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काम का वास्तविक आनंद

समान रूप से शारीरिक सम्बन्धों द्वारा भोगा गया आनन्द ही सम्भोग है। इसमें सेक्स का आनन्द स्त्री-पुरुष को समान रूप से प्राप्त होना आवश्यक है। स्खलन के साथ ही पुरुष को तो पूर्ण आनन्द की प्राप्ति हो जाती है और सेक्स सम्बन्ध स्थापित होते ही पुरूष का स्खलन निश्चित हो जाता है। यह स्खलन एक मिनट में भी हो सकता है तो दस मिनट में भी। अर्थात् पुरुष को पूर्ण आनन्द की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए मुख्य रूप से स्त्री को मिलने वाले आनन्द की तरफ ध्यान देना आवश्यक है। अगर स्त्री इस आनन्द से वंचित रहती है, इसे सम्भोग नहीं माना जाना चाहिए। इस वास्तविकता से व्यक्ति पूरी तरह से अनभिज्ञ होकर अपने तरीके से सेक्स सम्बन्ध बनाता है और स्त्री के आनन्द की तरफ कोई ध्यान नहीं देता है। इसे केवल भोग ही मानना चाहिए। सम्भोग की वास्तविकता को समझे बिना इसे जानना मुश्किल होगा। विवाह के बाद व्यक्ति सम्भोग करने के स्थान पर भोग करता है तो इसका मतलब यह है कि वह इस तरफ से अनजान है कि स्त्री को सेक्स का पूरा आनन्द मिला कि नहीं। सम्भोग शब्द की महत्ता को समझें। स्त्री को भोगें नहीं, समान रूप से आनन्द को बांटे। यही संभोग है। युवक-युवती जब विवाह के उद्देश्य को समझ विवाह-बंधन में बंधते हैं तो वे इस बात से अवगत होते हैं कि उनके प्रेम भरे क्रिया-कलापों का अंत संभोग होगा। प्रत्येक शिक्षित युवक-युवती यह जानते हैं कि संभोग विवाह का अनिवार्य अंग है। यदि कोई सहेली ऐसी नवयुवती से पूछती है कि तू विवाह करने तो जा रही है किन्तु यह भी जानती है कि संभोग कैसा होता है ? वो या तो इसका उत्तर टाल जाएगी अथवा कह देगी कि उसके बारे मे जानने की क्या आवश्यकता है? संभोग तो पुरुष करता है। इसलिए उसे ही जानना चाहिए कि संभोग कैसे करना चाहिए। ऐसे प्रश्नों पर युवक हंसकर उत्तर देता है, भला यह भी कोई पूछने की बात है। संभोग करना कौन नहीं जानता। *संभोग आरंभ करने की स्थिति-* यह ठीक है कि अनेक प्रकार की काम-क्रीड़ा से स्त्री संभोग के लिए तैयार हो जाए और उसकी योनि तथा पुरुष के शिश्न मुण्ड में स्राव आने लगे तो योनि में शिश्न डालकर मैथुन प्रारम्भ कर देना चाहिए। परन्तु जिस बात पर हमें विशेष बल देना चाहिए वह यह है कि योनि में शिश्न डालने के पश्चात् ही काम-क्रीड़ाओं को बंद नहीं कर देना चाहिए, जिनके द्वारा स्त्री को संभोग के लिए तैयार किया गया है। यह ठीक है कि समागम के कुछ आसन ऐसे होते हैं जिनमें बहुत अधिक प्रणय क्रीड़ाओं की गुंजाइश नहीं होती, परन्तु ऐसे आसन बहुत कम होते हैं। योनि में शिश्न के प्रवेश करने के बाद जब तक संभव हो सके इन क्रियाओं को जारी रखना चाहिए। यदि किसी आसन में नारी का चुम्बन लेते रहना संभव न हो तो स्तनों को सहलाते और मसलते रहना चाहिए। अगर स्तनों को मसलना या पकड़कर दबाना भी संभव न हो तो इसके चुचकों का ही स्पर्श करते रहना चाहिए। इससे तात्पर्य यह है कि इस समय जो भी प्रणय-कीड़ा संभव हो सके, उसे जारी रखना चाहिए। इससे काम आवेग में वृद्धि होती है, मनोरंजन बढ़ता है और स्त्री के उत्साह में वृद्धि होती है। *प्रणय क्रीड़ाएं अनिवार्य विषय* जो लोग मैथुन कार्य प्रारम्भ होते ही प्रणय क्रीड़ा बंद कर देते हैं, वे प्रणव-क्रीड़ा को मैथुन से अलग मानते हैं। उनकी धारणा है कि मैथुन कार्य प्रारम्भ होते ही प्रणय क्रियाओं की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। यह धारणा बिल्कुल गलत है। इन दोनों चीजों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में आकर प्रणय-क्रीड़ाओं को एकदम बंद कर देने से वह सिलसिला टूट जाता है जिसमें स्त्री रुचि लेने लगी थी। इस बात को सदा याद रखना चाहिए कि काम-क्रीड़ा के दो उद्देश्य होते हैं- एक तो इस क्रिया द्वारा आनन्द प्राप्त करना और दूसरे दोनों सहयोगियों-विशेषतया-स्त्री को प्रणय-क्रिया के अंतिम कार्य अर्थात् संभोग के लिए तैयार करना। इन दोनों बातों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि यदि संभोग की स्थिति पर पहुंचकर प्रणय-क्रीड़ा में अनावश्यक अवरोध पैदा कर दिया जाए या इस क्रीड़ा को बंद ही कर दिया जाए तो स्त्री के मन में झुंझलाहट पैदा हो जाएगी। इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए इस दृश्य की कल्पना कीजिए। पुरुष नारी के गले में बाहें डाले हुए उसके स्तनों का चुम्बन कर रहा है, साथ ही वह उन्हें मसलता जाता है और उसके चूचुकों को भी समय-समय पर स्पर्श कर लेता है। स्वाभाविक है कि इससे नारी के उत्साह और काम के आवेग में वृद्धि होती है। वह उसके हाथ को अपने स्तनों पर और दबा लेती है। इसका तात्पर्य यह है कि वह चाहती है कि पुरुष उनको और जोर से मसले, क्योंकि इससे उसे और अधिक आनन्द आता है। पुरुष इस संकेत को दूसरे रूप में लेता है और समझता है कि स्त्री पर कामोन्माद का पूरा आवेग चढ़ चुका है। बस वह स्तनों को मसलना बंद करके नारी की योनि में अपने शिश्न को प्रविष्ट करने की तैयारी करने लगता है। इससे स्त्री को बड़ी निराशा होती है। पुरुष उसकी योनि में शिश्न डाले, इसमें तो उसे कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु वह यह नहीं चाहती कि वह स्तनों को मसलना बंद कर दे। उसे उसके मर्दन (मसलने) से जो आनन्द प्राप्त हो रहा था, उसका सिलसिला बीच में टूट गया। वह यह नहीं चाहती थी। इसलिए यह आवश्यक है कि संभोग क्रिया आरंभ होते समय और उसके जारी रहते हुए न तो प्रणय-क्रीड़ा को समाप्त करें और न उसमें कोई रुकावट ही आने दें। यह तो सभी लोग जानते हैं कि संभोग क्रिया में पुरुष और स्त्री दोनों ही समान रूप से भागीदार होते हैं, किन्तु बहुत से लोगों का विचार यह है कि पुरुष सक्रिय भागीदार की भूमिका अदा करता है तथा स्त्री केवल सहन करती है अथवा स्वीकार मात्र करती है यह विचार भ्रांतिपूर्ण है। स्त्रियों के जनन अंग बने ही इस प्रकार के हैं कि वे संभोग में कभी निष्क्रिय रह ही नहीं सकते। यूरोपीय देशों की अनेक कुमारी नवयुवतियों ने इस बात को स्वीकार किया है कि जब पहली बार किसी पुरुष ने उनके उरोजों को पकड़कर चूचुकों को धीरे-धीरे सहलाना शुरू किया तो उनकी योनि में विशेष तरह की फड़क-सी अनुभव हुई और यह इच्छा जाग्रत हुई कि कोई कड़ी वस्तु उसमें जाकर घर्षण करें। कुछ पत्नियां ऐसी होती हैं जो जान-बूझकर निष्क्रिय भूमिका अदा करना चाहती हैं। वे समझती हैं जब पति उसका चुम्बन, कुचमर्दन (स्तनों को सहलाना, मसलना) आदि करे तो उन्हें ऐसा आभास देना चाहिए कि पुरुष के इस कार्य से उन्हें आनन्द नहीं मिल रहा है। उन्हें आशंका होती है कि यदि वे आनन्द प्राप्ति का आभास देंगी तो पति यह समझ लेंगे कि वे विवाह से पूर्व संभोग का आनन्द ले चुकी हैं। इस प्रकार के विचारों को उन्हें अपने मन से निकाल देना चाहिए। संभोग करते समय इस बात को याद रखना चाहिए कि संभोग में सबसे अधिक आनन्द प्राप्त करने के लिए जिस आवेग की आवश्यकता होती है, वह तभी प्राप्त हो सकता है जब योनि में शिश्न निरंतर गतिशील रहे। इस गति का संबंध हरकत करने से है। इस स्थिति में शिश्न कड़ा और सीधा होकर योनि की दीवारों की मुलायम परतों तथा गद्दियों के सम्पर्क में आ जाता है। इसके फलस्वरूप शिश्न के तंतुओं में अधिकाधिक तनाव आ जाता है जिसकी समाप्ति वीर्य स्खलन के साथ होती है। संभोग करते समय बहुत से पुरुषों को आशंका रहती है कि योनि में उनका लिंग प्रवेश करते ही वे स्खलित हो जाएंगे। इसी आशंका से भयभीत होकर वे योनि में शिश्न प्रविष्ट करके जल्दी-जल्दी हरकत करने लगते हैं और इस प्रकार वे बहुत जल्दी स्खलित हो जाते हैं। सेक्स के वास्तविक आनन्द की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि शिश्न के पूर्णतया प्रविष्ट हो जाने के बाद स्त्री पुरुष दोनों स्थिर होकर चुम्बन मर्दन आदि करें। इसके थोड़ी देर बाद फिर गति आरंभ करें। जब फिर स्खलन होने की आशंका होने लगे, तब फिर रुककर चुम्बन आदि में प्रवृत्त हो जाएं, इससे दोनों को अधिकाधिक आनन्द प्राप्त होगा। इस स्थिति में स्त्री को चाहिए कि जब पुरुष गति लगाए तब वह योनि को संकुचित करे, जितना अधिक वह संकुचित करेगी, उतना ही पुरुष का आनन्द बढ़ेगा और वह क्रिया करने लगेगा। ऐसा करने से स्त्री और पुरुष दोनों को आनन्द आएगा। इस भांति रुक-रुककर गति लगाने से स्त्री पूर्ण उत्तेजना की स्थिति में पहुंच जाती है। उस समय उसकी इच्छा होती है कि अब पुरुष जल्दी-जल्दी गति देकर अपने-आपको और स्त्री दोनों को स्खलित कर दे। उस समय पुरुष को जल्दी-जल्दी गति लगानी चाहिए, स्त्री को भी इसमें अपनी ओर से पूरा सहयोग देना चाहिए। अधिकांश स्त्रियों की यह धारण सही नहीं है कि गति लगाना केवल पुरुष का ही काम है। जब कुछ देर तक स्त्री-पुरुष के यौन अंग एक-दूसरे पर घात-प्रतिघात करते रहते हैं तो इस क्रिया से अब तक मस्तिष्क को जो आनन्द मिल रहा था, वह बढ़ते-बढ़ते इतना अधिक हो जाना हो जाता है कि मस्तिष्क इससे अधिक आनन्द बर्दाश्त नहीं कर पाता। इस समय स्त्री-पुरुष यौन आनन्द की चरम सीमा पर पहुंच चुके होते हैं जिसे चिकित्सा विज्ञान की भाषा में चरमोत्कर्ष कहा जाता है। ऐसी परिस्थिति में मस्तिष्क अपने आप संभोग क्रिया को समाप्त करने के संकेत देने लगता है। पुरुष व स्त्री स्खलित है जाते हैं। पुरुष के शिश्न से वीर्य निकलता है और स्त्री की योनि से पानी की तरह पतला द्रव्य। *स्खलन के बाद* संभोग के बाद जब वीर्य स्खलित हो जा%ता है तो अधिकांश पुरुष समझ लेते हैं कि अब काम समाप्त हो गया है और सो जाने के अलावा कोई काम शेष नहीं रह गया है। उनकी यह बहुत बड़ी भूल है। स्खलन के साथ ही मैथुन समाप्त नहीं हो जाता। वीर्य स्खलन का अर्थ केवल इतना है कि जिस पहाड़ की चोटी पर आप पहुंचना चाहते थे, वहां आप पहुंच गये हैं। अभी चोटी से नीचे भी उतरना है। नीचे उतरना भी एक कला है। जो पुरुष वीर्य स्खलित होने के पश्चात सो जाता है या सोने की तैयारी करने लगता है, वह अपनी संगिनी की भावना को गहरा आघात पहुंचाता है। उसके मन में यह विचार आ सकता है कि उसका साथी केवल अपनी शारीरिक संतुष्टि को महत्त्व देता है, उसकी भावना की कोई परवाह नहीं करता। पुरुष का कर्त्तव्य है कि वह स्त्री के मन में ऐसी भावना पैदा न होने दे। स्त्री को संतुष्टि तथा आनन्द प्रदान करने के लिए पुरुष को चाहिए कि वह समागम के बाद स्त्री के विभिन्न अंगों का चुम्बन ले, प्रेमपूर्वक आलिंगन करे और कुछ समय प्रेमालाप करे। इन बातों से स्त्री को यह अनुभव होगा कि पुरुष उसे कामवासना की पूर्ति का खिलौना ही नहीं समझता, वास्तव में वह उससे प्रेम करता है। इसके अलावा संभोग के बाद पुरुष का आवेग जिस गति से शांत होता है स्त्री का आवेग उतनी तेजी से शांत नहीं होता। उसमें काफी समय लगता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पुरुष धीरे-धीरे अपनी प्रणय क्रीड़ाओं से स्त्री को सामान्य दशा में लाए। जब उसे यह विश्वास हो जाए कि स्त्री का कामोन्माद पूरी तरह से शांत हो गया है तो भी उसे उसकी ओर मुंह फेरकर नहीं सोना चाहिए। उसे अपनी छाती से तब तक लगाए रखना चाहिए तब तक वह सो न जाए। उसके सोने के बाद ही स्वयं को सोना चाहिए। *संभोग क्रीड़ा का वर्गीकरण* शिश्न और योनि के आकार के भेद के अनुसार जिस प्रकार संभोग क्रीड़ा का वर्गीकरण किया गया है उसी प्रकार संवेग के आधार पर भी रति-क्रीड़ा के भेद निर्धारित किए गए हैं। जिस प्रकार दो व्यक्तियों के चेहरे आपस में नहीं मिलते, जिस प्रकार दो व्यक्तियों की रुचि एवं पसन्द में तथा शारीरिक ढ़ाचे एवं मानसिक स्तर में परस्पर भिन्नता होती है, उसी प्रकार दो नर-नारियों की कामुकता एवं यौन संवेगों में पर्याप्त अन्तर होता है। कुछ नर-नारियां ऐसी होती हैं जो प्रचण्ड यौन-क्रीड़ा को सहन नहीं कर पाती। प्रगाढ़ एवं कठोर आलिंगन, चुम्बन, नख-क्रीड़ा एवं दंतक्षत उन्हें नहीं भाता। ऐसे नर-नारियों को मृदुवेगी कहा गया है। कोमल प्रकृति होने के कारण इन्हें हल्का संभोग ही अधिक रुचिकारी होता है। जिन नर-नारियों की यौन-चेतना औसत दर्जे की अथवा मध्यम दर्जे की होती है उन्हें मध्यवेगीय कहते हैं। ये न तो अति कामुक होते हैं और न ही इनकी यौन सचेतना मंद होती है। ये संभोग प्रिय भी होते हैं और यौन कला प्रवीण भी परन्तु काम पीड़ित नहीं होते हैं। पाक क्रीड़ा में अक्रामक रुख भी नहीं अपनाते। इनका यौन जीवन सामान्यतः संतुष्ट एवं आनन्दपूर्ण होता है। ये अच्छे तथा आदर्श गृहस्थ भी होते हैं। चण्ड वेगी नर-नारियों की कामुकत्ता प्रचण्ड होती है। ये विलासी और कामी होते हैं। बार-बार यौन क्रियाओं के लिए इच्छुक रहते हैं। मौका पाते ही संभोग भी कर लेते है। संवेगात्मक तीव्रता अथवा न्यूनता के आधार पर स्त्री-पुरुष को जो वर्गीकरण किया गया है वह प्रकार है- *समरत* »मनदवेगी नायक का सम्पर्क मन्दवेगी नारी के साथ। »मध्यवेगी नायक का वेग मध्यवेगी नारी के साथ। »चण्डवेगी नायक का जोड़ा चण्डवेगी नारी के साथ। *विषमरत* »मन्दनेगी पुरुष सा सम्पर्क मध्यवगी नारी के साथ। »मन्दवेगी नायक का रमण चण्डवेगी नारी के साथ। »मध्यवेगी नर का जोड़ा मन्दवेगी नारी के साथ। »मध्यवेगी पुरुष का संबध चण्डवेगी नारी के साथ। »चण्डवेगी नायक का संभोग मन्दवेगी स्त्री के साथ। »चण्डवेगी नायक का समान समागम मध्यवेगी नारी के साथ। स्तंभनकाल- कई पुरुषों में देर तक सेक्स करने की क्षमता नहीं होती है। ऐसे पुरुष योनि में शिश्न प्रवेश के कुछ सैकैण्ड के बाद ही स्खलित हो जाते हैं। कुछ पुरुषों की स्तंभन शक्ति मध्यम दर्जे की होती है। थोड़े ही पुरुष ऐसे होते हैं जो देर तक रति-क्रीड़ा करने में सक्षम होते हैं जो पुरुष अधिक देर तक नहीं टिक पाते वे स्त्री को संतुष्ट नहीं कर सकते। उनका विवाहित जीवन कलहपूर्ण हो जाता है। इसी तरह कुछ स्त्रियां शीघ्र ही संतुष्ट हो जाती हैं- कुछ स्त्रियां मात्र थोड़े वेगपूर्ण घर्षणों से ही संतुष्ट होती हैं और कुछ स्त्रियां करीब 10-15 मिनट तक निरंतर घर्षण के पश्चात ही संतुष्ट होती हैं। अतः यौन-संतुष्टि के लिए काल के आधार पर भी वर्गीकरण किया गया है। शीघ्र स्खलित होने वाले पुरुष का संयोग शीघ्र संतुष्ट होने वाली स्त्री के साथ। मध्यम अवधि तक टिकने वाले पुरुष का सेक्स संबंध मध्यकालिक रमणी (स्त्री) के साथ। दीर्घकालिक पुरुष का समागम देर तक घर्षण करने के बाद पश्चात संतुष्ट होने वाली रमण प्रिया नारी के साथ। उक्त सभी वर्गीकरण स्त्री-पुरुष की मनोशारीरिक रचना एवं संवेगात्मक तीव्रता के आधार पर किए गए हैं। वही रति-क्रीड़ा सफल एवं उत्तम होती हैं जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों चरमोत्कर्ष के क्षणों में सब कुछ भूल कर दो शरीर एक प्राण हो जाते हैं। परन्तु यह तभी संभव होता है जबकि पुरुष को सेक्स संबंधी संपूर्ण जानकारी हो तथा जिसमें पर्याप्त स्तंभन शक्ति हो। जिन पुरुषों में देर तक सेक्स करने की क्षमता होती हैं उन पर स्त्रियां मर-मिटती हैं। अनेक पुरुषों को यह भ्रम बना रहता है कि उनके समान ही स्त्रियां भी स्खलित होती हैं। यह धारणा भ्रामक, निराधार और मजाक भी है। पुरुषों के समान स्त्रियों में चरमोत्कर्ष की स्थिति में किसी भी प्रकार का स्खलन नहीं होता। नारी की पूर्ण संतुष्टि के लिए आवश्यक है कि रति-क्रीड़ा में संलग्न होने के पूर्ण नारी को कलात्मक पाक-क्रीड़ा द्वारा इतना कामोत्तेजित कर दिया जाये कि वह सेक्स संबंध बनाने के लिए स्वयं आतुर हो उठे एवं चंद घर्षणों के पश्चात ही आनन्द के चरम शिखर पर पहुंच जाएं। नारी को उत्तेजित करने के लिए केवल आलिंगन, चुम्बन एवं स्तन मर्दन ही पर्याप्त नहीं होता। यूं तो नारी का सम्पूर्ण शरीर कामोत्तेजक होता है, पर उसके शरीर में कुछ ऐसे संवेदनशील स्थान अथवा बिन्दु हैं जिन्हें छेड़ने, सहलाने एवं उद्वेलित करने में अंग-प्रत्यंग में कामोत्तेजना प्रवाहित होने लगती है। नारी के शरीर में कामोत्तेजना के निम्नलिखित स्थान संवेदनशील होते हैं- शिश्निका (सर्वाधिक संवेदनशील), भगोष्ठः बाह्य एवं आंतरिक, जांघें, नाभि क्षेत्र, स्तन (चूचक अति संवेदनशील), गर्दन का पिछला भाग, होंठ एवं जीभ, कानों का निचला भाग जहां आभूषण धारण किए जाते हैं, कांख, रीढ़, नितम्ब, घुटनों का पृष्ठ मुलायम भाग, पिंडलियां तथा तलवे। इन अंगों को कोमलतापूर्वक हाथों से सहलाने से नारी शीघ्र ही द्रवित होकर पुरुष से लिपटने लगती है हाथों एवं उंगलियों द्वारा इन अंगों को उत्तेजित करने के साथ ही यदि इन्हें चुम्बन आदि भी किया जाए तो नारी की कामाग्नि तेजी से भड़क उठती है एवं रति क्रीड़ा के आनन्द में अकल्पित वृद्धि होती है। यह आवश्यक नहीं कि सभी अंगों को होंठ अथवा जिव्हा से आन्दोलित किया जाए यह प्रेमी और प्रिया की परस्पर सहमति एवं रुचि पर निर्भर करता है कि प्रणय-क्रीड़ा के समय किन स्थानों पर होठ एवं जीभ का प्रयोग किया जाए। उद्देश केवल यही है कि प्रत्येक रति-क्रीड़ा में नर और नारी को रोमांचक आनन्द की उपलब्धि समान रूप से होनी चाहिए। नारी की चित्तवृत्ति सदा एक समान नहीं रहती। किसी दिन यदि वह मानसिक अथवा शारीरिक रूप से क्षुब्ध हो, रति-क्रीड़ा के लिए अनिच्छा जाहिर करे तो किसी भी प्रकार की मनमानी नहीं करनी चाहिए। सामान्य स्थिति में भी प्रिया को पूर्णतः कामोद्दीप्त कर लेने के पश्चात् ही यौन-क्रीड़ा में संलग्न होना चाहिए। *संभोग के लिए प्रवृत्ति या इच्छा-* स्त्री भले ही सम्भोग के लिए जल्दी मान जाए, परन्तु यह जरूरी नहीं है कि वह इस क्रिया में भी जल्द अपना मन बना ले। पुरुषों के लिए यह बात समझना थोड़ी मुश्किल है। स्त्री को शायद सम्भोग में इतना आनन्द नहीं आता जितना कि सम्भोग से पूर्व काम-क्रीड़ा, अलिंगन, चुम्बन और प्रेम भरी बातें करने में आता है। जब तक पति-पत्नी दोनों सम्भोग के लिए व्याकुल न हो उठें तब तक सम्भोग नहीं करना चाहिए। Osho

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