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आनन्दमय कोश शिव -शक्ति का संगम है

क्या आनन्दमय कोश शिव -शक्ति का संगम है?क्या है आनन्दमय  की साधना विधि के चार चरण-PART-01
 क्या आनन्दमय कोश-शिव शक्ति का संगम है? -

09 FACTS;-

1-आत्मसत्ता का मूल स्वरूप सत्य, शिव, सुन्दर कहा गया है। परमात्मसत्ता की व्याख्या सत्-चित् आनन्द रूप में होती है। दोनों ही स्थितियाँ परम सुखद हैं, स्वभाविक है ।जीवन को सुखद, सन्तोषजनक और आनन्दमय होना चाहिए।प्रकृति कामधेनु है, उस से एक से एक अनुदान प्राप्त किये जा सकते हैं। परन्तु मकड़ी अपना जाला स्वयं बुनती और स्वेच्छा से उसमें निवास करती है। मनुष्य अपने लिए अपनी आस्थाओं के सहारे अपनी एक नई दुनियाँ बनाता है और उसमें स्वतन्त्रता-पूर्वक निवास करता है। अपनी दुनियाँ भली बनाये या बुरी, स्वर्ग रचे या नरक, यह उसकी इच्छा और क्रिया पर अवलम्बित है। दाता  ने तो कस्तूरी प्रचुर मात्रा में निकटतम स्थान नाभि में ही भर दी है। जिस क्षण चेतना का मिलन सहस्रार से होता है, अचानक तुम पार के जगत के लिए , सिद्धों के जगत के लिए उपलब्ध हो जाते हो।

2-योग में मूलाधार के प्रतीक के रूप में, काम केंद्र को चार पंखुड़ियों वाला लाल कमल माना जाता है। चार पंखुड़ियां चारों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। लाल रंग, ऊष्मा का प्रतिनिधित्व करता है, क्योंकि वह सूर्य का केंद्र है। और सहस्रार सभी रंगों का प्रतिनिधित्व करता है , हजार पंखुड़ियों के कमल के रूप में क्योंकि सहस्रार में संपूर्ण अस्तित्व समाया हुआ है। सूर्य केंद्र केवल लाल होता है। सहस्रार इंद्रधनुषी होता है उसमें सभी रंग समाए होते हैं, उसमें समग्रता समाहित होती है।सामान्यत: सहस्रार, एक हजार पंखुड़ियो वाला कमल सिर में नीचे की ओर लटका हुआ होता है। लेकिन जब इससे ऊर्जा गतिमान होती है, तो ऊर्जा से यह ऊपर की ओर हो जाता है। पहले तो यह ऐसे ही है जैसे कोई कमल ऊर्जा रहित नीचे की ओर लटका हुआ हों उसका भार ही उसे नीचे की ओर लटका देता है  फिर जब वह ऊर्जा से भर जाता है, तो उसमें जीवन का संचार हो जाता है। वह ऊपर उठने लगता है, वह बियांड के, पार के, जगत के प्रति खुल जाता है।

3-जब कमल खिल जाता है, तो योगशास्त्र के अनुसार ‘तब वह दस लाख सूर्य और दस लाख चंद्र के रूप में देदीप्यमान हो उठता है।’ जब भीतर एक चंद्र और एक सूर्य परस्पर मिल जाते हैं, तो फिर वह बाहर के दस लाख सूर्य और दस लाख चंद्र के बराबर होते हैं। तब व्यक्ति उस परम आनंद की कुंजी को खोज लेता है, जहां दस लाख चंद्र.. दस लाख सूर्यों से मिलते हैं तो उस परम आनंद की तुम थोड़ी बहुत कल्पना कर सकते हो।शिव  देवी के साथ  उसी आनंद अवस्था में .. सहस्रार में प्रतिष्ठित रहते हैं ।उनका प्रेम  मूलाधार से नहीं हो सकता। वह उनके अस्तित्व के शिखर बिंदु से, ओमेगा पाइंट से आता है ।वे समय और स्थान के पार हैं। योग का, तंत्र का, सारे आध्यात्मिक प्रयासों का यही एकमात्र लक्ष्य है। शिव और शक्ति का परम मिलन, पुरुष और स्त्री ऊर्जा का मिलन,जीवन और मृत्यु के आत्यंतिक जोड़ की संभावना को निर्मित कर देता है।

4-शिवशंकर की आधी प्रतिमा पुरुष की है और आधी स्त्री की - अर्धनारीश्वर - यह अनूठी घटना है। लेकिन जो जीवन के परम रहस्य में जाना चाहते हैं , उन्हें शिव के इस रूप को समझना पड़ेगा। अर्धनारीश्वर का अर्थ यह हुआ कि आपका ही आधा व्यक्तित्व आपकी पत्नी और आपका ही आधा व्यक्तित्व आपका पति हो जाता है। आपकी ही आधी ऊर्जा स्त्रैण और आधी पुरुष हो जाती है। और तब इन दोनों के बीच जो रस और लीनता पैदा होती है , उस शक्ति का कहीं कोई विसर्जन नहीं होता।

 परमात्मा ने मनुष्य को अपने इस सुरम्य उद्यान में दुः ख भोगने के लिए नहीं, आनन्द पाने और आनन्द बिखेरने के लिए भेजा है।  यहाँ सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। इसी से जीवन को ‘आनन्दमय’ कहा गया है। यह कोश उसे असीम मात्रा में, सहज-सुखद रूप से उपलब्ध है।दुर्भाग्य लगभग वैसा ही है, जैसा कि कबीर की एक उलट वाँसी में व्यक्त किया गया है। वे कहते हैं- पानी बिच मीन पियासी। मोहि सुनि-सुनि आवे हाँसी ॥ कोई व्यक्ति अपने घर का ताला बन्द करके कहीं चला जाय। लौटने पर ताली गुम हो जाने से बाहर बैठा ठण्ड में सुकड़े और दुः ख भोगे। ठीक ऐसी ही स्थिति हमारी है। 

5- आनन्दमय कोश अपने भीतर भरा पड़ा है, किन्तु रहना पड़ रहा है निरानन्द स्थिति में ..कैसी विचित्र स्थिति ,कैसी विडम्बना है ? पंचकोशों की साधना के उच्चस्तर पर पहुँच कर इसी ताली को ढूँढ़ना पड़ता है और ताले को खोलने की व्यवस्था बनानी पड़ती है।आनन्दमय कोश की साधना का स्वरूप ईश्वर और जीव की मिलन व्यवस्था है।इस समन्वय का कितना सुखद परिणाम हो सकता है, इसकी कभी कल्पना भी तो नहीं आती। श्रेष्ठ तत्वों का मिलन कितना सुखद होता है, इसकी जानकारी सभी को है। पृथ्वी को सन्तुलित सूर्य सम्पर्क मिला और यहाँ जीवन की उत्पत्ति हुई। जिन ग्रह- पिण्डों को यह सुयोग नहीं मिला, वे निर्जीव- निस्तब्ध पड़े हैं। गंगा- यमुना के मिलन में संगम बना और तीर्थराज प्रयाग का महत्व बढ़ा। लौह- पारस के स्पर्श से सोना बनने वाली बात प्रख्यात है। दो गैसें मिलकर पानी बनाती हैं। जड़ और चेतन के मिलने से गतिशील शरीर बनते हैं। नर और नारी का मिलन एक नया- गृहस्थ बनाता है। ऋण और धन विद्युत के मिलन से शक्तिधारा प्रवाहित होती है।ब्रह्म और जीव का, आत्मा और परमात्मा का मिलन कितना भाव- विभोर कर देने वाला, समर्थता और सम्पन्नता से भर देने वाला- आनन्द के समुद्र में डुबो देने वाला है। इसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता, यह तो विशुद्ध रूप से अनुभूति का विषय है। 

6- श्रद्धा और भक्ति का युग्म है। श्रद्धा कहते हैं, श्रेष्ठता के प्रति असीम निष्ठा एवं आस्था को अन्तःकरण की गहराई में स्थापित करना। भक्ति कहते हैं, प्रेम संवेदना को- आत्मीयता की अनुभूति को। ईश्वर की उपासना श्रद्धा और भक्ति के आधार पर ही सम्भव होती है। पूजा उपचार तो उन सम्वेदनाओं को उभारने वाले प्रयोग अभ्यास भर हैं। ईश्वर परायणता की परख, श्रद्धा और भक्ति की कसौटी पर ही होती है। ईश्वर व्यक्ति नहीं, शक्ति है। उसे मनुष्यों की तरह मनुहार, उपहार के सहारे प्रसन्न नहीं किये जा सकता । बिजली का समुचित लाभ उठाने के लिए उसके उपयोग की मर्यादाओं को अपनाना पड़ता है। उपासना का स्वरूप है, समन्वय। भक्ति का चरम लक्ष्य है, समन्वय- एकीकरण-समर्पण। द्वैत को मिटा कर अद्वैत की स्थापना। यह नाले का नदी में समर्पण हुआ। अपनी स्वतन्त्र इच्छा आकांक्षाऐं समाप्त करके ईश्वरीय अनुशासन को अपने ऊपर स्थापित कर लेना, समर्पण यही है। ईधन अपने को अग्नि में डालकर अग्निमय हो जाता है। पानी दूध में मिलकर एक रूप बन जाता है।इसी स्थिति को ब्रह्म- निर्वाह,ईश्वर- दर्शन या भगवत प्राप्ति कहा गया हैं। यही ब्रह्मविद्या की अद्वैत साधना है।  

7- प्रेम में आकर्षण है, चुम्बकत्व है। प्रेमी की समीपता सुहाती है, उसी के लिए अधीरता रहती है। ईश्वर भक्ति का, भवगत् प्रेम का स्वरूप यही है कि बीच की दूरी को समाप्त किया जाय। दोनों के बीच गहन समस्वरता दिखाई दे। इस स्थिति में या तो ईश्वर को जीव की इच्छानुसार काम करना पड़ेगा या जीव को ईश्वर का अनुसरण करने वाला बनना पड़ेगा। स्पष्ट है कि नदी नाले में नहीं मिल सकती, उसकी गहराई, चौड़ाई इतनी नहीं है, जिसमें नदी समा सके। नाले का ही नदी में मिलना सम्भव है। जीव का अनुसरण करने वाला ईश्वर नहीं हो सकता। यह भ्रान्ति छोड़ देनी चाहिए। भक्त को ही भगवान् का अनुसरण करने वाला होना चाहिए।  श्रद्धा और भक्ति का स्वरूप यही है। इसी आधार पर ईश्वर- प्राप्ति का आनन्द लिया जा सकता है। ईश्वर प्रेम सीमाबद्ध नहीं रह सकता। हिमालय के हृदय से निकली हुई गंगा, कहीं अवरुद्ध नहीं बैठी रहती, वरन् सूखे भू- खण्डों और प्यासे प्राणियों की प्यास बुझाती हुई अपनी क्षुद्रता को समुद्र की विशालता में समर्पित करती है। 

8- आनन्दमय कोश, श्रद्धा और भक्ति का उद्गम केन्द्र है। वहाँ ईश्वर मिलन की अनुभूति होती है। मूलाधार में अवस्थित जीव- चेतना कुण्डलिनी को सहस्रार स्थित ब्रह्म चेतना में मिलाया जाता है। शक्ति शिव से मिलती है। अग्नि कुण्ड में दग्ध हुई सती को फिर नये शरीर से शिव को वरण करने का अवसर मिलता है।  ईश्वर- मिलन का लक्ष्य पूरा करने के लिए पंचकोशी साधना में, कुण्डलिनी- जागरण की  व्यवस्था बनी है। भगवान का अवतार आनन्द और उल्लास के,- श्रद्धा और भक्ति के, कुण्डलिनी जागरण के रूप में अपने ही भीतर होता है। कुण्डलिनी जागरण को आनन्दमग कोश का शक्ति पक्ष कहा गया है। ईश्वर भाव- सम्वेदना भी है और समृद्धि सामर्थ्य का भण्डार भी। श्रद्धा और भक्ति के आधार पर की गई सोऽहम साधना, खेचरी मुद्रा जैसी उपासनाऐं भाव पक्ष को समुन्नत करती हैं। कुण्डलिनी- जागरण से शक्ति पक्ष उभरता है। उससे मानवी अस्तित्व में ईश्वरीय वर्चस्व की प्रचण्डता प्रकट होती है। आनन्दमय कोश की साधना में भक्ति और शक्ति दोनों का समन्वय है। 

9-आनन्दमय कोश के अनावरण में प्रेम और तन्मयता की वृद्धि करनी पड़ती है। एकाग्रता की साधना से बिखरी हुई शक्ति एकत्रित होती हैं और उसका चमत्कारी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इसी प्रकार ‘प्रेम’ आत्मा की दिव्य अवभूति होने के कारण आनन्द की उत्पत्ति का अमोघ साधन सिद्ध होता है। जिस हृदय में प्रेम की धारा बहेगी वह अमृत के सरोवर में स्नान करने जैसा उल्लास हर घड़ी अनुभव करेगा। प्रेम जिससे होता है, वह जड़ पदार्थ भी आनन्दायक लगता है। जिस मनुष्य से प्रेम हो जाता है, वह अनुपयुक्त और गुणहीन होने पर भी प्राणप्रिय लगता है। ईश्वर की प्राप्ति का उपाय तो प्रेम ही है। भगवान भक्ति के वश में रहते हैं।प्रेम से अधिक प्रिय भगवान को और कुछ नहीं। हम प्रेमी बन कर ही भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। संसार में आनन्द का जीवन व्यतीत करने के लिए, सर्वत्र सुख-शान्ति का वातावरण बनाये रहने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य का अन्तःकरण प्रेम भावनाओं से भरा रहे। परमात्मा की प्रतिमूर्ति प्राणी मात्र को समझने की मान्यता यदि अपने भीतर जम जाये तो फिर किसी के साथ दुर्व्यवहार कर सकना संभव नहीं हो सकेगा। अपनी ओर से सद्भावना रहेगी और उसकी प्रतिक्रिया भी प्रेमपूर्ण ही होगी। और फिर आनन्द का स्वर्गिक वातावरण ही चारों ओर बिखरा रहने लगेगा। 

आनन्दमय कोश-की साधना विधि  के चार चरण  ;-

07 FACTS;-

 1-साधना के प्रथम चरण में जप के साथ, प्रेम- भावना के साथ एकाग्रतापूर्वक  ईश्वर का ध्यान करने से साधक का चित्त स्थिर रहने लगता है, और साधना में आत्म-विभोर कर देने वाला रस मिलने लगता है। साधना के द्वितीय चरण में “सूर्य प्रकाश के मध्य में  ईश्वर के सुन्दर मुख मण्डल मात्र का ध्यान करना चाहिए और उनके दाहिने नेत्र की पुतली में जो काला बिन्दुहोता है, उस पर मन को एकाग्र करना चाहिए। यह तिल आरम्भ में काला ही दृष्टिगोचर होगा, पीछे वह श्वेत प्रकाश के रूप में बढ़ने और बिखरने लगेगा, ऐसा अनुभव होने लगेगा कि दाहिने नेत्र की पुतली में भरा हुआ प्रकाश सुविस्तृत होकर अपने चारों ओर ज्योतिर्मय   आभा उत्पन्न कर रहा है और उस प्रकाश से स्फुल्लिंग/Sparkling छिटक-छिटक पर अपने अन्तःकरण में प्रवेश कर रहे हैं।” जप के साथ इस प्रकार की भावनाऐं करते रहने से चित्त में निरन्तर उल्लास उमड़ता रहता है और साधना बहुत ही सरल बन जाती है। प्रथम और द्वितीय चरण की यह दोनों ही साधनाऐं अभ्यास में लाने योग्य हैं। 

 2-जिसने भी इन विधियों को अपनाते हुए ध्यान भावनाओं के साथ साधना की है, उसने बहुत कुछ पाया है, पर जिसने  केवल पूजाचिन्ह  की तरह माला ही फेरा हैं, उन्हें न तो मन की चञ्चलता से छुटकारा मिला है, न एकाग्रता ही प्राप्त हुई है और न वह रस ही अनुभव हुआ है, जो आनन्दमय कोश के विकास होने पर स्वयमेव उपलब्ध होने लगता है। इसलिए उपरोक्त दोनों ही ध्यानों का अभ्यास करना अनिवार्य है। तीसरे चरण में साधकों को अन्तःत्राटक द्वारा ज्योति पुंज का ध्यान करते हुए उसमें लय होने का अभ्यास करना चाहिए।इस साधना के लिए रात्रि का वह समय नियत कीजिए जब आपके घर में शान्ति रहती हो। एकान्त स्थान ही इसके लिए उपयुक्त है। घर छोटा हो और वैसी सुविधा न मिले तो बाहर में ऐसा स्थान तलाश किया जा सकता है। पालथी मारकर सीधे बैठिये। कमर झुकी न रहे। दोनों हाथ गोदी में रख लेने चाहिए। अपने शरीर से तीन फुट आगे,कोई  तीन फुट  ऊँची वस्तु रख लीजिए और उस पर घी का दीपक जलाकर रखिए। प्रयत्न करना चाहिए कि दीपक रखने की वस्तु काले रंग से रंगी हो, ताकि दृष्टि इधर-उधर न जावे और प्रकाश अधिक स्पष्ट दृष्टिगोचर हो। 

3-लगभग 10 सैकिण्ड खुली आँख से दीपक की लौ को देखिए और फिर बीस सैकिण्ड के लिए आँखें बन्द कर लीजिए। बन्द नेत्रों से उस दीपक के प्रकाश का ध्यान कीजिए। फिर नेत्र खोलिए दस सैकिण्ड लौ को फिर देखिए और नेत्र बन्द करके बीस सैकिण्ड फिर उस लौ का ध्यान कीजिए। इस प्रकार दीपक के माध्यम से प्रकाश का ध्यान करने का अभ्यास दों- दों तीन महीने में परिपक्व हो जाता है, फिर दीपक की जरूरत नहीं रहती। ध्यान पर बैठते ही प्रकाश की सामने उपस्थिति अनुभव होने लगती है। दस और बीस सैकिण्ड की बात दस- पाँच दिन घड़ी का सहारा लेने से अभ्यास में आ जाती है। फिर घड़ी की जरूरत नहीं रहती। अन्दाज से ही सब क्रम चलने लगता है। इसमें समय न्यूनाधिक हो जाय, तो भी कुछ हर्जा नहीं है। जब नेत्र बन्द करने पर प्रकाश ठीक तरह सामने दृष्टि गोचर होने लगे, तो धारणा करनी चाहिए कि यह प्रकाश परब्रह्य परमात्मा का प्रतीक है। उसमें अपनी आत्मा को मिलाना एवं लय करना है। 

4-भावना कीजिए कि आपकी जीवात्मा आपके हृदय- स्थल में से पतंगे की तरह बाहर निकलती हैं और उस प्रकाश पर अपना आत्म समर्पण कर देती है। उसका सारा  प्रभाव जलकर नष्ट हो जाता है और आत्मा की ज्योति परमात्मा-स्वरूप उस महा प्रकाश में लय हो जाती है। दूसरा ध्यान यह भी हो सकता है “कि ध्यान में प्रकाश.. यज्ञ की ज्वलन्त अग्नि के रूप के सामने विद्यमान हैं और हमारा जीवात्मा घृत के रूप में आहुति प्रदान कर रहा है। अग्नि में पड़ने के बाद घृत का अपना स्वरूप और अस्तित्व समाप्त हो जाता है और उसकी परिणति ज्योति का स्वरूप बढ़ने के रूप में ही दिखाई देती है। हमने अपनी आत्मा उस प्रकाश में होम दिया, तो अपना आपा समाप्त हुआ और वह उस पूर्व प्रकाश में लय होकर ब्रह्म-भाव में बदल गया।” यह ध्यान पन्द्रह मिनट से बढ़ाते हुए आधा घण्टे तक पहुँचा देना चाहिए। अन्य अवकाश के समयों में भी प्रकाश, ज्योति और उसके साथ आत्म आहुति का ध्यान करते रहना चाहिए। आनन्दमय कोश के अनावरण में इस ध्यान से आशाजनक सहायता मिलेगी। 5-उपासना के तीन प्रकार हैं- १- त्रैत २- द्वैत ३- अद्वैत। त्रैत पूजा वह कहलाती है, जिसमें उपासक, उपास्य और उपकरण की तीनों आवश्यकताऐं रहती हैं। मूर्ति-पूजा या देव-पूजा जो वस्तुओं और उपकरणों के माध्यम से की जाती है, त्रैत है। धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, चन्दन, रोली, जल, शंख, घड़ियाल, आरती आदि पूजा उपकरण प्रकृति के प्रतीक हैं। उपासक जीव-इनमें से अलग हैं। ब्रह्म तो अलग था ही, उसी को प्राप्त करने के लिए जो उपासना का विधान एकत्रित किया था, यह त्रैत साधना हुई। द्वैत साधना में पूजा उपकरणों की आवश्यकता नहीं रहती। जीव-और ब्रह्म दोनों का आप द्वारा सन्निध्य- समागम होता रहता है। किसी पूजा उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती। ईश्वर  की प्रतिमा का पूजन साधना की प्रारम्भिक अवस्था है। चित्र या मूर्ति का षोडशोपचार पूजा सामिग्री से पूजन करना, माला, हवन, ब्रह्मभोज, तर्पण, मार्जन आदि कर्मकाण्ड  त्रैत साधना के अन्तर्गत आते हैं।  

6-जीव और ब्रह्म की स्थिति , प्रकृति की समाप्ति को ही द्वैत कहते हैं। अब द्वैत को हटाकर अद्वैत साधना में प्रवेश किया जाता है, परब्रह्म परमात्मा का प्रकाश रूप में ध्यान करते हुए आत्म- समर्पण करना, ‘अहम्’ को उसी में लीन कर देना, दोनों को मिटाते हुए एक की स्थिति शेष रहने देना अद्वैत उपासना है।अब चौथे चरण में विश्वात्म-दर्शन का अभ्यास हमें आनंदमय कोश के अनावरण के लिए करना चाहिए। अर्जुन को कृष्ण ने गीता सुनाते समय अपना विराट स्वरूप दिखाया था। यशोदा द्वारा माटी खाते हुए धमकाये जाने पर भी भगवान ने अपना वही रूप उन्हें दर्शाया, कौशिल्या ने राम को पालने में खिलाते हुए भी वही रूप देखा था और काकभुशुण्डिजी ने भगवान राम के मुख में प्रवेश करके भी उसी स्वरूप की झाँकी की थी। यह विश्व ब्रह्माण्ड ही परमात्मा का स्वरूप है। संसार के कण-कण में, प्रत्येक जीव में भगवान की झाँकी करना और तदनुरूप प्रत्येक के साथ सद्-व्यवहार करना विश्वात्मा की सच्ची आराधना है।  

7-अपने में सबको और सब में अपने को समाया हुआ देखने का अभ्यास करना चाहिए। प्राथमिक अवस्था में प्रतिमाओं के आधार पर भगवान की स्थापना की जाती है और चंदन, अक्षत, धूप- दीप से उसका पूजन होता है। पीछे ऊँची स्थिति में पहुँचने पर इस विराट विश्व को ही परमात्मा का साक्षात् स्वरूप मानना पड़ता है और उसके चरणों पर अपने शरीर, मन, वचन, कर्म और धन को समर्पित करना पड़ता है। भगवान पत्र-पुष्पों के बदले नहीं, भावनाओं के बदले प्राप्त किये जाते हैं। और वे भावनाऐं,  आवेश, उन्माद या कल्पना जैसी नहीं वरन् सच्चाई की कसौटी पर खरी उतरने वाली होनी चाहिए। उनकी सच्चाई परीक्षा मनुष्य के त्याग, बलिदान, संयम, सदाचार एवं व्यवहार से होती है। भक्ति भावना को इसी कसौटी पर परखा जाता है और यदि वह खरी होती है, तो उसके बदले में आनन्दमय परमात्मा अवश्य मिलता है। सच्चिदानन्द की प्राप्ति निश्चित रूप से होती है, जिसे आत्मज्ञान की मस्ती कहते हैं। वास्तविक आनन्द यही है। अपने आप की पवित्रता और महानता का अनुभव करते हुए शान्ति, सन्तोष ,उल्लास और आनन्द में निमग्न रहने की स्थिति ही जीवनमुक्ति कहलाती है।उस अवस्था को प्राप्त करने के पश्चात् और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता  है।

...SHIVOHAM....

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