सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

शिवशंकर भोलेनाथ के वैज्ञानिक अध्यात्म का वैदिक विज्ञान

शिवशंकर भोलेनाथ के वैज्ञानिक अध्यात्म का वैदिक विज्ञान - 10
******************************************

भारत की सभी परम्पराओं और प्रथाओं के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक कारण जरूर मौज़ूद है, जिसकी वजह से ये परम्पराएं और प्रथाएं सदियों से चली आ रहीं हैं. शिवलिंग पर दूध चढ़ाना भी ऐसे ही एक वैज्ञानिक कारण से जुड़ा हुआ है खासतौर पर सावन (श्रावण) के महीने में मौसम बदलने के कारण बहुत सी बीमारियां होने की संभावना रहती है, क्योंकि इस मौसम में वात-पित्त और कफ़ के सबसे ज्यादा असंतुलित होने की संभावना रहती है, ऐसे में दूध का सेवन करने से आप मौसमी और संक्रामक बीमारियों की चपेट में जल्दी आ सकते हैं. इसलिए सावन में दूध का कम से कम सेवन वात-पित्त और कफ की समस्या से बचने का सबसे आसान उपाय है इसलिए पुराने समय में लोग सावन के महीने में दूध शिवलिंग पर चढ़ा देते थे, साथ ही सावन के मौसम में बारिश के कारण जगह-जगह कई तरह की घास-फूस भी उग आती है, जिसका सेवन मवेशी कर लेते हैं, लेकिन यह उनके दूध को ज़हरीला भी बना सकता है. ऐसे में इस मौसम में दूध के इस अवगुण को भी हरने के लिए एक बार फिर भोलेनाथ, शिवलिंग के रूप में समाधान बनकर सामने आते हैं और दूध को शिवलिंग पर अर्पित करके आम लोग मौसम की कई बीमारियों के साथ-साथ दूध के कई अवगुणों से ग्रसित होने से बच पाते हैं.

इन्हीं कारणों से सदियों से शिवलिंग पर दूध चढ़ाया जाता आ रहा है. सतयुग में धरती पर जीवमात्र की रक्षा के लिए भगवान् शिव ने विषपान किया था, शिवलिंग पर जल चढ़ाने की प्रथा के रूप में ,दूध के विष बन जाने की सभी संभावनाओं पर विराम लगाते हुए आज भी भगवान् शिव मनुष्यों की सहायता कर रहे हैं.

इसलिए शिवलिंग पर जल चढ़ाना केवल आध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी उचित है.

अष्टावक्र वैदिक विज्ञान संशोधन

शिवशंकर भोलेनाथ के वैज्ञानिक अध्यात्म का वैदिक विज्ञान - 11
*******************************************

 हिन्दू धर्म के कण-कण में, तन-मन में बसते हैं भोले भंडारी भगवान शिव। सृष्टि का निर्माण इनसे, चेतनता का भान इनसे, अपूर्ण की पूर्णता इनसे और अशुद्धि की शुद्धि भी इनसे ही। स्वयं विष पीना और सबमें अमृत बांट देना, यही धर्म, यही कर्म है इनका। 

शिव इस चर-अचर जगत की चेतना का मूल हैं। जगत की सारी अशुद्धि को शुद्ध करना शिव का कर्म है। जगत की सारी अच्छी और बुरी ऊर्जाएं शिव से ही शुद्ध होती हैं ।  जहां शिवलिंग की स्थापना होती है, उस स्थान की सारी नकारात्मकता स्वयमेव नष्ट हो जाती है। शिवलिंग के पास से निकलने वाली सभी बुरी शक्तियां उसके स्पर्श से शुद्ध हो जाती हैं। इसी अवधारणा के साथ शिवलिंग के जलाभिषेक को मान्यता प्राप्त हुई है। माना जाता है कि जब बुरी शक्तियां प्रबल होती हैं, तब उनका ताप बहुत बढ़ जाता है ।

यही शक्ति जब शिवलिंग से टकराती है, तब अपने कर्म के अनुसार वह उसका पूरा ताप हर उसे शुद्ध कर देते हैं। इस क्रम में शक्ति तो शुद्ध हो जाती है, पर उसके ताप को ग्रहण कर शिवलिंग की गर्मी बढ़ जाती है। शिवलिंग पर लगातार जल चढ़ाने से उस अशुद्ध ताप में कमी आती है। दूध और पानी के मिश्रण से शिवलिंग की गर्मी समाप्त होती है और शक्ति में वृद्धि होती है। तब वह पुनः शक्तिशाली होकर दोगुनी क्षमता से विश्व के शुद्धिकरण में संलग्न हो जाते हैं। इस बात को व्यक्तिगत स्तर पर बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। यदि हम भयंकर तनाव, थकान या काम की अधिकता से परेशान हों, तो हमारा दिमाग गर्म हो जाता है। ऐसी हालत में हमारा दिमाग काम करना बंद कर देता है। इसके ठीक विपरीत अगर हमारा दिमाग और मन शांत हो, तो हमारी कार्यक्षमता बढ़ जाती है और हम बेहतर ढंग से काम कर पाते हैं।

 हमारे सभी कर्म स्वाधिष्ठान चक्र में संग्रहित होते हैं। यह चक्र जल तत्व से बना है। जब भी हम कोई बुरा काम करते हैं, तो वह हमारे शरीर के जल चक्र को प्रदूषित करता है। चूंकि जल तत्व पर ही व्यक्ति की व्यक्तिगत, स्वास्थ्य, संपत्ति और आध्यात्मिक उन्नति आधारित होती है, इसलिए जल तत्व के बुरे कर्म ग्रहण करते ही उसके पूरे जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ता है। जाने-अनजाने में गलत काम करके व्यक्ति अपना ही नुकसान कर रहा होता है। ऐसे में जब कोई व्यक्ति शिवलिंग पर जल चढ़ाता है, तो उसके स्वाधिष्ठान चक्र में प्रदूषित हुआ जल तत्व, शिवलिंग पर जाप के साथ चढ़ाए जा रहे जल से एकाकार हो जाता है। इस तरह शिवलिंग पर जल चढ़ाने के साथ ही जल तत्व की शुद्धि हो जाती है और व्यक्ति का मानसिक, आध्यात्मिक और शारीरिक उत्थान होता है।

आज बस इतना ही..

अष्टावक्र वैदिक विज्ञान संशोधन sabhar satsangh Facebook wall

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

क्या है आदि शंकर द्वारा लिखित ''सौंदर्य लहरी''की महिमा

?     ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥  अर्थ :'' हे! परमेश्वर ,हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों  (गुरू और शिष्य) को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए। हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें। हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो। हम दोनों परस्पर द्वेष न करें''।      ''सौंदर्य लहरी''की महिमा   ;- 17 FACTS;- 1-सौंदर्य लहरी (संस्कृत: सौन्दरयलहरी) जिसका अर्थ है “सौंदर्य की लहरें” ऋषि आदि शंकर द्वारा लिखित संस्कृत में एक प्रसिद्ध साहित्यिक कृति है। कुछ लोगों का मानना है कि पहला भाग “आनंद लहरी” मेरु पर्वत पर स्वयं गणेश (या पुष्पदंत द्वारा) द्वारा उकेरा गया था। शंकर के शिक्षक गोविंद भगवदपाद के शिक्षक ऋषि गौड़पाद ने पुष्पदंत के लेखन को याद किया जिसे आदि शंकराचार्य तक ले जाया गया था। इसके एक सौ तीन श्लोक (छंद) शिव की पत्नी देवी पार्वती / दक्षिणायनी की सुंदरता, कृपा और उदारता की प्रशंसा करते हैं।सौन्दर्यलहरी/शाब्दिक अर्थ सौन्दर्य का

क्या हैआदि शंकराचार्य कृत दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्( Dakshinamurti Stotram) का महत्व

? 1-दक्षिणामूर्ति स्तोत्र ;- 02 FACTS;- दक्षिणा मूर्ति स्तोत्र मुख्य रूप से गुरु की वंदना है। श्रीदक्षिणा मूर्ति परमात्मस्वरूप शंकर जी हैं जो ऋषि मुनियों को उपदेश देने के लिए कैलाश पर्वत पर दक्षिणाभिमुख होकर विराजमान हैं। वहीं से चलती हुई वेदांत ज्ञान की परम्परा आज तक चली आ रही  हैं।व्यास, शुक्र, गौड़पाद, शंकर, सुरेश्वर आदि परम पूजनीय गुरुगण उसी परम्परा की कड़ी हैं। उनकी वंदना में यह स्त्रोत समर्पित है।भगवान् शिव को गुरु स्वरुप में दक्षिणामूर्ति  कहा गया है, दक्षिणामूर्ति ( Dakshinamurti ) अर्थात दक्षिण की ओर मुख किये हुए शिव इस रूप में योग, संगीत और तर्क का ज्ञान प्रदान करते हैं और शास्त्रों की व्याख्या करते हैं। कुछ शास्त्रों के अनुसार, यदि किसी साधक को गुरु की प्राप्ति न हो, तो वह भगवान् दक्षिणामूर्ति को अपना गुरु मान सकता है, कुछ समय बाद उसके योग्य होने पर उसे आत्मज्ञानी गुरु की प्राप्ति होती है।  2-गुरुवार (बृहस्पतिवार) का दिन किसी भी प्रकार के शैक्षिक आरम्भ के लिए शुभ होता है, इस दिन सर्वप्रथम भगवान् दक्षिणामूर्ति की वंदना करना चाहिए।दक्षिणामूर्ति हिंदू भगवान शिव का एक

पहला मेंढक जो अंडे नहीं बच्चे देता है

वैज्ञानिकों को इंडोनेशियाई वर्षावन के अंदरूनी हिस्सों में एक ऐसा मेंढक मिला है जो अंडे देने के बजाय सीधे बच्चे को जन्म देता है. एशिया में मेंढकों की एक खास प्रजाति 'लिम्नोनेक्टेस लार्वीपार्टस' की खोज कुछ दशक पहले इंडोनेशियाई रिसर्चर जोको इस्कांदर ने की थी. वैज्ञानिकों को लगता था कि यह मेंढक अंडों की जगह सीधे टैडपोल पैदा कर सकता है, लेकिन किसी ने भी इनमें प्रजनन की प्रक्रिया को देखा नहीं था. पहली बार रिसर्चरों को एक ऐसा मेंढक मिला है जिसमें मादा ने अंडे नहीं बल्कि सीधे टैडपोल को जन्म दिया. मेंढक के जीवन चक्र में सबसे पहले अंडों के निषेचित होने के बाद उससे टैडपोल निकलते हैं जो कि एक पूर्ण विकसित मेंढक बनने तक की प्रक्रिया में पहली अवस्था है. टैडपोल का शरीर अर्धविकसित दिखाई देता है. इसके सबूत तब मिले जब बर्कले की कैलिफोर्निया यूनीवर्सिटी के रिसर्चर जिम मैकग्वायर इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप के वर्षावन में मेंढकों के प्रजनन संबंधी व्यवहार पर रिसर्च कर रहे थे. इसी दौरान उन्हें यह खास मेंढक मिला जिसे पहले वह नर समझ रहे थे. गौर से देखने पर पता चला कि वह एक मादा मेंढक है, जिसके