सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

काल का रहस्य

------------------: जगत के सभी पदार्थ कालशक्ति के अधीन हैं:--------------------
****************************
परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन

पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन

 ---------:साधना का प्रयोजन है-- कालक्षय पर विजय प्राप्त करना:---------
******************************

        मीरा कृष्ण के असीम प्रेम में डूबी रहती थी। जो मिला, खा लिया। उसे न तन का होश, न खाने की चिन्ता। उन्हें विष दिया गया, उसे भी कृष्ण का प्रसाद समझ कर पी गयीं वह। लेकिन विष का तो असर ही नहीं हुआ। ऐसा क्यों ?--कभी इसपर लोगों ने विचार किया ? प्रेम रस के रहते फिर किसका असर होगा शरीर पर भला ! यह प्रेम ही तो वास्तविक तत्व है जो ब्रह्म रूप है--'रसो वै सः।' वही परम तत्व का सार है जिसे मीरा ने अपने में आत्मसात् कर रख था। फिर उन्हें क्या चिन्ता कि कोई उन्हें अमृत पिला रहा है या पिला रहा है कोई विष। वह तो अमृत और विष का अतिक्रमण कर बहुत आगे निकल चुकी थीं। 
      इसी प्रकार मात्र सोलह वर्ष की अवस्था में आदि शंकराचार्य चारों वेदों के ज्ञाता हो गए। गृहस्थ ज्ञान के लिए परकाया प्रवेश कर वह ज्ञान भी अर्जित किया, मंडन मिश्र की विदुषी पत्नी से शास्त्रार्थ  किया और उन पर विजय प्राप्त की। बत्तीस वर्ष की आयु में चारों पीठों की स्थापना की और आचार्य शंकर के नाम से जगत में विख्यात हुए।
       रत्नाकर डाकू एक सन्यासी के शब्दों से प्रभावित होकर #ऋषि #बाल्मीकि बन गया। वह बाल्मीकि रामायण लिखकर हमेशा-हमेशा के लिए अमर हो गया। एक अनपढ़ मूढ़ ब्राह्मण ने राज-दरवार में एक विदुषी कन्या को मूक शास्त्रार्थ में हराकर उससे विवाह कर लिया। बाद में अपनी मूढ़ता का भेद खुलने पर और पत्नी से अपमानित होकर गृह-त्याग कर चला गया। वही मूढ़ बाद में #कालिदास बनकर लौटा। इसी तरह पत्नी के मार्मिक शब्दों ने तुलसीदास के जीवन को ही बदल दिया और उन्हें महाकवि तुलसीदास बना दिया। इसी प्रकार रैदास, कबीरदास, सूरदास के जीवन में भी घटनाएं घटीं और उनके जीवन बदल गए। ऐसी हज़ारों घटनाएं हैं जो किसी अलौकिक चमत्कार से कम नहीं हैं। ऐसे बहुत से साधकों का वर्णन मिलता है जिनके जीवन पर काल का प्रभाव बहुत ही न्यून पड़ता है। जीवन के उस क्षण को और बिन्दु को कौन जानता है जहाँ से मनुष्य का जीवन बदलने वाला है। हाँ, इतना अवश्य है कि प्रकृति वह अमूल्य अवसर कभी- न-कभी हर मनुष्य के सामने लाती है। यह मनुष्य ही है कि अपने अहंकार में वह उस अवसर को पहचान नहीं पाता।

                काल का रहस्य
               *************

       विश्वब्रह्मांड काल-जगत है। इसे काल-जगत से ही समझने का प्रयास करना चाहिए। काल- जगत एक प्रकार से अपरिवर्तनशील है। यहाँ पर जो शक्ति कार्य करती है, वह निरन्तर आवर्तित होती रहती है। इस आवर्तन के दो प्रकार हैं--एक सिकुड़ना और दूसरा विस्तार। एक की गति भीतर की ओर है और दूसरे की गति है बाहर की ओर। भीतर की ओर गति ही सिकुड़ना है और बाहर की ओर गति है--विस्तार-गति। देखा जाय तो एक श्वास प्रक्रिया है और दूसरी है--प्रश्वास प्रक्रिया। जगत के सारे द्वन्द्व इनी दोनों प्रक्रियाओं के अंतर्गत हैं। श्वास लेना भी होता है और छोड़ना भी होता है। श्वास का ग्रहण और त्याग निरन्तर चलता रहता है। इसीका नाम जीवन है।
      तंत्रशास्त्र में 'षोडशी कला' का विशेष स्थान है। काल का सूक्ष्म रहस्य इस विद्या के गर्भ में छिपा है। महाशक्ति और काल-शक्ति ही सूक्ष्म रूप से जगत में कार्य करती है। अगर देखा जाये तो दोनों एक ही हैं। लेकिन कार्य निरूपण अलग-अलग है। काल-शक्ति परिणामी है  उससे ही सभी परिणाम घटित होते हैं।
       आदि काल से ही काल से रक्षा पाने के लिए सिद्ध-साधक किसी न किसी महाशक्ति के आश्रय में जाते हैं। क्योंकि काल-शक्ति आवर्तनशील है, इसीलिए जगत के सभी जड़-चेतन पदार्थ काल-शक्ति के ही अधीन रहकर निरन्तर आवर्तन करते रहते हैं। जगत में सभी वस्तुएं इसीलिए परिवर्तित होती रहती हैं क्योंकि आवर्तन शक्ति से उनका परिवर्तन करना स्वभाव बन जाता है। साधना का यही रहस्य है। हम इसी काल पर विजय प्राप्त करने के लिए साधना करते हैं। साधक की शक्ति की साधना का प्रयोजन है इसी काल-क्षय पर विजय प्राप्त करना। काल का शरीर पर न्यूनतम प्रभाव पड़े ताकि वह अपनी साधना-पथ में इस अमूल्य शरीर का अधिक से अधिक उपयोग कर सके और साधना के उस परम लक्ष्य को प्राप्त कर सके जो जन्म-जन्मान्तर से चला आ रहा है। shiv ram Tiwari 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

क्या है आदि शंकर द्वारा लिखित ''सौंदर्य लहरी''की महिमा

?     ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥  अर्थ :'' हे! परमेश्वर ,हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों  (गुरू और शिष्य) को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए। हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें। हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो। हम दोनों परस्पर द्वेष न करें''।      ''सौंदर्य लहरी''की महिमा   ;- 17 FACTS;- 1-सौंदर्य लहरी (संस्कृत: सौन्दरयलहरी) जिसका अर्थ है “सौंदर्य की लहरें” ऋषि आदि शंकर द्वारा लिखित संस्कृत में एक प्रसिद्ध साहित्यिक कृति है। कुछ लोगों का मानना है कि पहला भाग “आनंद लहरी” मेरु पर्वत पर स्वयं गणेश (या पुष्पदंत द्वारा) द्वारा उकेरा गया था। शंकर के शिक्षक गोविंद भगवदपाद के शिक्षक ऋषि गौड़पाद ने पुष्पदंत के लेखन को याद किया जिसे आदि शंकराचार्य तक ले जाया गया था। इसके एक सौ तीन श्लोक (छंद) शिव की पत्नी देवी पार्वती / दक्षिणायनी की सुंदरता, कृपा और उदारता की प्रशंसा करते हैं।सौन्दर्यलहरी/शाब्दिक अर्थ सौन्दर्य का

क्या हैआदि शंकराचार्य कृत दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्( Dakshinamurti Stotram) का महत्व

? 1-दक्षिणामूर्ति स्तोत्र ;- 02 FACTS;- दक्षिणा मूर्ति स्तोत्र मुख्य रूप से गुरु की वंदना है। श्रीदक्षिणा मूर्ति परमात्मस्वरूप शंकर जी हैं जो ऋषि मुनियों को उपदेश देने के लिए कैलाश पर्वत पर दक्षिणाभिमुख होकर विराजमान हैं। वहीं से चलती हुई वेदांत ज्ञान की परम्परा आज तक चली आ रही  हैं।व्यास, शुक्र, गौड़पाद, शंकर, सुरेश्वर आदि परम पूजनीय गुरुगण उसी परम्परा की कड़ी हैं। उनकी वंदना में यह स्त्रोत समर्पित है।भगवान् शिव को गुरु स्वरुप में दक्षिणामूर्ति  कहा गया है, दक्षिणामूर्ति ( Dakshinamurti ) अर्थात दक्षिण की ओर मुख किये हुए शिव इस रूप में योग, संगीत और तर्क का ज्ञान प्रदान करते हैं और शास्त्रों की व्याख्या करते हैं। कुछ शास्त्रों के अनुसार, यदि किसी साधक को गुरु की प्राप्ति न हो, तो वह भगवान् दक्षिणामूर्ति को अपना गुरु मान सकता है, कुछ समय बाद उसके योग्य होने पर उसे आत्मज्ञानी गुरु की प्राप्ति होती है।  2-गुरुवार (बृहस्पतिवार) का दिन किसी भी प्रकार के शैक्षिक आरम्भ के लिए शुभ होता है, इस दिन सर्वप्रथम भगवान् दक्षिणामूर्ति की वंदना करना चाहिए।दक्षिणामूर्ति हिंदू भगवान शिव का एक

पहला मेंढक जो अंडे नहीं बच्चे देता है

वैज्ञानिकों को इंडोनेशियाई वर्षावन के अंदरूनी हिस्सों में एक ऐसा मेंढक मिला है जो अंडे देने के बजाय सीधे बच्चे को जन्म देता है. एशिया में मेंढकों की एक खास प्रजाति 'लिम्नोनेक्टेस लार्वीपार्टस' की खोज कुछ दशक पहले इंडोनेशियाई रिसर्चर जोको इस्कांदर ने की थी. वैज्ञानिकों को लगता था कि यह मेंढक अंडों की जगह सीधे टैडपोल पैदा कर सकता है, लेकिन किसी ने भी इनमें प्रजनन की प्रक्रिया को देखा नहीं था. पहली बार रिसर्चरों को एक ऐसा मेंढक मिला है जिसमें मादा ने अंडे नहीं बल्कि सीधे टैडपोल को जन्म दिया. मेंढक के जीवन चक्र में सबसे पहले अंडों के निषेचित होने के बाद उससे टैडपोल निकलते हैं जो कि एक पूर्ण विकसित मेंढक बनने तक की प्रक्रिया में पहली अवस्था है. टैडपोल का शरीर अर्धविकसित दिखाई देता है. इसके सबूत तब मिले जब बर्कले की कैलिफोर्निया यूनीवर्सिटी के रिसर्चर जिम मैकग्वायर इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप के वर्षावन में मेंढकों के प्रजनन संबंधी व्यवहार पर रिसर्च कर रहे थे. इसी दौरान उन्हें यह खास मेंढक मिला जिसे पहले वह नर समझ रहे थे. गौर से देखने पर पता चला कि वह एक मादा मेंढक है, जिसके