# की गति निरन्तर बनी रहती है। ह्रदय से बाहर की ओर जाने वाली श्वाश को प्राण कहा जाता है।तथा बाहर से भीतर आने वाली श्वास को अपान कहा जाता है। प्राण के निकल जाने पर मृत्यु होती है। तथा अपान के आने से जीवन मिलता है। इसलिए इस अपान को ही जीव कहा जाता है। जब अपना अपानवायु भीतर प्रवेश करती है। तो ('ह' ) की ध्वनि होती है। तथा श्वास छोड़ते समय (स) की ध्वनि होती है। इस प्रकार ह और स का उच्चारण निरंतर होता रहता है। जिसे हम हंस गायत्री कहते है। अपान से ही वोध होता है। कि शरीर मे जीवात्मा विद्यमान है। अपान के प्रवेश न करने पर शरीर शव हो जाता है। जब तक शरीर जीवित है। तब तक अपान और प्राण का प्रवाह निरन्तर चलता रहता है। यह कब तक चलता राहेगा तथा यह क्रम कब टूट जाएगा इसके विषय मे कुछ नही कहा जा सकता। जिस प्रकार हकार में ह की आकृति टेढ़ी मेढ़ी होती है। उसी प्रकार यह जीव भी अपनी इच्छा से ही कुटिल घुमावदार आकृति धारण कर लेता है यह वक्रता परमेस्वर की स्वतंत्रत इच्छा शक्ति के कारण होती है। यह वक्रता प्राणों में आती है। जीव में नही यह जीव प्राण शक्ति के भीतर सूक्ष्म रूप में रहता है। प्राण और अपान की समान
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