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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन
पूज्यपाद गुरूदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन
योग में 'यत्पिण्डे तद्ब्रह्माण्डे' रूप अध्यात्म विज्ञान को इन शब्दों में पूर्णतया 'शिवत्व' के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया है--
यस्मिन्दर्पणबिम्बजम्भितपुरी।
भातं यत्परसंविदो यत् इदं रूपयादिवल्लीयते।।
यस्याज्ञानविजृम्भिता परभिदावारीन्दु भेदादिवत।
तं भूमानमुपास्महे हृदि सदा वाघारघानिम् शिवम्।।
अर्थात्--भगवान् ने मनुष्य के साढ़े तीन हाथ के शरीर में भूर्भुवः आदि सप्त लोकों तथा सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, पर्वत, सागर, वृक्ष आदि सभी वस्तुओं को बिम्बवत् प्रतिफलित कर दिया है। शिव संहिता के द्वितीय पटल में योगी की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि ब्रह्माण्ड की संज्ञा वाली देह में जिस प्रकार अनेक देशों की व्यवस्था है, उसे पूर्णतया जान लेने वाला ही योगी है--
जानाति यः सर्वमिदं योगी नात्र संशयः।
ब्रह्माण्डसंज्ञके देहे यथा देशं व्यवस्थितः।।
योग में मानव शरीर का विभाजन षट्चक्रों के रूप में किया गया है जैसे--मूलाधार चक्र (चतुर्दल पद्य), स्वाधिष्ठान चक्र (षड्दल पद्य), मणिपूरक चक्र (दश दल पद्य),अनाहत चक्र (द्वादश दल पद्य), विशुद्ध चक्र (षोडश दल पद्य) और आज्ञाचक्र (द्विदल पद्य)। इनके स्थान पर आधुनिक शरीर शास्त्र की दृष्टि से क्रमशः -कटि अस्थि (पेल्विक प्लेक्सस), नाभि-उदर प्रदेश (हाइपोगेस्ट्रिक प्लेक्सस), फेफड़े (ऐपेगेस्टिव प्लेक्सस, ह्रदय और यकृत (कार्डियक प्लेक्सस), गल प्रदेश (कैरोटिड प्लेक्सस) और भृकुटि मध्य (मेडुला) है। इनके ऊपर सहस्त्रदल अर्थात् मस्तिष्क प्रदेश है। चतुर्दल में पृथ्वी तत्व, षड्दल में जलतत्व, दशदल में अग्नितत्व, द्वादश दल में वायुतत्व और षोडश दल में आकाश तत्व की प्रधानता है। इसका तात्पर्य यह है कि शरीर-रथ के सञ्चालन के लिए उक्त तत्वों का उक्त स्थानों पर विशेष रूप से निर्माण हो रहा है। दल से तात्पर्य उन उन स्थानों पर नाड़ियों के गुच्छ रूप से है। इन तत्वों के बीजाक्षर तंत्र शास्त्रोक्त लं (पृथ्वी), वं (जल), रं (अग्नि), यं (वायु) और टम (आकाश) है। ये बीजाक्षर उन ध्वनियों के अनुकरण पर है जो उन तत्वों के निर्माण के समय शरीर में उन-उन स्थानों पर गूंजती रहती हैं। इन ध्वनियों को सूक्ष्म ध्वनिग्राही यंत्रों से सुना जा सकता है। शरीर जो अन्न ग्रहण करता है, उससे निःसृत होने वाले पंचतत्व निर्दिष्ट स्थानों में संग्रहीत होते हैं। तंत्रशास्त्र में बीजों के वाहन इस प्रकार निर्दिष्ट हैं--लं (ऐरावत हाथी), वं (मकर), टम (मेष), यं (मृग)। वायु भिन्न-भिन्न तत्वों से मिलकर जिस प्रकार की गति उत्पन्न करता है, यहाँ उसी का निर्देशन किया गया है। दलों के वर्ण (रंग) इस प्रकार हैं--चतुर्दल (रक्तवर्ण), षड् दल (गुलाबी), दशदल (नीलवर्ण), द्वादश दल (लाल वर्ण) और षोडश दल (धूम्र वर्ण) रुधिर के अरुणवर्ण पर भिन्न-भिन्न तत्वों का प्रतिबिम्ब पड़ने से उसका जो रंग होता है, उसे ही यहाँ निर्दिष्ट किया है। शरीर में भिन्न-भिन्न नाड़ियां वायु की मदद से जिस आकार में चक्कर कटतीं हैं, वे ही इन दलों के विशिष्ट यंत्र हैं। जैसे--चतुरस्त (चतुर्दल) अर्धचंद्राकार (षड् दल), त्रिकोणाकार (दशदल) और लिंगाकार (द्विदल)।
द्विदल (भ्रूमध्य) में ॐ प्रणव बीज है। सहस्त्र दल में शून्य तत्व है। विसर्ग (:) ह्रीं उसका बीज है। एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने कहा था कि ब्रह्माण्ड को देखने से लगता है जैसे उसके पीछे किसी का विराट मस्तिष्क हो। यही ब्रह्माण्ड का 'सहस्त्रार' है जो मानव मस्तिष्क में निहित है। शून्य अर्थात् 'बिन्दुतत्व' से ही विसर्ग (:) अर्थात् सृष्टि हुई--तंत्रशास्त्र की यही अन्तिम निष्पत्ति है।
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