" मन "
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मन !! यह मन ही है जो प्रकृति के संचालन का सूत्रधार है। मन क्या है, इसे समझने का प्रयास करते हैं।
प्रथम हम भौतिक अस्तित्व की बात करते हैं क्योंकि इसके बिना मन की बात करना, बेमानी है। शुरुआत करते हैं सृष्टि से। सृष्टि, यानि सृजन, रचना या कुछ नया पैदा करना, जो कुछ भी पैदा हो उसमें सृष्टि के सभी मूल तत्व रहें, सृष्टि में साथ जुड़ाव भी बना रहे तभी वह सृष्टि का अंग है। आमतौर पर हम प्रकृति ( ब्रह्मांड ) को ही सृष्टि कहकर संबोधित किया करते हैं। सृष्टि, अपने आप में कोई रचना नहीं है बल्कि सृष्टि एक Domain ( ज्ञान क्षेत्र, विचार- सीमा ) है, जिसमें ईश्वर ने भिन्न-भिन्न अवयवों की रचना की है। दरअसल, सृष्टि, ईश्वर की एक जागीर है जिसमें ईश्वर ने भिन्न-भिन्न पदार्थों की भिन्न-भिन्न रूप में रचना की है। पदार्थ के सभी रुपों में दो प्रकार की उर्जा का समावेश किया गया है। एक है potential energy (स्थितिज उर्जा ) तथा दूसरी है , kinetic energy ( गतिज ऊर्जा )। प्रकृति में पदार्थ के मूर्त्त व अमूर्त रुप में दो आयाम बने। एक-- निर्जीव पदार्थ और दूसरा-- सजीव पदार्थ। स्थितिज उर्जा दोनों आयामों में है जो उपस्थिति का आधार है।सजीव पदार्थों में गतिज ऊर्जा, उनके अंदर निहित होती है तथा निर्जीव पदार्थों में गतिज ऊर्जा को बाहरी बल (force) से पैदा किया जाता है। यह तो हुई सृष्टि में की रचनाओं के भौतिक आयाम की बात।
इस भौतिक अस्तित्व के बाद ही, जीव-जगत के प्राणी, मानव के मन की बात आती है। मानव मन को समझना बहुत ही मुश्किल काम है। इस संदर्भ में श्री गुलाब कोठारी जी ने बहुत ही सुन्दर और सरल भाषा में, मन का विशद विष्लेषण किया है, उन्हीं का साभार उध्दरण लेते हुए, हम इसे समझने का प्रयास करते हैं।
जीवन का आधार है मन। मन है तो इच्छा है, इच्छा है तो गति है, लक्ष्य है, कार्यकलाप हैं। मन, क्या है, इसका स्वरुप व कार्य, क्या हैं। मन में ही ऐसा क्या है जिसे समझने की जरूरत है।
मन के बारे में सबसे बड़ा सत्य तो यह है कि जो मन हमें
भासित होता है, अनुभूत होता है, वह शुद्ध मन नहीं है बल्कि उसका प्रतिबिम्ब है। मूल मन पर प्रकृति व हमारे कर्मों के आवरण हैं, जो कुछ भी हमें समझ में आता है वह वास्तव में बिल्कुल भिन्न है।
वेदानुसार, सृष्टि में प्रत्येक इकाई षोडषी ( सोलह तत्वों से युक्त मानी गई है यानि कि षोडषी पुरुष का रुप है )। पुर में रहने वाले जीव चैतन्य को ही पुरुष कहा गया है। मनुष्य भी षोडषी पुरुष है। सृष्टि का मूल, अव्यय ( Eternal ) पुरुष ही है। अव्यय पुरुष में आनंद, विज्ञान, मन,प्राण और वाक्, ये पांच कलाएं हैं। सभी विशुद्ध रूप में हैं, शुद्ध आनंद ही ब्रह्म है, शुद्ध विज्ञान ही बुद्धि है तथा इसी बुद्धि का प्रतिबिंब, हमारी बुद्धि है और ये विज्ञान बुद्धि ही सृष्टि विस्तार का कारण बनती है।
मन को केन्द्र में रखकर, प्राणों द्वारा, वाक् रुप सृष्टि का निर्माण होता है। सम्पूर्ण सृष्टि में मन यही अव्यय रुप में, निर्गुण भाव में। एक ही है, यही जब अक्षर रुप में विस्तृत होता है तो प्रकृति ( सत, रज, तम ) से घिरकर ने रुप में आता है तो अहम पैदा होता है और यही अहम , जीव को ईश्वर से अलग करता है, यह मन का त्रिगुणयुक्त रुप है। शुद्ध मन जिसे शवोवसीयस मन कहते हैं, उसे जानने की क्षमता, साधारण मनुष्य में नहीं होती।
गीता में भी कहा गया है कि अव्यय ही सृष्टि का आलंबन है, इसका अर्थ भी मूल निर्गुण मन से है। सभी में यह स्थित रहता है। " जो मुझ में है सो तुझ में है "। जीवन में हमारी भूमिकाओं का आधार मन है।
मन ही की तरह हमारी बुद्धि भी त्रिगुण से आवृत्त रहती है।
अभ्यास व संकल्प से इसे प्रज्ञा रुप में जाना जा सकता है। मन को चंचल कहा गया है। वस्तुत: ये मन ही है जो हमारी इन्द्रियों का राजा कहा गया है। ये मन ही है जिसके कारण हमारी इन्द्रियां, विभिन्न विषयों से प्रतिपल जुड़ती रहती हैं और इसीलिए, इन्द्रिय निग्रह की बात कही जाती है। मन में अनेक भाव पैदा होते रहते हैं। मन की एक विचित्र भूमिका है, करता कुछ है और रमता कहीं और है, इसीलिए इसको जानना, समझना व नियन्त्रण में रखना एक दुश्कर कार्य है लेकिन आवश्यक भी माना है क्योंकि मन ही बन्धन एवं मुक्ति का कारण बनता है। इसी के नियमन से तो मूल मन को जाना जा सकता है। अनंत प्राण व अनंत वाक्, इस मन से जुड़े रहते हैं इसीलिए ये नाना प्रकार का दिखाई देता रहता है।
मन ही हमारी पहचान बनाता है, इच्छाओं की जन्मभूमि है, मन ही कान्ति है, मन ही भावभूमि है। पूर्ण मनोयोग ही सफलता की कुंजी है। अतएव मन को एकाग्र करना अति आवश्यक है। इससे ध्यान, धारणा व समाधि का मार्ग स्वत: , प्रशस्त होता है। अव्यय मन-- जिसमें कभी चंचलता रुपायित नहीं होती,। तक पहुंचा जा सकता है।। अव््यय मन ही अपने निर्गुण भाव के साथ, आत्मा कहलाता है।
मन, प्राण, वाक् सदा साथ रहते हैं, अविनाभाव (non-restrictive ) है। हमारे स्थूल, सुक्ष्म व कारण शरीर का संचालन इसी सिद्धांत से होता है। अव्यय से निकला मन सदैव फिर से अव्यय रुप, आनंदमय मन में लीन होने को लेकर व्यग्र रहता है।
इच्छाएं मन में पैदा होती हैं और कैसे पैदा होती हैं कोई नहीं जानता, पैदा की भी नहीं जा सकती। इच्छाएं, या तो पूरी की जा सकती हैं या फिर दबाई जा सकती हैं। दबाने का निषेध है इसीलिए ही भाव परिवर्तन की सलाह दी जाती है। जबरन दबाई गई इच्छाएं, विकार उत्पन्न कर सकती हैं।
मन का आधार है अन्य। अन्य ही मन को त्रिगुण भाव में बांधता है। हमारा भोजन, वातावरण, स्वजन, परिजन मित्र आदि , हमारे मन का पोषण करते हैं तथा हमारी उपासना, स्वाध्याय व चिंतन, मन को समझने में सहायक होते हैैं।
हमारे शरीर की फट चक्र व्यवस्था, प्राण संग्रह करती है, विसर्जन किया करती है व हमारे सुक्ष्म शरीर के माध्यम से, स्थूल व कारण शरीर का पोषण करती है। कारण शरीर तक पहुंचने का मार्ग भी स्थूल शरीर ही है। स्थूल से सुक्ष्म में होते हुए कारण शरीर तक पहुंच सकते हैं।
मन को समझना और उसमें सकारात्मक भाव बनाए रखना ही उत्थान का मार्ग है। राग व द्वेष भी मन के ही भाव हैं। व्यष्टि व समष्टि का दृष्टिकोण ही जीवन को परिभाषित करता है।
हर इच्छा के साथ नया मन पैदा होता है और इच्छापूर्ति के साथ ही विलीन भी होता रहता है। हमारे शरीर में प्राण,अपान, उद्यान, व्यान, समान आदि पांचों प्राण, मन के आधार पर ही कार्य करते हैं। तात्पर्य यह है कि यह मन ही है जो प्रकृति में समस्त प्रकार के संचालन का सूत्रधार है।।
साभार, आदरणीय श्री गुलाब कोठारी जी ।।
अब इसी संदर्भ में आदरणीय स्वामी श्री स्वामीगीतानंद जी के कथन पर भी चर्चा कर ली जाए।।
स्वामी जी का कथन है कि मन , बुद्धि , चित् व अहंकार , मन के ही बहुत से चेहरे हैं। अलग-अलग नहीं हैं। मेरे विचार से यह कथन आंशिक रूप से ही सही हो सकता है, पूर्णतया तौर पर नहीं।
मन का विश्लेषण तो उपर दे ही दिया गया है, आगे की बात करते हैं।
मन, कर्ता है, जिसके पास स्थूल शरीर है तथा स्थूल शरीर में पांच कर्मेन्द्रियां व पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं जिनके माध्यम से, मन सभी कर्मों का निष्पादन करता है।।
चित् क्या है। चित्, मन को ही कहा गया है यानि कि चित् , मन का वह पटल है जहां किए हुए कर्म, संस्कार रुप में संचित होते हैं।।
अहंकार , जब मन प्रकृति ( संत, रज, तम ) से घिरकर, त्रिगुणभाव ग्रहण कर लेता है तो अहम ( अहंकार ) भाव पैदा होता है और यही अहम भाव , जीव को ईश्वर से अलग करता है।।
एक प्रकार से चित् और अहम, भासित मन के धरातल के भौतिक अवयव हैं।।
बुद्धि !! विवेक को कहा गया है। यही एक ऐसा अवयव है जो मनुष्य को जीव-जगत के अध्यक्ष प्राणियों से अलग करता है तथा ये , मन से सर्वथा भिन्न है। जीवात्मा के चार आयाम हैं ---- शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा ।।।
आत्मा ही सर्वेसर्वा है।
इसे यों समझिए :::
-- शरीर, रथ है।
-- मन, रथ के घोड़े
हैं।
-- बुद्धि, सारथी है।
तथा
-- आत्मा, रथी है।
तात्पर्य यह है कि हम चार स्तर पर जीवन जीते हैं।
शरीर, मन, बुद्धि, व आत्मा ।
व्यवहार में इनको अलग-अलग नहीं देखा जाता, सब एकरस होकर कार्य करते हैं।
जिसकोओ हम, मन , समझ रहे हैं वह त्रिगुणयुक्त मन है, आत्मा नहीं है। हमारा भासित मन, अव्यय मन का बिंब रुप है। उस अव्यय मन को ही आत्मा कहा गया है, भासित मन को नहीं।
मन और बुद्धि , अलग हैं। बुद्धि, मन की नियन्त्रक है।।
कई बार ऐसा होता है कि हम बिना विवेक के कोई कार्य सम्पादित कर देते हैं और वो ग़लत हो जाता है , तो कह देते हैं कि क्या मूर्खता की, क्योंकि उस कार्य सम्पादन में बुद्धि का योग नहीं था।।
मन, बुद्धि, अहम वजह आत्मा आदि के संबंध में , सुधीजनों में बहुत सी भ्रान्तियां है, इसीलिए, इस लेख में खुलासा करने का प्रयास किया गया है फिर भी यदि कोई अतिशयोक्ति या विसंगतियां रह गई हों तो क्षमा करना।।
।। इति ।।
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