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तंत्र-अध्यात्म और काम-(प्रवचन-01)

तंत्र और योग मौलिक रूप से भिन्न हैं। वे एक ही लक्ष्य पर पहुंचते हैं लेकिन मार्ग केवल अलग-अलग ही नहीं, बल्कि एक दूसरे के विपरीत भी हैं। इसलिए इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। योग की प्रक्रिया तत्व-ज्ञान प्रणाली-विज्ञान भी है योग विधि भी है। योग दर्शन नहीं है। तंत्र की भांति योग भी किया, विधि, उपाय पर आधारित है। योग में करना होने की ओर ले जाता है लेकिन विधि भिन्न है। योग में व्यक्ति को संघर्ष करना पड़ता है; वह योद्धा का मार्ग है। तंत्र के मार्ग पर संघर्ष बिल्कुल नहीं है। इसके विपरीत उसे भोगना है लेकिन होशपूर्वक बोधपूर्वक। योग होशपूर्वक दमन है तंत्र होशपूर्वक भोग है। तंत्र कहता है कि तुम जो भी हो परम-तत्व उसके विपरीत नहीं है। यह विकास है तुम उस परम तक विकसित हो सकते हो। तुम्हारे और सत्य के बीच कोई विरोध नहीं है। तुम उसके अंश हो इसलिए प्रकृति के साथ संघर्ष की, तनाव की, विरोध की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें प्रकृति का उपयोग करना है; तुम जो भी हो उसका उपयोग करना है ताकि तुम उसके पार जा सको।      योग में पार जाने के लिए तुम्हें स्वयं से संघर्ष करना पड़ता है। योग में