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ध्वनि का विज्ञान



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"एकः शब्द: सम्यग्ज्ञात: संप्रयुक्त: स्वर्गे लोके च कामधुग भवति"।

अर्थात-
'एक ही शब्द के पूर्ण ज्ञान और सम्यक प्रयोग से लौकिक और पारलौकिक दोनों फलों की प्राप्ति सम्भव है'।यही वैदिक ज्ञान का रहस्य है। 

जैसा कि हमें ज्ञात होना चाहिए कि कोई भी ध्वनि सदा विशुद्ध नहीं रहती। यौगिक क्रिया और श्वास-प्रश्वास से ही उसमें शुद्धता लायी जा सकती है। इस शुद्धिकरण के बाद ज्ञान की उपलब्धि स्वतः होने लगती है। उसमें विशेष ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है। शब्द के माध्यम से साधक या योगी के हाथ एक नैसर्गिक शक्ति लग जाती है और वह नैसर्गिक गुणों से परिपूर्ण हो शक्तिशाली बन जाता है। 

ऋषियों ने स्पष्टरूप से कहा है कि वेद ब्राह्मण में अंतर्भूत आध्यात्मिक शक्ति के सार हैं। वेद में गायत्री मन्त्र का अपना विशेष महत्व है। वैदिक ब्राह्मण को संस्कार, उपनयन या शुद्धिकरण के समय सर्वप्रथम गायत्री मंत्र ही गुरु द्वारा प्रदान किया जाता है।

वैदिक साहित्य में 'भू: का अर्थ निम्नतम मेखला (भूमि) तथा 'स्व:' का उच्चतम यानी निराकार लोक और इन दोनों के मध्य स्थित 'भुव:' अर्थात अंतरिक्ष। यद्यपि भू:, भुव: तथा स्व: विभिन्न लोकों के रूप में जाना गया है (पृथ्वी लोक, भुवर्लोक यानी प्रेतलोक और स्वर्गलोक) लेकिन वास्तव में यदि देखा जाय तो ये तीनों 'भूमण्डल' के अंतर्गत ही माने जाते हैं। 

तीनों लोक एक दूसरे से दूध-पानी की तरह से मिले हुए हैं। निम्न लोक यानी पृथ्वी का सार स्वयं प्रकाश रूप में प्रकट होता है जिसे 'अग्नि' कहा जाता है। आध्यात्मिक उत्थान की सारी विधि जिसे वैदिक वाणी में 'क्रतु' यानी यज्ञ कहा गया है, इसी पवित्र और गुप्त अग्नि के जलने के साथ आरम्भ हुई। जिसे अग्नि उत्पन्न करती है, जिसे तंत्र और योग कुण्डलिनी में उद्दीपन उत्पन्न करना कहा गया है। जब अग्नि पृथ्वी पर विस्तृत हो जाती है, तब वह संस्कृत (शुद्ध ध्वनि) होने लगती है। तत्पश्चात वह प्रकाश का सत्य धारण करती है और अंतरिक्ष का सार बन जाती है। इसे कहते हैं पूर्णरूप से परिमार्जित हो जाने पर वह 'दिव्य दीप्ति' का रूप धारण कर लेती है जिसे 'रवि' कहते हैं। तब ये तीनों तरह के प्रकाश जो उपर्युक्त लोकों के सार हैं, एकोभूत होकर दिव्य प्रकाश हो जाते हैं जिसे 'वेद' कहते हैं। इसलिए संस्कृत को 'देववाणी' और 'वेद' को 'देवग्रंथ' कहा गया है। वैदिक धर्म में उपनयन के बाद ही ब्राह्मण वेदविद्या अध्ययन के लिए योग्य माना जाता था।

सोलह संस्कारों में उपनयन का महत्व बहुत अधिक है। देखा जाए तो उपनयन आध्यात्मिक पुनर्जन्म है। पहले जन्म में अस्तित्व की शुद्धता बाह्य रूप से होती है। दूसरे जन्म का मतलब है कि गहरे आंतरिक स्तर पर जन्म लेना यानी उपनयन संस्कार से मनुष्य का दूसरा जन्म माना जाता है। उपनयन संस्कार में जो गायत्री मंत्र है, उसमें सविता (सूर्य ) की प्रार्थना की गई है जो सृष्टि का मूल उद्गम है और जो प्रकाश और जीवन का स्रोत है। दिव्यता ईश्वर की प्रकृति का सबसे प्रमुख आविर्भाव है। जो दैवीय प्रकाश को देदीप्यमान महिमा के रूप में ध्यान करते हैं और जो हमारी आत्मिक दिव्यता को पूर्ण करे। 

एक और विचारणीय प्रश्न है ?

हमारे ऋषियों ने कैसे वेदों की रक्षा की और उनका मूल स्वरूप आज भी हज़ारों वर्षों से वही अपने मूल रूप में विद्यमान है। हिन्दू धर्म के लिए वेद इतना महत्वशाली होने के कारण आर्ष ऋषियों ने इसकी पूर्ण रक्षा हेतु ऐसे सूत्र का निर्माण किया जो अपने आप में कम महत्व नहीं रखता। इतने दीर्घ काल से वेद का एक भी अक्षर विकृत नहीं हुआ। आज भी हमारे वेद- पाठियों के मुख वेदों का सस्वर उच्चारण उसी प्रकार से शुद्ध रूप से सुना जा सकता है, जैसा यह प्राचीन वैदिक युग में था। इसके आठ सूत्रों की व्यवस्था की गई थी। इन सूत्रों के कारण वेद का पद क्रमोच्चरण तथा विलोक उच्चारण में अनेक बार आता है जिसके रूप ज्ञान में किसी भी प्रकार की त्रुटि की संभावना नहीं है।

आज बस इतना ही .....

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