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श्रीमद्भागवत गीता अर्थात श्री भगवान श्री कृष्ण ने गायी यद्यपि गीता एक उपदेश है फिर भी उसे गीता लयबद्ध रचना कहा गया है क्योंकि कर्म के दुस्तर सागर के ऊपर तैर रहा है वह निष्काम कर्म योग का उपदेश है जिसमें गान का सा माधुर्य है लय है वह तिरंगावलियों से ऊपर उठकर कर्मवीचियों के नर्तन को देखते रहने का दृष्टा भाव भी है। ऐसी अवस्था ज्ञान की ही होती है और आश्चर्य यह है aकि इस गीत को अतीव चंचल तथा घटना प्रधान समरांगण में गाया गया है बांट के टुकड़े को बंसी बनाकर आये रागपुरुष के लिए ज्ञान ही एकमात्र शैली है वह पूर्ण पुरुष राग में ही व्यक्त हो सकता है इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि तटस्थभाव का सोदाहरण विवेचन कर्म संवेग में अच्छी तरह समझ में आ सकता है।
गीता वेदांत का ग्रंथ है इसका प्रमुख पात्र अर्जुन है मोह के आवेश में से उत्पन्न अवसाद अर्जुन को अक्रांत कर देता है उसके प्रश्नों में उत्सुकता नहीं है एक निराश भाव है जो कृष्ण से सीधा उत्तर मांगता है इस जय पराजय से क्या होना है यह व्यर्थ का रक्त पात्र अन्ततः किस लिए यह भविष्य में आहत और वर्तमान से पूछता है कि कृष्ण काल पुरुष है उसमें कर्मसमारंभ की परिणामी स्थितियां समाविष्ट है sवह समाविष्ट के नायक हैं वे जानते हैं इसलिए भावीपरिस्थितियों का अवलोकन कर निर्णय सुनाते हैं।
सप्तशती के समाधि सूरथ अपनी वर्तमान मनोदशा से क्षुब्ध है उनके प्रश्नों में कुतूहल है उदासीनता उनमें नहीं है उनका उपद्रष्टा मुनि है उनके मोह की मीमांसा करने के लिए मुनि उपाख्यानों को उदाहरण के रूप में सुनाता है सप्तशती का #मोह्यन्ते_मोहिताश्वैव_मोहमेष्यन्त्_चापरे ( मुक्त कर रही हूं मोहित करती रही हूं और मोहबद्ध करती रहूंगी) मोह को त्रिकाल व्यापृत करने वाली परमेश्वरी का भविष्य काल अर्जुन में हैh अर्थात अर्जुन भविष्य की चिंता से अवसन्न है और मोहिता का भूतकाल समाधि सूरथ के चरित्र में व्यक्त है प्रकृति की गुणात्मक अवस्था व्यक्ति में ही प्रवृत्त है और समष्टि में भी।
समष्टि मैं वह हर युग का नामकरण करती है जो व्यक्ति में अवस्था का निर्धारण करती है यदि वर्तमान अपने से प्रसन्न करने लगे उसकी जिज्ञासा विवेकोन्मुख हो तो एक रहस्य का अनावरण होता है प्रकृति का चरम तो नहीं पर उसकी शैली का भी परिचय प्राप्त होता है इस दृष्टि से गीता और शक्ति दोनों का बुद्ध एक है गीता का ज्ञान योग की भूमिका प्रस्तुत करती है सप्तशती भक्ति के सुरम्य उपवन से ही होकर परमेश्वरी की कृपा का प्रसाद प्राप्त कर आती है।
गीता का ज्ञानयोग व्यष्टि मे समष्टि दर्शन कराता है सप्तशती का कान्तासम्मित उपदेश समष्टि में व्यष्टि का दर्शन कराता है अर्जुन के मोहपाश को छिन्न करने के लिए भविष्यबद्ध उनको फ़लासक्ति से मुक्त रहने के लिए कृष्ण का उपदेश एक शाश्वत सत्य है कहीं लोग प्रशन्न करते हैं फलहीन कर्म करने में प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती फिर फल को परार्पित करके कोई व्यक्ति कर्म करेगा तो करेगा ही कैसे?
कृष्ण का समाधान दुरूह नहीं है दुरूह तब लगता है जब व्यक्ति की बुद्धि मोहमलाच्छन्न रहती है कर्म के साथ ही उसका परिणाम किवां फल नियत हो जाता है कोई भी काम एक साथ नहीं होता क्रमशः होता है इसलिए कर्म का जितना अंश होता जाता है फल भी उतने ही अंश में बनता जाता है oमाना हमें खीर बनानी है खीर एक साथ नहीं बनती दूध लाना भी खीर बनने का एक स्तर है चुल्हा जलाना दूध औटाना आदि सारे कर्म खीर बनने के स्तर हैं इन सभी की संपूर्णता खीर का पूरा तरह बन जाना है।
कर्ता का स्तर अथवा पात्रता कर्म विधि कर्म की मात्रा इत्यादि इस प्रकार के आधार हैं जो संपूर्ण होने पर ही अपेक्षित फल प्रकट करते हैं इसलिए कर्म के साथ परिणाम ही फल समवायीभाव से जुड़ा हुआ है उसे कर्म से भिन्न करके देखना मुग्धता नहीं तो और क्या है दूसरी बात यह है कि जब व्यक्ति फल पर केंद्रित हो जाता है तो उसमें कर्म से अधिक फल में रूचि हो जाती है परिणाम यह होता है कि कर्म का स्तर गिर जाता है।
सप्तशती में कर्म की व्याख्या नहीं है उसमें क्रियामयी प्रकृति की शैली का निर्देशन है दोनों ही ग्रंथ व्यक्ति को मोह एवं अहंकार से रहित होने का निर्देश देते हैं अर्जुन को शरणागत होने का उपदेश कृष्ण करते हैं समाधि सूरथ को असुरों का उपाख्यान मुनि कहते हैंk रक्तपात दोनों में है मोह की परिणति ऐसी ही होती है जहां बलि देने की प्रथा प्रचलित है वहां जब तक मेध्य पशु चित्कार नहीं करता घातक खड़ंग नहीं उठाता आशय यह है कि परमा की असिपात पशु पर मोह नही होता है।
जहां मोह अपने पूर्ण बल से प्रकट हुआ ही नहीं वही उसकी असिधार चमकी नहीं सप्तशती के रक्तरंजित आख्यान मोह और दर्प के ध्वंस की ही कथा है इनके रहते पराम्बा का रूप दर्शन कैसे हो सकता है असुरो के रूप में प्रसृत मोह और अंहकार की वाहिनी को वह अव्यवस्था उत्पन्न करने के लिए निर्बंन्ध कैसे छोड़ सकती है।
उसके दिव्य वैभव और अतुलनीय ऐश्वर्य का दर्शन मोह से मुक्त होकर ही किया जा सकता हैk चण्जऔर मुंण्ड देवी के अपरूप सौंदर्य को देखकर मोहित हो जाते हैं
और उसे स्त्रीरत्न को अपने स्वामी के रतनागार में ले जाने के लिए आतुर हो जाते हैं इस प्रचंड मोह का विनाश करने के कारण ही वह चंण्डी और चामुंण्डा बनती है स्त्री के रूप में पाने को अकुल शुंभ निशुंभ में मूर्ख ही निवास कर रहा है और वो की अनर्गल विस्तृति उसके लिए
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