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मेरी सेक्‍स के पार की यात्रा- मार्ग की अनुभूतियां

) जीवन में जो भी हम आज पाते है, वो कल बीज रूप में हमारा ही बोया हुआ होता है। पर समय के अंतराल के कारण हम दोनों में उसकी तादम्यता नहीं जोड़ पाते और कहते है। मनुष्य के मन के सात प्रकार है, वहीं से उसे अपनी यात्रा शुरू करनी होती है परंतु ये कार्य तो केवल गुरु ही देख सकता है। सेक्स, कृपणता, क्रोध, धूर्तता, मूढ़ता.... परंतु इस समय पूरी पृथ्वी मानसिक रूप से मनुष्य के मन पर सेक्स एक रोग बन गया है। सेक्स जो शरीर की जरूरत है, वो हमारे सभ्य होने के साथ-साथ मन पर आ गया। जो बहुत खतरनाक है। सबसे पहले तो साधक को ये समझ लेना चाहिए की सेक्स शरीर पर कैसे आये जैसे भोजन अगर हम मन से करे तो हम अस्वास्थ हो जायेगे। बाकी पृथ्वी का कोई प्राणी प्रकृति से जुड़ा है केवल मनुष्य टूट गया है। तब हम उसके पास हो सकते है, कृपणता तो पहला द्वार है कृपण आदमी न तो प्रेम कर सकता है, वह तो केवल धन का गुलाम होता है, वह कमाता तो है परंतु उसका उपयोग भी नहीं कर पता। सद्उपयोग की बात तो छोडिये, इसलिए सभी धर्मों ने दान का बहुत महत्व दिया है, दान पहला द्वार खोने के लिए अति जरूर है। परंतु जब साधक ध्यान साधना शुरू करता है तो वही द्वारा जो खुला है उर्जा वहीं से रिसना शुरू कर देती है, क्रोधी अधिक क्रोधी, सेक्सी अधिक सेक्सी, कंजूस अधिक कंजूस, चालाक-कपटी अधिक लंपट होना शुरू हो जाता है। क्यों ऐसा होता है, क्योंकि आपके उसी द्वार से जीवन की अधिकतम उर्जा बहती है। तब हम घबरा जाते है, क्रोध और सेक्स सकारात्मक है, ज्यादा तर साधक जो इस द्वारा पर जो खड़े होते है वही ध्यान में उतर सकते है, कंजूस, मूढ़़, चालाक....का ध्यान में गहरे उतरना अति कठिन है। जीवन एक उर्जा है सेक्स-क्रोध एक कुदरत की देन है। एक से हम प्रकृति की उत्पति करते है दूसरे से जीवन की रक्षा। ओशो से जुड़े हजारों संन्यासियों को मैं देखता हूं केवल-केवल तंत्र की बात करते है। जबकि तंत्र जितना सरल है उतना कठिन भी है। आपको यह जान कर अति दूःख होगा की ओशो जैसे महान गुरु को जो सब आयामों अति पूर्ण है, तंत्र के काम में हार गए। पूर्ण आजादी के बद भी ओशो को पूरी उम्र में एक भी जोड़ा नहीं मिल सका जिस पर वह तंत्र के प्रयोग कर सकते। एक दो जोड़े उन्होंने चुने थे उनमें एक स्वामी योग चिन्मय जी थे। परंतु सब बेकार रहा एक दिन स्वामी और उनकी महिला मित्र ने अचानक सारे सर के बाल मुंडाकर और आश्रम मैं घोषणा कर दि की आज से हम प्रेमी प्रेमिका न रह कर एक भाई बहन की तरह रहेंगे। किसी को कुछ समझ नहीं आया। जब मैंने ध्‍यान शुरू किया तो मैं पूरी ताकत झोंक दी थी। पीछे कुछ भी बचा कर नहीं रखना चाहता था उसमें डूब जाता था। ध्‍यान के कई प्रयोगों में से एक प्रयोग हम ‘’नाद ब्रह्मा’’ ध्‍यान का करते थे। ये ध्‍यान ओशो ने खास जोड़े के लिए बनाया था। आप चाहे तो इसे एकल में या युगल में भी कर सकते है। युगल में यह साधारण सा दिखने वाला ध्‍यान तंत्र प्रयोग है। मैं और मोहनी रात को इस ध्‍यान प्रयोग को करने लगें। रात कि शांति, एकांत और उसके साथ अंधकार। क्‍योंकि इस ध्‍यान प्रयोग के बाद आपको नींद जरूर आती है। इसलिए इसे रात को करो तो बेहतर होगा। हम दोनों पति-पत्‍नी निर्वस्त्र हो कर एक महीन चद्दर को ओढ़ कर ये ध्‍यान प्रयोग करते। कुछ ही दिनों में ये ध्‍यान अपना चमत्‍कार दिखाने लगा। वैसे भी हम पति-पत्‍नी प्रेम विवाह करने पर भी हमारे जीवन में सेक्‍स कोई महत्व नहीं रखता था। पर इतने पास घंटों निर्वस्त्र रहने के बाद भी हमारे पर सेक्‍स तो चढ़ता परंतु मदहोश मात्र करता बेहोश उत्तेजित नहीं करता था। हमें अच्‍छा भी बहुत लगाता लगता हम दोनों सहयोगी कहीं चल रहे हे। मील के पत्‍थर हमें बता रहे थे की हमारा सफर जारी है। परंतु कुछ जीवन में लगातार कुछ गहराता चला जा रहा था। एक नया आयाम, इस ध्यान में जब दो साधक अपने को एक दूसरे में विलय करता है, तो एक उर्जा का विलय होता है। शरीर पर ही नहीं मन और भाव की उर्जा एक दूसरे में विलय हो रही थी। एक अनूठा प्रेम हमारे जीवन में उतर रहा था। जिसकी हमें कोई अनुभूति नहीं थी। एक अनजाना सा रहस्य का द्वारा हमारे बीच खुल रहा था। हमारा प्रेम तो अति शुद्ध तो पहले से ही था। परंतु इस प्रेम को हमने पहले कभी नहीं जाना था। आप इस बात को गांठ बाँध लो की अधिक सेक्स या अधिक क्रोध करने से कभी मुक्त नहीं हो सकते। मोहनी की उर्जा से मेरी में उर्जा के साथ-साथ सेक्स का तूफान भी अधिक था। मोहनी और हमारा विवाह एक कुदरत का खेल है, न उसे प्रेम कहेंगे न संबंध। बस कुदरत ने हमें मिला दिया। और हम एक हो गए तब शायद हम नहीं जानते थे की हम क्यों मिले। परंतु ध्यान के बाद पता चला की हम क्यों एक दूसरे से मिले। भौतिक सुख और शारीरिक सुख की हम कल्पना जीवन में करते है। परमात्मा में हम उसके पार ला कर खड़ा कर दिया। हम एक दूसरे के लिए पूर्ण थे। जबकि मन की माने तो हम बिलकुल भिन्न थे। एक दूसरे की रूचि...आदि में कोई तालमेल नहीं था। मोहनी मुझे बताती है कि मेरी आंखों से सेक्‍स की उर्जा ऐसे बहती थी जैसे जलती चिंगारियां। चटाक-चटाक, शायद वह ठीक ही कहती हो। मेरे अंदर सेक्‍स का तूफान बहुत तेज था। पर मैं अपने पर कंट्रोल बहुत करता था। एक दम चरित्र का पक्का। या मुझे होश था एक अनजाने तोर पर। मुझे अपने पर बहुत भरोसा था। और आज तो मैं उस पहाड़ी पर चढ़ के उतंग आसमान में उड़ सकता हूं। मैंने सेक्‍स के पार के पंख देख लिये हे। जान गया हूं उस उड़ान को। धीरे-धीरे काफी लोग ध्यान करने आने लगे। ध्यान का एक माहौल एक उर्जा संग में बहुत सरलता से सजग हो उठती है। परंतु शर्त एक ही है बीच में कोई विराम न करे। ये सब चलता रहा। आप जैसे-जैसे अपने अंदर जाते है, तब बहार की उर्जा आपसे बह नहीं रही होती है, तब अचानक बहार की उर्जा आप में प्रवेश करने लग जाती है। जैसे साधक के जीवन में अचानक अंजान औरतें या पुरूष एक खिंचाव महसूस कर रहे होते है। जो द्वारा आप के लिए भाग्यशाली हो सकता है वही आपको डूबो भी सकता है। जैसे सेक्स हो या कृपणता। फिर इसके बाद गहराई मिली जब हम पति-पत्नी ने पूना से सन्यास लिया। संन्यास के बाद साधना की गति और आयाम दोनों ही बदल गए। हालांकि देखो तो कुछ भी नहीं बदला था। तब भी गुरु के प्रति प्रेम था, समर्पण था, परंतु शायद अकेले थे, गुरु के हाथ में हमने हाथ नहीं दिया होता। ध्यान के बाद सब लोग तो चले गये परंतु वो दूर से आये थे इस लिए शायद रूक गए। वैसे वो स्वामी जी तो कई-कई दिन रूक कर यहां कार्य ध्यान करते थे। एक मित्र जो पहले से ही हमारे यहां ध्यान करने आते थे। एक दिन जो की काफी दिनों बाद आये वह अपनी पत्नी को साथ ले कर आये। पत्नी को ध्यान का आ बा सा का पता नहीं था। हां धार्मिक थी। सरल थी। उसने भी उस दिन हम सब के साथ ध्यान किया परंतु घर जाने के बाद अपने पति को मना कर दिया की मैं उस घर अब कभी नहीं जाऊंगी। उसके पति को समझ नहीं आया की क्या हो गया। शायद अचानक ध्यान की गहराई पाकर वह भयभीत हो उठी हो। अकसर साधक को पहले ध्यान में बहुत विस्मयकारी अनुभूति होती है तो वह डर जाता है। कि ये क्या हो गया....वो लोग कुछ दिन हमारे यहां नहीं आये। करीब एक दो महीने। तब शायद ओशो जन्म दिन का उत्सव था। उन दिनों हम ओशो के चार उत्सव बड़ी धूम-धाम से ध्यान करते हुए मनाते थे। उस दिन काफी मित्र इकट्ठे हो जाते, उस दिन सार दिन ध्यान..भोजन सब वहीं होता था। रात वाईट रोब तक सब साथ ध्यान करते थे। जैसे आप आश्रम में जाते हो या घर पर ध्यान करते हो उस में यही तो भेद है की उस दिन आप एक उर्जा का स्तंभ बन जाता है। आप एक ऊंचे आसमान पर चले जाते हो। मेरा उन दिनों एकांत वास चल रहा मैं पिरामिंड में अकेला सोता था हालांकि वह अभी बना नहीं था। परंतु एक ढांचे का आकार उसने ले लिया था। न उसमें टाइल ही लगी थी और न ही फर्श ही हुआ था, नीचे एक पतली सी चटाई बिछा कर। अति साधारण तरह से बस एक पंखा लगा लिया था ताकि गर्मी न लगे। परंतु अपूर्ण बने पिरामिंड की उर्जा भी चमत्कारी ढंग से कार्य कर रही थी। ध्यान के बाद उन दिनों मुझ पर बांसुरी बजाने और सीखने का भूत सवार था। रात जब तक नींद न आ जाये, बंसरी बजाने की कोशिश करता रहता था। लेकिन उसमें एक आनंद था। संगीत कितना कम क्यों न आये व कम नहीं होती, और कितना ही अधिक आपको आ जाये वह अधिक नहीं होता। परमात्मा से थोड़े कम सूक्ष्म केवल सुर ही है। इसीलिए संगीत परमात्मा के अधिक से अधिक नजदीक है। मोहनी नीचे बच्‍चों के साथ सोती थी। पिरामिंड से जुड़े एक कमरे में उन पति-पत्‍नी के सोने का इंतजाम कर दिया था। उस रात भी ऐसा ही हुआ। कब बांसुरी मेरे हाथ से छुट गई और मैं सो गया। मैं रात चार घंटे की नींद ही लेता था। चार बजे उठ जाना होता था। क्योंकि हमारी दूध की दूकान थी जिस के लिए मुझे दूध लेने जाता होता था। अचानक रात को अंधेरे में मुझे लगा की कोई मेरे पास आकर अचानक खड़ा हो गया। वैसे पिरामिंड में अँधेरा बहुत गहरा होता है। परंतु अभी उसके दरवाजा नहीं लगा था इस लिए रोशनी छन-छन कर आ रही थी। मैंने अचरज से पूछा कि कौन हो? उसने धीरे से मेरा हाथ पकड़ लिया। कि मैं हूं स्‍वामी जी। क्‍या में आपके पास सो सकती हूं। कुछ देर के लिए तो मुझे समझ में नहीं आया की ये सत्य है या मेरी वासना मुझे स्वप्न दिखा रही है। क्‍योंकि उसकी उम्र की तो मेरी लड़की के बराबर है। अभी तक मैं उसके बारे में कुछ जानता भी नहीं था। मात्र दो बार वह ध्यान के लिए यहां आई है। इतना साहस कोई कैसे कर सकता है कोई। ठीक दरवाजा खोलते ही उनके पति सो रहे है। ऐसा काम तो कोई चरित्र हीन भी नहीं कर सकती। और शायद चरित्र हीन तो कर ही नहीं सकती। क्‍योंकि उसने तो अपने शुभ्र को दिखलाना है। इस लिए अपने अंधेरे के ऊपर एक श्वेत परत ओढ़े रखना चाहता है। परंतु सच तो यह था की वह अपनी पति से आज्ञा लेकर मेरे पास आई थी। मेरे समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मेरे अंदर एक उथल पुथल शुरू हो गई। खुशी और भय एक साथ मेरे सामने आ जा रहा था। पर मैंने उसे मना नहीं किया और अपनी बगल में बिस्तरे को खाली कर थोडा सरक गया। वह बिस्तरे में अकार मेरे सीने से चिपट कर लेट गई। एक जवान लड़की, और रात का अँधेरा। और वह खुद तुम्हें समर्पण कर रही है। मेरे अंदर वासना का एक झंझावात शुरू हो गया। मेरा पूरा तन मन सेक्‍स के उत्ताप से जलने लगा। सेक्‍स की उठती लहरों को में अपनी और आते देख रहा था, महसूस कर रहा था। मैंने अपने हाथ उसकी पीठ पर रख लिए और उसके सर और पीठ को धीरे-धीरे सहलाने लगा। वह और सिकुड़ कर मुझ में समा गई। लहरे धीरे-धीरे तूफान का रूप लेने लगी। मन नाना प्रकार के ताने-बाने बूनने लगा। पर मैं उस सब को उठते हुए देखता रहा। अपने पर काबू भी नहीं कर रहा था। और नहीं उसे मैंने रोका ही चाहा। मेरा पूरा शरीर आग का शोला होता जा रहा था। जैसे किसी अँगीठी में डली लोहे की छड़। मेरा तन ज्वर से जलने लगा। परंतु एक बात जो बचपन से मेरे संग थी बचपन से ही मेरा खेल-कूद लडकियां अधिक था। उन दिनों लड़के लडकियां अलग खेलते थे। परंतु लड़कियां मेरे साथ खेलना पसंद करती है। सच कृष्ण की बाल लीलाए उनकी साधाना का अंग रही होंगी। जिसने उनके मार्ग को अति सरल बना दिया। मैं उस में बह रहा था पर जब मैं उस ज्वाला को देख भी रहा था। अचानक उसमें एक मधुर शीतलता की पतली परत भी साथ दिखाई दी। इसी पतली सी किरण ने ही मेरे नये और अंजान मार्ग को खोल दिया। एक अजीब सी जलन जो गर्मी के साथ ठंडक भी अपने साथ लिए थी। हां उसमें जलन कहीं ज्‍यादा थी और शांति का झोंका कुछ क्षण कि लिए तब आती जब में उसे केवल अपने उपर होते देखता रहा होता। जैसे-जैसे वह तूफान मेरे उपर आता गया, साथ ही साथ मैं उसे आपने उपर आते किसी अंजान से भार महसूस कर रहा था। जब आपका होश बढ़ता है तो उसके कारण आपकी शरीर से आपकी दूरी बनानी शुरू हो जाती है। मैंने कर किनारे खड़ा होकर उसे देखता रहा। वह उत्ताप लगातार बढ़ रहा था। वह उर्जा अब मेरे सेक्स केंद्र पर न ठहर कर पूरे शरीर पर फैलती जा रह है। मानों मेरा पूरा शरीर ही सेक्स केंद्र हो गया हो। मेरा पूरा शरीर ही जननेंद्री बनता जा था। ये एक अजीब सा अनुभव है जिसे हम जीवन में कभी नहीं देख सकते क्योंकि उस किनारे तक हम कभी जाते ही नहीं। हम उस स्थिति में कभी नहीं आने देते है, जब हमारे उपर सेक्स चढ़ता है, तो उसे धूल की भांति एक बोझ समझ कर जल्दी से जल्दी गिरा देना चाहते है। परंतु अगर इसके पार जाना है। तो इस अपने शरीर पर चढ़ने एक घंटा दो घंटा अपने सहयोगी....को प्रेम से छुओ, उसे महसूस करो। एक दूसरे में बहो....जितना अधिक ...लम्बे समय तक आप इस प्रयोग में रहेंगे। उतनी ही उर्जा आपके काम केंद्र पर एकत्रित होती रहेगी। जैसे एक गुब्बारे में हवा भरी जा रही हे। फिर आप अगर हो सके तो बिना सेक्स किये प्रेम से एक दूसरे का सान्निध्य प्राप्त कर के सो जाये। आप जानते है जो उर्जा आपने जगा दि अब कहां जायेगी। वह उपर के केंद्रों पर। यह केवल पुरूष या स्त्री साधक दोनों के लिए ही समान है। सेक्स न उठना महान्ता नहीं है। आपने किसी हिजड़े को कभी बुद्ध होते देखा है वहां काम उर्जा है ही नहीं। वह अमृत भी है जहर भी है। यहीं उस दिन मेरे साथ हुआ। शायद प्रकृति का कोई नियोजित कार्य क्रम था। जो मेरा सहयोग कर रही था। उस स्थिति को बनाने में मेरा अपना कोई हाथ या मन नहीं था। और न ही मैं इस के लिए तैयार ही था। पर थी कोई शक्ति जो मुझे सहयोग दे रही थी। काम केंद्र पूरे तनाव पर था। पर न जाने कौन सी शक्ति थी जो मुझे बहाए लिए जा रहा था मुझे संप्रेषित कर रहा था कि इस में मत डुबो इसे केवल देखो । ये विचार मेरे मन में कही और से आ रहा था। ये मुझे साफ दिखाई रहा था। ये मेरी कामना नहीं थी। मुझे कोई शक्ति मार्ग दिखा कर रही थी। मैं एक सूखे पत्ते की तरह कांप रहा था। लगता था। अभी जला की तभी जला। मेरे पूरे जीवन में ऐसा उत्ताप्त कभी नहीं देखा था। वो एक सैलाब था। मेरी मां मेरे बारे में बड़े गर्व से एक बात कहां करती थी। कि मेरे बेटे को तुम बो भी दोगे तो उगेगा नहीं। अब वो अपने कौन से अनुभव के आधार पर कहती थी। इस के बारे में मुझे उस रात पता चला। उसने जरूर मुझमें मेरे दूसरे भाई बहन से कुछ तो अलग देखा या जाना होगा। शायद एक मां अपने प्रत्‍येक बच्चे के चरित्र और उसकी गहराई को जरूर जानती है। और ठीक वही हुआ। मेरी तेज साँसे धीरे-धीरे शांत होने लगी। मेरी गुप्त इन्द्रियों पर तनाव तो उतना ही रहा। पर मेरे होश से लगा तर देखने के कारण। उस पर फैली जलन छोटी होने लगा। और अंदर की तरफ सुड़कने लगी। जलन जो पूरे अंग पर फैली थी। वह केन्द्रीय और घनीभूत हो रही थी। और गुप्त अंग पर ही नहीं उसे आस पास एक शीतला फेल रही थी। धीरे-धीरे स्वास इतनी मध्यम हो गई की कभी तो ऐसा लगता की मैं मर गया हूं। शरीर से मेरी दूरी बहुत दूर हो गई। शरीर का हिलना डुलना बंद हो गया। मेरे हाथ पैर जैसे और जिस जगह रह पर थे मैं उन्हें हिला नहीं पा रहा था। मैं कई बार उन्‍हें हिलाने की कोशिश की। पर मैं कामयाब नहीं हुआ। में कहीं गहरे में डूबता चला जा रहा था। कभी-कभी मुझे भय भी लगता था। की कहीं मैं मर तो नहीं रहा हूं। परंतु मैं डरा नहीं अपने को खुला छोड़ दिया। मेरी स्वास कहीं दूर चलती हुई महसूस हो रही थी। मुझे पहली बार शरीर की निर्भरता का एहसास हुआ। हमारी चेतना का शरीर से चिपकने के कारण कितना भारी पन लगता। एक हल्के पन का एहसास हो रहा था। लगता था मुझे पंख लग गये। मैं उड़ सकता हूं। मैं डूबता चला गया। पर मैंने एक अनुभव और पाया। जैसे ही मेरी सांस मंद होती है या कभी-कभी बंद होती है। तो विचार भी उसी गति में कम या बंद हो जाते है। मन पर सदा चलते विचारों का एक रेला ही जाना था जीवन में। पर आज में उस मन की सड़क को कभी-कभार भी सुनसान दिखाई दे रही थी। कैसा लग रहा था, मुंह में एक मधुरता फैल गई। एक अजीब सी सुगंध जो इस लोक की नहीं थी। वो मेरे शरीर से फूटने लगी। जिसे में महसूस कर पर रहा था। ये मेरा भ्रम नहीं था। एक हकीकत थी। उसी अवस्था में कितनी देर रहा कह नहीं सकता। शायद शांति और मधुरता में डूब कर मैं सो गया। ठीक चार बजे मेरी आँख खुली तब मुझ पता चला की मेरे साथ कोई सो रहा था, वह गहरी नींद में सो रही थी। उस कुछ भी भान नहीं था। न ही उसने कुछ सहयोग किया था। केवल उसने अपने को छोड़ दिया था...यहां आकर....उसके चेहरे पर एक मधुरता-एक सौम्यता फैली हुई थी। मैंने झूक कर उसके चरणों में अपने सर को रख दिया। और अपने को धन्य समझा। मुझे जीवन में एक ऐसी अनुभूति हुई है। जो जीवन की सबसे कीमती है। बस उस दिन के बाद से मुझ किमिया मिल गई। कि मैं कितने बड़े ओर गहरे सागर में भी डूब नहीं सकता तैरना आ गया। फिर ये प्रयोग हम पति-पत्नी ने भी किये...लगाता। एक दूसरे का सहयोग किया। कम प्रकाश में मधुर संगीत में घंटों नृत्य करते। तेज नृत्य आप में एक उत्तेजना पैदा करता है। कल्ब में यहीं तो होता है, ध्यान के सुरमई मधुर संगीत चाहिए...ओशो की एक कैसट है, इनटुयुशन। वह एक जापानी लड़की की बजाई बांसुरी है। हमें किरण मिल गई थी मार्ग दिखने लगता था सो आसान और आसान होता चला जा रहा है। ओशो के ध्यान संगीत बहुत कीमती है। और ओशो के सन्यास के तो क्या कहने। ‘’उतरो कामवासना में, लेकिन ऐसी श्रद्धा से स्‍त्री का संग करो कि स्‍त्री देवी जैसी ही हो; यह कामुकता नहीं होती। और उस आदमी को जो की स्‍त्री के संग होता है, उसकी पूजा करनी होती है, उसके पाँव छूने होते है। और यदि हल्की सी भी कामवासना उठने लगती है। तो वह अयोग्य हो जाता है; तो वह अभी इसके लिए तैयार नहीं है। यह एक बड़ी तैयारी थी—कठिन परीक्षा थी जो कि कभी निर्मित की गई मनुष्‍य के लिए। कोई आकांक्षा नहीं कोई वासना नहीं,उसे स्‍त्री के प्रति ऐसी भाव दशा रखनी पड़ती जैसे कि वह उसकी मां हो। (ओशो......पतंजलि: योग-सूत्र—3) मनसा-मोहनी दसघरा ओशोबा हाऊस नई दिल्ली

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