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सप्तशती_भाग_2

{{{ॐ}}}

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दूसरे अध्याय से मध्यम चरित्र का प्रारंभ होता है और इसकी अधिष्ठात्री महालक्ष्मी है मध्यम चरित्र में दूसरा तीसरा चौथा अध्याय समाविष्ट है इन तीनों की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी है दूसरे अध्याय में वह लक्ष्मी बीज तीसरे में अटठाईस वर्णात्मिका और चौथे अध्याय मे वह त्रिवर्णात्मिका शक्ति लक्ष्मी के रूप में वर्णित है उत्तम चरित्र में सरस्वती है जिसका विस्तार सात अध्यायों में है kअध्याय अनुसार इसके रूप हैं विष्णूवादी तेईस देवतात्मिका शतमुखी घूम्राक्षी काली चामुंडा रक्ताक्षी वाग्भवबीज की अधिष्ठात्री महाकाली सिंहवाहिना त्रिशुलपाश धारणी और सर्वनारायणी है।
बारहंवा और तेरहंवा अध्याय उत्तर चरित्र में आता है पर बारहवें में फलश्रुति और तेहरवें में वरदान है बारहवे की अधिष्ठात्री मां बाला त्रिपुर सुंदरी है और तेहरवें की त्रिपुर सुंदरी श्रीविद्या है प्रत्येक अध्याय के अंत में इन्हीं नामों से महाहुति दी जाती है।
तीनों चरित्रों में एक ही शक्ति गुणात्मक वृत्ति के कारण महासरस्वती  महालक्ष्मी और मां महाकाली के रूप में त्रिधा हो जाती हैं माया की यह महास्तर लोक प्रकृति का विवेचन करते हैंo इन्हीं स्तरों पर होने वाला असंतुलन उसे उद्विग्न कर देता है यह उद्वेग ही विक्षोभ का कारण बनता है और  विक्षुब्ध प्रकृति संतुलन स्थापित करके वीरमती है।
तीनों ही चरित्रों में विक्षोभ कारण अंधकार होता है यह अंधकार अपने तक सीमित रहे तो किसी को कोई आपत्ति नहीं पर जब यह आसुरी स्वरूप ग्रहण कर लेता है तो अव्यवस्था का कारण बन जाता है यह अहंकार कभी मधु कैटभ कभी महिष कभी चंड मुंड तो कभी शुंभ निशुंभ बन जाता है।
प्रथम चरित्र में मधु कैटभ नाम दो असुर हैं यह अपने बाहुबल से सारी मर्यादाओं का उल्लंघन करके अपने को स्थापित कर देना चाहते हैं विष्णु जो संसार के रक्षक हैं hयह तमोगुण ग्रस्त हैं देवगण गहन निंद्रा की स्तुति करते हैं यह निंद्रा विष्णु माया है यह अपना प्रभाव संवत करती है विष्णु जग जाते हैं व्यवस्था का अव्यवस्था से संघर्ष होता है यही विष्णुमाया है फिर मोहित करने के लिए प्रस्तुत होती है।
और दर्पदृष्ट मधू कैटभ के मुख से कहलाती है #आवां_जहि_न_यत्रोवीं_सलिलेन_परिप्लुता अर्थात जहां धरती पर जल नहीं हो वही हमारा वध कर देना माया के प्रभाव से मति भ्रष्ट दानव का वध करने के लिए तुरंत निर्जल धरती प्रगट हो गई ।
मध्यम चरित्र की देवता लक्ष्मी है विष्णु ऋषि है और छंद है उष्णिक यहां सभी व्यवस्थित है लक्ष्मी रजोगुण की आधार भूमि है यहां चंचल्य अतिथि अत्यंत तीव्र है इसी चंचल्य को परिवर्तित करने वाला तत्व वायु है इसलिए मध्यम चरित्र का तत्व वायु है लक्ष्मी का जनक सागर माना जाता हैs क्योंकि दृश्य अवस्था में जलसा चंचल दूसरा तत्व नहीं है विशेषत उस अवस्था में जबकि वायु प्रेरित कर रहा हो।
सर्पासन पर अर्धनिमीलित नेत्र विष्णु लक्ष्मी के स्पर्श से अंतः प्रह्ष्ट हो इस विस्तार की परिधि बने हुए हैं इनकी मंद किंतु सशक्त क्रिया सभी को दोलित वह क्रियाशील बनाए हुए हैं सृजन की भूमि यही रजोगुण है सत्व इस को प्रेरित करता है तब आबद्ध रखता है जहां काम और क्रोध को रजोगुण की वृत्ति बताते हैं वहां इन दोनों भाव में परस्पर विरुद्धवृत्ति होना भी आश्चर्य है।
इन दोनो की उदभवस्थली एक है पर इनके प्रेरक और धारक बदल जाते हैं हम जानते हैं कि काम सृजनानंद का कारक है और क्रोध विनाश का पुरोगामी है काम सत्वोन्मुख है तो क्रोध तमोभिमुख है मध्यम चरित्र का प्रति नायक महिष है महिष का प्रेरक अहंकार है aवह मद और लोभ का प्रतीक बनकर व्यवस्था को ध्वंस करना चाहता है इसके लिए क्रोध से अविष्ट होकर परमेश्वरी से युद्ध करने के में प्रवृत्त होता है अंत में विनाश के तम में डूब जाता है।

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