अदृश्य निर्गुण ब्रह्म

अदृश्य निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम सगुणोपासना द्वारा मन को एकाग्र करने के पश्चात् ही सौरम्भिका-न्याय से निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति सम्भव है ।

वर्षा ऋतु में मरुस्थल में सूर्य की किरणों को मृग जल समझकर प्राप्त करने के लिए दूर तक निकल जाता है ।

किन्तु जैसे-जैसे भागता है , जल आगे-आगे दिखाई देता है ।
 
अन्त में वर्षा के कारण उसे कहीं-न-कहीं जल अवश्य मिल जाता है , इसी प्रकार साधक भी निराकार-निर्विशेष ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए परमात्मा की स्थूल रूप प्रतिमा का पूजन-ध्यान करके अन्त में निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त करता है ; जिससे उसका जन्म सफल हो जाता है , इसे "सौरम्भिका-न्याय" कहते हैं ।

सौर माने सूर्य की किरणें , उनमें अम्भ = अध्यस्त जल सौराम्भ है ।  न्याय का तात्पर्य कथन में है ।

जीव शरीरादि को मैं तथा शरीर से सम्बन्धित गृह-स्त्री-पुत्रादि में ममता करके राग-द्वेष से युक्त होता है , किन्तु उसका यह अहंकार निवृत्त भी हो जाये , तब भी दश इन्द्रियाँ-प्राणादि मैं नहीं हूँ , क्योंकि मैं तो इनका द्रष्टा हूँ ।

पंचकोश , पंचप्राण , तीन अवस्थादियों में ममता करने वाले को व्यवहारिक जीव कहते हैं ।  

व्यवहारिक जीव में पंचभूतों के सत्त्वांश से पंच-ज्ञानेन्द्रियां उत्पन्न होती हैं , आकाशादि के सात्त्विक अंश से मन-बुद्धि उत्पन्न हुई -- इन सत्रह तत्त्वों वाला सूक्ष्म शरीर है , यह जड़ है ।

जड़ होने पर भी जैसे अग्नि में तपाया हुआ लोहा अग्नि के समान ही लाल तथा जलाने वाला हो जाता है और अग्नि लोहे के रूप को प्राप्त करती है ,  इसी प्रकार चैतन्य के सम्पर्क से जड़ चैतन्य और चैतन्य जड़-सा हो जाता है ;  एक-दूसरे के अध्यास को अन्योऽन्याध्यास कहते हैं -- यही जड़-चेतन की गांठ है ।

इनके पारस्परिक अध्यास से साक्षी-चैतन्य से युक्त आनन्दमय-कोश कहलाता है -- यह कारण-शरीर है ; यही कर्मों का फल भोगने के लिए सूक्ष्म देह देहान्तर को तथा लोकान्तर में जाता हुआ , जीव सुख-दुःख भोगता है ।

जब तीनों शरीरों में अहंबुद्धि रूपी अध्यास निवृत्त होता है , तब "ये मेरे नहीं है , मैं उनका नहीं हूँ"  ऐसा चिन्तन करके सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित होता है ।  तब इसे साक्षी-आत्मा कहते हैं ।

जब अंतःकरण-चतुष्टय के साथ मिलकर सुखी-दुःखी होता है , तब भोक्ता जीव कहा जाता है , अतः सुख-दुःख में आसक्त होने वाला भोक्ता-जीव तथा द्रष्टा-मात्र साक्षी दो प्रकार से कहा जाता है ।

जैसे सूर्य के रूप में गर्मी , छाया तथा प्रकाश रहता है , वैसे ही एक कर्मों को भुक्ताने वाला ईश्वर , दूसरा भोक्ता जीव , तीसरा शुद्ध निरूपाधिक ब्रह्म ।

जब भेद उत्पन्न करने वाले अज्ञान का नाश हो जाता है , तब भेदबुद्धि मिथ्या हो जाती है ।

चैतन्य एक होने पर भी उपाधि-भेद से तीन प्रकार का प्रतीत होता है , वास्तव में ब्रह्म में एकता है ।

जैसे एक पुरूष छाता लगाता है , तब उसे छत्री पुरुष कहते हैं , जब त्याग देता है तब अछत्री कहलाता है ; तो जैसे उस पुरुष में छाते की उपाधि से भेद है , पुरूष में नहीं ,  वैसे ही जीव और ईश्वर में अंतःकरण तथा मायाकृत भेद है , किन्तु माया तथा अंतःकरण से रहित विशुद्ध ब्रह्म ही है ।

अतः समाधि-साधन-सम्पन्न सगुण ब्रह्म का आश्रय लेकर व्यक्ति निष्काम कर्मोपासना करता है , तब उसका अंतःकरण शुद्ध हो जाता है ;  तब परमार्थ का चिन्तन करते हुए निर्गुण ब्रह्म के साथ ऐक्य अनुभव करता है ।

जैसे केले में से कपूर प्राप्त करने के लिए उसके छिलके को अलग उतार देने पर अन्त में केले का सार कपूर प्राप्त होता है , वैसे मुमुक्षु भी पंचकोशों को अपने से भिन्न करके सार रूप आत्मा को प्राप्त करता है ।

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