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सृस्टि का परमतत्व

सृस्टि का परमतत्व चैतन्य है। वेदान्त उसे ईस्वर कहता है। साख्य दर्शन उसे पुरुष कहता है। तथा तंत्र शास्त्र उसे शिव कहता है। 

यह सृस्टि उसी चैतन्य तत्व की शक्ति है। जिसे वेदान्त मायाशक्ति कहता है। साँख्य इसी को प्रकृति कहता है। तथा तंत्र शास्त्र इसे भैरवी कहता है। तथा शिव को भैरव भी कहा जाता है। यह भैरबी शक्ति अपनी परावस्था में शिव से अभिन्न रहती है। एकाकार रहती है।

किन्तु अपनी अप्रवस्था में यह सृस्टि की रचना करती है। शरीरो में यही शक्ति प्राणों के रूप में सभी जीवधारियों में विद्यमान रहकर उन्हें जीवन प्रदान करती है प्राणों की इस शक्ति से सभी जीव धारिया प्राणी जीवन प्राप्त करते है।

प्राणों के निकल जाने पर वे म्रत्य घोषित कर दिए जाते है अतः जीवन का आधार यही प्राण शक्ति है। यह प्राण शक्ति चेतन तत्व शिव की ही शक्ति है। किंतु चेतन तत्व केवल ज्ञान स्वरूप है। वह क्रिया नही करता सभी क्रियाये उसकी शक्ति से ही होती है।

शरीर मे यही प्राण शक्ति स्वास परस्वाश के रूप में कार्य करती है। योग शास्त्रो में इसी को रेचक पूरक व कुम्भक कह जाता है। स्वाश परस्वाश की यह क्रिया इस परादेवी का ही स्पंदन है।

यह क्रिया ह्रदय से आरम्भ होकर ऊपर द्वादशान्त तक अर्थात नासिका से बाहर निकल कर बाहर अंगुल दूर तक जाती है। तो इसे प्राण कहा जाता है तथा द्वादशान्त से भीतर ह्रदय तक आने वाले स्वाश को जीव नामक अपान कहा जाता है।

यह परादेवी निरंतर इसका स्पंदन करती रहती है। यह परादेवी विसर्ग स्वभाव वाली है। यही आंतर व बाह्य भावों में सृस्टि करती है। शरीरो में अथवा सृस्टि में जो भी स्पंदन है हलचल है। वह सब इस शक्ति के कारण है।

जहा कोई स्पंदन नही है। कोई हलचल नही है।ऐसी शांत अवस्था ही चैतन्य शिव का स्थान है। जहाँ प्राण तत्व भर निकलता है। और अपान जा आरम्भ नही होता है। तो इन दोनों के बीच मे जो थोड़ा सा अवकाश रहता है। यही शिव का स्थान है। जहाँ कोई हलचल नही होती इसपर ध्यान केंद्रित करने पर यह अवकाश लंबा हो जाता है।

और इसी में उस चैतन्य स्वरूप शिव की अनुभूति होती है। इस प्रकार जब ह्रदय में अपान वायु का अंत होकर प्राण वायु का उदय होने के मध्य जो अवकाश है उसका ध्यान करने से योगी की शिव की अभिब्यक्ति हो जाती है।

प्राण का अंदर आना व बहार जाना इसका स्वाभाविक कार्य है। जो इस पराशक्ति का ही स्पंदन  है। द्वादशान्त तथा ह्रदय में ध्यान करने से सभी तरह की उपाधियां का विस्मरण हो जाता है। तथा में ही शिव हु या में ही ब्रह्म हु (  अहम ब्रह्मास्मि) इस प्रकार की अनुभूति हो जाती है। और यही शून्य स्थान है।

ओउम

आदि योग

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