...
मनुष्य हर दिन के जीवन में नए कर्म इकट्ठे करता रहता है तो फिर क्या वह इस कर्म से कभी मुक्त ही नहीं हो सकता? अक्सर लोगों के मन में जिज्ञासा होती है कि, कर्म व क्रियाकलापों के अंतहीन चक्र से बाहर कैसे निकला जाए? क्या कुछ ऐसे क्रियाकलाप हैं, जो मुक्ति के मार्ग पर दूसरी गतिविधियों की तुलना में ज्यादा सहायक होते हैं?
जो व्यक्ति बिल्कुल कुछ नहीं करता, वह कार्मिक याद्दाश्त और कार्मिक चक्रों से पूरी तरह मुक्त होता है। जब तक आप अपने कार्मिक यादों से जुड़े रहते हैं, तब तक अतीत खुद को दोहराता रहता है। कर्म का मतलब क्रियाकलाप के साथ उसकी यादें भी है।
जब तक आप अपनी यादों के शासन में रहेंगे, तब तक ये आपको कुछ न कुछ करने के लिए मजबूर करती रहेंगी। अगर आप खुद को अपनी पिछली स्मृतियों से पूरी तरह से अलग कर लें, केवल तभी आप शांत व स्थिर होकर बैठ सकते हैं।
बिना कर्म के कोई याद्दाश्त नहीं होती, इसी तरह से बिना याद्दाश्त के कोई कर्म नहीं होता। जब तक आप अपनी यादों के शासन में रहेंगे, तब तक ये आपको कुछ न कुछ करने के लिए मजबूर करती रहेंगी। अगर आप खुद को अपनी पिछली स्मृतियों से पूरी तरह से अलग कर लें, केवल तभी आप शांत व स्थिर होकर बैठ सकते हैं। इस बारे में आप एक प्रयोग करके देख सकते हैं, आप कोशिश कीजिए कि आप लगातार दस मिनट तक बिना कुछ भी किए स्थिर रहें। इस दौरान आपके भीतर न तो कोई विचार आना चाहिए, न कोई भावनाएं और न ही कोई गतिविधि होनी चाहिए। अगर फिलहाल आपके लिए यह करना संभव नहीं हो रहा, अगर आपके मन में हजार चीजें चल रही हैं और आप स्थिर होकर नहीं बैठ सकते तो गतिविधि आपके लिए बेहद जरूरी हो जाती है। यह चीज ज्यादातर लोगों पर लागू होती है।
जब तक आपको कुछ करने की जरूरत है और आप गतिविधि के साथ अपनी पहचान बनाए रखते हैं, तब तक वह कार्मिक रिकॉर्डर उस गतिविधि को आपके लिए रिकॉर्ड करके रखता है और इसके परिणाम कई गुणा होंगे।
अगर आज ऐसा कुछ नहीं हुआ, जो आपसे चिपका रह सके तो फिर अतीत में हुई कार्मिक स्मृतियां या कर्म बंधन आपसे अलग होने लगते हैं।
जब तक आप उस स्थिति में नहीं पहुँच जाते, तब तक आप काम से किसी तरह का पहचान या जुड़ाव बनाए बिना उसे एक भेंट की तरह कीजिए। अगर कुछ करने की जरूरत है, तो आप उसे कीजिए, वर्ना सहज रूप से बैठे रहिए। अगर आप बिना खुद को महत्व दिए कोई भी काम करेंगे तो फिर आपको उस कर्म के फल नहीं भोगने पड़ेंगे। आत्म-संतुष्टि व आत्म-महत्व के चलते किए गए कामों से ही कर्म इकठ्ठे होते हैं। अगर आप पूरी तरह से जीवंत व सक्रिय हैं और कोई नए कर्म इकठ्ठा नहीं कर रहे, तो आपके पुराने कर्म टूटकर गिरने शुरू हो जाते हैं। कर्म की यही प्रकृति है। पुराने कर्म आपसे केवल तभी तक चिपके रह सकते हैं, जब तक आप कार्मिक गोंद की नई परतें तैयार करते रहते हैं। अगर आज ऐसा कुछ नहीं हुआ, जो आपसे चिपका रह सके तो फिर अतीत में हुई कार्मिक स्मृतियां या कर्म बंधन आपसे अलग होने लगते हैं।
अगर आप हर काम को एक समपर्ण या भेंट की तरह करते हैं तो फिर आपके कर्म बंधन धीरे-धीरे खुलने शुरू हो जाते हैं। जब तक आप कुछ भी न करने की स्थिति तक नहीं पहुँच जाते, तब तक आप चाहे जो कुछ भी करें, उसे अपने भीतर एक समर्पण या भेंट के तौर पर करें। अर्पण की भीतरी स्थति में, आपको कृपा मिलनी शुरू हो जाएगी।
हम कर्म से तभी बनते हैं जब कर्म के प्रति हमारा कर्ता का भाव होता है, क्योंकि कर्म, कर्ता पर ही लागू होते हैं। अगर हम कर्म करते हुए भी साक्षी बने रहें और कर्म को परमात्मा द्वारा कराया जा रहा है, यह भावना अपने मन में स्थापित कर लें तो फिर हम कर्म बंधनों से नहीं बंधेंगे, पिछले जिन कर्मों से हम बंधे हुए हैं उन से भी मुक्त हो पाएंगे तथा जन्म जन्म के कर्म बंधनों से मुक्त होकर दैनिक जीवन में कर्म फलों से मिल रही परेशानियों से को पर कर मोक्ष की राह पर चल पाएंगे।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
vigyan ke naye samachar ke liye dekhe