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#शाक्त_संप्रदाय
आज के भौतिक विज्ञान की विकास परंपरा का भी यदि शैली से में इतिहास लिखा जाए तो अनेक अविष्कार को के नाम ऋषि की श्रेणी में आ जाए अंतर यह रहे कि इनके सूत्रों को ने वेद मंत्रों की तरह गाया जा सकता है ना व्यवहार का विषय बनाया जा सकता है यह उस युग की विशेषता हुई रही है कि वह ज्ञान के गूढ़ रहस्यों को सजीव रखने के लिए प्राण करने की परंपरा पर आ चुका है aइतना अवश्य ताकि इस स्थल को प्राप्त करने वाले के लिए तपस्या एक सती प्रथा का पालन करने वाला ही ऋषि कहलाता था
हमारे यहां ज्ञान विज्ञान का इतिहास वेदों से प्रारंभ हुआ या शैवकाल ज्ञान की उत्कण्ठापूर्ण ऑकुलता की अवस्था है जिसमें मानव अपने इतस्तत व्याप्त प्राकृतिक क्रियाओं को देखकर चमत्कृत होता था संभव है कि देव शब्द इसी युग का सामना सर्वमान्य स्तर रहा हो जो व्यक्ति की क्षमताओं से अधिक अथवा लोकप्रकृति के व्यवहार को चक्षु विस्फारण के साथ देखता रहा था और उसमें विलास से विभोर होता रहा था।
इन प्राकृतिक स्थितियों से वह भयभीत नहीं होता था सागर के दृष्टिविहीन विस्तार बादलों में चमकती हुई बिजलियां अग्नि की वन विनाशक लपटों को देखकर वह भयभीत नहीं वह प्रयुक्त आनंदित होकर उसकी स्तुति करने लगा इन व्यवहारों की उग्रता को उसने विरुद्ध प्रस्थितियों का विनाश करने वाला माना इसी तरह समाज प्रकृति के निकट रहा प्रकृति के प्रकोप से वह परिचित अवश्य था किंतु प्रार्थना से उसे अपने अनुकूल करने के लिए प्रयोग भी कर चुका था।
वेदों की ऋचाओं को अधिक मुखर करने के लिए उस युग में वेदी को अपना परीक्षण स्थल बनाया वेद के साथ वेदी का संबंध संवत जुड़ना भी चाहिए क्योंकि उन विचारों का परीक्षण वेदी पर ही संभव था उपयोग का श्रेष्ठ अविष्कार अग्नि था सूर्य के रूप में ब्रह्मांड को ताप प्रकाश देने वाले विराट पिंड से उसके छोटे-मोटे काम संभव नहीं थे इसलिए उसने तेजस को लघुत्तम रूप में प्रकट करके वैश्वानर रूप दिया वेद में सर्वप्रथम अग्नि की ही स्तुति है #अग्निमीले_पुरोहितमं_देवानाम्_ऋत्विजं यह ऋग्वेद की प्रथम रिचा है रसायन शास्त्र की दृष्टि में रासायनिक परिवर्तन करने वाला सबसे विश्वस्त अर्जेंट अग्नि ही है अग्नि के अविष्कार से मानव जाति के विकास का मार्ग प्रशस्त हो गया है।
वेद पौरूषय है अथवा अपौरूषय परन्तु ज्ञान अपनी शाश्वत अवस्था मे स्थिर एव अव्यय है अर्थात प्रकृति में जो कुछ घट रहा है अथवा घट सकता है उसकी एक व्यवस्था है एक शैली है इस शैली को समझना ही ज्ञान है यह शैली स्टूल भाव और अध्यात्मिक स्त्रोत पर अनंत विद हो जाती है प्रकृति की परिसीमा में होने वाला प्रत्येक कार्य व्यापार प्रकृति है फिर चाहे वह वैज्ञानिक हो साहित्यिक हो सामाजिक हो अथवा राजनैतिक हो उसमें सूक्ष्म रूप से प्रकृति सहज रूप में प्रवहित है।
इस दृष्टि से ज्ञान का यह स्वरूप वेद वेद शब्द का अर्थ विज्ञान ही होता है अपौरूषय होता है किंतु इस रहस्य को जब व्यक्ति अपने ढंग से अपनी आवश्यकता आग्रहो से प्रेरित होकर अविषकृत करता हैs तू यह रूप पौरूषय हो जाता है वेद भले ही ब्रह्मा के हाथ में रहे हो पर उनको सर्वश्रव्य बनाने वाला मनुष्य ही रहा है वेद मंत्रों के अविष्कर्ता अनेक ऋषि रहे हैं इसलिए यह ऋचायें सूक्ष्म रूप मैं अपने मूल स्तर पर अपौरूषय रही किंतु इनको अभी वक्त करने का श्रेय मनुष्य को ही दिया जा सकता है इस पूरे युग में अनेक चिंतक विज्ञान वादी रहे जो अपनी तरह से प्रकृति के रहस्य को समझाते समझते रहे उनका यह अनुसंधान चिंतन के स्तर पर अधिक प्रखर था और चिंतन को अथवा अविष्कार के सूत्रों को वे शब्द के माध्यम से प्रकट कर सकते थे इसलिए प्रत्येक ऋचा के साथ छंद अनिवार्य रूप में जुड़ता चला गया उसी अविष्कार का जो लक्ष्य था उसे देवता का नाम दे दिया गया आज के भौतिक विज्ञान की विकास परंपरा का भी यदि इस शैली में इतिहास लिखा जाए तो अनेक इस अविष्कारको के नाम ऋषि की श्रेणी में आ जाए।
घी अग्नि को तर्पण करने वाले वैदिक संप्रदाय ने जागतिक द्वंदो और चंचलता से उठकर ज्ञान को भौतिक लक्ष्यों से जोड़ दिया वेदी पर उसके परीक्षण चलते रहे सामाजिक व्यवस्था और राष्ट्रीय समृद्धि के लिए वह गहन अनुसंधान करता रहा किंतु अपने लिए वह मुक्ति को ही श्रेयस्कर मानता रहा संभव है hइसीलिए वेद को उसने ब्रह्मा के हाथ में थमा दिया और विद्या का लक्ष्य उसने विमुक्ति मान लिया इसी दृष्टि से वेद आत्मज्ञान और वेदी सामाजिक भौतिक उत्थान का आधार बन गए वेदी पर घी और वनस्पति का होम ही नहीं किया गया गोमेध अश्वमेघ जैसे प्रयोग भी किए गए।
इस युग में अकल्पित उत्कर्ष प्राप्त किया आने वाले लोगों का मार्गदर्शन भी किया किंतु सारे प्राकृत प्रतीकों को पुरुष के रूप में ही स्थापित किया सूर्य चंद्रमा इंद्र वरुण ब्रह्मा विष्णु रूद्र आदि देव पुरुष प्रकृति ही थे इस परंपरा का व्यक्ति के सोच और शैली पर यह प्रभाव पड़ा कि उसने व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्तर पर पुरुष को प्रधानता दी और स्त्री को उपेक्षित मान लिया इसी तरह से स्त्री को पुरुष की अनुवर्तिनी आज्ञाकारिणी घोषित करके उसको घर गृहस्थ की सीमा में बांध दिया चिंतन अथवा अविष्कार के क्षेत्र में उसका प्रवेश वर्जित कर दिया गया अपने अहंकार से पीड़ित होकर उसने स्त्रियों को वेदाभ्यास से वंचित कर दिया इसी का परिणाम था कि स्मृति युग में ने बड़े गर्व से घोषणा कर दी #न_स्त्री_स्वातन्त्र्यमर्हति
यह स्वाभाविक है कि ज्ञान विज्ञान की सदस्यता के फल स्वरुप व्यक्ति में अहंकार का उदय ही हो जाता है उस युग में भी इस ज्ञान का अर्जन कर रहे वर्ग में अहंकार का बीज अंकुरित होने लगा था शासकवर्ग के बाहुबल उसे आवश्यकता थी तथा उनमें से कई एक इस क्षेत्र में भी आ रहे थे इसलिए क्षत्रिय के रूप में मान्यता देकर अपने समकक्ष बिठा लिया ।क्षत्रिय का अर्थ होता है जो क्षति से बचाए oइस वर्णोपाधि को क्षत्रियवर्ण ने बड़े उत्साह और अभिमान से लिया वह समाज को हर प्रकार की क्षति से बचाने के लिए अपने आप को नैतिक रूप से उत्तरदाई समझ बैठा ।
विचारक और बाहुबली से ही समाज का काम नहीं चलता इसलिए तीसरा वर्ग जो व्यावसायिक बुद्धि का था और उसे इस पंक्ति में बिठा लिया गया आर्थिक गणित अर्थ च व्यापार वृत्ति इस वर्ग का विषय बना राजा की अधीनता और ब्राह्मण की श्रेष्ठता को इस वर्ग ने सहज भाव से स्वीकार कर लिया इसे अपने लाभ से मतलब था राजा की आज्ञा को स्वीकारने की और ब्राह्मण के पैर धोने से इसे क्या अंतर पड़ता था इस तरह यह तीनों परस्पर पूर्वक बनकर समाज में अधिष्ठत हो गए इनसे भिन्न को उन्होंने शूद्र कह दिया
यूरोप के इतिहास में जो स्थिति देशों की थी वैसी ही इस शूद्र वर्ग की भी रही है अंतर यह रहा कि इनको सामाजिक एवं परिवारिक अंग की तरह मानते हुए अपने क्षेत्र तक सीमित रहने की मर्यादा बांधी गई होना यह चाहिए था कि कर्म का विभाजन करने के बाद उनको भी समानता का स्तर दिया जाना चाहिए था पर ऐसा नहीं हुआ ब्राह्मण के घर में जन्म लेने मात्र से व्यक्ति को पूजनीय मान लेने की परंपरा ने इन वर्गों को अनपेक्षित अहंकार से भर दिया और यह कर्म की महत्वता के स्थान पर जाति को ही महत्व देने लगे।
मनुष्य की जाति मनुष्य है प्रकृति उसे मनुष्य की संज्ञा देती है उसे अपने कर्म और व्यवहार से अपने को सिद्ध करना पड़ता है किंतु इस मूल सिद्धांत को भूलकर जाति का प्रमाण मान लेने से कई तरह के विकार पनपने लगे परिणाम यह रहा कि शताब्दियों अथवा सहस्त्राब्दियों तक एक भी शुद्ध अपनी तरफ से कोई अविष्कार नहीं कर सका अन्यथा बुद्धि तो सभी को मिलती है इस वर्ग से भी कोई प्रतिभा संपन्न व्यक्ति होता तो उसको अवसर अवश्य मिलना चाहिए था पर यह तिगड़ा अपने भय से आहत ही रहा और तो और यदि शूद्र वेद वचनों को सुन ले तो उसको कठोरतम दंड दिया जाए इस प्रकार की व्यवस्था को सामाजिक आचरण में डाल दिया गया समाज में ही इस तरह का विभाजन करके अलंध्य खाई बना दी गई कर्म के कारण और वर्ण विभाग किया गया उस जाति तक सीमित कर दिया गया त्रेता युग में राम राज्य में शंबूक वध किस तरह की सामाजिक व्यवस्था का उद्धरण प्रस्तुत करता है यह विचारणीय हैk
यह पोस्ट श्री गोविंद शास्त्री चौंमू के विचारों से प्रभावित होकर यहां प्रस्तुत की गई है आगे की पोस्ट में शाक्तदर्शन वह दुर्गा सप्तशती पाठ का विवरण भी इन्हीं के द्वारा लिखी गई पुस्तक से ही होगा। sabhar sakti upasak Facebook wall
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