सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

chetna ka vigyan

----------------:यात्रा प्रेतलोक की:----------------
***********************************
परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन

पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वन्दन

--------:एक चेतना दूसरी चेतना को किसी भी भौतिक माध्यम के बिना संकल्प मात्र से  प्रभावित कर सकती है:-------
***********************************

    हमारा युग विज्ञान का युग है। आज मनुष्य समूची सृष्टि और ब्रह्माण्ड की खोज में लगा हुआ है तथा उसने प्रकृति के मूलतत्व और उनकी शक्तियों की खोज की है।
      विज्ञान के पीछे पागल यह मनुष्य अपने आप में स्वयं एक आश्चर्य है। उसका सामाजिक व्यवहार, उसकी शारीरिक क्रियाएँ और इन सबसे बढ़कर उसका दिमाग इस सृष्टि की सबसे बढ़कर अधिक अजीबो-गरीब चीज़ है। संसार के सभी धर्मों ने इसकी रचना और कार्य-प्रणाली पर विस्तार से रौशनी डाली है। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी खोजने की कोशिश की है कि मनुष्य के मस्तिष्क के पीछे संचालिका शक्ति कौन-सी है ? उन्होंने उसे एक नाम दिया है--'चेतना' तथा यह भी कहा है कि मनुष्य की चेतना उसके मस्तिष्क में बन्द एकाकी चेतना नहीं है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैली हुई विराट चेतना का एक अंग है और हर अवस्था में उससे सम्बन्ध बनाये रखती है। यही कारण है कि मनुष्यों के आलावा अन्य प्राणियों में तथा सम्पूर्ण जड़-चेतन जगत में व्याप्त  चेतनाएं एक दूसरे के साथ जुडी रहती हैं, एक दूसरे पर प्रभाव डालती रहती हैं और प्रभावित भी होती रहती हैं।
      रूस के लेनिनग्राद विश्वविद्यालय के #प्रोफ़ेसर #लियोनिद ने एक अनूठा प्रयोग किया। उन्होंने मीलों दूर एक प्रयोगशाला में कुछ अनुसन्धान कर्ताओं को परामानसिक संचार द्वारा सम्मोहित कर दिया और उनसे उनका प्रयोग छुड़वा कर उन्हें किसी अन्य कार्य में लगा दिया। वे सब अनजाने में ही विवश से लियोनिद के आदेशों का पालन करने लगे। उन्हें यह भान तक नहीं हुआ वे किसी अन्य व्यक्ति की शक्ति के आधीन हो गए हैं। इस वैज्ञानिक प्रयोग से यह बात सिद्ध होती है कि *एक चेतना दूसरी चेतना को किसी भी भौतिक माध्यम के बिना संकल्प मात्र से प्रभावित कर सकती है।*
      मनुष्य की इसी चेतना को आत्मा, रूह, सोल अथवा परामानसिक चेतना कहा गया है। ब्रह्माण्ड की विराट चेतना को परम चेतना, परमात्मा, गॉड या अल्लाह कहा गया है। तान्त्रिक लोग परामानसिक चेतना को 'पराशक्ति' और विराट चेतना या परम चेतना को 'परम शिव' की संज्ञा देते हैं।
      ईश्वर को भले ही वैज्ञानिक स्वीकार न करें, लेकिन ब्रह्माण्ड और उसमें फैली हुई ब्रह्माण्डीय ऊर्जा (ईथर) की धारणा वैज्ञानिकों ने अवश्य स्वीकार कर ली है। उनके सामने इस ब्रह्माण्ड की अनेक गुत्थियों में से एक गुत्थी यह भी है कि मनुष्य की चेतना का मूल स्वरूप क्या है ? उसका ब्रह्माण्डीय चेतना से क्या सम्बन्ध है ? एक और भी बड़ा प्रश्न है कि क्या व्यक्त चेतना से परे मनुष्य किसी अव्यक्त चेतना का स्वामी है जो इस पदार्थ जगत के नियमों से ऊपर है तथा जो मनुष्य को प्राकृतिक शक्तियों से परे कहीं अधिक सूक्ष्म, पराभौतिक शक्तियां प्रदान करती हैं जिनके द्वारा वह इस ब्रह्माण्ड में किसी भी स्थान, काल के रहस्यों को अपनी जगह बैठा-बैठा ही जान सकता है तथा उसका वर्णन भी कर सकता है ?
      वैज्ञानिकों ने अनुसन्धान के आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लिया है कि धर्म जिसे पराचेतना कहता है, यह सत्य है तथा मनुष्य का जाग्रत मन इस विराट मन का एक छोटा-सा भाग है जिसका एक बड़ा अंश एक रहस्यमय आवरण के पीछे छिपा रहता है और वह उस आवरण के पीछे से हमारे चेतन मन को कठपुतली की तरह नचाता रहता है। वैज्ञानिकों ने उस उपचेतन मन को 'परामन' अथवा 'पैरासाइकिक तत्व' कहा है।

      मानव शरीर की श्रेष्ठता का कारण  **********************************

      मनुष्य की जीवित अवस्था में जीवन का तीन भाग जाग्रत मन से प्रभावित रहता है और चौथा भाग 'उपचेतन या परामन' के आधीन रहता है। मरने के बाद जाग्रत मन का अस्तित्व तो समाप्त हो जाता है लेकिन उसका मौलिक तत्व जिसमें वासना, संस्कार और तमाम भौतिक वृत्तियाँ रहती हैं, उस उपचेतन मन में चला जाता है। यही कारण है कि मरने के बाद उपचेतन मन की शक्ति और अधिक बढ़ जाती है। इतना ही नहीं, विराट मन या पराचेतना से भी उसका संपर्क अधिक घनिष्ठ हो जाता है। परामनोविज्ञान का यह अत्यन्त गम्भीर विषय है जिस पर प्रेत-विद्या के सारे सिद्धान्त निर्भर हैं।
      प्रत्येक जीवित मनुष्य का मरने के बाद कुछ समय के लिए प्रेत होना निश्चित है। जिसे जीवात्मा कहा जाता है उसके तीन योगरूप हैं--
      1--मनुष्यात्मा--जब जीवात्मा मनुष्य शरीर अर्थात् पार्थिव शरीर में रहती है, तो उसे 'मनुष्यात्मा' कहते हैं।
      2--प्रेतात्मा--मरने के तुरंत बाद जब जीवात्मा वासनामय शरीर में रहती है, तो उसे 'प्रेतात्मा' कहते हैं।
     3--सूक्ष्मात्मा--जब जीवात्मा की वासना का वेग समाप्त हो जाता है और वह सूक्ष्म परमाणुओं से निर्मित सूक्ष्म शरीर में चली जाती है तो वह 'सूक्ष्मात्मा' कहलाती है। सूक्ष्मात्मा की स्थिति उपलब्ध होने का तात्पर्य है कि अब वह जीवात्मा पुनर्जन्म ग्रहण करने की अधिकारिणी हो गयी है। सूक्ष्मात्मा के भी तिरोहित हो जाने का अर्थ है कि जीवात्मा को भव-चक्र से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति प्राप्त हो गयी। इसी सूक्ष्म शरीर से मुक्ति पाने के लिए ही सारी साधनाएं, उपासनाएँ,  तप आदि उपक्रम हैं।
      वासना शरीरधारी प्रेतात्माओं का जो जगत है, उसे ही हम 'वासना-जगत' या 'प्रेत-लोक' कहते हैं। कुछ लोगों का भ्रम है कि 'प्रेत-लोक' सुदूर कहीं अंतरिक्ष में विद्यमान है। मगर नहीं, काफी छान-बीन और अन्वेषण के बाद जो तथ्य सामने आये हैं, उनके अनुसार प्रेत-लोक अंतरिक्ष में नहीं, बल्कि हमारी इसी धरती पर दूध में पानी की तरह मिला हुआ है। आधुनिक उपकरणों द्वारा पता करने पर उनका अस्तित्व और उनकी 'लो फ्रीक्वेंसी' की आवाज़ को रिकॉर्ड किया जा सकता है जो 'भूत-प्रेत' के अस्तित्व का वैज्ञानिक प्रमाण है।
      वासना दो प्रकार की होती है--अच्छी भी और बुरी भी। इसी दृष्टि से प्रेत-लोक को भी हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। अच्छी वासनाओं के भाग को 'पितृ-लोक' और बुरी वासनाओं के भाग को 'प्रेत-लोक' कहा गया है। पितृ-लोक के ऊपर सुक्ष्म शरीरधारी आत्माओं का 'सूक्ष्मलोक' है। उसके बाद 'मनोमय लोक' है। इसे ही 'देव-लोक' कहा गया है। यह मनोमय लोक नक्षत्र मण्डलों की सीमा और गुरुत्वाकर्षण की परिधि के बाहर सुदूर अंतरिक्ष में है। उसमें निवास करने वाली आत्माओं में मनः-शक्ति और विचार-शक्ति अति प्रबल होती है। इसी प्रकार सूक्ष्मात्माओं में इच्छा-शक्ति और प्राण-शक्ति अति प्रबल होती है। लेकिन जहां तक प्रेतात्माओं का सम्बन्ध है, उनमें सिर्फ वासना की प्रबलता रहती है। वासना की शक्ति ही उनकी स्व-शक्ति है।
      परामानसिक जगत के विद्वानों का कहना है कि देवात्माओं, सूक्ष्मात्माओं, प्रेतात्माओं में क्रमशः मनः-शक्ति, विचार-शक्ति और इच्छा-शक्ति या प्राण-शक्ति विद्यमान हैं, वे सारी शक्तियां एक साथ मनुष्य शरीर में विद्यमान हैं। इसीलिए मानव को और मानव शरीर को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
      मस्तिष्क के तीन भाग हैं। वे तीनों भाग मनः-शक्ति, विचार-शक्ति, इच्छा-शक्ति या प्राण-शक्ति के केंद्र हैं। प्राण-शक्ति का केंद्र है--नाभि। उन शक्तिओं का सम्बन्ध प्राण-शक्ति से जहाँ स्थापित होता है, वह है--हृदय।
       मानव शरीर में मनः-शरीर, सूक्ष्म शरीर और वासना शरीर का बीज रूप में अस्तित्व है--इस तथ्य को आज वैज्ञानिको ने भी स्वीकार कर लिया है। भौतिक शरीर की रचना पञ्च भौतिक तत्वों के परमाणुओं के संगठन से होती है। इसीलिए सूक्ष्म शरीर भौतिक शरीर के सर्वाधिक निकट है। योगी लोग मनोमय शरीर और वासना शरीर से अधिक महत्व इसीलिए सुक्ष्मशरीर को देते हैं कि वे भौतिक शरीर की तरह इसका उपयोग अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं। sabhar shivram Tiwari Facebook wall

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पहला मेंढक जो अंडे नहीं बच्चे देता है

वैज्ञानिकों को इंडोनेशियाई वर्षावन के अंदरूनी हिस्सों में एक ऐसा मेंढक मिला है जो अंडे देने के बजाय सीधे बच्चे को जन्म देता है. एशिया में मेंढकों की एक खास प्रजाति 'लिम्नोनेक्टेस लार्वीपार्टस' की खोज कुछ दशक पहले इंडोनेशियाई रिसर्चर जोको इस्कांदर ने की थी. वैज्ञानिकों को लगता था कि यह मेंढक अंडों की जगह सीधे टैडपोल पैदा कर सकता है, लेकिन किसी ने भी इनमें प्रजनन की प्रक्रिया को देखा नहीं था. पहली बार रिसर्चरों को एक ऐसा मेंढक मिला है जिसमें मादा ने अंडे नहीं बल्कि सीधे टैडपोल को जन्म दिया. मेंढक के जीवन चक्र में सबसे पहले अंडों के निषेचित होने के बाद उससे टैडपोल निकलते हैं जो कि एक पूर्ण विकसित मेंढक बनने तक की प्रक्रिया में पहली अवस्था है. टैडपोल का शरीर अर्धविकसित दिखाई देता है. इसके सबूत तब मिले जब बर्कले की कैलिफोर्निया यूनीवर्सिटी के रिसर्चर जिम मैकग्वायर इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप के वर्षावन में मेंढकों के प्रजनन संबंधी व्यवहार पर रिसर्च कर रहे थे. इसी दौरान उन्हें यह खास मेंढक मिला जिसे पहले वह नर समझ रहे थे. गौर से देखने पर पता चला कि वह एक मादा मेंढक है, जिसके...

क्या है आदि शंकर द्वारा लिखित ''सौंदर्य लहरी''की महिमा

?     ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥  अर्थ :'' हे! परमेश्वर ,हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों  (गुरू और शिष्य) को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए। हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें। हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो। हम दोनों परस्पर द्वेष न करें''।      ''सौंदर्य लहरी''की महिमा   ;- 17 FACTS;- 1-सौंदर्य लहरी (संस्कृत: सौन्दरयलहरी) जिसका अर्थ है “सौंदर्य की लहरें” ऋषि आदि शंकर द्वारा लिखित संस्कृत में एक प्रसिद्ध साहित्यिक कृति है। कुछ लोगों का मानना है कि पहला भाग “आनंद लहरी” मेरु पर्वत पर स्वयं गणेश (या पुष्पदंत द्वारा) द्वारा उकेरा गया था। शंकर के शिक्षक गोविंद भगवदपाद के शिक्षक ऋषि गौड़पाद ने पुष्पदंत के लेखन को याद किया जिसे आदि शंकराचार्य तक ले जाया गया था। इसके एक सौ तीन श्लोक (छंद) शिव की पत्नी देवी पार्वती / दक्षिणायनी की सुंदरता, कृपा और उदारता की प्रशंसा करते हैं।सौन्दर्यलहरी/शाब्दिक अर्थ...

स्त्री-पुरुष क्यों दूसरे स्त्री-पुरुषों के प्रति आकर्षित हैं आजकल

 [[[नमःशिवाय]]]              श्री गुरूवे नम:                                                                              #प्राण_ओर_आकर्षण  स्त्री-पुरुष क्यों दूसरे स्त्री-पुरुषों के प्रति आकर्षित हैं आजकल इसका कारण है--अपान प्राण। जो एक से संतुष्ट नहीं हो सकता, वह कभी संतुष्ट नहीं होता। उसका जीवन एक मृग- तृष्णा है। इसलिए भारतीय योग में ब्रह्मचर्य आश्रम का यही उद्देश्य रहा है कि 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करे। इसका अर्थ यह नहीं कि पुरष नारी की ओर देखे भी नहीं। ऐसा नहीं था --प्राचीन काल में गुरु अपने शिष्य को अभ्यास कराता था जिसमें अपान प्राण और कूर्म प्राण को साधा जा सके और आगे का गृहस्थ जीवन सफल रहे--यही इसका गूढ़ रहस्य था।प्राचीन काल में चार आश्रमों का बड़ा ही महत्व था। इसके पीछे गंभीर आशय था। जीवन को संतुलित कर स्वस्थ रहकर अपने कर्म को पूर्ण करना ...