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रविवार, 28 अगस्त 2022

बिहार के महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह ने आइंस्टीन की थ्योरी को चुनौती देकर हैरान किया था

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Patna: अल्व्रेट आइंस्टीन जो विश्व के प्रसिद्ध महान भौतिकविद है। इन्होंने भौतिकी के कई नियम दिए जैसे सापेक्ष ब्रह्मांड, केशिकीय गति, क्रांतिक उपच्छाया, सांख्यिक मैकेनिक्स, अणुओं का ब्राउनियन गति, अणुओं की उत्परिवर्त्तन संभाव्यता, एक अणु वाले गैस का क्वांटम सिद्धांत, कम विकिरण घनत्व वाले प्रकाश के ऊष्मीय गुण, विकिरण के सिद्धांत, एकीकृत क्षेत्र सिद्धांत और भौतिकी का ज्यामितीकरण आदि। इसके लिए इन्हें नोबल पुरुष्कार से भी सम्मानित किया गया। पूरे विश्व में कई महान हस्तियां का जन्म हुआ, जिन्होंने देश को कुछ न कुछ विशेष दिया ही है। क्या आप जानते है भारत देश में भी एक ऐसे महान पुरुष का जन्म हुआ है। जिन्होंने आइंस्टीन के सिद्धांतो (Einstein’s theory) को भी मात दे डाली। उस महान हस्ती का नाम वशिष्ठ नारायण सिंह (Vashishtha Narayan Singh) है, जो एक महान गणितज्ञ है। ये भारत के बिहार राज्य से है। नारायण सिंह जी ने आइंस्टीन की थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी (Theory Of Relativity) जैसे प्रसिद्ध सिद्धांत को टक्कर दिया। हमेशा से यही पढ़ा है और सुना है की आज तक आइंस्टीन जैसे ज्ञानी पैदा ही नहीं हुए परंतु नारायण जी ने अपने ज्ञान से लोगो का यह भ्रम भी तोड़ डाला, तो आइए विस्तार से जानते है कोन है यह महानहस्ती। वशिष्ठ नारायण जी बिहार (Bihar) राज्य के पटना (Patna) जिले के अंतर्गत आने वाला गांव बसंतपुर मे 2 अप्रैल 1942 को जन्मे। इनके पिता का पेशे से सैनिक यानी पुलिस कॉन्स्टेबल थे। नारायण जी पांच भाई बहन थे। परिवार में आर्थिक तंगी हमेशा ही रही। पर यह गरीबी उनके मार्ग में कभी बाधा नहीं बनी। उनकी प्रतिभा में कभी कोई कमी नही आई। वशिष्ठ नारायण में बालपन से ही कुछ विलक्षण थे। उनका दिमाग अन्य बच्चो से बेहद ज्यादा तेज चलता था। उनके तेज दिमाग ने उनकी गरीब परिस्थियों को तक मात दे दी। उन्होंने अपने दम पर पटना यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेने तक के समय में लोग उन्हे केबल एक होशियार विद्यार्थी समझते थे। जब उन्होंने यूनिवर्सिटी में जाना प्रारंभ किया और उनके द्वारा किए गए कुछ कारनामों ने सभी लोगो को चौका दिया। नारायण मैथ में ना केबल अपने बल्कि अपनी कक्षा से उच्च कक्षा के सवाल हल करते थे। जो लोगो के लिए बेहद चोकाने वाला था। नारायण जी के कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ नागेंद्र नाथ जो खुद भी एक गणित के प्रोफेसर थे। वह सिंह जी से बेहद परेशान हो चुके थे। क्योंकि नारायण अपनी कक्षा के शिक्षकों से काफी कठिन सवाल पूछ लेते थे जो टीचर को भी नही आता था और कभी जब कोई भी टीचर कक्षा में गलत पढ़ाते तो वे टीचर को ही डांट लगा देते थे। जिससे वे कक्षा में इंसल्टिंग महसूस करते थे। इन सब से परेशान डॉक्टर नाथ ने उन्हें सबक सिखाना चाहा इस के लिए उन्होंने नारायण के लिए खुद एग्जाम पेपर सेट किया उस पेपर में वे सवाल थे जो उन्हे कभी किसी ने नहीं पढ़ाया।फिर जब वशिष्ठ का पेपर जांचा गया तो टीचरो की आंखे चोंध्या गई। वशिष्ट ने उन सभी सवालों को सही तरीके से कई विधियां से हल किया हुआ था। उनके सारे जवाब सही थे। उनकी इस परीक्षा के बाद वशिष्ठ के लिए यूनिवर्सिटी के रूल्स को बदला गया। नियम के तहत वशिष्ठ को पहले वर्ष में ही बीएससी को पूरा करा दिया गया। पहले वर्ष में ही उन्होंने फाइनल ईयर की परीक्षा दी जिसमे उन्होंने डिस्टिंक्शन के साथ पूरी कक्षा में टॉप किया। कॉलेज के दूसरे वर्ष में उन्हे एमएससी की अंतिम वर्ष की परीक्षा देने के लिए अनुमति दी गई।एमएससी फाइनल ईयर के कई होसियार विद्यार्थियो ने सिंह जी के कारण फाइनल ईयर ड्रॉप कर दिया। क्योंकि वे नही चाहते थे कि उनकी टॉप रेंक नारायण के कारण रह जाए। वशिष्ठ नारायण सिंह बिहार की राजधानी पटना के साइंस कॉलेज के विद्यार्थी थे। इसी बीच कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली ने नारायण को देखा और उन्हे समझा। नारायण की प्रतिभा को कैली ने बखूबी पहचान लिया था। इसलिए वे वर्ष 1965 में वशिष्ठ नारायण सिंह को स्वयं के खर्चे पर अमेरिका ले गए। यह वही अपोलो मिशन है, जिसने इंसान को चांद तक पहुंचाया था। इस मिशन के चलते कुछ वक्त के लिए नासा के कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए थे। तभी वशिष्ठ नारायण सिंह ने अपनी गणित लगाकर एक हिसाब किया। जब कंप्यूटर चालू हुए तो वशिष्ठ का हिसाब और कंप्यूटर का हिसाब एक दम सही था। sabhar Ek no news Facebook page

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रविवार, 21 अगस्त 2022

काम का वास्तविक आनंद

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समान रूप से शारीरिक सम्बन्धों द्वारा भोगा गया आनन्द ही सम्भोग है। इसमें सेक्स का आनन्द स्त्री-पुरुष को समान रूप से प्राप्त होना आवश्यक है। स्खलन के साथ ही पुरुष को तो पूर्ण आनन्द की प्राप्ति हो जाती है और सेक्स सम्बन्ध स्थापित होते ही पुरूष का स्खलन निश्चित हो जाता है। यह स्खलन एक मिनट में भी हो सकता है तो दस मिनट में भी। अर्थात् पुरुष को पूर्ण आनन्द की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए मुख्य रूप से स्त्री को मिलने वाले आनन्द की तरफ ध्यान देना आवश्यक है। अगर स्त्री इस आनन्द से वंचित रहती है, इसे सम्भोग नहीं माना जाना चाहिए। इस वास्तविकता से व्यक्ति पूरी तरह से अनभिज्ञ होकर अपने तरीके से सेक्स सम्बन्ध बनाता है और स्त्री के आनन्द की तरफ कोई ध्यान नहीं देता है। इसे केवल भोग ही मानना चाहिए। सम्भोग की वास्तविकता को समझे बिना इसे जानना मुश्किल होगा। विवाह के बाद व्यक्ति सम्भोग करने के स्थान पर भोग करता है तो इसका मतलब यह है कि वह इस तरफ से अनजान है कि स्त्री को सेक्स का पूरा आनन्द मिला कि नहीं। सम्भोग शब्द की महत्ता को समझें। स्त्री को भोगें नहीं, समान रूप से आनन्द को बांटे। यही संभोग है। युवक-युवती जब विवाह के उद्देश्य को समझ विवाह-बंधन में बंधते हैं तो वे इस बात से अवगत होते हैं कि उनके प्रेम भरे क्रिया-कलापों का अंत संभोग होगा। प्रत्येक शिक्षित युवक-युवती यह जानते हैं कि संभोग विवाह का अनिवार्य अंग है। यदि कोई सहेली ऐसी नवयुवती से पूछती है कि तू विवाह करने तो जा रही है किन्तु यह भी जानती है कि संभोग कैसा होता है ? वो या तो इसका उत्तर टाल जाएगी अथवा कह देगी कि उसके बारे मे जानने की क्या आवश्यकता है? संभोग तो पुरुष करता है। इसलिए उसे ही जानना चाहिए कि संभोग कैसे करना चाहिए। ऐसे प्रश्नों पर युवक हंसकर उत्तर देता है, भला यह भी कोई पूछने की बात है। संभोग करना कौन नहीं जानता। *संभोग आरंभ करने की स्थिति-* यह ठीक है कि अनेक प्रकार की काम-क्रीड़ा से स्त्री संभोग के लिए तैयार हो जाए और उसकी योनि तथा पुरुष के शिश्न मुण्ड में स्राव आने लगे तो योनि में शिश्न डालकर मैथुन प्रारम्भ कर देना चाहिए। परन्तु जिस बात पर हमें विशेष बल देना चाहिए वह यह है कि योनि में शिश्न डालने के पश्चात् ही काम-क्रीड़ाओं को बंद नहीं कर देना चाहिए, जिनके द्वारा स्त्री को संभोग के लिए तैयार किया गया है। यह ठीक है कि समागम के कुछ आसन ऐसे होते हैं जिनमें बहुत अधिक प्रणय क्रीड़ाओं की गुंजाइश नहीं होती, परन्तु ऐसे आसन बहुत कम होते हैं। योनि में शिश्न के प्रवेश करने के बाद जब तक संभव हो सके इन क्रियाओं को जारी रखना चाहिए। यदि किसी आसन में नारी का चुम्बन लेते रहना संभव न हो तो स्तनों को सहलाते और मसलते रहना चाहिए। अगर स्तनों को मसलना या पकड़कर दबाना भी संभव न हो तो इसके चुचकों का ही स्पर्श करते रहना चाहिए। इससे तात्पर्य यह है कि इस समय जो भी प्रणय-कीड़ा संभव हो सके, उसे जारी रखना चाहिए। इससे काम आवेग में वृद्धि होती है, मनोरंजन बढ़ता है और स्त्री के उत्साह में वृद्धि होती है। *प्रणय क्रीड़ाएं अनिवार्य विषय* जो लोग मैथुन कार्य प्रारम्भ होते ही प्रणय क्रीड़ा बंद कर देते हैं, वे प्रणव-क्रीड़ा को मैथुन से अलग मानते हैं। उनकी धारणा है कि मैथुन कार्य प्रारम्भ होते ही प्रणय क्रियाओं की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। यह धारणा बिल्कुल गलत है। इन दोनों चीजों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में आकर प्रणय-क्रीड़ाओं को एकदम बंद कर देने से वह सिलसिला टूट जाता है जिसमें स्त्री रुचि लेने लगी थी। इस बात को सदा याद रखना चाहिए कि काम-क्रीड़ा के दो उद्देश्य होते हैं- एक तो इस क्रिया द्वारा आनन्द प्राप्त करना और दूसरे दोनों सहयोगियों-विशेषतया-स्त्री को प्रणय-क्रिया के अंतिम कार्य अर्थात् संभोग के लिए तैयार करना। इन दोनों बातों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि यदि संभोग की स्थिति पर पहुंचकर प्रणय-क्रीड़ा में अनावश्यक अवरोध पैदा कर दिया जाए या इस क्रीड़ा को बंद ही कर दिया जाए तो स्त्री के मन में झुंझलाहट पैदा हो जाएगी। इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए इस दृश्य की कल्पना कीजिए। पुरुष नारी के गले में बाहें डाले हुए उसके स्तनों का चुम्बन कर रहा है, साथ ही वह उन्हें मसलता जाता है और उसके चूचुकों को भी समय-समय पर स्पर्श कर लेता है। स्वाभाविक है कि इससे नारी के उत्साह और काम के आवेग में वृद्धि होती है। वह उसके हाथ को अपने स्तनों पर और दबा लेती है। इसका तात्पर्य यह है कि वह चाहती है कि पुरुष उनको और जोर से मसले, क्योंकि इससे उसे और अधिक आनन्द आता है। पुरुष इस संकेत को दूसरे रूप में लेता है और समझता है कि स्त्री पर कामोन्माद का पूरा आवेग चढ़ चुका है। बस वह स्तनों को मसलना बंद करके नारी की योनि में अपने शिश्न को प्रविष्ट करने की तैयारी करने लगता है। इससे स्त्री को बड़ी निराशा होती है। पुरुष उसकी योनि में शिश्न डाले, इसमें तो उसे कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु वह यह नहीं चाहती कि वह स्तनों को मसलना बंद कर दे। उसे उसके मर्दन (मसलने) से जो आनन्द प्राप्त हो रहा था, उसका सिलसिला बीच में टूट गया। वह यह नहीं चाहती थी। इसलिए यह आवश्यक है कि संभोग क्रिया आरंभ होते समय और उसके जारी रहते हुए न तो प्रणय-क्रीड़ा को समाप्त करें और न उसमें कोई रुकावट ही आने दें। यह तो सभी लोग जानते हैं कि संभोग क्रिया में पुरुष और स्त्री दोनों ही समान रूप से भागीदार होते हैं, किन्तु बहुत से लोगों का विचार यह है कि पुरुष सक्रिय भागीदार की भूमिका अदा करता है तथा स्त्री केवल सहन करती है अथवा स्वीकार मात्र करती है यह विचार भ्रांतिपूर्ण है। स्त्रियों के जनन अंग बने ही इस प्रकार के हैं कि वे संभोग में कभी निष्क्रिय रह ही नहीं सकते। यूरोपीय देशों की अनेक कुमारी नवयुवतियों ने इस बात को स्वीकार किया है कि जब पहली बार किसी पुरुष ने उनके उरोजों को पकड़कर चूचुकों को धीरे-धीरे सहलाना शुरू किया तो उनकी योनि में विशेष तरह की फड़क-सी अनुभव हुई और यह इच्छा जाग्रत हुई कि कोई कड़ी वस्तु उसमें जाकर घर्षण करें। कुछ पत्नियां ऐसी होती हैं जो जान-बूझकर निष्क्रिय भूमिका अदा करना चाहती हैं। वे समझती हैं जब पति उसका चुम्बन, कुचमर्दन (स्तनों को सहलाना, मसलना) आदि करे तो उन्हें ऐसा आभास देना चाहिए कि पुरुष के इस कार्य से उन्हें आनन्द नहीं मिल रहा है। उन्हें आशंका होती है कि यदि वे आनन्द प्राप्ति का आभास देंगी तो पति यह समझ लेंगे कि वे विवाह से पूर्व संभोग का आनन्द ले चुकी हैं। इस प्रकार के विचारों को उन्हें अपने मन से निकाल देना चाहिए। संभोग करते समय इस बात को याद रखना चाहिए कि संभोग में सबसे अधिक आनन्द प्राप्त करने के लिए जिस आवेग की आवश्यकता होती है, वह तभी प्राप्त हो सकता है जब योनि में शिश्न निरंतर गतिशील रहे। इस गति का संबंध हरकत करने से है। इस स्थिति में शिश्न कड़ा और सीधा होकर योनि की दीवारों की मुलायम परतों तथा गद्दियों के सम्पर्क में आ जाता है। इसके फलस्वरूप शिश्न के तंतुओं में अधिकाधिक तनाव आ जाता है जिसकी समाप्ति वीर्य स्खलन के साथ होती है। संभोग करते समय बहुत से पुरुषों को आशंका रहती है कि योनि में उनका लिंग प्रवेश करते ही वे स्खलित हो जाएंगे। इसी आशंका से भयभीत होकर वे योनि में शिश्न प्रविष्ट करके जल्दी-जल्दी हरकत करने लगते हैं और इस प्रकार वे बहुत जल्दी स्खलित हो जाते हैं। सेक्स के वास्तविक आनन्द की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि शिश्न के पूर्णतया प्रविष्ट हो जाने के बाद स्त्री पुरुष दोनों स्थिर होकर चुम्बन मर्दन आदि करें। इसके थोड़ी देर बाद फिर गति आरंभ करें। जब फिर स्खलन होने की आशंका होने लगे, तब फिर रुककर चुम्बन आदि में प्रवृत्त हो जाएं, इससे दोनों को अधिकाधिक आनन्द प्राप्त होगा। इस स्थिति में स्त्री को चाहिए कि जब पुरुष गति लगाए तब वह योनि को संकुचित करे, जितना अधिक वह संकुचित करेगी, उतना ही पुरुष का आनन्द बढ़ेगा और वह क्रिया करने लगेगा। ऐसा करने से स्त्री और पुरुष दोनों को आनन्द आएगा। इस भांति रुक-रुककर गति लगाने से स्त्री पूर्ण उत्तेजना की स्थिति में पहुंच जाती है। उस समय उसकी इच्छा होती है कि अब पुरुष जल्दी-जल्दी गति देकर अपने-आपको और स्त्री दोनों को स्खलित कर दे। उस समय पुरुष को जल्दी-जल्दी गति लगानी चाहिए, स्त्री को भी इसमें अपनी ओर से पूरा सहयोग देना चाहिए। अधिकांश स्त्रियों की यह धारण सही नहीं है कि गति लगाना केवल पुरुष का ही काम है। जब कुछ देर तक स्त्री-पुरुष के यौन अंग एक-दूसरे पर घात-प्रतिघात करते रहते हैं तो इस क्रिया से अब तक मस्तिष्क को जो आनन्द मिल रहा था, वह बढ़ते-बढ़ते इतना अधिक हो जाना हो जाता है कि मस्तिष्क इससे अधिक आनन्द बर्दाश्त नहीं कर पाता। इस समय स्त्री-पुरुष यौन आनन्द की चरम सीमा पर पहुंच चुके होते हैं जिसे चिकित्सा विज्ञान की भाषा में चरमोत्कर्ष कहा जाता है। ऐसी परिस्थिति में मस्तिष्क अपने आप संभोग क्रिया को समाप्त करने के संकेत देने लगता है। पुरुष व स्त्री स्खलित है जाते हैं। पुरुष के शिश्न से वीर्य निकलता है और स्त्री की योनि से पानी की तरह पतला द्रव्य। *स्खलन के बाद* संभोग के बाद जब वीर्य स्खलित हो जा%ता है तो अधिकांश पुरुष समझ लेते हैं कि अब काम समाप्त हो गया है और सो जाने के अलावा कोई काम शेष नहीं रह गया है। उनकी यह बहुत बड़ी भूल है। स्खलन के साथ ही मैथुन समाप्त नहीं हो जाता। वीर्य स्खलन का अर्थ केवल इतना है कि जिस पहाड़ की चोटी पर आप पहुंचना चाहते थे, वहां आप पहुंच गये हैं। अभी चोटी से नीचे भी उतरना है। नीचे उतरना भी एक कला है। जो पुरुष वीर्य स्खलित होने के पश्चात सो जाता है या सोने की तैयारी करने लगता है, वह अपनी संगिनी की भावना को गहरा आघात पहुंचाता है। उसके मन में यह विचार आ सकता है कि उसका साथी केवल अपनी शारीरिक संतुष्टि को महत्त्व देता है, उसकी भावना की कोई परवाह नहीं करता। पुरुष का कर्त्तव्य है कि वह स्त्री के मन में ऐसी भावना पैदा न होने दे। स्त्री को संतुष्टि तथा आनन्द प्रदान करने के लिए पुरुष को चाहिए कि वह समागम के बाद स्त्री के विभिन्न अंगों का चुम्बन ले, प्रेमपूर्वक आलिंगन करे और कुछ समय प्रेमालाप करे। इन बातों से स्त्री को यह अनुभव होगा कि पुरुष उसे कामवासना की पूर्ति का खिलौना ही नहीं समझता, वास्तव में वह उससे प्रेम करता है। इसके अलावा संभोग के बाद पुरुष का आवेग जिस गति से शांत होता है स्त्री का आवेग उतनी तेजी से शांत नहीं होता। उसमें काफी समय लगता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पुरुष धीरे-धीरे अपनी प्रणय क्रीड़ाओं से स्त्री को सामान्य दशा में लाए। जब उसे यह विश्वास हो जाए कि स्त्री का कामोन्माद पूरी तरह से शांत हो गया है तो भी उसे उसकी ओर मुंह फेरकर नहीं सोना चाहिए। उसे अपनी छाती से तब तक लगाए रखना चाहिए तब तक वह सो न जाए। उसके सोने के बाद ही स्वयं को सोना चाहिए। *संभोग क्रीड़ा का वर्गीकरण* शिश्न और योनि के आकार के भेद के अनुसार जिस प्रकार संभोग क्रीड़ा का वर्गीकरण किया गया है उसी प्रकार संवेग के आधार पर भी रति-क्रीड़ा के भेद निर्धारित किए गए हैं। जिस प्रकार दो व्यक्तियों के चेहरे आपस में नहीं मिलते, जिस प्रकार दो व्यक्तियों की रुचि एवं पसन्द में तथा शारीरिक ढ़ाचे एवं मानसिक स्तर में परस्पर भिन्नता होती है, उसी प्रकार दो नर-नारियों की कामुकता एवं यौन संवेगों में पर्याप्त अन्तर होता है। कुछ नर-नारियां ऐसी होती हैं जो प्रचण्ड यौन-क्रीड़ा को सहन नहीं कर पाती। प्रगाढ़ एवं कठोर आलिंगन, चुम्बन, नख-क्रीड़ा एवं दंतक्षत उन्हें नहीं भाता। ऐसे नर-नारियों को मृदुवेगी कहा गया है। कोमल प्रकृति होने के कारण इन्हें हल्का संभोग ही अधिक रुचिकारी होता है। जिन नर-नारियों की यौन-चेतना औसत दर्जे की अथवा मध्यम दर्जे की होती है उन्हें मध्यवेगीय कहते हैं। ये न तो अति कामुक होते हैं और न ही इनकी यौन सचेतना मंद होती है। ये संभोग प्रिय भी होते हैं और यौन कला प्रवीण भी परन्तु काम पीड़ित नहीं होते हैं। पाक क्रीड़ा में अक्रामक रुख भी नहीं अपनाते। इनका यौन जीवन सामान्यतः संतुष्ट एवं आनन्दपूर्ण होता है। ये अच्छे तथा आदर्श गृहस्थ भी होते हैं। चण्ड वेगी नर-नारियों की कामुकत्ता प्रचण्ड होती है। ये विलासी और कामी होते हैं। बार-बार यौन क्रियाओं के लिए इच्छुक रहते हैं। मौका पाते ही संभोग भी कर लेते है। संवेगात्मक तीव्रता अथवा न्यूनता के आधार पर स्त्री-पुरुष को जो वर्गीकरण किया गया है वह प्रकार है- *समरत* »मनदवेगी नायक का सम्पर्क मन्दवेगी नारी के साथ। »मध्यवेगी नायक का वेग मध्यवेगी नारी के साथ। »चण्डवेगी नायक का जोड़ा चण्डवेगी नारी के साथ। *विषमरत* »मन्दनेगी पुरुष सा सम्पर्क मध्यवगी नारी के साथ। »मन्दवेगी नायक का रमण चण्डवेगी नारी के साथ। »मध्यवेगी नर का जोड़ा मन्दवेगी नारी के साथ। »मध्यवेगी पुरुष का संबध चण्डवेगी नारी के साथ। »चण्डवेगी नायक का संभोग मन्दवेगी स्त्री के साथ। »चण्डवेगी नायक का समान समागम मध्यवेगी नारी के साथ। स्तंभनकाल- कई पुरुषों में देर तक सेक्स करने की क्षमता नहीं होती है। ऐसे पुरुष योनि में शिश्न प्रवेश के कुछ सैकैण्ड के बाद ही स्खलित हो जाते हैं। कुछ पुरुषों की स्तंभन शक्ति मध्यम दर्जे की होती है। थोड़े ही पुरुष ऐसे होते हैं जो देर तक रति-क्रीड़ा करने में सक्षम होते हैं जो पुरुष अधिक देर तक नहीं टिक पाते वे स्त्री को संतुष्ट नहीं कर सकते। उनका विवाहित जीवन कलहपूर्ण हो जाता है। इसी तरह कुछ स्त्रियां शीघ्र ही संतुष्ट हो जाती हैं- कुछ स्त्रियां मात्र थोड़े वेगपूर्ण घर्षणों से ही संतुष्ट होती हैं और कुछ स्त्रियां करीब 10-15 मिनट तक निरंतर घर्षण के पश्चात ही संतुष्ट होती हैं। अतः यौन-संतुष्टि के लिए काल के आधार पर भी वर्गीकरण किया गया है। शीघ्र स्खलित होने वाले पुरुष का संयोग शीघ्र संतुष्ट होने वाली स्त्री के साथ। मध्यम अवधि तक टिकने वाले पुरुष का सेक्स संबंध मध्यकालिक रमणी (स्त्री) के साथ। दीर्घकालिक पुरुष का समागम देर तक घर्षण करने के बाद पश्चात संतुष्ट होने वाली रमण प्रिया नारी के साथ। उक्त सभी वर्गीकरण स्त्री-पुरुष की मनोशारीरिक रचना एवं संवेगात्मक तीव्रता के आधार पर किए गए हैं। वही रति-क्रीड़ा सफल एवं उत्तम होती हैं जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों चरमोत्कर्ष के क्षणों में सब कुछ भूल कर दो शरीर एक प्राण हो जाते हैं। परन्तु यह तभी संभव होता है जबकि पुरुष को सेक्स संबंधी संपूर्ण जानकारी हो तथा जिसमें पर्याप्त स्तंभन शक्ति हो। जिन पुरुषों में देर तक सेक्स करने की क्षमता होती हैं उन पर स्त्रियां मर-मिटती हैं। अनेक पुरुषों को यह भ्रम बना रहता है कि उनके समान ही स्त्रियां भी स्खलित होती हैं। यह धारणा भ्रामक, निराधार और मजाक भी है। पुरुषों के समान स्त्रियों में चरमोत्कर्ष की स्थिति में किसी भी प्रकार का स्खलन नहीं होता। नारी की पूर्ण संतुष्टि के लिए आवश्यक है कि रति-क्रीड़ा में संलग्न होने के पूर्ण नारी को कलात्मक पाक-क्रीड़ा द्वारा इतना कामोत्तेजित कर दिया जाये कि वह सेक्स संबंध बनाने के लिए स्वयं आतुर हो उठे एवं चंद घर्षणों के पश्चात ही आनन्द के चरम शिखर पर पहुंच जाएं। नारी को उत्तेजित करने के लिए केवल आलिंगन, चुम्बन एवं स्तन मर्दन ही पर्याप्त नहीं होता। यूं तो नारी का सम्पूर्ण शरीर कामोत्तेजक होता है, पर उसके शरीर में कुछ ऐसे संवेदनशील स्थान अथवा बिन्दु हैं जिन्हें छेड़ने, सहलाने एवं उद्वेलित करने में अंग-प्रत्यंग में कामोत्तेजना प्रवाहित होने लगती है। नारी के शरीर में कामोत्तेजना के निम्नलिखित स्थान संवेदनशील होते हैं- शिश्निका (सर्वाधिक संवेदनशील), भगोष्ठः बाह्य एवं आंतरिक, जांघें, नाभि क्षेत्र, स्तन (चूचक अति संवेदनशील), गर्दन का पिछला भाग, होंठ एवं जीभ, कानों का निचला भाग जहां आभूषण धारण किए जाते हैं, कांख, रीढ़, नितम्ब, घुटनों का पृष्ठ मुलायम भाग, पिंडलियां तथा तलवे। इन अंगों को कोमलतापूर्वक हाथों से सहलाने से नारी शीघ्र ही द्रवित होकर पुरुष से लिपटने लगती है हाथों एवं उंगलियों द्वारा इन अंगों को उत्तेजित करने के साथ ही यदि इन्हें चुम्बन आदि भी किया जाए तो नारी की कामाग्नि तेजी से भड़क उठती है एवं रति क्रीड़ा के आनन्द में अकल्पित वृद्धि होती है। यह आवश्यक नहीं कि सभी अंगों को होंठ अथवा जिव्हा से आन्दोलित किया जाए यह प्रेमी और प्रिया की परस्पर सहमति एवं रुचि पर निर्भर करता है कि प्रणय-क्रीड़ा के समय किन स्थानों पर होठ एवं जीभ का प्रयोग किया जाए। उद्देश केवल यही है कि प्रत्येक रति-क्रीड़ा में नर और नारी को रोमांचक आनन्द की उपलब्धि समान रूप से होनी चाहिए। नारी की चित्तवृत्ति सदा एक समान नहीं रहती। किसी दिन यदि वह मानसिक अथवा शारीरिक रूप से क्षुब्ध हो, रति-क्रीड़ा के लिए अनिच्छा जाहिर करे तो किसी भी प्रकार की मनमानी नहीं करनी चाहिए। सामान्य स्थिति में भी प्रिया को पूर्णतः कामोद्दीप्त कर लेने के पश्चात् ही यौन-क्रीड़ा में संलग्न होना चाहिए। *संभोग के लिए प्रवृत्ति या इच्छा-* स्त्री भले ही सम्भोग के लिए जल्दी मान जाए, परन्तु यह जरूरी नहीं है कि वह इस क्रिया में भी जल्द अपना मन बना ले। पुरुषों के लिए यह बात समझना थोड़ी मुश्किल है। स्त्री को शायद सम्भोग में इतना आनन्द नहीं आता जितना कि सम्भोग से पूर्व काम-क्रीड़ा, अलिंगन, चुम्बन और प्रेम भरी बातें करने में आता है। जब तक पति-पत्नी दोनों सम्भोग के लिए व्याकुल न हो उठें तब तक सम्भोग नहीं करना चाहिए। Osho

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मंगलवार, 9 अगस्त 2022

सूक्ष्म शरीर की विशेषताएं:

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------------ *********************************** परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव भगवान पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन 1- सूक्ष्म शरीर की पहली विशेषता यह है कि इच्छानुसार उसकी गति घटायी-बढ़ायी जा सकती है। 2- दूसरी विशेषता यह है कि कोई भी भौतिक वस्तु या पदार्थ उसके मार्ग में बाधक नहीं बन सकता। 3- सूक्ष्म शरीर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से मुक्त रहता है। 4- पृथ्वी के किसी भी भाग में निर्बाध गति से तत्काल पहुंच सकता है सूक्ष्म शरीर। एक बात जानकर हम-आप आश्चर्यचकित होंगे कि पृथ्वी पर जितने भी जीवित मनुष्य हैं, उनसे कहीं अधिक पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की परिधि में सूक्ष्म शरीरधारी विभिन्न प्रकार की आत्माएं विद्यमान हैं जो पुनः शरीर ग्रहण करने के लिए बराबर प्रयासरत रहती हैं। उन्हीं में बहुत-सी उच्चकोटि की दिव्यात्मायें और योगात्मायें भी हैं जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की सीमा लांघकर पारलौकिक जगत में प्रवेश करने के लिए सचेष्ट हैं। ------------:एक योगात्मा से साक्षात्कार:------------ *********************************** ऐसी ही एक योगात्मा से मेरा साक्षात्कार हुआ। उस समय अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा सूक्ष्म जगत के एक सुरम्य और रमणीक वातावरण में विचरण कर रहा था मैं। चारों ओर प्राकृतिक मनोहारी दृश्य थे जिनका अवलोकन करते हुए मैं आगे बढ़ रहा था। तभी मेरी दृष्टि पड़ी एक सूक्ष्म शरीरधारी महापुरुष पर। निश्चय ही वे कोई दिव्य पुरुष थे। उनके शरीर से दिव्य, अलौकिक आभा प्रस्फुटित हो रही थीं। एक वृक्ष के नीचे सिर झुकाए और नेत्र बन्द किए बैठे हुए थे वे। मेरी उपस्थिति का शायद आभास लग गया था उन्हें। सिर उठाकर देखा और देखकर मन्द-मन्द मुस्कराये। ज्ञात हुआ कि पिछले दो सौ वर्ष से रह रहे हैं महाशय सूक्ष्म जगत में। आये थे मेरी ही तरह सूक्ष्म जगत में भ्रमण करने, लेकिन ऐसे फँसे कि वापस ही न लौट सके अपने पार्थिव शरीर में। आश्चर्य हुआ मुझे। कैसे हुआ यह सब ? उन नहापुरुष का नाम था--केशव भट्ट। योगसाधक थे केशव भट्ट। *खेचरी सिद्धि* थी उनको। काशी के दशाश्वमेध घाट के ऊपर एक मकान में रहते थे। गुरु की सेवा करते हुए साधना में आगे बढ़ते जा रहे थे केशव भट्ट। गुरु का नाम था रत्नदेव। वीरशैव सम्प्रदाय के अनुयायी थे वे। आकाश मार्ग से प्रायः भ्रमण किया करते थे रत्नदेव। अपने शिष्य को पूर्ण योगी बना देना चाहते थे वे। क्या पूर्ण योगी बना पाए अपने शिष्य को ? नहीं ! व्याघात उत्पन्न हो गया। जो मेरा उद्देश्य था, वही उद्देश्य था केशव भट्ट का भी। सूक्ष्म जगत में निवास करने वाले महात्माओं और दिव्यात्माओं के साथ सत्संग और ज्ञानार्जन। केशव भट्ट जब शरीर छोड़कर सूक्ष्म शरीर द्वारा सूक्ष्म जगत में भ्रमणार्थ करने निकलते थे, उस समय उनके शरीर की रक्षा उनके गुरु रत्नदेव करते थे। नियम के अनुसार केशव भट्ट निश्चित अवधि में लौट आने का संकल्प करते थे और उसी अवधि में लौट भी आते थे अपने स्थूल शरीर में। एक बात यहाँ बतला देना आवश्यक है कि सूर्योदय के पूर्व जैसा ऊषाकाल का प्रकाश होता है, वैसे ही प्रकाश से भरा रहता है हर समय सूक्ष्म जगत। समय का ज्ञान नहीं होता। वहां काल का प्रभाव अत्यन्त मन्द है। जो काल की गति भूलोक पर है, उससे धीमी गति भावजगत में होती है और जो भाव जगत में काल की गति होती है, उससे भी मन्द गति सूक्ष्म जगत में होती है। इसलिए यहां के चार वर्ष भाव जगत के एक वर्ष के बराबर होते हैं और यहां के 400 वर्ष सूक्ष्म जगत के चार वर्ष के बराबर। जैसे-जैसे सूक्ष्म जगत के आयाम बदले जाते हैं, हम सूक्ष्म से सूक्ष्मतर जगत में प्रवेश करते जाते हैं, समय की गति उतनी ही मन्द से मंदतर होती जाती है। यहां की जिस अवस्था में योगी सूक्ष्म जगत में प्रवेश करता है, बस समझिए उसी अवस्था का होकर रह जाता है सूक्ष्म जगत में। जो योगी अपने जीवन-काल का अधिक समय सूक्ष्म जगत में व्यतीत करता है, उसके शरीर पर काल की गति का प्रभाव अत्यन्त मन्द पड़ता है। दीर्घकाल तक योगी के जीवित रहने का एकमात्र यही रहस्य है। वैसे मैंने (गुरुदेव ने) अपनी पुस्तकों में यथाप्रसंग सूक्ष्म शरीर की चर्चा की है। यहां सूक्ष्म शरीर के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण बात बतलाना चाहता हूं और वह यह कि सूक्ष्म शरीर में 10 % पृथ्वी तत्व, 20 % मनस्तत्व और शेष 70 % प्राणतत्व रहता है। 10 % पृथिवी तत्व रहने के कारण कभी-कभी सूक्ष्म शरीरधारी आत्माएं दिखलाई दे जाती हैं लोगों को और वह भी कुछ क्षणों के लिए। जैसे स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर समाहित रहता है, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर में मनोमय शरीर रहता है समाहित। लेकिन प्रतिशत कम होने के कारण उसमें गति नहीं होती और न तो होती है ऊर्जा ही। उसको विशेष यौगिक क्रियाओं से बढ़ाना पड़ता है साधक को। जैसा कि संकेत किया जा चुका है कि सूक्ष्म जगत की सीमा के पार पारलौकिक जगत है और उसके पार हैं विशिष्ट लोक-लोकांतर। sabhar shiv ram tiwari Facebook wall

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---------------:साधना-मार्ग में भैरवी की अवधारणा:--

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-------------- *********************************** परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव भगवान पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन परामानसिक जगत की दिशा में चक्र का उन्मेष तो पहले ही हो चुका था, अब वह क्रियाशील अवस्था में है। शक्ति तो निराकार होती है, वह अनुभव का विषय है, लेकिन अत्यन्त आश्चर्य का विषय है जिस पर सहसा कोई विश्वास करने को तैयार नहीं होगा। लेकिन कभी-कदा आवश्यकता पड़ने पर कुण्डलिनी-शक्ति साकार रूप भी धारण कर सकती है। चमेली (गुरुदेव के निवास पर झाड़ू, पोंछा, भोजन, बर्तन आदि का काम करने वाली लड़की) जैसी किसी माध्यम द्वारा प्रकट होकर साधक के पास आती है और मार्गदर्शन भी करती है। तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि तांत्रिक साधना-भूमि में भैरवी का महत्वपूर्ण स्थान है। बिना भैरवी के साधक अपने साधना-मार्ग में निर्विघ्न सफल हो ही नहीं सकता। इसके अनेक कारण हैं। सच बात तो यह है कि पूरा तंत्र-शास्त्र काम-शास्त्र पर आधारित है, इसलिए कि चार पुरुषार्थो में तीसरा पुरुषार्थ 'काम' है। 'काम' सिद्ध होने पर ही चौथा पुरषार्थ 'मोक्ष' उपलब्ध हो सकता है। काम की मूलशक्ति साक्षात स्त्रीस्वरूपा है और वह पुरुष के मूलाधार चक्र में (कुण्डलिनी-शक्ति के रूप में विद्यमान है। वह प्राकृतिक है, स्वयंभू है इसीलिए तांत्रिक साधना-भूमि में स्त्री का विशेष महत्व है। स्त्री के दो रूप हैं--*भोग्या* रूप और दूसरा *पूज्या* रूप। भोग्या रूप इस अर्थ में है कि स्त्री में जो नैसर्गिक शक्ति है जिसे हम 'काम की मूल शक्ति' भी कह सकते हैं, वह साधना- भूमि में साधक के लिए आन्तरिक रूप से उपयोगी सिद्ध होती है। उसी के आधार पर साधना में सफलता प्राप्त करता है साधक और अन्त में प्राप्त करता है उच्च अवस्था को भी। स्त्री में उसकी नैसर्गिक शक्ति को जागृत करना और उसे 'नियोजित' करना अत्यन्त कठिन कार्य है। यह गुह्य कार्य है और इसके सम्पन्न होने पर विशेष तांत्रिक क्रियाओं का आश्रय लेकर स्त्री को *भैरवी दीक्षा* प्रदान की जाती है जिसके फलस्वरूप भैरवी में 'मातृत्व का भाव' उदय होता है। तन्त्र-भूमि में 'मातृत्व भाव' बहुत ही महत्वपूर्ण है। तंत्र-साधना के जितने गुह्य और गंभीर अनुभव हैं, उनमें एक यह भी अनुभव है कि विशेष तांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा पूज्यभाव से साधक अपने सामने पूर्ण नग्न स्त्री को यदि देख लेता है तो वह सदैव-सदैव के लिए स्त्री और स्त्री के आकर्षण से मुक्त हो जाता है। संसार में तीन सबसे बड़े आकर्षण हैं-- धन का आकर्षण, लोक का आकर्षण और स्त्री का आकर्षण। इन्हें 'वित्तैषणा','लोकैषणा' और 'दारैषणा' भी कहा जाता है। दारैषणा का आकर्षण सबसे बड़ा होता है क्योंकि उसके मूल में कामवासना होती है जिसके संस्कार-बीज जन्म-जन्मान्तर से आत्मा के साथ जुड़े हुए हैं। स्त्री के आकर्षण से मुक्त होने के बाद स्त्री साधक के लिए माँ के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहती। यहाँ यह भी बतला देना आवश्यक है कि इसी तांत्रिक प्रक्रिया द्वारा यदि स्त्री पुरुष को पूर्ण नग्न देख ले तो वह भी सदैव के लिए पुरुष और उसके आकर्षण से मुक्त हो जाती है।( यह कार्य तभी संभव है जब स्त्री-पुरुष एक दूसरे को सम्पूर्ण रूप से नग्न देखते समय एक विशेष तांत्रिक प्रक्रिया से गुजरते हैं, साधारण रूप से नग्न देखते समय नहीं, क्योंकि उस समय तो कामवासना और भी ज्यादा बढ़ जाती है। आज तंत्र-साधना केंद्रों पर यही कुछ हो रहा है। वह अनुकरण परम्परा का तो कर रहे हैं लेकिन वह विशेष तांत्रिक प्रक्रिया को नहीं जानते। फलस्वरूप ये केंद्र ऐय्यासी के अड्डे बन गए हैं।) यह एक वैज्ञानिक तथ्य भी है। जैसे तंत्र-शास्त्र काम-शास्त्र पर आधारित है उसी प्रकार काम-शास्त्र भी मनोविज्ञान पर आश्रित है। Sabhar shiv ram tiwari punrjanm Facebook wall

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बुधवार, 3 अगस्त 2022

तंत्र साधना में मंत्रों का विशेष महत्व

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तंत्र साधना में मंत्रों का विशेष महत्व है। इन मंत्रों में प्रमुख होता है उस मंत्र का बीज अक्षर। जैसे सरस्वती का बीज है ऐम् काली का बीज है कलीम् इसी प्रकार अलग अलग देवी देवताओं के लिए एक विशेष बीज अक्षर होता है जो स्वयं में पूर्ण मंत्र भी होता है। इन अक्षरों से एक विशेष प्रकार की ध्वनि या नाद उत्पन्न किया जाता है जिनकी डिजाइन और शेप भी एक विशेष प्रकार के बनते हैं। ये अक्षर हमारे ऋषि मुनीयों ने एक विशेष प्रकार की शक्ति का आहवाहन करने के उद्देश्य से खोजे। इन बीज अक्षरों का संबंध हमारी रीढ़ की हड्डी से लगी शुष्मना नाड़ी में स्थित अलग अलग चक्रों से है। तो जब साधक पूर्ण शुद्धी के साथ मंत्रों का जप करता है तो एक निश्चित केंद्र पर ऊर्जा का धक्का देता है। जिससे धीरे धीरे उस अमुक चक्र की शुद्धी होती है और उस चक्र से ऊर्जा के विस्फोट शुरू हो जाते हैं। इसी उत्पन्न ऊर्जा को ऋषि मुनियों ने सिद्धी नाम दिया। अर्थात सरस्वती और बगला कंठ को सिद्धी देती हैं। महालक्ष्मी नाभी को सिद्धी देती हैं। शिव हृदय को सिद्धी देते हैं। इन पृयोगों में अलग अलग सिद्धियों के लिए विशेष प्रकार की गंध का भी पृयोग किया जाता है। इसकी वजह थी की जब अमुक सिद्धी उत्पन्न होती हैं। तो एक विशेष प्रकार की गंध उत्पन्न करती हैं। तो पृक्रिया को सहज करने उन विशेष गन्धों को पहले से ही साधना में शामिल कर लिया जाता है। यही वजह रही कि आज भी पूजा पाठ में धूप बत्ती लोहाँग पान इत्यादि शामिल किये जाते हैं। सनातनी पूजा पाठ और तंत्र मंत्र इत्यादि सब वैज्ञानिक युक्तियों से निर्मित किये गए थे। मगर पुराने लोगों ने इन पृक्रियाओं को बाँटना उचित नहीं समझा कि कहीं कोई इन शक्तियों का गलत पृयोग ना करे। समय बीतता गया और ये विध्याएँ लुप्त होती चली गई। सनातनी का यह विज्ञान समाप्त होने लगा और ज्ञान ना होने के कारण लोग इसे अंधविश्वास से अधिक कुछ नहीं समझते। sabhar punarjanm Facebook wall जय श्री गुरु महाराज जी की। 🙏🙏🙏💐💐💐🙏🙏🙏।।।

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सोमवार, 1 अगस्त 2022

अम्ल क्षार और लवण क्या होते हैं

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अम्ल • अम्ल ऐसे यौगिक पदार्थ होते हैं, जिनमें हाइड्रोजन प्रतिस्थाप्य के रूप में रहता है। UTT • विलयन में H (aq) आयन के निर्माण के कारण ही पदार्थ की प्रकृति अम्लीय होती है। • जब कोई अम्ल किसी धातु के साथ अभिक्रिया करता है तब हाइड्रोजन का उत्सर्जन होता है। साथ ही संगत लवण का निर्माण होता है। • जब अम्ल किसी धातु कार्बोनेट या धातु हाइड्रोजन कार्बोनेट से अभिक्रिया करता है तो यह संगत लवण कार्बन डाइऑक्साइड गैस एवं जल उत्पन्न करता है। • अम्ल का जलीय विलयन नीले लिटमस को लाल कर देता है। • अम्ल स्वाद में खट्टे होते हैं। ● खट्टे दूध में लैक्टिक अम्ल पाया जाता है। • सिरके एवं अचार में एसीटिक अम्ल होता है। ● नींबू एवं सन्तरे में साइट्रिक अम्ल होता है। नाइट्रिक अम्ल का प्रयोग सोने एवं चाँदी के शुद्धीकरण में किया जाता है। • कपड़े से जंग के धब्बे हटाने के लिए ऑक्जैलिक अम्ल प्रयोग होता है। • 3:1 के अनुपात में सान्द्र हाइड्रोक्लोरिक अम्ल एवं सान्द्र नाइट्रिक अम्ल का ताजा मिश्रण 'अम्लराज' (Aqua regia) कहलाता है। यह सोने एवं प्लेटिनम को गलाने में समर्थ होता है। भस्म • भस्म ऐसा यौगिक होता है जो अम्ल से प्रतिक्रिया कर लवण एवं जल देता है। • जब भस्म किसी धातु से अभिक्रिया करता है तो हाइड्रोजन गैस के उत्सर्जन के साथ एक लवण का निर्माण होता है जिसका ऋण आयन एक धातु एवं ऑक्सीजन के परमाणुओं से संयुक्त रूप से निर्मित होता है। pH स्केल क्या है ? • जल में क्षारकीय विलयन विद्युत का चालन करते हैं, क्योंकि ये हाइड्रॉक्साइड आयन का निर्माण करते हैं। तो अम्लीय होता है न ही क्षारकीय, तब यह बैंगनी रंग का होता है। • भस्म दो प्रकार के होते हैं- जल में विलेय भस्म एवं जल में अविलेय भस्म । अम्ल, भस्म एवं लवण हाइड्रॉक्साइड (KOH), सोडियम हाइड्रॉक्साइड (NAOH) आदि। • मिल्क ऑफ मैग्नेशिया या मैग्नेशियम हाइड्रॉक्साइड [Mg(OH)2 ] नामक भस्म का उपयोग पेट की अम्लीयता को दूर करने में किया जाता है। • जल में विलेय भस्म को 'क्षार' कहा जाता है। यह लाल लिटमस पत्र को नीला कर देता है तथा स्वाद में कड़वा होता है, जैसे-पोटैशियम • जल में अविलेय भस्म, अम्ल के साथ प्रतिक्रिया कर लवण एवं जल बनाते हैं, किन्तु क्षार के अन्य गुण प्रदर्शित नहीं करते, जैसे- कॉपर हाइड्रॉक्साइड (Cu(OH)2) • कैल्शियम हाइड्रॉक्साइड [Ca(OH)2] ऐसा भस्म है, जिसका उपयोग घरों में चूना पोतने में, ब्लीचिंग पाउडर बनाने में जल को मृदु बनाने में तथा चमड़े के ऊपर बाल साफ करने में किया जाता है। • कास्टिक सोडा या सोडियम हाइड्रॉक्साइड (NaOH) भी एक भस्म है। इसका उपयोग साबुन बनाने में दवा बनाने में पेट्रोलियम साफ में एवं कपड़ा व कागज बनाने में किया जाता है। क्या होता है लिटमस -पत्र ? लिटमस-पत्र एक प्राकृतिक सूचक होता है, जिसका निर्माण थैलोफाइटा समूह के लिचेन (lichen) नामक पौधे से किया जाता है। लिटमस विलयन जब न • किसी विलयन के pH का मान 7 से जितना कम होगा, उसकी अम्लीयता उतनी ही अधिक होगी तथा किसी विलयन के pH का मान 7 से जितना अधिक होगा उसकी क्षारीयता उतनी ही कम होगी। • एक उदासीन विलयन के pH का मान 7 होता बढ़ती हुई अम्लीय प्रकृति, उदासीन, बढ़ती हुई ● है। क्षारक प्रकृति • H आयन की सान्द्रता में वृद्धि 7 H आयन की सान्द्रता में कमी हमारा शरीर 7.0 से 7.8 pH परास के बीच कार्य करता है। वर्षा के जल का pH मान जब 5.6 से कम जाता है तो वह 'अम्लीय वर्षा' कहलाती है। ● • सभी जीवों में उपापचय की क्रिया pH की एक सीमा में होती है। ● मुँह के pH का मान 5.5 से कम होने पर दाँतों प्रारम्भ हो जाता है। • जीवित प्राणी केवल संकीर्ण pH परास में ही जीवित रह सकते हैं। कुछ सामान्य पदार्थों के pH मान पदार्थ pH मान 8.4 7.4 6.5 6.4 6.0 2.8 24 22 समुद्री जल रक्त लार दूध मूत्र शराब सिरका नींबू • किसी विलयन में उपस्थित हाइड्रोजन आयन की सान्द्रता ज्ञात करने के लिए एक स्केल विकसित किया गया, जिसे 'pH स्केल' कहते हैं। का क्षय लवण • अम्ल एवं भस्म की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप लवण का निर्माण होता है। • इस pH में P अक्षर जर्मन भाषा के शब्द Potz से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है 'शक्ति'। इस pH स्केल से सामान्यतः शून्य से चौदह तक pH को ज्ञात किया जा सकता है। • प्रबल अम्ल एवं प्रबल भस्म से निर्मित लवण का pH मान 7 होता है तथा ये उदासीन होते हैं। • जब प्रबल अम्ल एवं दुर्बल भस्म के लवण के pH का मान 7 से कम होता है तो ये 'अम्लीय' होते हैं। • जब प्रबल भस्म एवं दुर्बल अम्ल के लवण के pH 7 से अधिक होता है तो ये 'क्षारकीय' होते हैं। pH स्केल से सम्बन्धित कुछ तथ्य • pH (0-14) स्केल का उपयोग अम्ल या क्षारक की प्रबलता की जाँच में होता है। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल एवं सोडियम हाइड्रोक्साइड के विलयन की अभिक्रिया से उत्पन्न लवण 'सोडियम क्लोराइड' का प्रयोग हम भोजन में करते हैं। ●समसामयिकी महासागर

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