----------: आणवमल ही जन्म-जन्मान्तर के सुख-दुःख, क्लेश- चिंता का कारण हैं :-----------
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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन
पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन
मुक्ति कैसे प्राप्त हो?
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चौरासी लाख योनियों का भ्रमण करने के बाद कहीं जाकर मानव योनि प्राप्त होती है। अन्य योनियों में सब कुछ रहता है पर 'मन' नहीं रहता। 'मन' की उपलब्धि होती है केवल मनुष्य को। इसीलिए उसे 'मनुष्य' कहते हैं। मन से मनुष्य बना। मनुष्य मानव इसलिए कहलाता है क्योंकि वह मनु की सन्तान है। जब पहली बार जीव मानव-तन को उपलब्ध होता है ,तो उस अवस्था में उससे लिप्त पिछले चौरासी लाख योनियों के पशुत्व भरे न जाने कौन-कौन से संस्कार रहते हैं। इन्हें तंत्र कहता है--'आणव मल'--
"मिथ्याज्ञानमधर्मश्चासक्तिहेतुश्च्युतिस्तथा।
पशुत्वमूलं पंचैते तन्त्रे हेयाधिकारितः।।
अर्थात्--असत्य, अज्ञान, अधर्म, आसक्ति और पशुता--ये पांच ऐसे प्रमुख हेय और त्याज्य दुर्गुण आणव मल के रूप में हैं जो मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर के पतन के कारण बनते रहते हैं।
'आणव मल' बराबर जीवात्मा का पीछा करता रहता है, हर जन्म में, हर जीवन में। यही मनुष्य के सभी प्रकार के मानसिक, शारीरिक कष्ट, पीड़ा, दुःख, क्लेश, चिता आदि का एक मात्र कारण है। मनुष्य कितना भी अपना विकास करता जाय लेकिन आणव मल से मुक्त नहीं हो सकता। उसके फल का सामना बराबर करना पड़ेगा। भले ही हम योगी हों, साधक हों, संत हों, महात्मा हों, साधू हों, सन्यासी हों या हों विरक्त --आणव मल से उत्पन्न सुख-दुःख, क्लेश, चिन्ता आदि को भोगना ही पड़ेगा हर अवस्था में। योगी, साधक, संत, भक्त इसके साक्षात् प्रमाण हैं। अनेक महापुरुषों ने भी आणव मल के परिणामस्वरुप जीवनभर कष्ट भोगा। आणव मल का अस्तित्व जब तक है, तब तक न मुक्ति है, न मोक्ष, न कैवल्य और न है निर्वाण।
प्रश्न यह है कि आणव मल के इस अभेद्य आवरण को किस प्रकार से भेदा जाय ?
इस सम्बन्ध में तंत्र-मन्त्र का कहना है कि आणव मल का सर्वथा के लिए नाश न ज्ञान द्वारा संभव है और न तो कार्य के ही द्वारा, यदि संभव है तो मात्र 'क्रिया' द्वारा। क्रिया के माध्यम से ही उसके अस्तित्व का नाश संभव है। मानव शरीर में चौरासी लाख योनियों का आणव मल एकत्र होकर धीरे-धीरे परपक्व होता रहता है। जब तक वह पूरी तरह परिपक्व नहीं हो जाता, तब तक उसका नाश नहीं होता। कंस, रावण, हिरण्य कश्यपु आदि इसके ज्वलंत उदहारण हैं।
आणव मल को पूर्ण परिपक्व होना ही चाहिए। इसके लिए जीवन में निरपेक्ष और विरक्त भाव चाहिए। कर्म करते रहना चाहिए। उसका परिणाम क्या होगा ?--इस पर सोच-विचार नहीं करना चाहिए।
आणव मल एक 'सत्तात्मक द्रव्य' है। जिस प्रकार नेत्र में मोतिया बिन्द हो जाने पर उसे उचित समय पर ही ऑपरेशन द्वारा हटाया जाता है, ठीक ऐसी ही स्थिति आणव मल की भी है। परिपक्वता दोनों में आवश्यक है। स्वयं जीवात्मा में ऐसी कोई शक्ति नहीं है जिससे आणव मल का नाश हो सके। आध्यात्मिक ज्ञान, योग, तप, तपस्या, साधना इस दिशा में पूर्ण असमर्थ हैं। तलवार की धार कितनी ही तेज क्यों न हो, वह स्वयं को नहीं काट सकती।
"असिधारा सुतीक्षणा च स्वात्मानमच्छेदिका।"
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