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स्वप्न देखते हुए जागने की पहली विधि - 

एक तो यह कि तुम यह मानकर अपना कामकाज, अपना व्यवहार शुरू करो कि सारा संसार स्वप्‍नवत है। तुम जो भी करो, यह याद रखो कि यह सपना है। जब जागे हुए हो तो निरंतर याद रखो कि सब कुछ सपना है।

अगर तुम स्वप्न देखते हुए स्मरण रखना चाहते हो कि यह स्वप्न है तो तुम्हें जागते हुए ही उसका आरंभ करना होगा। अभी तो ऐसा है कि स्वप्न देखते हुए तुम नहीं याद रख सकते कि यह स्‍वप्‍न है। तुम तो सोचते हो कि यह यथार्थ ही है।

क्यों तुम सोचते हो कि यह यथार्थ है? क्योंकि दिनभर तो तुम यही समझते हो कि सब कुछ यथार्थ है। वह तुम्हारी दृष्टि बन गई है —बंधी—बंधाई दृष्टि। जागते हुए तुमने स्नान किया, वह यथार्थ था। जागते हुए तुम भोजन कर रहे थे, वह यथार्थ था। जागते हुए तुम बातचीत कर रहे थे, वह भी यथार्थ था। पूरे दिन और इसी तरह पूरी जिंदगी, तुम जो भी सोचते हो, करते हो, उस पर तुम्हारी दृष्टि उसके यथार्थ होने की रहती है। यह दृष्टि फिक्स हो जाती है, यह मन की बंधी—बंधाई धारणा बन जाती है। फिर रात में जब तुम स्‍वप्‍न देखते हो तो वही दृष्टि काम करती है कि यह यथार्थ है।

इसलिए पहले तो हम विश्लेषण करें। स्‍वप्‍न और यथार्थ के बीच कुछ समानता होनी चाहिए, अन्यथा यह दृष्टि बननी कठिन होगी। मैं तुम्हें देख रहा हूं। फिर मैं आंख मूंदता हूं रूप का और स्‍वप्‍न देखने लगता हूं और स्‍वप्‍न में तुम्हें देखता हूं। इन दोनों देखने में फर्क नहीं है। जब मैं तुम्हें सचमुच देखता हूं तो क्या करता हूं? मैं तुम्हें नहीं देखता हूं तुम्हारा चित्र मेरी आंखौं मैं प्रतिबिंबित होता है। पहले तुम्हारा चित्र प्रतिबिंबित होता है और तब वह चित्र किसी रहस्यपूर्ण

प्रक्रिया के द्वारा—विज्ञान अभी उस प्रक्रिया को नहीं जान सका है—रासायनिक रूप में रूपांतरित होता है और मस्तिष्क के भीतर कहीं पहुंचा दिया जाता है। विज्ञान को अभी यह भी पता नहीं है कि यह बात ठीक किस स्थान पर घटित होती है। आंख में यह नहीं घटित होती है, आंख तो सिर्फ द्वार है। मैं तुम्हें सीधे आंख से नहीं देखता हूं आंख के माध्यम से देखता हूं।

आंख में तुम प्रतिबिंबित होते हो। तुम मात्र एक चित्र हो सकते हो, तुम यथार्थ हो सकते हो, तुम स्वप्न हो सकते हो। याद रखो, स्वप्न तीन— आयामी होता है। मैं एक चित्र को पहचान पाता हूं क्योंकि चित्र दो— आयामी होता है। स्वप्न तीन—आयामी होता है, इसलिए वह ठीक तुम्हारे जैसा दिखता है। और आंख नहीं कह सकती कि जो देखा गया है यह यथार्थ है या नहीं। निर्णय लेने का कोई उपाय नहीं है, आंख निर्णायक नहीं है।

मैं सदा भीतर हूं और तुम सदा बाहर हो, और दोनों का मिलन नहीं होता। इसलिए यह समस्या ही है कि तुम यथार्थ हो कि स्वप्न। ठीक इस क्षण भी निर्णय लेने का उपाय नहीं है कि मैं स्‍वप्‍न देख रहा हूं या तुम सचमुच यहां हो। और मुझे सुनते हुए तुम कैसे कह सकते हो कि तुम मुझे सच में सुन रहे हो या कि तुम स्‍वप्‍न देख रहे हो? कोई उपाय नहीं है। यही कारण है कि जो तुम्हारी दृष्टि दिनभर बनी रहती है, वही रात में भी, नींद में भी प्रवेश कर जाती है। तुम स्‍वप्‍न को सच मानते हो।

विपरीत का प्रयोग करो। 
सतत यह तीन सप्ताह याद रखो कि जो भी तुम करते हो वह सपना है। शुरू में यह बहुत कठिन होगा। तुम बार—बार मन के पुराने ढांचे में पड़ोगे, तुम सोचने लगोगे कि यह यथार्थ है। तुम्हें निरंतर अपने को सजग करना होगा और याद दिलाना होगा कि यह स्वप्न है। अगर तीन सप्ताह तक लगातार तुमने इस दृष्टि को कायम रखा तो पांचवें सप्ताह में किसी रात स्वप्न देखते हुए तुम अचानक यह भी जान लोगे कि यह स्‍वप्‍न है।

स्वप्न में चेतना को, होश को प्रविष्ट कराने का यह एक उपाय है। रात स्वप्‍न देखते हुए यदि याद रख सको कि यह स्वप्न है तो फिर दिन में याद रखने की जरूरत नहीं रहेगी कि यह स्वप्न है। तब तुम जान जाओगे।

आरंभ में जब इसका अभ्यास करोगे तो यह एक आरोपित धारणा ही रहेगी। तुम चेष्टापूर्वक विश्वास करना शुरू करोगे कि यह स्‍वप्‍न है। लेकिन जब स्वप्न में भी यह स्मरण रहने लगेगा कि यह स्‍वप्‍न है तो यह यथार्थ बन जाएगा। तब दिन में जब तुम उठोगे तो यह नहीं अनुभव करोगे कि तुम नींद से उठ रहे हो; तुम्हें महज यह लगेगा कि मैं एक स्‍वप्‍न से दूसरे स्वप्न में सरक रहा हूं। तब दिन के कामकाज को स्‍वप्‍न की तरह देखना यथार्थ रूप लेगा।

और अगर चौबीस घंटे ही स्वप्न हो जाएं, और तुम्हें उसका अनुभव और स्मरण होता रहे, तो तुम अपने केंद्र पर पहुंच जाओगे। तब तुम्हारी चेतना का तीर दो फल वाला तीर हो जाएगा। और तुम जब स्वप्न समझने लगोगे तो तुम स्‍वप्‍न देखने वाले को, विषयी को भी समझने लगोगे। अगर तुम स्‍वप्‍न को ही सच मानते हो तो तुम स्वप्न—द्रष्टा को नहीं अनुभव कर सकते। जब फिल्म यथार्थ हो गई तो तुम अपने को भूल जाते हो। जब फिल्म बंद होती है और तुम फिर समझने लगते हो कि यह यथार्थ नहीं थी तब तुम्हारा स्वयं का यथार्थ आविर्भूत होता है, प्रकट होता है। तुम स्वयं को अनुभव कर सकते हो—यह एक तरीका हुआ।

यह भारत का एक सबसे पुराना तरीका रहा है। यही कारण है कि हमने इस बात पर जोर दिया है कि संसार मिथ्या है। यह बात हम किसी दार्शनिक अर्थ में नहीं कहते हैं। हम यह नहीं कहते कि यह घर मिथ्या है और यह कि तुम इसकी दीवार से निकल सकते हो। उस अर्थ में नहीं। जब हम कहते हैं कि यह घर मिथ्या है, तो यह एक युक्ति है। यह घर के खिलाफ कोई दलील नहीं है।

यह शंकर का कोई दार्शनिक मत नहीं है। वे यहां सत्य के संबंध में कुछ नहीं कह रहे हैं, वे यहां जगत के बारे में भी नहीं कह रहे हैं। यह तो तुम्हारे मन को बदलने की उनकी एक युक्ति है, तुम्हारी बंधी दृष्टि को बदलने का उनका एक उपाय है; ताकि तुम संसार को सर्वथा भिन्न ढंग से देख सको।

भारतीय चिंतन के लिए यह सदा ही एक समस्या रही है। क्योंकि उसके लिए सब कुछ ध्यान की युक्ति है। यह सत्य है या नहीं, इसमें हमें रस नहीं है। हम तो मनुष्य को बदलने के लिए उसकी उपयोगिता की फिक्र करते हैं। और पश्चिमी चित्त के लिए यह चीज बिलकुल भिन्न है। जब पश्चिम के लोग कोई सिद्धांत प्रस्तावित करते हैं तो वे इस बात की चिंता करते हैं कि यह सच है अथवा नहीं, इसे तर्क से सिद्ध किया जा सकता है या नहीं। लेकिन जब हम कोई चीज प्रस्तावित करते हैं तो हम उसके सत्य की नहीं, उसकी उपयोगिता की चिंता करते हैं। हम देखते हैं कि मनुष्य के मन को बदलने की उसकी क्षमता क्या है। वह सच है या झूठ, हम इसकी चिंता ही नहीं करते। वस्तुत: तो वह दोनों नहीं है। वह एक युक्ति भर है।

मैंने बाहर फूल देखे हैं। सुबह सूरज उगता है और सब चीज सौंदर्य से भर जाती है। लेकिन तुम कभी घर से बाहर नहीं गए हो, तुमने कभी फूल नहीं देखे हैं और तुमने सुबह का सूरज नहीं देखा है। तुमने कभी खुला आकाश भी नहीं देखा है। और तुम नहीं जानते हो कि सौंदर्य क्या है। तुम सदा एक कारागृह में बंद रहे हो। और मैं तुम्हें बाहर ले चलना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम भी खुले आसमान के नीचे आ जाओ और फूलों से मिलो।

यह मैं कैसे करूं? तुम फूलों को नहीं जानते हो। यदि मैं फूलों की बात करूं तो तुम कहोगे कि आप पागल हो गए हैं, फूल वगैरह नहीं हैं। अगर मैं सुबह के सूरज की बात करूं तो तुम कहोगे कि आप कल्पना कर रहे हैं, स्वप्न देख रहे हैं, आप कवि हैं। अगर मैं खुले आकाश की बात करूं तो तुम हंसोगे और पूछोगे कि आकाश कहां है, यहां तो दीवार ही दीवार है। फिर मैं क्या करूं?

मुझे कोई ऐसी युक्ति निकालनी होगी जो तुम्हारी समझ में आए और जिससे तुम बाहर निकल सको। इसलिए मैं कहता हूं कि घर में आग लगी है और मैं खुद भागने लगता हूं। यह बात संक्रामक हो जाती है, और तुम भी मेरे पीछे भागते हो और बाहर निकल जाते हो। और तभी तुम जानोगे कि जो मैं कह रहा था वह न सही था और न गलत। तब तुम फूलों को जानोगे और मुझे क्षमा कर दोगे।

बुद्ध ने वही किया था, महावीर ने वही किया था, शिव ने और शंकर ने वही किया था। इसलिए बाद में हम उन्हें क्षमा कर देते हैं। क्योंकि एक बार बाहर निकलने पर हमें पता चल जाता है कि वे क्या कर रहे थे। और तब हम समझते हैं कि उनके साथ बहस करना व्यर्थ था, क्योंकि यह बात ही बहस की नहीं थी। आग कहीं नहीं थी, लेकिन हम आग की भाषा समझ सकते थे। फूल थे, लेकिन हम फूलों की भाषा नहीं समझ सकते थे। हमारे लिए वे प्रतीक अर्थहीन थे।
ओशो 
तंत्र -सूत्र, भाग -1, प्रवचन -6

Rajesh Saini

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