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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन
पूज्य गुरु के श्रीचरणों में कोटि- कोटि वन्दन
किसी वस्तु का न सृजन होता है और न होता है विनाश, बस होता है उसका मात्र रूपान्तरण
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जब भी हम अशान्त होते हैं, दुःखी होते हैं तो मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न होने लगता है। फिर हम एकान्त खोजते हैं। घने वृक्षों के बीच या नदी के तट पर चले जाते हैं। ऐसा क्यों होता है ? क्योंकि आत्मा की शान्ति यदि कहीं है तो वह है अध्यात्म में। उससे हम दूर नहीं हो सकते क्योंकि मनुष्य के सुख का मूल है--आत्मिक शान्ति जो बाह्य जगत में नहीं मिल सकती। बाह्य जगत हमें क्षणिक सुख दे सकता है जो भौतिक जीवन के लिए ही आवश्यक है, लेकिन शान्ति नहीं दे सकता। शान्ति तो आध्यात्मिक मार्ग के अनुसरण से ही प्राप्त हो सकती है।
अगर इसके मूल में जाएँ तो एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने आएगा। वह यह कि हमारे पूर्वज ऋषि थे। उनकी साधना, तपस्या और खोज प्रकृति के सान्निध्य में हुई। उन्होंने प्रकृति में उस परम सत्ता का अनुभव किया जिसे आज का विज्ञान सोच भी नहीं सकता।
इस सत्य को विज्ञान भी स्वीकार करता है कि हमारी अशान्ति का कारण यह भी है कि हमें जो होना चाहिए, वह हम नहीं हैं। हम ऋषि-सन्तान हैं और हमारे रक्त में उन ऋषियों के संस्कार हैं। मगर हमारी आत्मा पर आज ऐसा आवरण पड़ गया है जिसे हम हटा नहीं पा रहे हैं। बस, इधर-उधर हाथ पांव मार रहे हैं। जब भी हमारे बीच कोई महापुरुष प्रकट हो जाता है तो उसके अलौकिक ज्ञान व चमत्कार को देखकर हम अभिभूत हो जाते हैं। फिर हम उसका अनुसरण करने लगते हैं। क्योंकि वह हमसे अलग दिखता है। लेकिन क्या हमने कभी यह विचार किया है कि वह हमसे अलग क्यों दिखता है ? हमें यह अवश्य चिन्तन करना चाहिए कि उस दिव्य पुरुष की आत्मा पर से वह आवरण हट गया है और वह मूल को हो गया है उपलब्ध। वह हो गया है--निर्मल, निश्छल और स्थिर। वह प्रकृतिमय हो गया है। हमारे और दिव्य पुरुष के बीच बस यही अन्तर है। अपनी आत्मा के ऊपर से आवरण हटाना ही आत्म-साधना है, समाधि है। समाधि का तात्पर्य है उस परम शून्य को उपलब्ध हो जाना।
मनुष्य के जीवन में एक विशेष अवस्था आती है जिसे 'शून्यावस्था' कहते हैं। यह अवस्था ही समाधि की अवस्था है। इसमें उसे न अपने जीवन की सुध रहती है और न रहती है सुध इस जगत की।
मनुष्य का जीवन अनन्त- अनन्त यात्राओं के मध्य एक पड़ाव है और उसका शरीर है एक वाहन जिसके माध्यम से उसकी आत्मा इस संसार की यात्रा अनवरत रूप से हर युग में करती रहती है। आत्मा की यह यात्रा अनन्त काल से चली आ रही है और आगे भी चलती रहेगी। हमारी आत्मा हर युग में, हर क्षण में मौजूद रही है, हर महापुरुष की साक्षी रही है और भविष्य में साक्षी रहेगी। उसने राम के काल को देखा है, कृष्ण के काल को भी देखा है, बुद्ध और महावीर के कालखण्ड में भी वह रही है। कब नहीं रही वह ?
इसके विपरीत विज्ञान आत्मा के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करता। उसे वह बस ऊर्जा मानता है। जब तक ऊर्जा है, शरीर चैतन्य है। शरीर से ऊर्जा निकल गयी, शरीर का अस्तित्व ख़त्म। वह आत्मा को नहीं मानता। विज्ञान का कहना है कि आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं होती। वह एक प्रकार की ऊर्जा है। विज्ञान एक सिद्धान्त है--'थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी' अर्थात् पिण्ड ऊर्जा में परिवर्तित होता रहता है और ऊर्जा पिण्ड में। यह क्रिया अनवरत चल रही है और जो भी दृष्टिगोचर होता है, वह एक दूसरे में ढल जाने की भौतिक और रसायनिक क्रिया के परिणास्वरूप है। सब कुछ अणुओं का खेल है। वह सृजन और विनाश नहीं है।
हमारा अध्यात्म भी तो यही कहता कि किसी भी वस्तु का न सृजन होता है और न होता है विनाश। वस्तु का सिर्फ रूपान्तरण होता है। पूरे विश्वब्रह्माण्ड में कम्पन हो रहा है। कोई चीज़ स्थिर नहीं है। सब में प्रवाह है। जो दिखाई दे रहा है ,सब अणुओं का घनीभूत रूप है। हमारा शरीर, हमारा जगत यहाँ तक कि यह ब्रह्माण्ड--सब कुछ ऊर्जामय है। अध्यात्म की ऊंचाई छूने में विज्ञान को अभी काफी समय लगेगा। तर्क करने से समाधान नहीं मिलता। ब्रह्माण्ड की बात तो दूर की है, यहाँ तक कि हमारा शरीर स्वयं में रहस्यमय है। उससे ज्यादा रहस्यमय है हमारा मस्तिष्क।
विज्ञान स्वप्न को नहीं मानता। उसका कहना है कि मन की दबी हुई इच्छा ही स्वप्न के माध्यम से मस्तिष्क पूरी करता है। लेकिन आज जितने भी आविष्कार हुए हैं, उनमें स्वप्न का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह बात वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। जहां तक अलौकिकता का अर्थ है, इस संसार से परे कोई वस्तु जो प्राकृतिक नियमों के अंतर्गत ही आती है, वह किसी अलौकिक शक्ति के द्वारा ही संचालित मानी जाती है। वहाँ विज्ञान का नियम नहीं चलता। वह अलौकिक है, रहस्य है। जबकि विज्ञान उसे नकार देता है। वह कहता है कि इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी अलौकिक नहीं है। न ही कोई रहस्य है। सब प्रकृति के अंतर्गत है। जो बुद्धि से परे है, उसे अलौकिक कहा जाता है। ऐसा कुछ नहीं है। ऐसा केवल यह है कि हमारी सोच, हमारी क्षमता अथवा हमारे ज्ञान के परे है, इसलिए अलौकिक है। जितने भी ज्ञानी, साधक हुए हैं, उन्होंने कभी भी चमत्कार नहीं दिखलाया, न ही उसकी आवश्यकता समझी। बस, घटनाएं घट गयीं, उन्हें लोगों ने चमत्कार मान लिया, लेकिन ज्ञानी, साधकों के लिए मात्र घटना थी, चमत्कार नहीं। sabhar shivram Tiwari Facebook wall
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