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ऊर्जा डायग्राम

ब्रह्माण्ड एक ऐसे सूक्ष्म तत्त्व से निर्मित हुआ है, जो शुद्ध सूक्ष्म विरल और परम गति वान एव तेजवान है इस तत्त्व से ब्रह्माण्ड के निर्माण की एक विस्तृत प्रक्रिया है, किसी ने इस तत्त्व को आत्मा कहा है किसी ने शिव कहा है तो किसी ने ब्रह्म।

इसी तत्व से उत्पन्न ब्रह्माण्ड एक विशिष्ट ऊर्जा के डायग्राम मे क्रिया कर रहा है । इस डायग्राम से ऊर्जा तरंगें उत्पन्न हो रही है जैसा ऊर्जा डायग्राम इस ब्रह्माण्ड का है वैसा ही डायग्राम किसी प्राकृतिक इकाई का होता है, चाहे वह पृथ्वी हो सूर्य हो, चाँद हो, और मंडल हो या निहारिका हो , वैसा ही ऊर्जा डायग्राम प्रत्येक जीव, प्रत्येक वनस्पति, प्रत्येक कीटाणु, प्रत्येक परमाणु का होता है, और सब एक दुसरे से जुडे हुए होते है ठीक उसी प्रकार किसी जीव के कोशाणु एक दुसरे से जुडे होते है। 

यह ऊर्जा डायग्राम इस प्रकार है जैसे सूर्य के केन्द्र मे उसका घन पोल है वहा से जो किरणे सतह से विकरित होती है वे ऋण ऊर्जा तरंगें है किन्तु पृथ्वी ये लिए वे तरंगें यानि सूर्य की किरणे धन तरंगें है और उन्ही तरंगों के कारण पृथ्वी का नाभिक काम करता है, पृथ्वी के लिए धनघ्रुव है और उसकी सतह से जो ऊर्जा विकरित है वह पृथ्वी की ऋण तरंगें है ।

पृथ्वी की ये ऋण तरंगे हमारे लिए धन तरंगें है हमारी उत्पत्ति सूर्य की ऋण तरंगों एवं पृथ्वी की ऋण तरंगों से सभी जीव वनस्पतियों की होती है इससे हमारे ह्रदय का नाभिक बनता है और इसी से हमारा डायग्राम बनता है यह डायग्राम भी वही होता है और इसका दो (दोनो पैर)धन कोण पृथ्वी से लगा होता है और एक सुर्य की ओर होता (सिर) है, दो ऋण कोण ऊपर होता(हाथ)है एक नीचे की ओर होता(रीढ़ की हड्डी का सिरा) है।

पृथ्वी का धन कोण सूर्य की ओर होता है दो उसके विपरीत एक ऋण कोण विपरीत मे होता है दो सूर्य की ओर सूर्य की निहारिका के केन्द्र से भी यही स्थिति होती है यही क्रम ब्रह्माण्ड इस केन्द्र तक चला जाता है । हमारा ऊर्जा डायग्राम अनेक श्रृंखलाओं मे होता हुआ ब्रह्माण्ड के ऊर्जा डायग्राम से जुड़ा है।
                                
जब सुक्ष्म शरीर को बाहर निकालकर अनाहत चक्र से जुडी रज्जूनूमा त्रिगुणी ऊर्जा धारा के तन्तु मूल को उसके केन्द्र से तोड दिया जाता है तब अनाहत चक्र का कमल शरीर से अलग हो जाता है । इस समय ऊर्जा ज्योति रूप कमल होता है, जो ऊर्जा ज्योति का स्वरूप बन जाता है इसमें सम्पूर्ण ऊर्जा शरीर अपने ऊर्जा जन्तुओं के साथ सिमटा होता है ।

प्रेत आत्मा भी सुक्ष्म शरीर ही होता है ।और यह भी स्वयं को कुछ हद तक सिंकोड सकता है।

परन्तु इसमे और ज्योति कमल में अन्तर होता है कि प्रेतात्मा  स्वयं के ऊर्जास्वरूप एक स्थान पर केन्द्रित नही कर सकता ।
यह एक भ्रम है कि प्रेतात्मा कोई भी स्वरूप धारण कर सकती है यह दूसरों को सम्मोहित करके ऐसा दृश्य दिखाती  है जो नही है । यह क्रिया कोई उन्नत आत्मबल से युक्त प्रेतात्मा ही कर सकती है सभी नही।

दुसरी मान्यता यह है कि प्रेतात्मा छिद्र मे प्रवेश कर जाती है यह भी एक भ्रम है प्रेतात्मा का प्रकृति पर कोई वश नही है उसका छिद्र मे प्रविष्ट होने का कोई अर्थ नही है क्यो कि स्थूल तत्त्व उसे रोक नही सकते वह पत्थरों से भी पराग बन कर निकल सकती है।

किन्तु यह कमल प्रेतात्मा के समान होते हुए भी प्रेतात्मा नही है यह केन्द्रभूत सूक्ष्म शरीर है ।

आज बस इतना ही..

Vedic vignan

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