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#सप्तशती
दुर्गा सप्तशती में सात सौ मंत्र और तेरह अध्याय हैं उवाच अर्ध श्लोक त्रिपाद श्लोक भी इसमें पूर्ण श्लोक की तरह ही पूर्ण संख्याकित है सप्तशती में सत्तावन उवाच जिनमें मार्कंडेय मुनि प्रथम और अंतिम अध्याय में ही आते हैं और वे पांच बार बोलते हैं।
ऋषिरूवाच २७ देव्युवाच १२ राजोवाच ४ वैश्यउवाच २ देवाऊचु ३ दुतउवाच २ ब्रम्ह्मोवाच १और भगवानुवाच १ इस प्रकार कुल ५७ उवाच है kप्रथम नवम और द्वादश अध्याय के अलावा दस अध्यायों में प्रारंभ ऋषि वचनों से होता है प्रथम अध्याय के आरंभ करने वाले मार्कंडेय नवम के राजा सूरथ और द्वादश की देवी है।
अर्ध श्लोक ३८ त्रिपाद श्लोक ६६ त्रिपाद इस तरह से की या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमो नमः पाठ करने का यह क्रम ही मान्य होने से कृपाल त्रिपाद श्लोक माने जाते हैं पूर्ण श्लोक ५३६ से २ पुनरुक्त मंत्र हैं।
प्रथम चरित्र की देवता महाकाली हैं और उसके दृष्टा ब्रह्मा है छंद है गायत्री बीज है वाणी बीज ऐं प्रथम दृष्टि में यह संयोजन विचित्र लगता है क्योंकि इसके दृष्टा ब्रह्मा हैं oऔर बीज है वाणी बीज इस सारे संयोजन को संवारने वाला अनुशासन छंद है गायत्री ,गायत्री वाकविस्तार में एक लय है किंतु स्थूल वह मूल वातावरण की उर्वर भूमि भी है जहां एक बीज के अंकुरित एवं विकसित होने की सारी पृष्ठभूमि विद्यमान है यद्यपि बीज में अंकुरित होने की और विकास की क्षमता है फिर भी उसे प्रेरक और धारक आधार की आवश्यकता रहती है।
यह धारक क्षमता गायत्री छंद है अर्थात जिस प्रकार गणपति प्रकृति के सहज व्यवहार को संपादन करने वाली एक आधारभूत अवस्था है इसलिए उनको गौरी पुत्र कहा जाता है शिव स्वरूप का सर्जन से मंडित करने वाली आधार एवं प्रेरक शक्ति ही गोरी है उसे विनाशक अथवास अंगारक रूप प्रदान करते समय यही शक्ति काली हो जाती है उसी प्रकार बीज को आगे की स्थितियों के लिए परिवर्तन करने वाली व्यवस्था गायत्री है और इसके स्वरूप मर्यादा एवं शैली को छंद कहा जाता है।
गायत्री हमारी धरती के वातावरण का प्रारंभिक स्तर है सारा जड़ जंगम इसी से आश्रय प्राप्त करता है इसके ऊपर सावित्री छंद है भू गर्भ में जहां बीज का निक्षेप किया जाता है वह वातावरण गायत्री है पर गायत्री का दोलन सावित्री छंद को प्रेरित करता है यह प्रेरणा ही बीज कोष को परिष्कृत करती है hपरिणाम स्वरूप उसमें सृष्टि तंतु का उद्गम होता है बीज की परम विकसित अत एव परिपक्व अवस्था अनुष्टुप छंद होती है।
यह निश्चित है कि उद्भव है तो विनाश भी है स्वर्ग और संघार पदार्थ की परिभाषा है ब्रह्मा हम विकास व विस्तार की सहज प्रक्रिया का अधिकार अधिष्ठाता मानते है उसकी सहचारणी के रूप में वाग्देवी मानी जाती है नाद ब्रह्म कहकर हम विस्तार का आधार नाथ को कहते हैं यह सारा परिवेश ज्ञान के उदय की नैसर्गिक अवस्था है यही एकमात्र कारण है कि ज्ञान ही अर्थ से इति की रूप कल्पना और अवश्यंभाविता को स्थापित करता हैं।
दूसरी बात यह भी है कि काली के अति विकराल रूप से भयभीत हुए बिना उसे पाना भाव लोक का विषय नहीं हो सकता हमारा ज्ञान सामान्य स्थिति में अनुभव की परिधि में बदला रहता है और कल्पना चाहे कितनी ही उन्नत हो अनुभव की सीमा का अतिक्रमण नहीं कर पाती काली का जो चित्र हम देखते हैंs अथवा उसके ध्यान में वर्णित रूप की जो परिकल्पना करते हैं वह यथार्थ से बहुत छोटी होती है शास्त्रों के उपासक ओके जो लक्षण बताए गए हैं वे उसकी धारणा शक्ति एवं पात्रता का के मानक हैं काली के उपासको कि को वस्तुत भय मुक्त होना चाहिए क्योंकि वह मोह का सखा है।
जहां मोह को आशंका हुई भय उपस्थित हो जाता है और काली से अधिक भयावह कौन हो सकता है यदि साधक मोह से मुक्त नहीं हो सकता तो उसे मोह का आधार परमेश्वरी को ही मान लेना चाहिए व्यक्ति को अपने प्राण का मोह सर्वाधिक होता है मां महाकाली मोह का वध करके प्रसन्न होती है बलि के पशु का भी वध तभी किया जाता है जब वह मोहाक्रांत होकर चित्कार करता है मां प्रकृति है होने को विकृति और प्रकृति का ही परिणामी रूप है पर प्रकृति को विकृति सह्य नहीं होती जैसे किसी सफाई पसंद व्यक्ति को गंदगी अच्छी नहीं लगती वैसे ही प्रकृति स्वरूपस्थ रहना चाहती है।
जहां विकृति अपनी सीमा लांघने लगती है वही प्रकृति की भौहें तन जाती हैं और वह स्वरूपस्थ होने का उपक्रम कर बैठती है परमेश्वरी के इसी स्वभाविक लीला विलास को किसी भी आख्यान से कह दिया जाए यथार्थ है और इसलिए केवल दानव बध्य है देवता अवध्य हैं देवता प्राकृत स्तर और दानव विकृत प्रथम चरित्र की देवता काली और उसके दृष्टा मुनि ब्रह्मा यह संगति नहीं विलक्षण का का यथार्थ है संहारकारिणी को सर्जन के उषःकाल की लालिमा से मंडित करके देखने का साहस और सौंदर्य बोध ब्रह्मा में ही संभव है।
उसके विकट अट्टहास और घोर कृष्ण रूप में चमक रही दंतपंक्तियों की शुभ्रता सदगुण को कि निर्दोष दीप्ति है उसके बीज रूप में अवस्थित रहने का शौक से है उसमें लक्ष्मी का चांचल्य प्रकट रूप से नहीं है पर निष्क्रिय शव को क्रियाशील करने का बल अवश्य है aउसके पादाघात में से परमशिव क्रियामय हो उठते हैं उससे हो रहा रज स्राव रजोगुण का व्यक्त प्रतीक है शक्ति के इस प्रचंड स्वरूप को चर्मचक्षु से देख पाना संभव कहां है उसका अभिनंदन ज्ञान चक्षु के उन्मेंष से ही होता है। sabhar saki upasak Facebook wall
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