से अनुरोध है बिना अंधविश्वास समझे कर्तव्य भाव से इस “पूर्णांक १०८” को पवित्र अंक स्वीकार कर, आर्य वैदिक संस्कृति के आपसी सहयोग, सहायता व पहचान हेतु निःसंकोच प्रयोग करें, इसका प्रयोग प्रथम दृष्टिपात स्थान पर करें । यह अद्भुत व चमत्कारी अंक बहुत समय काल से हमारे ऋषि मुनियों के नाम के साथ प्रयोग होता रहा है और अब अति शीघ्र यही अंक हमारी महान सनातन वैदिक संस्कृति के लिये प्रगाढ़ एकता का विशेष संकेत अंक (code word) बन जायेगा।

संख्या १०८ का रहस्य
अ-१ आ- २ इ- ३ ई- ४ उ- ५ ऊ- ६. ए- ७ ऐ- ८ ओ- ९ औ- १० ऋ- ११ लृ- १२ अं- १३ अ:- १४ ऋॄ - १५ लॄ -१६

क- १  ख- २  ग- ३  घ- ४  ङ- ५  च- ६  छ- ७  ज- ८ झ- ९ ञ- १०  ट- ११  ठ- १२  ड- १३ ढ-१४  ण- १५  त- १६  थ- १७  द- १८  ध- १९  न- २०  प- २१  फ- २२  ब- २३  भ- २४ -  म- २५ -  य- २६ -  र- २७  ल- २८  व- २९  श- ३०  ष- ३१  स- ३२  ह- ३३  क्ष- ३४  त्र- ३५ ज्ञ- ३६  ड़ - ढ़ ।

ओं खम् ब्रह्म
ब्रह्म = ब+र+ह+म =२३+२७+३३+२५=१०८

01. यह मात्रिकाएँ
(१८स्वर+३६ व्यंजन=५४)
नाभि से आरम्भ होकर ओष्टों तक आती है, इनका एक बार चढ़ाव, दूसरी बार उतार होता है, दोनों बार में वे १०८ की संख्या बन जाती हैं। इस प्रकार १०८ मंत्र जप से नाभि चक्र से लेकर जिव्हाग्र तक की १०८ सूक्ष्म तन्मात्राओं का प्रस्फुरण हो जाता है। अधिक जितना हो सके उतना उत्तम है पर नित्य कम से कम १०८ मंत्रों का जप तो करना ही चाहिए ।

02. मनुष्य शरीर की ऊँचाई
= यज्ञोपवीत(जनेउ) की परिधि
= (४ अँगुलियों) का २७ गुणा होती है।
= ४ × २७ = १०८

03. नक्षत्रों की कुल संख्या = २७
प्रत्येक नक्षत्र के चरण = ४
जप की विशिष्ट संख्या = १०८
अर्थात गायत्री आदि मंत्र जप कम से कम १०८ बार करना चाहिये ।

04. एक अद्भुत अनुपातिक रहस्य
पृथ्वी से सूर्य की दूरी/ सूर्य का व्यास=१०८
पृथ्वी से चन्द्र की दूरी/ चन्द्र का व्यास=१०८
अर्थात मन्त्र जप १०८ से कम नहीं करना चाहिये।

05. हिंसात्मक पापों की संख्या ३६ मानी गई है जो मन, वचन व कर्म ३ प्रकार से होते है। अत: पाप कर्म संस्कार निवृत्ति हेतु किये गये मंत्र जप को कम से कम १०८ अवश्य ही करना चाहिये।

06. सामान्यत: २४ घंटे में एक व्यक्ति २१६०० बार सांस लेता है। दिन-रात के २४ घंटों में से १२ घंटे सोने व गृहस्थ कर्त्तव्य में व्यतीत हो जाते हैं और शेष १२ घंटों में व्यक्ति जो सांस लेता है वह है १०८०० बार।
इसी समय में ईश्वर का ध्यान करना चाहिए । शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति को हर सांस पर ईश्वर का ध्यान करना चाहिये । इसीलिए १०८०० की इसी संख्या के आधार पर जप के लिये १०८ की संख्या निर्धारित करते हैं।

07. एक वर्ष में सूर्य २१६०० कलाएं बदलता है। सूर्य वर्ष में दो बार अपनी स्थिति भी बदलता है। छःमाह उत्तरायण में रहता है और छः माह दक्षिणायन में। अत: सूर्य छः माह की एक स्थितिमें १०८००० बार कलाएं बदलता है।

08. ब्रह्मांड को १२ भागों में विभाजित किया गया है। इन १२ भागों के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन हैं। इन १२ राशियों में नौ ग्रह सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु विचरण करते हैं। अत: ग्रहों की संख्या ९ में राशियों की संख्या १२ से गुणा करें तो संख्या १०८ प्राप्त हो जाती है।

09. १०८ में तीन अंक हैं १+०+८. इनमें एक “१” ईश्वर का प्रतीक है। शून्य “०” प्रकृति को दर्शाता है। आठ “८” जीवात्मा को दर्शाता है, क्योकि योग के अष्टांग नियमों से ही जीव प्रभु से मिल सकता है । जो व्यक्ति अष्टांग योग द्वारा प्रकृति के विरक्त हो कर ( मोह माया लोभ आदि से विरक्त होकर ) ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है उसे सिद्ध पुरुष कहते हैं। जीव “८” को परमपिता परमात्मा से मिलने के लिए प्रकृति “०” का सहारा लेना पड़ता है। ईश्वर और जीव के बीच में प्रकृति है। आत्मा जब प्रकृति को शून्य समझता है तभी ईश्वर “१” का साक्षात्कार कर सकता है। प्रकृति “०” में क्षणिक सुख है और परमात्मा में अनंत और असीम। जब तक जीव प्रकृति “०” को जो कि जड़ है उसका त्याग नहीं करेगा, शून्य नही करेगा, मोह माया को नहीं त्यागेगा तब तक जीव “८” ईश्वर “१” से नहीं मिल पायेगा पूर्णता (१+८=९) को नहीं प्राप्त कर पायेगा । ९ पूर्णता का सूचक है।

10. वैदिक विचार धारा में मनुस्मृति के अनुसार
अहंकार के गुण = २
बुद्धि के गुण = ३
मन के गुण = ४
आकाश के गुण = ५
वायु के गुण = ६
अग्नि के गुण = ७
जल के गुण = ८
पॄथ्वी के गुण = ९
२+३+४+५+६+७+८+९ =अत: प्रकॄति के कुल गुण = ४४
जीव के गुण = १०
इस प्रकार संख्या का योग = ५४
अत: सृष्टि उत्पत्ति की संख्या = ५४
एवं सृष्टि प्रलय की संख्या = ५४
दोंनों संख्याओं का योग = १०८

11. Vertual Holy Trinity
संख्या “१” एक ईश्वर का संकेत है।
संख्या “०” जड़ प्रकृति का संकेत है।
संख्या “८” बहुआयामी जीवात्मा का संकेत है। [ यह तीन अनादि परम वैदिक सत्य हैं ] [ यही पवित्र त्रेतवाद ( Holy Trinity ) है ]
संख्या “२” से “९” तक एक बात सत्य है कि इन्हीं आठ अंकों में “०” रूपी स्थान पर जीवन है। इसलिये यदि “०” न हो तो कोई क्रम गणना आदि नहीं हो सकती।
“१” की चेतना से “८” का खेल । “८” यानी “२” से “९” । यह “८” क्या है ? मन के “८” वर्ग या भाव ।
ये आठ भाव ये हैं – १. काम ( विभिन्न इच्छायें / वासनायें ) । २. क्रोध । ३. लोभ । ४. मोह । ५. मद ( घमण्ड ) । ६. मत्सर ( जलन ) । ७. ज्ञान । ८. वैराग ।
एक सामान्य आत्मा से महानात्मा तक की यात्रा का प्रतीक है — १०८ इन आठ भावों में जीवन का ये खेल चल रहा है ।

12. सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से नौ रश्मियां निकलती हैं और ये चारो ओर से अलग-अलग निकलती है। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गई। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बनें । इस तरह सूर्य की जब नौ रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनका पृथ्वी के आठ बसुओं से टक्कर होती हैं। सूर्य की नौ रश्मियां और पृथ्वी के आठ बसुओं की आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुई वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गई। इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियां पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित है। 1+0+8=9 यह 9 अंक राज राजेश्वरी का प्रिय हे। जिस प्रकार भगवती नित्य पूर्ण हे यह अंक भी पूर्ण है। sabhar aghore tantra Facebook wall

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