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क्या है आनन्दमय कोश/BLISS BODY की बिन्दु साधना और कला साधना



 

 आनन्दमय कोश के चार प्रधान अंग ...

1- नाद, 2- बिन्दु  3- कला  4-तुरीया  

2-बिन्दु साधना;-  

 08 FACTS;-

1-आनन्दमय कोश की साधना में बिन्दु का अर्थ होगा, परमाणु/Nuclear। सूक्ष्म से सूक्ष्म जो अणु हैं, वहाँ  तक अपनी गति हो जाने पर भी ब्रह्म की समीपता तक पहुँचा जा सकता है और सामीप्य सुख का अनुभव किया जा सकता है।बिन्दु- साधना का एक अर्थ ब्रह्मचर्य भी है।अन्नमय कोश के प्रकरण में  इस बिन्दु का अर्थ ‘वीर्य’ किया गया है। किसी वस्तु को कूटकर यदि चूर्ण बना लें और चूर्ण को खुद माइक्रोस्कोप  से देखें तो छोटे- छोटे टुकड़ों का एक ढेर दिखाई पड़ेगा, यह टुकड़े कई और टुकड़ों से मिलकर बने होते हैं। इन्हें भी वैज्ञानिक यन्त्रों की सहायता से कूटा जाय तो अन्त में जो न टूटने वाले ,न कुटने वाले टुकड़े रह जायेंगे, उन्हें परमाणु कहेंगे। इन परमाणुओं की लगभग  100 जातियाँ अब तक पहिचानी जा चुकी हैं, जिन्हें अणुतत्व/Atomic Element कहा जाता है।अणुओं के दो भाग हैं, एक सजीव दूसरे निर्जीव। दोनों ही एक पिण्ड या ग्रह के रूप में मालूम पड़ते हैं, पर वस्तुतः उनके भीतर भी और टुकड़े हैं। प्रत्येक अणु अपनी धुरी पर बड़े वेग से परिभ्रमण करता है। पृथ्वी भी सूर्य की परिक्रमा के लिए प्रति सैकिण्ड 18.5  मील की चाल से चलती है, पर इन 100 परमाणुओं की गति चार हजार मील प्रति सेकेण्ड मानी जाती हैं।    

2-अणु और ब्रम्हाण्ड की समानता ... यह परमाणु भी अनेक विद्युत- कणों से मिलकर बने हैं, जिनकी दो जातियाँ हैं, 1- ऋण कण /NegativeParticle , 2- धन कण /Positive Particle। धन कणों के चारों ओर ऋण-कण प्रति सैकिण्ड एक लाख अस्सी हजार मील की गति से परिभ्रमण करते हैं। उधर धन- कण, ऋण- कण की परिक्रमा के केन्द्र होते हुए भी शान्त नहीं बैठते। जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा लगाती हैं और सूर्य अपने सौर- मण्डल को लेकर ‘कृतिका’ नक्षत्र की परिक्रमा करता है, वैसे ही धन कण भी परमाणु की अन्तरगति का कारण होते हैं। ऋण- कण जो कि तीव्र  गति से निरन्तर परिक्रमा में संलग्न हैं अपनी शक्ति सूर्य से अथवा विश्व- व्यापी अग्नि तत्व से प्राप्त करते हैं। वैज्ञानिकों का कथन है कि यदि एक परमाणु के अन्दर का शक्ति- पुञ्ज फूट पड़े तो क्षण भर में लन्दन जैसे तीन नगरों को भस्म कर सकता है। इस परमाणु के विस्फोट की विधि मालूम करके ही ‘एटमबम’ का अविष्कार हुआ है। एक परमाणु के फोड़ देने से जो भयंकर विस्फोट होता है, उसका परिचय गत महायुद्ध से मिल चुका है। इसकी भयंकरता का पूर्ण प्रकाश होना अभी बाकी है, जिसके लिए वैज्ञानिक लगे हुए हैं।  

3-यह तो परमाणु की शक्ति की बात रही, अभी उनके अंग ऋण-कण और धन-कणों के सूक्ष्म भागों का पता चला है। वे भी अपने से अनेक गुने सूक्ष्म परमाणुओं से बने हुए हैं, जो ऋण- कणों के भीतर एक लाख, छियासी हजार, तीन सौ तीस मील प्रति सैकिण्ड की गति से परिभ्रमण करते हैं। अभी उनके भी अन्तर्गत की खोज हो रही हैं और विश्वास किया जाता है कि उन कर्षाणुओं के भीतर भी सर्गाणु हैं। परमाणुओं की अपेक्षा ऋण कण तथा धन कणों की गति तथा शक्ति अनेकों गुनी है। उसी अनुपात से इन सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम अणुओं की गति तथा शक्ति होगी। जब परमाणुओं के विस्फोट की शक्ति लन्दन जैसे तीन शहरों को जला देने की है तो सर्गाणु की शक्ति एवं गति की कल्पना करना भी हमारे लिए कठिन होगा। उसके अन्तिम सूक्ष्म केन्द्र को अप्रितम, अचिन्त्य ही कह सकते हैं।     

4-देखने में पृथ्वी चपटी मालूम पड़ती है पर वस्तुतः वह लट्टू की तरह अपनी धुरी पर घूमती रहती है। चौबीस घण्टे में उसका एक चक्कर पूरा हो जाता है। पृथ्वी की दूसरी चाल भी है वह सूर्य की परिक्रमा करती है। इस चक्कर में उसे एक वर्ष लग जाता है। तीसरी चाल पृथ्वी की यह है कि सूर्य अपने ग्रह- उपग्रहों को साथ लेकर बड़े वेग से अभिजित् नक्षत्र की ओर जा रहा है। अनुमान है वह कृतिका नक्षत्र की परिक्रमा करता है। इसमें पृथ्वी भी साथ है। लट्टू जब अपनी  Axis पर घूमता है तो वह इधर-उधर उठता भी रहता है इसे मँडलाने को चाल कहते हैं, जिसका एक चक्कर करीब  26 हजार वर्ष में पूरा होता है। कृतिका नक्षत्र भी सौरमण्डल आदि अपने उपग्रहों को लेकर ध्रुव की परिक्रमा करता है। उस दशा में पृथ्वी की गति पाँचवी हो जाती है।  सूक्ष्म परमाणु के सूक्ष्मतम भाग सर्गाणु अर्थात्  फोटॉन,मेसॉन, नियान आदि तक भी मानव बुद्धि पहुँच गयी है और बड़े से बड़े महा-अणुओं के रूप में  तो पृथ्वी की पाँच गति विदित हुई। 

5-आकाश के असंख्य ग्रह-नक्षत्रों का पारस्परिक सम्बन्ध न जाने कितने बड़े महा अणु के रूप में पूरा होता होगा उस महानता की कल्पना भी बुद्धि को थका देती है। सूक्ष्म से सूक्ष्म और महत से महत केन्द्रों पर जाकर बुद्धि थक जाती है और उससे छोटे या बड़े की कल्पना नहीं हो सकती, उस केन्द्र को ‘बिन्दु’ कहते हैं। अणु को योग की भाषा में अण्ड भी कहते हैं। वीर्य का एक कण ‘अण्ड’ है। वह इतना छोटा होता है कि Microscopeसे भी मुश्किल से ही दिखाई देता है, पर जब वह विकसित होकर स्थूल रूप में आता है, तो वही बड़ा अण्डा हो जाता है। उस अण्डे के भीतर जो पक्षी रहता है, उसके अनेक अंग-प्रत्यंग विभाग होते हैं, उन विभागों में असंख्य सूक्ष्म विभाग और उनमें भी अगणित कोषांड रहते हैं। इस प्रकार शरीर भी एक अणु है, इसी को अण्ड या पिण्ड कहते हैं। अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड में अगणित सौर मण्डल, आकाश- गंगा और ध्रुव-चक्र हैं।  इन ग्रहों की दूरी और विस्तार का कुछ ठिकाना नहीं। 

6-पृथ्वी बहुत बड़ा पिण्ड है, पर सूर्य तो पृथ्वी से भी तेरह लाख गुना बड़ा है। सूर्य से भी करोड़ों गुने ग्रह आकाश में मौजूद हैं। इनकी दूरी का अनुमान इससे लगाया जाता है कि प्रकाश की गति प्रति सैकिण्ड पौने दो लाख मील है और उन ग्रहों का प्रकाश पृथ्वी तक आने में  30 लाख वर्ष लगते हैं। यदि कोई ग्रह आज नष्ट हो जाय तो उसका अस्तित्व न रहने पर भी उसकी प्रकाश किरणें आगामी तीस लाख वर्ष तक यहाँ आती रहेंगी। जिस नक्षत्र का प्रकाश पृथ्वी पर आता है, उसके अतिरिक्त ऐसे ग्रह बहुत अधिक हैं जो अत्यधिक दूरी के कारण पृथ्वी पर Microscope  से भी दिखाई नहीं देते। इतने बड़े और दूरस्थ ग्रह जब अपनी परिक्रमा करते होंगे, अपने ग्रहमण्डल को साथ लेकर परिभ्रमण को निकलते होंगे, तो वे अपने कितने अधिक विस्तृत शून्य में घूम जाते होंगे, उस शून्य के विस्तार की कल्पना कर लेना मानव- मस्तिष्क के लिए बहुत कठिन है। 

7-इतना बड़ा ब्रह्माण्ड भी एक अणु या अण्ड है। इसलिए उसे ब्रह्म+अण्ड=ब्रह्माण्ड कहते हैं, पुराणों में वर्णन है कि जो ब्रह्माण्ड हमारी जानकारी में है, उसके अतिरिक्त भी ऐसे ही और अगणित ब्रह्माण्ड हैं और उन सबका समूह एक महा अण्ड है, उस ब्रह्माण्ड की तुलना में पृथ्वी उससे छोटी बैठती है, जितना कि परमाणु की तुलना में सर्गाणु छोटा होता है। इस लघु से लघु और महान से महान अण्ड में जो शक्ति व्यापक हैं, जो इन सबको गतिशील, विकसित, परिवर्तित, चैतन्य रखती है, उस सत्ता को ‘बिन्दु’ कहा गया है। यह बिन्दु ही परमात्मा है। उसी को छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कहा जाता है। इस बिन्दु का चिन्तन करने से आनन्दमय कोश की स्थिति जीव की उस परब्रह्म की रूप की कुछ झाँकी होती हैं और उसे प्रतीत होता है कि परब्रह्म की, महा-अण्ड की तुलना में मेरा अस्तित्व, मेरा पिण्ड कितना तुच्छ है। इस तुच्छता का भान होने से अहंकार और गर्व  समाप्त हो जाते हैं। दूसरी ओर जब सर्गाणु से अपने पिण्ड की, शरीर की तुलना करते हैं, तो प्रतीत होता है कि अटूट शक्ति के अक्षय भण्डार सर्गाणु की इतनी अटूट संख्या और शक्ति जब हमारे भीतर हैं तो हमें अपने को अशक्त समझने का कोई कारण नहीं है। 

8-उस शक्ति का उपयोग जान लिया जाय, तो संसार में होने वाली कोई भी बात हमारे लिये असम्भव नहीं हो सकती।जैसे महा अण्ड की तुलना में हमारा शरीर अत्यन्त क्षुद्र है और हमारी तुलना में उसका विस्तार अनुपम है, इसी प्रकार सर्गाणुओं की दृष्टि में हमारा पिण्ड (शरीर) एक महाब्रह्माण्ड जैसा विशाल होगा।तब लगता है कि मैं मध्य बिन्दु हूँ, केन्द्र हूँ, सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल मेरी व्यापकता है। लघुता-महत्ता/Miniaturization का एकान्त चिन्तन ही बिन्दु साधना कहलाता है। इस साधना के साधक को सांसारिक जीवन की वास्तविकता और तुच्छता का भली प्रकार बोध हो जाता है कि मैं अनन्त का उद्गम होने के कारण इस सृष्टि का महत्त्वपूर्ण केन्द्र हूँ।लघुता और महत्ता के चिन्तन की बिन्दु-साधना से आत्मा की आन्तरिक शक्ति का विकास होता है, जो स्व-पर कल्याण के लिए अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है।  बिन्दु- साधक की आत्म-स्थिति उज्ज्वल होती है, उसके विकार मिट जाते हैं। फलस्वरूप उसे उस अनिर्वचनीय/Indescribable आनन्द की प्राप्ति होती है, जिसे प्राप्त करना जीवन- धारण का प्रधान उद्देश्य है। 

बिन्दु चक्र मंत्र साधना;-
 04 FACTS;-

1-बिंदु का अर्थ है ...नोंक, बूँद ,अम्रत। बिन्दु चक्र सिर के शीर्ष भाग पर केशों के गुच्छे के नीचे स्थित है। बिन्दु चक्र के चित्र में  23 पंखुडिय़ों वाला कमल होता है। इसका प्रतीक चिह्न चन्द्रमा है, जो वनस्पति की वृद्धि का पोषक है। भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है : ”मैं मकरंद कोष चंद्रमा होने के कारण सभी वनस्पतियों का पोषण करता हूं”। इसके देवता भगवान शिव हैं, जिनके केशों में सदैव अर्धचन्द्र विद्यमान रहता है। मंत्र है...' शिवोहम्'(शिव हूं मैं)। यह चक्र रंगविहीन और पारदर्शी है। बिन्दु चक्र स्वास्थ्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है, हमें स्वास्थ्य और मानसिक पुनर्लाभ प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करता है। यह चक्र नेत्र दृष्टि को लाभ पहुंचाता है, भावनाओं को शांत करता है और आंतरिक सुव्यवस्था, स्पष्टता और संतुलन को बढ़ाता है। इस चक्र की सहायता से हम भूख और प्यास पर नियंत्रण रखने में सक्षम हो जाते हैं, और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक खाने की आदतों से दूर रहने की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं। बिन्दु पर एकाग्रचित्तता से चिन्ता एवं हताशा और अत्याचार की भावना तथा हृदय दमन से भी छुटकारा मिलता है।
2-बिन्दु चक्र शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, स्फूर्ति और यौवन प्रदान करता है, क्योंकि यह “अमरता का मधुरस” (अमृत) उत्पन्न करता है।यह अमृतरस साधारण रूप से मणिपुर चक्र में गिरता है, जहां यह शरीर द्वारा पूरी तरह से उपयोग में लाए बिना ही जठराग्नि से जल जाता है। इसी कारण प्राचीन काल में ऋषियों ने इस मूल्यवान अमृतरस को संग्रह करने का उपाय सोचा और ज्ञात हुआ कि इस अमृतरस के प्रवाह को जिह्वा और विशुद्धि चक्र की सहायता से रोका जा सकता है। जिह्वा में सूक्ष्म ऊर्जा केन्द्र होते हैं, इनमें से हरेक का शरीर के अंग या क्षेत्र से संबंध होता है। उज्जाई प्राणायाम और  बिन्दु चक्र मंत्र योग विधियों से जिह्वा अमृतरस के प्रवाह को मोड़ देती है और इसे विशुद्धि चक्र में जमा कर देती है। एक होम्योपैथिक दवा की तरह सूक्ष्म ऊर्जा माध्यमों द्वारा यह संपूर्ण शरीर में पुन: वितरित कर दी जाती है, जहां इसका आरोग्यकारी प्रभाव दिखाई देने लगते हैं।
 3-त्राटक का अर्थ क्या होता है?- 

05 POINTS;-

 3-1-किसी भी प्रकार के ऑब्जेक्ट को एकटक देखना  देखना ही त्राटक की परिभाषा है लेकिन इसे पूर्ण करती है एकटक देखते हुए आपकी कल्पना शक्ति। आपकी सफलता और आपके अनुभव इसी शक्ति पर निर्भर करती है। यही कारण है कि अक्सर साधक असफल हो जाते है क्योंकि वह त्राटक की परिभाषा को पूर्ण नहीं समझ पाते है।जब हम त्राटक करते है तो विचारों को खत्म करते है लेकिन उस वक्त हमारे दिमाग में एक विचार होना अनिवार्य है। वह कुछ भी ही सकता है ...जो आप पाना चाहते हैं। जैसे सम्मोहन सीखना है तो आपको कल्पना करना चाहिए कि “मेरी आंखो में चुंबकीय शक्ति का विकास हो रहा है। मेरी आंखो में सम्मोहन शक्ति आ चुकी है।” यह कल्पना पूर्ण शक्ति से करना चाहिए जितनी अधिक गंभीरतापूर्वक यह कार्य होगा उतना ही अधिक सफलता का रास्ता साफ हो जाएगा। यहां जो अनुभवों का वर्णन  किया जा रहा  है वह सभी एक साधकों में होना अनिवार्य नहीं है। इनमे से कुछ अनुभव आपको हो सकते है ..तो विचलित होने की आवश्कता नहीं है। 
 3-2-प्रारंभ में आपकी समय सीमा कुछ सेकंड से लेकर कुछ मिनट हो सकती है। धीरे धीरे समय बढ़ाने पर आपको कुछ ही दिनों में यह समय सीमा बढ़कर 10-15 मिनट लगातार एकटक देखना हो जाएगी। इन 10-15 दिनों में कई अनुभव होते है जैसे साधकों को बिंदु घूमता हुआ नजर आता है कुछ साधकों को बिंदु हिलता- डुलता नजर आने लगता है। वही कुछ ही दिनों में यह बिंदु एक से बढ़कर दो या तीन दिखने लगते है। ऐसी स्थिति में साधक को उसे एक देखने का प्रयास करना चाहिए।
इस बीच देखने पर कभी कभी बिंदु गायब होता है तो कभी फिर से धुंधला सामने नजर आ जाता है। कहीं एक बिंदु गायब होकर दूसरी जगह दिखने लगता है, तो आप समझ जाए कि आपकी मन की गहराइयों में संबंध स्थापित होने की स्थिति में है। ऐसा बाह्य मन अंतर मन से कनेक्ट होने की वजह से होता है और अचानक कनेक्शन टूटने की वजह से गायब होना ,सामने आना जैसे क्रियाएं होती है। इसका अर्थ है आप सही रास्ते पर जा रहे है और निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है। 

 3-3-कुछ ही दिनों में साधकों को आस पास हल्का प्रकाश का आवरण नजर आने लगता है। इस समय साधक को इस आवरण को बढ़ाने की आश्यकता होती है। और यह आपकी कल्पना करने पर धीरे धीरे बढ़ने लगता है। बहुत बार देखा गया है कि कई साधकों को यह प्रकाश अलग अलग रंगों में दिखाई देता है। यह साधक के अंदर 7 चक्र के प्रभाव से होता है। जिस साधक के अंदर जिस चक्र की शक्ति अधिक होती है ...उस साधक को उसी चक्र का रंग दिखाई देता है।2-3 माह के बाद चक्र के अंदर सातो रंग क्रमशः दिखाई देता है उसी के साथ कुछ समय बाद बिंदु सूर्य के समान प्रकाशवान हो जाता है। इस समय साधक की एकटक देखने की समय सीमा लगभग 30-45 मिनट तक हो जाती है। लगभग 6 माह बाद साधक को बहुत अनोखे अनुभव होने लगते है यह उनके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। किसी- किसी साधक को उनका पूर्व जन्म तो किसी साधक को भविष्य की झलकियां नजर आने लगती है। बहुत बार साधकों को बिंदु के अंदर कई दृश्य नजर आते है जो कुछ इस जन्म के तो कुछ पूर्व जन्म के हो सकते है।
 3-4-कुछ दृश्य आनंदमय तो कुछ भयभीत करने वाले भी हो सकते है। अब लगभग 8-9 माह बाद साधक का समय शून्य होने लगता है अर्थात साधक को त्राटक खो जाने का अनुभव होता है जो बहुत आनंद दायक होता है। इस स्थति में साधक कहीं भी विचरण करने जा सकता है। वह कही भी जाकर किसी को भी देख सकता है। मान लीजिए आपका कोई परिचित क्या कर रहा है आपको जानना है तो वहां आप पहुंच जाते है और आपको वह वीडियो के समान दिखाई देने लगता है। यह सब मन की आंखो से होता है।12-15 महीने में साधकों को टेलीपैथी, केनैसेस, वाक सिद्धि,विचार सम्प्रेशक, सम्मोहन शक्ति, भूत भविष्य, आदि उपलब्धियां उसके कल्पना शक्ति के आधार पर स्वतः ही प्राप्त हो जाती है।साधक एक जगह बैठकर ब्रम्हांड की सैर कर सकता है। साधक जीवन के विभिन्न   रहस्यों को जान लेता है। लगातार अभ्यास करने पर साधक बहुत कुछ अनुभव करता है जिसको बताना  कठिन है। 

 3-5-त्राटक के लाभ ;-

1-यह अभ्यास आँखों को बलवान बनता है। आंखो की कमजोरी दूर होती है।आँखे त्राटक के अभ्यास के लिए अभ्यस्त होती है। 

2-मन शांत रहता है।हम ज्यादा से ज्यादा अपने आप से जुड़ते है।यह आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करती है एवं मस्तिष्क के विकास में लाभकारी होती है।

3-यह आंतरिक ज्योति को प्रज्वलित करती है।यह स्मृति एवं एकाग्रता बढ़ाती है।

4-इसके अभ्यास से अल्फा तरंगें बढ़ती हैं, जो मस्तिष्क के विश्रामावस्था में होने का संकेत हैं। इस अवस्था में मस्तिष्क के निश्चित भाग काम करना बंद कर देते हैं तथा मस्तिष्क की प्रक्रियाएं रुक जाती हैं, इस प्रकार मस्तिष्क को अत्यावश्यक विश्राम प्राप्त होता है।

 4-बिंदु त्राटक;-

बिंदु त्राटक करने के लिए आप एक ऊनी आसन,गद्दा, या कुर्सी पर बैठ जाए।अपनी spine बिल्कुल सीधी रखे। दर्द होता हो या अधिक देर बैठने में असमर्थ है तो आप किसी भी तरह का सहारा लेकर बैठ सकते है। अब यह कल्पना करें कि आप हवा में उड़ रहे है या पानी में  तेैर रहे है या किसी गहरी गुफा में जा रहे है। इसी कल्पना के साथ कोई अन्य विचार नहीं होना चाहिए। कल्पना करते हुए विचारों पर कंट्रोल करे और कल्पना की गहराइयों में डूब जाए। इसे ध्यान अवस्था का चरण कहते है। ऐसा करने से आपके अंदर विचारों पर कंट्रोल होता है। बाह्य  मन अंतर मन से कनेक्ट  होता है।जब विचारों पर कन्ट्रोल हो जाए तब आपको धीरे धीरे आंखो को खोलना है और आपके सामने जो बिंदु लगा हुआ है इसे बिना पलके झपकाए एकटक देखना है।हमेशा सोचिये – “मेरे विचार बिन्दु के पीछे जा रहे हैं”।यह तब तक करना है जब तक कि आपकी आंखो से आंसू निकलने ना लगे। प्रारंभिक दिनों में हो सकता है कुछ ही सेकंड में आंसू आ जाए तो घबराने की आवश्यकता नहीं है। अभ्यास धीरे धीरे बढ़ाने पर बड़ जाएगा है। उत्साह के साथ धेर्य से अभ्यास करें हड़बड़ाहट में अधिक आंखो में जोर ना डाले। अन्यथा त्राटक के फायदे की जगह दुषपरिणाम सामने आने लगेंगे।आंखो से आंसू आने के बाद आप आंखो को बंद करके बिंदु को आंतरिक मन से देखने का प्रयास करे, इसे अंतः त्राटक कहते है। इसकी समय सीमा कम से कम आपकी उम्र के बराबर मिनटों में होना चाहिए उदाहरण के लिए आपकी क्रमशः उम्र 25,30,35 वर्ष है तो आपको अंतः त्राटक क्रमशः 25,30,35 मिनट करना चाहिए। अंतः त्राटक आप समय से अधिक भी कर सकते है।

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3-कला- साधना;- 

06 FACTS;- 

 1-कला का अर्थ है –किरण।’ सूर्य प्रकाश से प्राप्त Radiation जीवन का स्त्रोत  है। सूर्य से निकलकर अत्यन्त सूक्ष्म प्रकाश तरंगें भूतल पर आती हैं, उनका एक समूह ही इस योग्य बन पाता है कि नेत्रों से उसका अनुभव किया जा सके। सूर्य किरणों के सात रंग प्रसिद्ध हैं, परमाणुओं के अन्तर्गत जो ‘प्रमाणु’ होते हैं उनकी विद्युत तरंगें जब हमारे नेत्रों से टकराती है, तभी किसी रंग रूप का ज्ञान हमें होता है। रूप को प्रकाशवान् बनाकर प्रकट करने का काम कला द्वारा ही होता है।कलाएँ दो प्रकार की होती हैं। 1- आप्ति, 2- व्याप्ति। आप्ति किरणें वे हैं, जो प्रकृति के अणुओं से प्रस्फुटित होती हैं। व्याप्ति वे है, जो पुरुष के अन्तराल से आविर्भूत होती हैं, इन्हें ‘तेजस्’ भी कहते हैं। वस्तुएँ पञ्च तत्वों से बनी होती हैं इसलिए परमाणु से निकलने वाली किरणें अपने प्रधान तत्व की विशेषता भी साथ लिए होती हैं, वह विशेषता रंग द्वारा पहचानी जाती हैं। किसी वस्तु का प्राकृतिक रंग देखकर यह बताया जा सकता है कि इन पञ्च-तत्वों में कौन सा तत्व किस मात्रा में विद्यमान है ?     

2-व्याप्ति कला, किसी मनुष्य के ‘तेजस्’ में दिखती हैं, यह तेजस् मुख के आस- पास प्रकाश मण्डल की तरह विशेष रूप से फैला होता है, यों तो यह सारे शरीर के आस- पास प्रकाशित रहता है। इसे अँग्रजी में ‘ओरा’ और संस्कृत में तेजोवलय’ कहते हैं। देवताओं के चित्र में उनके मुख के आस-पास एक प्रकाश का गोला सा चित्रित होता है, यह उनकी कला का ही चिन्ह है। अवतारों के सम्बन्ध में उनकी शक्ति का माप उनकी कथित कलाओं से किया जाता है। परशुराम जी में तीन, रामचन्द्र जी में बारह, श्री कृष्ण में सोलह कलाएँ बताई गई हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उनमें साधारण मात्र से इतनी गुनी आत्मिक शक्ति थी।  सूक्ष्मदर्शी लोग किसी व्यक्ति या वस्तु की आन्तरिक स्थिति का पता उनके तेजोवलय और रंग, रूप, चमक और चैतन्यता को देखकर मालूम कर लेते हैं।जिसे 'कला’ विद्या की  जानकारी है, वह भूमि के अन्तर्गत छिपे हुए पदार्थो को, वस्तुओं के अन्तर्गत छिपे हुए गुण, प्रभाव एवं महत्वों को आसानी से जान लेता है।  

3-किस मनुष्य में कितनी कलाएँ हैं, उसमें क्या-क्या शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विशेषताएँ हैं तथा किन-किन गुण, दोष, योग्यताओं, सामर्थ्यों की उनमें कितनी न्यूनाधिकता है ? यह सहज ही पता चल जाता है।कला-विज्ञान का ज्ञाता अपने शरीर की सात्विक न्यूनाधिकता का पता लगाकर इसे आत्म-बल से ही सुधार सकता है और अपनी कलाओं में समुचित संशोधन- परिमार्जन एवं विकास कर सकता है। कला ही सामर्थ्य है। अपनी आत्मिक सामर्थ्य का, आत्मिक उन्नति का माप कलाओं की परीक्षा करके प्रकट हो जाता है और साधक यह निश्चित कर सकता है कि उन्नति हो रही है या नहीं ? उसे सन्तोषजनक सफलता मिल रही है या नहीं।सब ओर से चित्त हटाकर नेत्र बन्द करके भृकुटी के मध्य भाग में ध्यान एकत्रित करने से मस्तिष्क में तथा उसके आस-पास रंग-बिरंगी धज्जियाँ, चिन्दियाँ तथा तितलियाँ-सी उड़ती दिखाई पड़ती हैं। इनके रंगों का आधार तत्वों पर निर्भर होता है। पृथ्वी तत्व का रंग पीला, जल का नीला, अग्नि का लाल, वायु का हरा, आकाश का श्वेत  होता है। जिस रंग की झिलमिल होती है, उसी के आधार पर यह जाना जा सकता है कि इस समय हममें किन तत्वों की अधिकता और किनकी न्यूनता है।     

4-रंग और चक्रों सम्बन्ध ... प्रत्येक रंग में अपनी-अपनी विशेषता होती है। पीले रंग में क्षमा, गम्भीरता, उत्पादन, स्थिरता, वैभव, मजबूती, संजीदगी, भारीपन। श्वेत रंग में शान्ति, रसिकता, कोमलता, शीघ्र प्रभावित होना, तृप्ति, शीलता, सुन्दरता, बुद्धि, प्रेम। लाल रंग में गर्मी, उष्णता, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष अनिष्ट, शूरता, सामर्थ्य, उत्तेजना, कठोरता, कामुकता, तेज, प्रभावशीलता, चमक, स्फूर्ति। हरे रंग में चंचलता, कल्पना, स्वप्नशीलता, जकड़ना, दर्द, अपहरण धूर्तता, गतिशीलता, विनोद, प्रगतिशीलता, प्राण, पोषण, परिवर्तन। नीले रंग में- विचारशीलता, बुद्धि सूक्ष्मता, विस्तार, सात्विकता, प्रेरणा, व्यापकता, संशोधन,  आकर्षण आदि गुण होते हैं।जड़ या चेतन किसी भी पदार्थ के रंग एवं उससे निकलने वाली सूक्ष्म प्रकाश-ज्योति से यह जाना जा सकता है, कि इस वस्तु या प्राणी का गुण स्वभाव एवं प्रभाव कैसा हो सकता है ? 

5-साधारणतः यह पाँच तत्वों की कला हैं, जिनके द्वारा यह कार्य हो सकता है ..

 1- व्यक्तियों तथा पदार्थों की आन्तरिक स्थिति को समझना, 

 2- अपने शारीरिक तथा मानसिक क्षेत्र में असन्तुलित, किसी गुण- दोष को सन्तुलित करना, 

 3- दूसरों के शारीरिक तथा मन की विकृतियों का संशोधन करके सुव्यवस्था स्थापित करना, 

 4- तत्वों के मूल आधार पर पहुँचकर तत्वों की गति-विधि तथा किया-पद्धति को जानना, 

 5-तत्वों पर अधिकार करके सांसारिक पदार्थों का निर्माण, पोषण तथा विनाश करना।  

NOTE;-यह उपरोक्त पाँच लाभ ऐसे हैं, जिनकी व्यवस्था की जाय तो वे ऋद्धि-सिद्धियों के समान आश्चर्यजनक प्रतीत होंगे। 

यह पाँच भौतिक कलाएँ हैं, जिनका उपयोग राजयोगी, हठयोगी, मन्त्रयोगी तथा तांत्रिक अपने-अपने ढंग से करते हैं और इस तान्त्रिक शक्ति का अपने-अपने ढंग से सदुपयोग-दुरुपयोग करके भले-बुरे परिणाम उपस्थित करते हैं। 

6-कला द्वारा सांसारिक भोग, वैभव भी मिल सकता है, आत्म-कल्याण भी हो सकता है और किसी को शापित, अभिचारित एवं  दुख शोक सन्तृप्त भी बनाया जा सकता है। पञ्च तत्वों की कलाएँ ऐसी ही प्रभावपूर्ण होती हैं।आत्मिक कलाएँ तीन होती हैं- सत, रज, तम। तमोगुणी कलाओं का माध्यम केन्द्र शिव है। रावण, हिरण्यकश्यपु, भस्मासुर, कुम्भकरण, मेघनाद आदि असुर इन्हीं तामसिक कलाओं के सिद्ध पुरुष थे। रजोगुणी कलाएँ विष्णु से आती हैं। इन्द्र, कुबेर, वरुण, वृहस्पति, ध्रुव, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, कर्ण आदि में इन राजसिक कलाओं की विशेषता थी।सतोगुणी सिद्धियाँ ब्रह्म से आविर्भूत होती हैं। व्यास, वशिष्ठ, अत्रि, बुद्ध, महावीर, ईसा, गाँधी, आदि ने सात्विकता के केन्द्र से ही शक्ति प्राप्त की थी।आत्मिक कलाओं की साधना  ग्रन्थि-भेद द्वारा होती है। रुद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और ब्रह्म ग्रन्थि के खुलने से इन तीनों ही कलाओं का साक्षात्कार साधक को होता है। पूर्वकाल में लोगों के शरीर में आकाश तत्व अधिक था। इसलिए इन्हें उन्हीं साधनाओं से अत्यधिक आश्चर्यमयी सामर्थ्य प्राप्त हो जाती थी, पर आज के युग में जन-समुदाय के शरीर में पृथ्वी-तत्व प्रधान हैं इसलिए अणिमा, महिमा आदि तो नहीं पर सत्, रज, तम की शक्तियों की अधिकता से अब भी आश्चर्यजनक हित-साधना हो सकता है।  

पाँचकलाओं द्वारा तात्विक साधना ;-

05 FACTS;- 

1-पृथ्वी तत्व;- 

इस तत्व का स्थान मूलाधार चक्र अर्थात् गुदा से दो अंगुल अंडकोश की ओर हटकर सीवन में स्थित है। सुषुम्ना का आरम्भ इसी स्थान से होता है। प्रत्येक चक्र का आधार कमल के पुष्प जैसा है। यह ‘भूलोक’ का प्रतिनिधि है। पृथ्वी तत्व का ध्यान इसी मूलाधार चक्र में किया जाता है।पृथ्वी तत्व की आकृति चतुष्कोण, रंग पीला, गुण गन्ध है। इसलिए इसको जानने की इन्द्रिय नासिका तथा कर्मेन्द्रिय गुदा है। शरीर में पीलिया, कमलवाय आदि रोग इसी तत्व की विकृति से पैदा होते हैं। भय आदि मानसिक विकारों में इसकी प्रधानता होती है। इस तत्व के विकार मूलाधार चक्र में ध्यान स्थित करने से अपने आप शान्त हो जाते हैं।  

साधना विधि;- 

सबेरे जब एक पहर अँधेरा रहे, तब किसी शान्त स्थान और पवित्र आसन पर दोनों पैरों को पीछे की ओर मोड़कर उन पर बैठें। दोनों हाथ उल्टे करके घुटनों पर इस प्रकार रखी, जिससे उँगलियों के छोर पेट की ओर रहें। फिर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखते हुए मूलाधार चक्र में ‘ल’ बीज वाली चौकोर पीले रंग की पृथ्वी पर ध्यान करें। इस प्रकार करने से नासिका सुगन्धि से भर जाती है और शरीर उज्ज्वल कान्ति वाला हो जाता है। ध्यान करते समय ऊपर कहे पृथ्वी तत्व के समस्त गुणों को अच्छी तरह ध्यान में लाने का प्रयत्न करना चाहिए और 'लं' इस बीज मन्त्र का मन ही मन (शब्द रूप से नहीं, वरन् ध्यान रूप से) जप करते जाना चाहिए।  

2-जल तत्व;-

स्वाधिष्ठान चक्र एवं बीज मंत्र   जल तत्व- पेढू के नीचे जननेन्द्रिय के ऊपर मूल भाग में स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्व का स्थान है। यह चक्र ‘भुव ’ लोक का प्रतिनिधि है, रंग नीला , आकृति अर्धचन्द्राकार और गुण रस है। कटु, अम्ल, तिक्त मधुर आदि सब रसों का स्वाद इसी तत्व के कारण आता है। इसकी ज्ञानेन्द्रिय जिह्वा और कर्मेन्द्रिय लिंग है। मोहादि विकार इसी तत्व की विकृति से होते हैं।  

साधना विधि;- 

पृथ्वी तत्व का ध्यान करने के लिए बताई हुई विधि से आसन पर बैठकर  'वं' बीज वाले अर्धचन्द्राकार चन्द्रमा की तरह कान्ति वाले जल तत्व का स्वाधिष्ठान चक्र में स्थान करना चाहिए। इनसे भूख-पास मिटती है और सहन- शक्ति उत्पन्न होती है।     

3-अग्नि तत्व; -

मणिपूर चक्र एवं बीज मंत्र   अग्नि तत्व-नाभि स्थान में स्थिति मणिपूरक चक्र में अग्नि तत्व का निवास है। यह ‘स्व’ लोक का प्रतिनिधि है। इस तत्व की आकृति त्रिकोण, लाल गुण रूप है। ज्ञानेन्द्रिय नेत्र और कर्मेन्द्रिय पाँव हैं। क्रोधादि मानसिक विकार तथा सृजन आदि शारीरिक विकार इस तत्व की गड़बड़ी से होते हैं, इसके सिद्ध हो जाने पर मन्दाग्नि, अजीर्ण आदि पेट के विकार दूर हो जाते हैं और कुण्डलिनी शक्ति के जाग्रत होने में सहायता मिलती है।  

साधना विधि;- 

नियत समय पर बैठकर 'रं' बीज मन्त्र वाले त्रिकोण आकृति के और अग्नि के समान लाल प्रभा वाले अग्नि- तत्व का मणि पूरक चक्र में ध्यान करें। इस तत्व के सिद्ध हो जाने पर सहन करने की शक्ति बढ़ जाती है।          

4-वायु तत्व;- 

यह तत्व हृदय देश में स्थिति अनाहत चक्र में है एवं ‘महलोक’ का प्रतिनिधि है। रंग हरा, आकृति षट्कोण तथा गोल दोनों तरह की है, गुण-स्पर्श, ज्ञानेन्द्रिय-त्वचा और कर्मेन्द्रिय-हाथ हैं। वात-व्याधि, दमा आदि रोग इसी की विकृति से होते हैं।    

साधना विधि;- 

नियत विधि से स्थित होकर  'यं' बीज वाले गोलाकर, हरी आभा वाले वायु-तत्व का अनाहत चक्र में ध्यान करें। इससे शरीर और मन में हल्कापन आता है।               

5-आकाश तत्व;-  

शरीर में इसका निवास विशुद्ध चक्र में है। यह चक्र कण्ठ स्थान ‘जनलोक’ का प्रतिनिधि है। इसका रंग श्वेत , आकृति अण्डे की तरह लम्बी, गोल, गुण शब्द, ज्ञानेन्द्रिय-कान तथा कर्मेन्द्रिय वाणी है।   

साधना विधि;- 

पूर्वोक्त आसन पर ‘हं’ बीज मन्त्र का जाप करते हुए चित्र- विचित्र रंग वाले आकाश- तत्व का विशुद्ध चक्र में ध्यान करना चाहिए। इससे तीनों कालों का ज्ञान, ऐश्वर्य तथा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।नित्य प्रति पाँच तत्वों का छः मास तक अभ्यास करते रहने से तत्व सिद्ध हो जाते हैं, फिर तत्व को पहचानना और उसे घटाना-बढ़ाना सरल हो जाता है। तत्व की सामर्थ्य तथा कलाएँ बढ़ने से साधक कलाधारी बन जाता है। उसकी कलाएँ अपना चमत्कार प्रकट करती रहती हैं। 

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 4-तुरीयावस्था;-

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