पूज्य ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन
इस विश्वब्रह्माण्ड के कण-कण में नैसर्गिक शक्तियों का विपुल भण्डार भरा हुआ है। ये नैसर्गिक शक्तियां ऊर्जा के रूप में परिवर्तित होकर सर्वप्रथम ग्रह-नक्षत्रों की ऊर्जाओं में परिवर्तित होती हैं और उनके द्वारा मनुष्य के विभिन्न अंगों से अपना सम्बन्ध स्थापित करती हैं। इसके पश्चात पंचतत्वों का आश्रय लेकर विभिन्न पदार्थों का निर्माण करती हैं। हमें ज्ञात होना चाहिए कि सूर्य से निःसृत उष्ण ऊर्जा ही वास्तव में वह नैसर्गिक शक्ति है। हम-आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि केवल दस एकड़ भूमि पर सूर्य की जो उष्ण ऊर्जा दिन के समय बिखरी हुई होती है, उसकी शक्ति से पूरे विश्व के कल-कारखाने और मशीनों को पूरे एक महीने तक चलाया जा सकता है। लेकिन यह सम्भव कैसे है ?
सूर्य की उसी उष्ण ऊर्जा का दूसरा नाम 'सौर ऊर्जा' है जो ज्योतिर्विज्ञान की मूलभित्ति है। ज्योतिर्विज्ञान के अन्तर्गत छः विज्ञान हैं--नक्षत्रविज्ञान, राशिविज्ञान, क्षणविज्ञान, कालविज्ञान, चंद्रविज्ञान और सूर्यविज्ञान।
इस नैसर्गिक ऊर्जा का एक विशिष्ट क्षेत्र है--मानव पिण्ड जिसमें नैसर्गिक ऊर्जा मानसिक शक्ति, प्राणशक्ति, विचारशक्ति, इच्छाशक्ति और कल्पनाशक्ति के रूप में कार्य करती है।
इस पृथ्वी पर सूर्य की यह कितनी ऊर्जा निःसृत होती है--इसकी कल्पना भी कोई नहीं कर सकता। उस ऊर्जा से कैसे लाभान्वित हुआ जा सकता है--यह वैज्ञानिकों के लिए अनुसंधान का विषय है।
अब आकाश में काले-भूरे बादलों के बीच कुछ क्षणों के लिए चमकने वाली बिजली को ही लीजिए। वह इतनी अधिक होती है कि उससे दिल्ली, मुंबई जैसे महानगर को पूरे चौबीस घण्टे प्रकाशित किया जा सकता है। लेकिन हम उसे अपने उपयोग में नहीं ला पाते। इतनी उपयोगी विद्युतशक्ति अंतरिक्ष में ही अनुपयोगी रूप में नष्ट हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि इतनी मूल्यवान सूर्य की उष्ण ऊर्जा और इतनी महत्वपूर्ण आकाशीय विद्युतशक्ति का सदुपयोग मानव जीवन में नहीं हो पाता। वास्तव में यदि देखा जाये तो अब तक उसके उपयोग करने की कला से ही परिचित नहीं हो पाए हैं हम और जिस दिन परिचित हो जाएंगे, उसी दिन मनुष्य की वे अभिलाषाएं पूर्ण हो जाएंगी जो मनुष्य के लिए अब तक अज्ञात हैं।
लेकिन मनुष्य की शक्तियों के संदर्भ में ऐसा कुछ नहीं है। यदि आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टि से देखा जाये तो विश्वब्रह्माण्ड की एक अद्भुत और श्रेष्ठतम कृति है मनुष्य और अति मूल्यवान है उसका जीवन। आत्मिक शक्ति, मनःशक्ति, विचारशक्ति, इच्छाशक्ति, बौद्धिकशक्ति, रचनात्मक शक्ति और शारीरिक शक्ति--इन सात शक्तियों का विभु है मानव। एक साथ ये शक्तियां इस विश्वब्रह्माण्ड में अन्य किसी के पास नहीं हैं और यही एकमात्र कारण है कि देवगण, ऋषिगण, पितृगण, योगीगण, सिद्ध-साधकगण की आत्माएं मानव शरीर को उपलब्ध होने के लिए सदैव तत्पर और आकुल रहती हैं। सोचने की बात है इतना महत्वपूर्ण और गरिमामय मानव शरीर होते हुए भी आज का व्यक्ति विशेषकर युवावर्ग निराश, निर्धन एवम शक्तिहीन है तो इसका कारण बाहर नहीं, उसीके भीतर है। यदि मनुष्य अपनी क्षमताओं को और प्रकृति प्रदत्त अपनी शक्तियों को अपने ध्येय पर एकाग्र करे तो उसके जीवन में सभी प्रकार की सफलताओं के पुष्प खिलने में देर न लगेगी और देर न लगेगी उसके व्यक्तित्व को और महिमामंडित और गरिमामण्डित होने में।
(श्रद्धेय गुरुदेव की 'अभौतिक सत्ता में प्रवेश'नामक पुस्तक के आधार पर)
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