सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

क्या हैआदि शंकराचार्य कृत दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्( Dakshinamurti Stotram) का महत्व

?
1-दक्षिणामूर्ति स्तोत्र ;-

02 FACTS;-

दक्षिणा मूर्ति स्तोत्र मुख्य रूप से गुरु की वंदना है। श्रीदक्षिणा मूर्ति परमात्मस्वरूप शंकर जी हैं जो ऋषि मुनियों को उपदेश देने के लिए कैलाश पर्वत पर दक्षिणाभिमुख होकर विराजमान हैं। वहीं से चलती हुई वेदांत ज्ञान की परम्परा आज तक चली आ रही  हैं।व्यास, शुक्र, गौड़पाद, शंकर, सुरेश्वर आदि परम पूजनीय गुरुगण उसी परम्परा की कड़ी हैं। उनकी वंदना में यह स्त्रोत समर्पित है।भगवान् शिव को गुरु स्वरुप में दक्षिणामूर्ति  कहा गया है, दक्षिणामूर्ति ( Dakshinamurti ) अर्थात दक्षिण की ओर मुख किये हुए शिव इस रूप में योग, संगीत और तर्क का ज्ञान प्रदान करते हैं और शास्त्रों की व्याख्या करते हैं। कुछ शास्त्रों के अनुसार, यदि किसी साधक को गुरु की प्राप्ति न हो, तो वह भगवान् दक्षिणामूर्ति को अपना गुरु मान सकता है, कुछ समय बाद उसके योग्य होने पर उसे आत्मज्ञानी गुरु की प्राप्ति होती है। 

2-गुरुवार (बृहस्पतिवार) का दिन किसी भी प्रकार के शैक्षिक आरम्भ के लिए शुभ होता है, इस दिन सर्वप्रथम भगवान् दक्षिणामूर्ति की वंदना करना चाहिए।दक्षिणामूर्ति हिंदू भगवान शिव का एक अंश है जो सभी प्रकार के ज्ञान के गुरु हैं। परमगुरु के प्रति समर्पित भगवान परमाशिव का यह अंश परम जागरूकता, समझ और ज्ञान के रूप में उनका व्यक्तित्व है।यह रूप शिव को योग, संगीत और ज्ञान के शिक्षक के रूप में प्रस्तुत करता है, और शास्त्रों पर प्रतिपादक देता है। उनकी पूजा इस रूप में की जाती है। ज्ञान के देवता, पूर्ण और पुरस्कृत ध्यान।आदि शंकराचार्य ने बहुत सारे महान स्तोत्र (प्रार्थना) लिखे हैं, लेकिन यहां एक अनोखी प्रार्थना है, जो न केवल एक प्रार्थना है, बल्कि उन सभी दर्शन का सारांश है जो उन्होंने सिखाया है। अपने समय के दौरान भी, इस स्तोत्र को समझना मुश्किल था और उनके एक शिष्य के लिए यह आवश्यक हो गया, सुरेश्वराचार्यो ने इस स्तोत्र को मानसोलासा नामक एक टीका लिखी।

आदि शंकराचार्य का दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्;-

ध्यानम्;- 

मौन व्याख्या प्रकटित परब्रह्म तत्त्वं युवानं। वर्षिष्ठांते वसद् ऋषिगणैः आवृतं ब्रह्मनिष्ठैः ।। 

आचार्येन्द्रं कर कलित चिन्मुद्रमानंद रुपम । स्वात्मारामं मुदित वदनं दक्षिणामूर्ति मीडे ।1। 

जिनकी मौन व्याख्या उनके शिष्यों के हृदय में परम ब्रह्म के ज्ञान को जागृत कर रही है, जो युवा हैं तथापि (फिर भी) ब्रह्म में लीन वृद्ध ऋषियों से घिरे हुए हैं [अर्थात वृद्ध ऋषि जिनके शिष्य हैं], जिन ब्रह्म ज्ञान के सर्वोच्च आचार्य के हाथ चिन्मुद्रा (ऊपर फोटो में देखें) में हैं, जिनकी स्थिर और आनंदमय है, जो स्वयं में आनन्दमय हैं यह उनके मुख से प्रतीत होता है; उन दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।। 

वटविटपि समीपे भूमिभागे निषण्णं। सकल मुनि जनानां ज्ञान दाता रमारात्।। 

त्रिभुवन-गुरुमीशं दक्षिणामूर्ति देवं। जनन मरण दुः खच्छेद दक्षं नमामि ।2। 

 जो वटवृक्ष (बरगद) के नीचे भूमि पर बैठे हैं, जिन ज्ञानदाता के समीप सभी मुनि जन बैठे हैं, जो दक्षिणामूर्ति तीनों लोकों के गुरु हैं, उन जन्म-मरण के दुः ख से भरे चक्र को नष्ट करने वाले देव को नमन करता हूँ ।। 

चित्रं वट तरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा। गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं; शिष्या स्तुच्छिन्न संशयाः ।3। 

वास्तव में यह विचित्र है कि वट वृक्ष की जड़ पर वृद्ध शिष्य (ऋषिगण) अपने युवा गुरु (शिव) के समक्ष बैठे हुए हैं, और गुरु का मौन व्याख्यान उन शिष्यों के संशय (doubts) को दूर कर रहा है।

।। निधये सर्व विद्यानां भिषजे भवरोगिणाम् । गुरवे सर्व लोकानां दक्षिणामूर्तये नमः ।4। 

जो सभी विद्याओं के निधान (भण्डार) हैं, संसार के सभी रोगों के उपचारक [औषधि] हैं, उन सभी लोकों के गुरु श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।

।। ॐ नमः प्रणवार्थाय शुद्ध ज्ञानैक मूर्तये। निर्मलाय प्रशान्ताय दक्षिणामूर्तये नमः ।5। 

ॐ, जो प्रणव (ॐ) और शुद्ध अद्वैत (Non-Dual) ज्ञान के मूर्त-रूप हैं, उन्हें नमस्कार है, निर्मल और शान्ति समाहित (जो शान्ति से परिपूर्ण हो ऐसे) श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।

।। चिद्घनाय महेशाय; वटमूल निवासिने । सच्चिदानन्द रूपाय दक्षिणामूर्तये नमः ।6। 

सघन चेतना के रूप को, महा-ईश्वर (महादेव) को, वटवृक्ष (बरगद) के मूल पर निवास करने वाले, सत-चित-आनंद (Existence, Consciousness, Bliss) के मूर्त रूप को, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।

।। ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्ति भेद विभागिने । व्योम वद् व्याप्त देहाय; दक्षिणामूर्तये नमः ।7। 

ईश्वर, गुरु, और आत्मन्- इन तीनों विभिन्न रूपों में जो आकाश (आध्यात्मिक आकाश या चिदाकाश) की तरह जो व्याप्त हैं, उन दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।

 स्तोत्रम्;-

 1- विश्वं दर्पण दृश्यमान नगरी ..तुल्यं निजान्तर्गतं। पश्यन्नात्मनि मायया बहिरि वोद्भूतं यथा निद्रया ।। 

यः साक्षात्कुरुते प्रबोध समये स्वात्मान मेवाद्वयं। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।1। 

स्वयं के अंतर्मन में देखने पर सम्पूर्ण विश्व एक दर्पण (mirror) में बसे नगर के समान है, अपने आत्मन के भीतर से देखने पर (नींदनीं के स्वप्न की तरह, माया से बना) यह बाहरी संसार आत्मन की आध्यात्मिक जागृति के समय, स्वयं अद्वैत आत्मन के भीतर साक्षात दिखाई देता है, अपने गहन मौन से इस ज्ञान को जागृत करने वाले उन गुरु रूप श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।। 

NOTE;-

उपर्युक्त श्लोक हमें बताता है कि जो दुनिया हमारे बाहर है वह हमारी आत्मा के समान है लेकिन हम उन्हें अज्ञानता के घूंघट के कारण अलग-अलग संस्थाओं के रूप में देखते हैं। जैसे ही हम जागते हैं, हम महसूस करते हैं कि सपना झूठा है और यहां तक कि दर्पण में हमारी छवि को देखते हुए, हम जानते हैं कि हम हमें दर्पण में नहीं बल्कि हमारी छवि देख रहे हैं। जब हम गुरु से ज्ञान प्राप्त करते हैं तो हम अज्ञान के घूंघट के बिना जाग्रत अवस्था में होते हैं। 

2-बीज अस्याऽन्तरि वाङ्कुरो जगदिदं प्राङ्ग निर्विकल्पं पुनः । माया कल्पित देशकाल कलना वैचित्र्य चित्रीकृतम् ।। 

मायावीव विजृम्भ यत्यपि महा ..योगी व यः स्वेच्छया। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये ..नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।2। 

यह जगत जो बीज के अन्दर स्थित अंकुर की भांति है, यह माया के द्वारा रचित आकाश (space) और समय से मिलकर बार-बार अनेकों रूपों में जन्म लेता है। वे महायोगी जो एक मायावी की भांति अपनी इच्छा मात्र से इस जगत की गतियों को नियंत्रित करते हैं, मैं अपने गुरु के रूप में उन श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ

 3-यस्यैव स्फुरणं सदात्मकम सत्कल्पार्थकं भासते। साक्षा त्तत्त्वमसीति वेद वचसा.. यो बोध यत्याश्रितान् ।। 

यत्साक्षात्करणा अंद्भवेन्न पुनरावृत्ति र्भवाम्भोनिधौ। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।3। 

जिनका स्पंदन (फड़क, गति) ही सत-चित-आनंद की प्रकृति को दर्शाता है, जिनका वास्तविक रूप एक आभासी (अवास्तविक) रचना लगता है, जो अपने आश्रितों को साक्षात ही तत्-त्वम-असि का वेद वचन सुनाते हैं। जिनका साक्षात ज्ञान प्राप्त कर व्यक्ति फिर कभी जन्म और मृत्यु के समुद्र में नही फंसता, मैं अपने गुरु के रूप में उन श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।।  

4-नानाच्छिद्र घटोदर-स्थित महादीप-प्रभा भास्वरं। ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरण-द्वारा वहिः स्पन्दते ।। 

जानामीति तमेव भान्तमनु भात्ये तत्समस्तं जगत्। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।4।  

जिस प्रकार कई छिद्रों वाले बर्तन में रखे एक चमकते दीपक की रोशनी उस बर्तन के बाहर से चमकती दिखती है, इसी प्रकार मात्र उसका [आत्मन का, स्वयं का ] ज्ञान हो जाने से मनुष्य की आँखें भी बाहर से चमकती दिखाई देती हैं।  "मैं जानता हूँ" इस रूप में जिस अकेले की प्रभा से समस्त जगत प्रभावान होता है, मैं अपने गुरु के रूप में उन श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।

5-देहं प्राण अमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः । स्त्री बालान्ध जडोप मास्त्वह मिति भ्रान्ता भृशं वादिनः ।। माया शक्ति विलास कल्पित महा.. व्यामोह संहारिणे। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।5। 

जो लोग देह (शरीर), प्राण, इन्द्रियों, यों प्राचल (गतिमान) बुद्धि या परम शून्य को ही, "मैं" का अर्थ, मानते हैं वे एक भोली लड़की की भांति और अंधे होकर भी अपनी बातों को जोरों से बोलते रहते हैं। माया, शक्ति और विलास से पैदा हुए इस महान व्योम (भ्रान्ति) को नष्ट करने वाले अपने गुरु के रूप में, मैं श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।। 

6-राहुग्रस्त दिवाकरेन्दु सदृशो.. माया समाच्छादनात्। सन्मात्रः करणोप संहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान् ।। 

प्राग स्वाप्समिति प्रबोध समये.. यः प्रत्यभिज्ञायते। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये.. नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।6।

जैसे सूर्य और चंद्रमा को राहु द्वारा ग्रहण किया जाता है, वैसे ही माया के द्वारा ढके हुए, इन्द्रियों के हट जाने पर अजन्मा सोया हुआ पुरुष प्रकट हो जाता है। ज्ञान देते समय जो यह पहचान करा देते हैं कि पूर्व में सोये हुए यह तुम ही थे, उन श्री दक्षिणामूर्ति को गुरु रूप में नमस्कार है।। 

7-बाल्या दिष्वपि जाग्रदा दिषुतथा सर्वास्व वस्था स्वपि। व्यावृत्ता स्वनु वर्तमानं  महमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।। 

स्वात्मानं प्रकटी करोति भजतां यो मुद्रया भद्रया। तस्मै श्रीगुरुमूर्तये ..नमइदं.. श्रीदक्षिणामूर्तये ।7। 

बाल्य अवस्था और अन्य अवस्थाओं में, जागते हुए या निद्रा आदि जीवन की सभी अवस्थाओं में जो आत्मन (आत्मा) शरीर के भीतर दीप्त रहती है, वह सभी नियमों से मुक्त लेकिन हर समय उपस्थित रहती है। जो अपने भक्तों को चिन्मुद्रा के माध्यम से इस आत्मन का ज्ञान कराते हैं, उन श्री दक्षिणामूर्ति को गुरु रूप में नमस्कार है।। 

8-विश्वं पश्यति कार्य कारण तया ..स्वस्वामि सम्बन्धतः । शिष्या अचार्यतया तथैव.. पितृ पुत्रा अध्यात्मना भेदतः ।। 

स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो.. माया परि भ्रामितः । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये.. नमइदं ..श्रीदक्षिणामूर्तये ।8।

 विश्व में जो अलग-अलग सम्बन्ध जैसे कि- कार्य-कारण, स्व-स्वामी, शिष्य-आचार्य, और पिता-पुत्र आदि दिखाई देते हैं, स्वप्न में और जागृति में ये सभी समबंध पुरुष ( आत्मतत्व ) को भ्रमित करने के लिए माया द्वारा बनाए गये हैं। मैं अपने गुरुरुपी श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।।  

9-भूरम्भांस्यन लोऽनिलोऽम्बर महर्नाथो हिमांशु पुमान् । इत्या भाति चरा चरात्मक मिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम्।। 

नान्यत् किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्मा द्विभोः । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नमइदं.. श्रीदक्षिणामूर्तये ।9। 

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश,सूर्य, चन्द्र और जीव- ये आठ उस [आत्मन] के रूप हैं, जो चर-अचर रूपों में विद्यमान हैं, इस [आत्मन] के अतिरिक्त संसार में कुछ भी नही हैं, यही सर्वव्यापक है, अंतर्मन में लीन योगी इसे ही विश्व का सार मानते हैं, मैं अपने गुरुरुपी श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।। 

10-  सर्वात्मत्व मिति स्फुटी कृतमिदं.. यस्माद मुष्मिन् स्तवे। तेनास्य श्रवणा त्तदर्थ मनना ध्यानाच्च संकीर्तनात् ।। सर्वात्मत्व महाविभूति सहितं ..स्यादीश्वरत्वं स्वतः । सिद्ध्ये त्तत्पुनर अष्टधा ..परिणतं .. ऐश्वर्य मव्याहतम् ।10। 

इस स्तुति में स्वयं [आत्मन] की सर्वव्यापकता स्पष्ट रूप से प्रकट हुई है, जिसके बारे में सुनने से, उसके अर्थ पर विचार करने से, ध्यान और भजन करने से अष्टांगिक ऐश्वर्यों के साथ विश्व के परम सार के ज्ञान की प्राप्ति होती है, बिना बाधा और कठिन प्रयास किये आध्यात्मिक जागृति प्राप्त होती है। 

...SHIVOHAM....sabhar chidanana Facebook wall

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

क्या है आदि शंकर द्वारा लिखित ''सौंदर्य लहरी''की महिमा

?     ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥  अर्थ :'' हे! परमेश्वर ,हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों  (गुरू और शिष्य) को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए। हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें। हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो। हम दोनों परस्पर द्वेष न करें''।      ''सौंदर्य लहरी''की महिमा   ;- 17 FACTS;- 1-सौंदर्य लहरी (संस्कृत: सौन्दरयलहरी) जिसका अर्थ है “सौंदर्य की लहरें” ऋषि आदि शंकर द्वारा लिखित संस्कृत में एक प्रसिद्ध साहित्यिक कृति है। कुछ लोगों का मानना है कि पहला भाग “आनंद लहरी” मेरु पर्वत पर स्वयं गणेश (या पुष्पदंत द्वारा) द्वारा उकेरा गया था। शंकर के शिक्षक गोविंद भगवदपाद के शिक्षक ऋषि गौड़पाद ने पुष्पदंत के लेखन को याद किया जिसे आदि शंकराचार्य तक ले जाया गया था। इसके एक सौ तीन श्लोक (छंद) शिव की पत्नी देवी पार्वती / दक्षिणायनी की सुंदरता, कृपा और उदारता की प्रशंसा करते हैं।सौन्दर्यलहरी/शाब्दिक अर्थ सौन्दर्य का

पहला मेंढक जो अंडे नहीं बच्चे देता है

वैज्ञानिकों को इंडोनेशियाई वर्षावन के अंदरूनी हिस्सों में एक ऐसा मेंढक मिला है जो अंडे देने के बजाय सीधे बच्चे को जन्म देता है. एशिया में मेंढकों की एक खास प्रजाति 'लिम्नोनेक्टेस लार्वीपार्टस' की खोज कुछ दशक पहले इंडोनेशियाई रिसर्चर जोको इस्कांदर ने की थी. वैज्ञानिकों को लगता था कि यह मेंढक अंडों की जगह सीधे टैडपोल पैदा कर सकता है, लेकिन किसी ने भी इनमें प्रजनन की प्रक्रिया को देखा नहीं था. पहली बार रिसर्चरों को एक ऐसा मेंढक मिला है जिसमें मादा ने अंडे नहीं बल्कि सीधे टैडपोल को जन्म दिया. मेंढक के जीवन चक्र में सबसे पहले अंडों के निषेचित होने के बाद उससे टैडपोल निकलते हैं जो कि एक पूर्ण विकसित मेंढक बनने तक की प्रक्रिया में पहली अवस्था है. टैडपोल का शरीर अर्धविकसित दिखाई देता है. इसके सबूत तब मिले जब बर्कले की कैलिफोर्निया यूनीवर्सिटी के रिसर्चर जिम मैकग्वायर इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप के वर्षावन में मेंढकों के प्रजनन संबंधी व्यवहार पर रिसर्च कर रहे थे. इसी दौरान उन्हें यह खास मेंढक मिला जिसे पहले वह नर समझ रहे थे. गौर से देखने पर पता चला कि वह एक मादा मेंढक है, जिसके