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अगस्त, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

श्रीकृष्ण हैं बायोटेक्नोलाॅजी के असली जनक

******************************************** स्कूल कॉलेजों में हमें यही सिखाया जाता है कि बायोटेक्नॉलाजी को विदेशी वैज्ञानिकों ने खोजा, लेकिन असल में बायोटेक्नोलाॅजी के असली जनक हमारे कान्हा यानि भगवान श्रीकृष्ण थे।  जार्ज मेंडल, वाट्सन और क्रिक नहीं ।  ये सिद्धांत करीब 5000 साल पहले भगवान श्रीकृष्ण ने दिए थे। गीता के कई श्लोकों में इस बात का जिक्र है, जिससे साबित होता है कि बायोटेक के जनक कष्ण थे। गीता के श्लोक बायोटेक के सिद्धांतों को खुद में समेटे हुए हैं। गीता केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं बल्कि एक वैज्ञानिक ग्रंथ भी है।  कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया ज्ञान वैज्ञानिक नजरिए पर आधारित था। इसी ज्ञान आधार पर आज कई वैज्ञानिक अवधारणाओं का जन्म हुआ है। श्रीमद् भागवत गीता के सात श्लोकों में जीवन की उत्पत्ति का पूरा सार मौजूद है।इन्ही श्लोकों के द्वारा कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में ही मानव की उत्पत्ति का विज्ञान दे दिया था। सामवेद के तीसरे अध्याय के 10वें खंड में पहला व नौवां श्लोक इन पांच तत्व (एटीजीसीयू) की पुष्टि करता है। यानी जीव आत्मा अणु और परमाण

विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि

विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 72,73वीं, (प्रकाश-संबंधी छह विधियां ) विधियां क्या है? विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि  72 ;- (प्रकाश-संबंधी तीसरी विधि)  10 FACTS;- 1-भगवान शिव कहते है:-— ‘’भाव करो कि ब्रह्मांड एक पारदर्शी शाश्‍वत उपस्‍थिति है।‘’ 2-यह विधि आंतरिक संवेदनशीलता पर आधारित है।इसलिए पहले अपनी संवेदनशीलता को बढ़ाना पड़ेगा। अपने द्वार-दरवाजे बंद कर लो। कमरे में अँधेरा कर लो, और फिर एक छोटी सी मोमबत्‍ती (त्राटक साधना )जलाओ। और उस मोमबत्‍ती के पास प्रेमपूर्ण मुद्रा में बल्‍कि प्रार्थना पूर्ण भाव दशा में बैठो और ज्‍योति से प्रार्थना करो: ‘’अपने रहस्‍य को मुझ पर प्रकट करो।‘’ स्‍नान कर लो, अपनी आंखों पर ठंडा पानी छिड़क लो और फिर ज्‍योति के सामने अत्‍यंत प्रार्थना पूर्ण भाव दशा में होकर बैठो। 3-ज्‍योति को देखो ओर शेष सब चीजें भूल जाओ। सिर्फ ज्‍योति को देखो। ज्‍योति को देखते रहो।पाँच मिनट बाद तुम्‍हें अनुभव होगा कि ज्‍योति में बहुत चीजें बदल रही है। लेकिन स्‍मरण रहे, यह बदलाहट ज्‍योति में नहीं हो रही है; दरअसल तुम्‍हारी दृष्‍टि बदल रही है।प्रेमपूर्ण भाव दशा में सारे ज

क्या है सुक्ष्म शरीर

{{{ॐ}}}                                                      # भावशरीर स्थूलशरीर का ही एक भाग है जो मत्यु के बाद उसी के साथथोडे़ समय बाद नष्ट हो जाता है इससे परे सुक्ष्मशरीर है जो जीवात्मा का स्व- शरीर  है aमनुष्य मे यह शरीर चौदह  ससे इक्कीस वर्ष की उम्र तक विकसित  हो जाना चाहिए।    इसकेपूर्णविकास न होने पर मनूष्य कमी रह जाती है इसके विकास से बुद्धि तर्क  विचार विकसित होते है इसी शरीर के विकास से संस्कृति का विकास होता है इसमें सन्देह  विचार श्रद्धा विवेक की  सम्भावनाएँ है। सन्देह और विेचार जनमजात  है श्रद्धा और विवेक रूपान्तरण है sसन्देह से श्रद्धा एवं विचार से ही विवेक उत्पन्न होता है।।   विचारकरने वाला अन्धविश्वासी हो जाता है वह हठधर्मी व दुराग्रही  हो जाता हैh विवेक वाले का निर्णय निश्चित व स्पष्ट होता है जो सक्ष्म शरीर  को विकसित कर लेते  है उनके चेहरे के चारो और आभा मण्डल (ओरा)  दिखाई देता है जो आत्मा का प्रकाश है यह आभा मण्डल सुक्ष्म कणो से बना  होता है oजो आँखो से नही दिखाई देता इसी सुक्ष्म शरीर से स्थुल शरीर का निर्माण होता है अधिकांश मनुष्य इसी शरीर पर रूक जाते है kउनको यह जी

शब्द-शक्ति और मन्त्र-विज्ञान

************************************** प्रिय आत्मन् क्या हमने कभी कल्पना की है कि संसार के करीब  आधे लोग रात में जब सोते रहते हैं तब आधी आबादी दिन के प्रकाश में अपने कार्य में व्यस्त रहती है। यदि वे  मनुष्य दिन के अपने जागरण-काल में केवल तीन घंटे भी बातें करते हैं तो क्या हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि ये कितनी शक्ति इस प्रकार उत्पन्न करते हैं ? विद्युतीय ध्वनिशास्त्र तथा इंजीनियरिंग के द्वारा गणना करके यदि देखा जाय तो लोग केवल तीन घण्टों में लगभग 7000 खरब वाट विद्युत् शक्ति केवल बोल बोल कर उत्पन्न करते हैं। शब्दों से उत्पन्न यह विद्युत् ऊर्जा दामोदर नदी घाटी, रिहन्द बांध, भाखड़ा नांगल बांध और परमाणु सयन्त्रों की सम्मलित शक्ति से कहीं अधिक है। इस ऊर्जा से सम्पूर्ण विश्व में घण्टों प्रकाश किया जा सकता और उस ऊर्जा की एक यूनिट का मूल्य मात्र 50 पैसा भी रखा जाय तो इतनी बिजली का मूल्य लगभग अरबों-खरबों रुपये होगा। कल्पना कीजिये कि इतनी बिजली और इतना रुपया मनुष्य केवल होंठ हिलाकर हवा में फूँक मार कर उड़ा देता है। जिस स्थान पर तामसिक मन और बिचार वाले लोगों की संख्या अत्यधिक हो जाती है, उनके मुख से

पांच प्रकार के स्वप्न

******************************************** पहले प्रकार का स्वप्न तो मात्र कूड़ा करकट होता है। हजारों मनोविश्लेषक बस उसी कूड़े पर कार्य कर रहे हैं, यह बिलकुल व्यर्थ है। ऐसा होता है क्योंकि सारे दिन में, दिन भर काम करते हुए तुम बहुत कूड़ा कचरा इकट्ठा कर लेते हो। बिलकुल ऐसे ही जैसे शरीर पर आ जमती है धूल और तुम्हें जरूरत होती है स्नान की, तुम्हें जरूरत होती है सफाई की, इसी ढंग से मन इकट्ठा कर लेता है धूल को। लेकिन मन को स्नान कराने का कोई उपाय नहीं। इसलिए मन के पास’ होती है एक स्वचालित प्रक्रिया सारी धूल और कूड़े को बाहर फेंक देने की। पहली प्रकार का स्वप्न कुछ नहीं है सिवाय उस धूल को उठाने के जिसे मन फेंक रहा होता है। यह सपनों का सर्वाधिक बड़ा भाग होता है, लगभग नब्बे प्रतिशत। सभी सपनों का करीब—करीब नब्बे प्रतिशत तो फेंक दी गयी धूल मात्र होता है; मत देना ज्यादा ध्यान उनकी ओर। धीरे धीरे जैसे जैसे तुम्हारी जागरूकता विकसित होती जाती है तुम देख पाओगे कि धूल क्या होती है’।    दूसरे प्रकार का स्वप्न एक प्रकार की इच्छा की परिपूर्ति है। बहुतसी आवश्यकताएं होती हैं,. स्वाभाविक आवश्यकताएं, लेकिन पंडित पु

शिवशंकर भोलेनाथ के वैज्ञानिक अध्यात्म का वैदिक विज्ञान

शिवशंकर भोलेनाथ के वैज्ञानिक अध्यात्म का वैदिक विज्ञान - 10 ****************************************** भारत की सभी परम्पराओं और प्रथाओं के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक कारण जरूर मौज़ूद है, जिसकी वजह से ये परम्पराएं और प्रथाएं सदियों से चली आ रहीं हैं. शिवलिंग पर दूध चढ़ाना भी ऐसे ही एक वैज्ञानिक कारण से जुड़ा हुआ है खासतौर पर सावन (श्रावण) के महीने में मौसम बदलने के कारण बहुत सी बीमारियां होने की संभावना रहती है, क्योंकि इस मौसम में वात-पित्त और कफ़ के सबसे ज्यादा असंतुलित होने की संभावना रहती है, ऐसे में दूध का सेवन करने से आप मौसमी और संक्रामक बीमारियों की चपेट में जल्दी आ सकते हैं. इसलिए सावन में दूध का कम से कम सेवन वात-पित्त और कफ की समस्या से बचने का सबसे आसान उपाय है इसलिए पुराने समय में लोग सावन के महीने में दूध शिवलिंग पर चढ़ा देते थे, साथ ही सावन के मौसम में बारिश के कारण जगह-जगह कई तरह की घास-फूस भी उग आती है, जिसका सेवन मवेशी कर लेते हैं, लेकिन यह उनके दूध को ज़हरीला भी बना सकता है. ऐसे में इस मौसम में दूध के इस अवगुण को भी हरने के लिए एक बार फिर भोलेनाथ, शिवलिंग के रूप में समाधान बन

सृष्टि एक Domain ज्ञान क्षेत्र, विचार- सीमा

" मन "   -------  मन !! यह मन ही है जो प्रकृति के संचालन का सूत्रधार है। मन क्या है, इसे समझने का प्रयास करते हैं। प्रथम हम भौतिक अस्तित्व की बात करते हैं क्योंकि इसके बिना मन की बात करना, बेमानी है। शुरुआत करते हैं सृष्टि से। सृष्टि, यानि सृजन, रचना या कुछ नया पैदा करना, जो कुछ भी पैदा हो उसमें सृष्टि के सभी मूल तत्व रहें, सृष्टि में साथ जुड़ाव भी बना रहे तभी वह सृष्टि का अंग है। आमतौर पर हम प्रकृति ( ब्रह्मांड ) को ही सृष्टि कहकर संबोधित किया करते हैं। सृष्टि, अपने आप में कोई रचना नहीं है बल्कि सृष्टि एक Domain ( ज्ञान क्षेत्र, विचार- सीमा ) है, जिसमें ईश्वर ने भिन्न-भिन्न अवयवों की रचना की है। दरअसल, सृष्टि, ईश्वर की एक जागीर है जिसमें ईश्वर ने भिन्न-भिन्न पदार्थों की भिन्न-भिन्न रूप में रचना की है। पदार्थ के सभी रुपों में दो प्रकार की उर्जा का समावेश किया गया है। एक है potential energy (स्थितिज उर्जा ) तथा दूसरी है , kinetic energy ( गतिज ऊर्जा )। प्रकृति में पदार्थ के मूर्त्त व अमूर्त रुप में दो आयाम बने। एक-- निर्जीव पदार्थ और दूसरा-- सजीव पदार्थ। स्थितिज उर्जा दोनों आय

अदृश्य निर्गुण ब्रह्म

अदृश्य निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम सगुणोपासना द्वारा मन को एकाग्र करने के पश्चात् ही सौरम्भिका-न्याय से निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति सम्भव है । वर्षा ऋतु में मरुस्थल में सूर्य की किरणों को मृग जल समझकर प्राप्त करने के लिए दूर तक निकल जाता है । किन्तु जैसे-जैसे भागता है , जल आगे-आगे दिखाई देता है ।   अन्त में वर्षा के कारण उसे कहीं-न-कहीं जल अवश्य मिल जाता है , इसी प्रकार साधक भी निराकार-निर्विशेष ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए परमात्मा की स्थूल रूप प्रतिमा का पूजन-ध्यान करके अन्त में निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त करता है ; जिससे उसका जन्म सफल हो जाता है , इसे "सौरम्भिका-न्याय" कहते हैं । सौर माने सूर्य की किरणें , उनमें अम्भ = अध्यस्त जल सौराम्भ है ।  न्याय का तात्पर्य कथन में है । जीव शरीरादि को मैं तथा शरीर से सम्बन्धित गृह-स्त्री-पुत्रादि में ममता करके राग-द्वेष से युक्त होता है , किन्तु उसका यह अहंकार निवृत्त भी हो जाये , तब भी दश इन्द्रियाँ-प्राणादि मैं नहीं हूँ , क्योंकि मैं तो इनका द्रष्टा हूँ । पंचकोश , पंचप्राण , तीन अवस्थादियों में ममता करने वाले को व्यवहार

कर्म फल प्रक्रिया एवं कर्म से मुक्ति का उपाय

... मनुष्य हर दिन के जीवन में नए कर्म इकट्ठे करता रहता है तो फिर क्या वह इस कर्म से कभी मुक्त ही नहीं हो सकता? अक्सर लोगों के मन में जिज्ञासा होती है कि, कर्म व क्रियाकलापों के अंतहीन चक्र से बाहर कैसे निकला जाए? क्या कुछ ऐसे क्रियाकलाप हैं, जो मुक्ति के मार्ग पर दूसरी गतिविधियों की तुलना में ज्यादा सहायक होते हैं?  जो व्यक्ति बिल्कुल कुछ नहीं करता, वह कार्मिक याद्दाश्त और कार्मिक चक्रों से पूरी तरह मुक्त होता है। जब तक आप अपने कार्मिक यादों से जुड़े रहते हैं, तब तक अतीत खुद को दोहराता रहता है। कर्म का मतलब क्रियाकलाप के साथ उसकी यादें भी है।  जब तक आप अपनी यादों के शासन में रहेंगे, तब तक ये आपको कुछ न कुछ करने के लिए मजबूर करती रहेंगी। अगर आप खुद को अपनी पिछली स्मृतियों से पूरी तरह से अलग कर लें, केवल तभी आप शांत व स्थिर होकर बैठ सकते हैं। बिना कर्म के कोई याद्दाश्त नहीं होती, इसी तरह से बिना याद्दाश्त के कोई कर्म नहीं होता। जब तक आप अपनी यादों के शासन में रहेंगे, तब तक ये आपको कुछ न कुछ करने के लिए मजबूर करती रहेंगी। अगर आप खुद को अपनी पिछली स्मृतियों से पूरी तरह से अलग कर लें, केवल त

maha avatar baba ji

These beautiful pictures were taken by one of the members of our group on a Kriya Yoga retreat to India in 2017.  It was taken at the Gorakhnath temple in Haridwar. It came up in my Facebook memories today and I would like to share an experience I had on this trip.                                                             I shared this story once before a couple of years ago so I decided to share it again. On this trip to the holy city of Haridwar, our group was led by Kriya Yoga Master, Yogiraj Gurunath Siddhanath. Yogiraj is a Nath Yogi. The word Siddha in his name means “Perfected Being.” The Naths are a very ancient tradition who trace their origin all the way back to Lord Shiva who is regarded as Adinath, which means, the first Nath yogi.                  Yogiraj Siddhanath’s disciples simply call him Gurunath. While in Haridwar Gurunath took us to the famous Gorakhnath temple. The temple was named after probably the most famous Nath saint called Gorakhnath (also called Goraksha

साधना क्या है

साधना का मतलब होता है की आप किसी चीज पर नियंत्रण प्राप्त करो। साधना मतलब स्वयं को तैयार करना। साधना मतलब साधकर रखना। साधना मतलब ऐसी ऊर्जा पैदा करना जो आपके सारे मार्ग खोल दे। अब इस बात को विस्तृत रूप से समझते है। साधना एक प्रक्रिया है। एक प्रकार से ये समझ सकते है कि आप किसी कार्य को करना चाहते है भगर उस कार्य के विषय मे पूर्ण रूप से जानकारी नही है तो कार्य नही होगा। उसी प्रकार से आध्यत्म और ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया भी साधना है। साधना से आप अपने अंदर वो ऊर्जा पैदा कर सकते हो जिससे आप किसी भी चीज पर नियंत्रण प्राप्त कर सकते हो। प्रकृति के पांच तत्व पर या फिर किसी व्यक्ति पर या फिर किसी कार्य पर या अदृश्य शक्तियो पर या फिर आप अपने शरीर पर भी नियंत्रण प्राप्त कर सकते है। साधना का मतलब है आप अपने आपको असीम ऊर्जा के लिए तैयार करो। असीम ऊर्जा ऐसै ही नही मिलती। उज़के लिए स्वयं के अंदर पात्रता होनी चाहिए। वही पात्रता पैदा करने का कार्य साधना करती है। साधना का मतलब अपने आप को तपाना। स्वयं को उस काबिल बनाना की वो परमसत्ता से हमारा जुड़ाव हो जाए। नीति नियमो का पालन करके स्वयं को त

तंत्र-अध्यात्म और काम-(प्रवचन-01)

तंत्र और योग मौलिक रूप से भिन्न हैं। वे एक ही लक्ष्य पर पहुंचते हैं लेकिन मार्ग केवल अलग-अलग ही नहीं, बल्कि एक दूसरे के विपरीत भी हैं। इसलिए इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। योग की प्रक्रिया तत्व-ज्ञान प्रणाली-विज्ञान भी है योग विधि भी है। योग दर्शन नहीं है। तंत्र की भांति योग भी किया, विधि, उपाय पर आधारित है। योग में करना होने की ओर ले जाता है लेकिन विधि भिन्न है। योग में व्यक्ति को संघर्ष करना पड़ता है; वह योद्धा का मार्ग है। तंत्र के मार्ग पर संघर्ष बिल्कुल नहीं है। इसके विपरीत उसे भोगना है लेकिन होशपूर्वक बोधपूर्वक। योग होशपूर्वक दमन है तंत्र होशपूर्वक भोग है। तंत्र कहता है कि तुम जो भी हो परम-तत्व उसके विपरीत नहीं है। यह विकास है तुम उस परम तक विकसित हो सकते हो। तुम्हारे और सत्य के बीच कोई विरोध नहीं है। तुम उसके अंश हो इसलिए प्रकृति के साथ संघर्ष की, तनाव की, विरोध की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें प्रकृति का उपयोग करना है; तुम जो भी हो उसका उपयोग करना है ताकि तुम उसके पार जा सको।      योग में पार जाने के लिए तुम्हें स्वयं से संघर्ष करना पड़ता है। योग में