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परावस्था



बर्फ को शून्य करने के लिए ताप देना पड़ता है । 

वह पहले पानी होती है , उसके बाद भाप , फिर शून्य में मिल जाती है ।

ताप देने की क्रिया के कारण बर्फ में धीरे धीरे विस्तार होता है और वह शून्यता की और जाती है । 

उसके कण जो पास पास थे, धीरे धीरे दूर होते जाते हैं । अर्थात् भीतरी संरचना में शून्यता धीरे धीरे आविष्ट होती जाती है । 

कठिन से तरल, तरल से वाष्पीय, वाष्प से फिर शून्य ।
कठिन अवस्था की परावस्था तरल , उसकी परावस्था भाप और उसकी परावस्था शून्य ।

ताप देते हैं तो शून्यता का आभास होने लगता है । अर्थात् शून्यता धीरे धीरे आने लगती है बर्फ में । अभी पूरी नहीं आयी । वह विस्तार हो कर तरल पानी बनती है , और शून्यता आगयी , किन्तु अभी पूरी शून्य नहीं हुई , किन्तु यह भी नहीं कि शून्यता नहीं है । वह है , और क्रमशः ताप देने से बढ़ रही है ।

अगर ताप देना बन्द कर दें , तो वह उसी स्थिति में आ जाएगी , और धीरे धीरे पुनः बर्फ हो जाएगी । 
यहाँ तक कि भाप भी बन जाए , किन्तु उत्ताप देना बन्द कर दिया तो वह पुनः तरल हो कर धीरे धीरे बर्फ हो जाएगी ।

इसलिए तब तक ताप देना होता है जब तक पूरा भाप शून्य न हो जाए । शून्यता की मात्रा  धीरे धीरे बढ़ते बढ़ते सर्वव्यापी शून्य न हो जाए । 

जब पूर्ण शून्य हो जाए तभी न बर्फ रहती है , न पानी न भाप । 

अब इस प्रतीकात्मक उदाहरण को प्रयोग कीजिये समझने के लिए की क्रिया की परावस्था क्या है , बिना क्रिया किये परावस्था में क्यों नहीं जा सकते , क्रिया की परावस्था में रह कर क्यों क्रिया होती है और क्रिया की परावस्था आ जाए तो क्यों उसे और कुछ कर के नहीं छेड़ना चाहिए ।

गुरुकृपा से यह उदाहरण मन में आया । कोई त्रुटि हो व्याकरण गत तो क्षमा 🙏 

श्रीगुरु अर्पणं अस्तु

~साभार :- सोमदत्त शर्मा

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