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प्रश्वास की उचित विधि मनुष्य को न केवल स्वस्थ, सुंदर और
दीर्घजीवी बनाती है बल्कि ईश्वरानुभूति तक करा सकती है।
सदा युवा बने रहने और जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए
सांसों पर संयम जरूरी है। श्वास की गति का संबंध मन से जुड़ा है।
मनुष्य के दोनों नासिका छिद्रों से एक साथ श्वास-प्रश्वास
कभी नहीं चलती है। कभी वह बाएं तो कभी दाएं नासिका
छिद्र से सांस लेता और छोड़ता है। बाएं नासिका छिद्र में इडा
यानी चंद्र नाडी और दाएं नासिका छिद्र में पिंगला यानी
सूर्य नाड़ी स्थित है। इनके अलावा एक सुषुम्ना नाड़ी भी
होती है जिससे सांस प्राणायाम और ध्यान विधियों से ही
प्रवाहित होती है।
शिवस्वरोदय ज्ञान में स्पष्ट रूप से लिखा है कि प्रत्येक एक घंटे
के बाद यह श्वास नासिका छिद्रों में परिवर्तित होता रहता
है।
कबहु डडा स्वर चलत है कभी पिंगला माही।
सुष्मण इनके बीच बहत है गुर बिन जाने नाही।।
योगियों का कहना है कि चंद्र नाड़ी से श्वास-प्रश्वास
प्रवाहित होने पर वह मस्तिष्क को शीतलता प्रदान करता है।
चंद्र नाड़ी से ऋणात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है। जब सूर्य
नाड़ी से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होता है तो शरीर को
उष्मा प्राप्त होती है यानी गर्मी पैदा होती है। सूर्य नाड़ी से
धनात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है।
प्राय: मनुष्य उतनी गहरी सांस नहीं लेता और छोड़ता है जितनी एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए जरूरी होती है। प्राणायाम मनुष्य को वह तरीका बताता है जिससे मनुष्य ज्यादा गहरी और लंबी सांस ले और छोड़ सकता है। अनुलोम-विलोम प्राणायाम की विधि से दोनों नासिका छिद्रों से बारी-बारी से वायु को भरा और छोड़ी जाता है। अभ्यास करते-करते एक समय ऐसा आ जाता है जब चंद्र और सूर्य नाड़ी से समान रूप से श्वास-प्रश्वास प्रवाहित होने लगता है। उस अल्पकाल में सुषुम्ना नाड़ी से श्वास प्रवाहित होने की अवस्था को ही 'योग' कहा जाता है।
प्राणायाम का मतलब है- प्राणों का विस्तार। दीर्घ श्वास-
प्रश्वास से प्राणों का विस्तार होता है। एक स्वस्थ मनुष्य को
एक मिनट में 15 बार सांस लेनी चाहिए। इस तरह एक घंटे में उसके श्वासों की संख्या 900 और 24 घंटे में 21600 होनी चाहिए। स्वर विज्ञान के अनुसार चंद्र और सूर्य नाड़ी से श्वास-प्रश्वास के जरिए कई तरह के रोगों को ठीक किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि चंद्र नाड़ी से श्वास-प्रश्वास को
प्रवाहित किया जाए तो रक्तचाप, हाई ब्लड प्रेशर सामान्य
हो जाता है।
आज बस इतना ही ....
अष्टावक्र वैदिक विज्ञान संशोधन
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