#तंत्र के अनुसार महाशून्य स्थित #बिंदु में इस स्पंदन से वायु प्रकट हुआ जिसने अग्नि को जन्म दिया अग्नि ने जल को तथा जल ने धरती को प्रकट किया अग्नि ही आदित्य है। वही हमारे शरीर में स्थित प्राण है। ब्रह्मांड पिरामिड आकार के स्पंदन कर रहा है। उसके विभिन्न स्तरों पर भाँति-भाँति के विश्व विराजमान हैं। हर स्तर का अपना एक निश्चित स्पंदन और चेतना है। इस महाविशाल पिरामिड के शिखर पर दश महाविद्याये रहती हैं जो ब्रह्मांड का सृजन, व्यवस्था और अवशोषण करती हैं,
ये परम ब्रह्मांडीय माँ के व्यक्तित्व के ही दस पहलू हैं।
वसुगुप्त ने इस दिव्य स्पंदन पर स्पंद कारिका नामक पुस्तक में लिखा है कि काल के रेखीय क्षणों में यह अनुक्रम से स्वतंत्र रहता है लेकिन काल के विभिन्न पहलुओं में इसकी कौंध आती-जाती नज़र आती है, हालाँकि वास्तव में ऐसा नहीं होता यही माया है। शक्ति की इस महान ताक़त को सिर्फ़ तांत्रिक रहस्यवादी ही महसूस कर पाते हैं। स्पंद कारिका में इसे शक्ति-चक्र कहा गया है दैविक स्रोत से उद्भूत मातृ-शक्ति का व्यापक चक्र,
तंत्र के अनुसार सृष्टि-क्रम कुछ इस प्रकार है---- पहले परर्पिंड यानी संयोग (शिव और शक्ति का मिलन, फिर त्रिगुणात्मक आदि-पिंड और तब नीले रंग का महाप्रकाश, धूम्र रंग का महावायु,,रक्तवर्ण का महातेज, श्वेत वर्ण, का महासलिल, पीतवर्ण की महापृथ्वी, पांच महातत्वों से उत्पत्ति, महासाकार पिंड, भैरव, श्रीकंठ , सदाशिव, ईश्वर, रुद्र, विष्णु, ब्रह्मा, नर-नारी, प्राकृतिक पिंड (नर-नारी संयोग) और पुरुष तथा नारी का जन्म.
इस प्रकार अग्नि, सूर्य और सोम मिलकर सृजन का त्रिभुज यानी योनि बनाते हैं. और यूं शून्य तथा अंधकार से सृजन की कहानी शुरू होती है. शिव से पृथ्वी तक ३६ तत्त्व हैं जो आत्मा से जुड़ कर सजीव और निर्जीव जगत का निर्माण करते हैं।
प्रलय काल में पृथ्वी जल में, जल अग्नि में, अग्नि वायु में और वायु आकाश में लीन होकर पुनः बिंदु रूप में आ जाती है. यही संकोच और विस्तार प्रलय और सृजन है तथा प्राणि-मात्र में जन्म और मृत्यु है, बिंदु रूप ब्रह्म वामाशक्ति है क्योंकि वही विश्व का वमन (यानी उत्पन्न) करती है-----ब्रह्म बिंदुर महेशानि वामा शक्तिर्निगते
विश्वँ वमति यस्मात्तद्वामेयम प्रकीर्तिता ( ज्ञानार्णव तंत्र, प्रथम पटल-१४)
पराशक्ति नित्य तत्त्व है जो हमेशा वर्तमान स्थिति में रहती और विश्व का संचालन करती है. वही शक्ति आद्य यानी ब्रह्म की जन्मदात्री है. वही जगत का मूल कारण,निमित्ति और उपादान भी है-ईशावास्यमिदम् सर्वम् यत किंच जगत्याम्.जगत (यजुर्वेद ४.१) वह शक्ति स्वतंत्र है---- चिति: स्वतन्त्रा विश्वसिद्धि हेतु:.(प्रत्त्यभिज्ञा सूत्र). जगत् निर्माण के लिये चिति शक्ति स्वतंत्र है. शरीर स्थित सहस्रार पद्म में चिति शक्ति रहती है. उसे ही मणिद्वीप कहा जाता है।
अंतरिक्ष में मौज़ूद सूर्य ही जीव-जगत में प्राण के रूप में विराजमान रहता है; आदित्यो ह वै प्राणो. इसलिये सूर्य को प्रसविता कहते हैं. सूर्य हैं प्रत्यक्ष देवता. सूर्य देता और लेता है, जो अन्न हम खाते हैं वह शरीर के अंदर जाते ही अपनी सत्ता खो बैठता है. रह जाती है अन्नाद सत्ता जो अग्नि के रूप में होती है, जिसे वाक कहते हैंं, इस अग्नि के गर्भ में सारी दुनिया समायी है. वह वामा में प्रसूत होती है, ज्येष्ठा में बढ़ती है और वैखरी में समाप्त हो जाती है, सोम को विराट दिशा में वाक प्रकाशित करता है, विराट का अर्थ होता है दश, इन दसों दिशाओं के स्थिरीकरण, नियंत्रण और प्रशासन को दश महाविद्या कहा जाता है।
तन्त्रशब्द के अर्थ बहुत विस्तृत हैं। यह शब्द ‘तन्’ और ‘त्र’ (ष्ट्रन) इन दो धातुओं से बना है, अतः “विस्तारपूर्वक तत्त्व को अपने अधीन करना”- यह अर्थ व्याकरण की दृष्टि से स्पष्ट होता है, जबकि ‘तन्’ पद से प्रकृति और परमात्मा तथा ‘त्र’ से स्वाधीन बनाने के भाव को ध्यान में रखकर ‘तन्त्र’ का अर्थ - देवताओं के पूजा आदि उपकरणों से प्रकृति और परमेश्वर को अपने अनुकूल बनाना होता है। साथ ही परमेश्वर की उपासना के लिए जो उपयोगी साधन हैं, वे भी ‘तन्त्र’ ही कहलाते हैं। “सर्वेऽथा येन तन्यन्ते त्रायन्ते च भयाज्जनान्। इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते।। ‘जिसके द्वारा सभी मन्त्रार्थों-अनुष्ठानों का विस्तार पूर्वक विचार ज्ञात हो तथा जिसके अनुसार कर्म करने पर लोगों की भय से रक्षा हो, वही ‘तन्त्र’ है।’
तन्त्र शास्त्र क्या है ? तन्त्र-शास्त्रों के लक्षणों के विषय में ऋषियों ने शास्त्रों में जो वर्णन किया है, उसके अनुसार निम्न विषयों का जिस शास्त्र में वर्णन किया गया हो, उसको ‘तन्त्र-शास्त्र’ कहते हैं।
१॰ सृष्टि-प्रकरण, २॰ प्रलय-प्रकरण, ३॰ तन्त्र-निर्णय, ४॰ दैवी सृष्टि का विस्तार, ५॰ तीर्थ-वर्णन, ६॰ ब्रह्मचर्यादि आश्रम-धर्म, ७॰ ब्राह्मणादि-वर्ण-धर्म, ८॰ जीव-सृष्टि का विस्तार, ९॰ यन्त्र-निर्णय, १०॰ देवताओं की उत्पत्ति, ११॰ औषधि-कल्प, १२॰ ग्रह-नक्षत्रादि-संस्थान, १३॰ पुराणाख्यान-कथन, १४॰ कोष-कथन, १५॰ व्रत-वर्णन, १६॰ शौचा-शौच-निर्णय, १७॰ नरक-वर्णन, १८॰ आकाशादि पञ्च-तत्त्वों के अधिकार के अनुसार पञ्च-सगुणोपासना, १९॰ स्थूल ध्यान आदि भेद से चार प्रकार का ब्रह्म का ध्यान, २०॰ धारणा, मन्त्र-योग, हठ-योग, लय-योग, राज-योग, परमात्मा-परमेश्वर की सब प्रकार की उपासना-विधि, २१॰ सप्त-दर्शन-शास्त्रों की सात ज्ञान-भूमियों का रहस्य, २२॰ अध्यात्म आदि तीन प्रकार के भावों का लक्ष्य, २३॰ तन्त्र और पुराणों की विविध भाषा का रहस्य, २४॰ वेद के षङंग, २५॰ चारों उप-वेद, प्रेत-तत्त्व २६॰ रसायन-शास्त्र, रसायन सिद्धि, २७॰ जप-सिद्धि, २८॰ श्रेष्ठ-तप-सिद्धि, २९॰ दैवी जगत्-सम्बन्धीय रहस्य, ३०॰ सकल-देव-पूजित शक्ति का वर्णन, ३१॰ षट्-चक्र-कथन, ३२॰ स्त्री-पुरुष-लक्षण वर्णन, ३३ राज-धर्म, दान-धर्म, युग धर्म, ३४॰ व्वहार-रीति, ३५॰ आत्मा-अनात्मा का निर्णय इत्यादि।
विभिन्न ‘तन्त्र’-प्रणेताओं के विचार-द्वारा ‘तन्त्रों’ को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-
१॰ श्री सदा-शिवोक्त तन्त्र, २॰ पार्वती-कथित तन्त्र, ३॰ ऋषिगण-प्रणीत तन्त्र ग्रन्थ। ये १॰ आगम , २॰ निगम, और ३॰ आर्ष तन्त्र कहलाते हैं।
यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है, जो पूजा और आचार-पद्धति का परिचय देते हुए इच्छित तत्त्वों को अपने अधीन बनाने का मार्ग दिखलाता है। इस प्रकार यह साधना-शास्त्र है। इसमें साधना के अनेक प्रकार दिखलाए गए हैं, जिनमें देवताओं के स्वरुप, गुण, कर्म आदि के चिन्तन की प्रक्रिया बतलाते हुए ‘पटल, कवच, सहस्त्रनाम तथा स्तोत्र’- इन पाँच अंगों वाली पूजा का विधान किया गया है। इन अंगों का विस्तार से परिचय इस प्रकार हैः-
(क) पटल – इसमें मुख्य रुप से जिस देवता का पटल होता है, उसका महत्त्व, इच्छित कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिए जप, होम का सूचन तथा उसमें उपयोगी सामग्री आदि का निर्देशन होता है। साथ ही यदि मन्त्र शापित है, तो उसका शापोद्धार भी दिखलाया जाता है।
(ख) पद्धति – इसमें साधना के लिए शास्त्रीय विधि का क्रमशः निर्देश होता है, जिसमें प्रातः स्नान से लेकर पूजा और जप समाप्ति तक के मन्त्र तथा उनके विनियोग आदि का सांगोपांग वर्णन होता है। इस प्रकार नित्य पूजा और नैमित्तिक पूजा दोनों प्रकारों का प्रयोग-विधान तथा काम्य-प्रयोगों का संक्षिप्त सूचन इसमें सरलता से प्राप्त हो जाता है।
(ग) कचव – प्रत्येक देवता की उपासना में उनके नामों के द्वारा उनका अपने शरीर में निवास तथा रक्षा की प्रार्थना करते गुए जो न्यास किए जाते हैं, वे ही कचव रुप में वर्णित होते हैं। जब ये ‘कचव’ न्यास और पाठ द्वारा सिद्ध हो जाते हैं, तो साधक किसी भी रोगी पर इनके द्वारा झाड़ने-फूंकने की क्रिया करता है और उससे रोग शांत हो जाते हैं। कवच का पाठ जप के पश्चात् होता है। भूर्जपत्र पर कवच का लेखन, पानी का अभिमन्त्रण, तिलकधारण, वलय, ताबीज तथा अन्य धारण-वस्तुओं को अभिमन्त्रित करने का कार्य भी इन्हीं से होता है।
(घ) सहस्त्रनाम – उपास्य देव के हजार नामों का संकलन इस स्तोत्र में रहता है। ये सहस्त्रनाम ही विविध प्रकार की पूजाओं में स्वतन्त्र पाठ के रुप में तथा हवन-कर्म में प्रयुक्त होते है। ये नाम देवताओं के अति रहस्यपूर्ण गुण-कर्मों का आख्यान करने वाले, मन्त्रमय तथा सिद्ध-मंत्ररुप होते हैं। इनका स्वतन्त्र अनुष्ठान भी होता है।
(ङ) स्तोत्र – आराध्य देव की स्तुति का संग्रह ही स्तोत्र कहलाता है। प्रधान रुप से स्तोत्रों में गुण-गान एवँ प्रार्थनाएँ रहती है; किन्तु कुछ सिद्ध स्तोत्रों में मन्त्र-प्रयोग, स्वर्ण आदि बनाने की विधि, यन्त्र बनाने का विधान, औषधि-प्रयोग आदि भी गुप्त संकेतों द्वारा बताए जाते हैं। तत्त्व, पञ्जर, उपनिषद् आदि भी इसी के भेद-प्रभेद हैं। इनकी संख्या असंख्य है। इन पाँच अंगों से पूर्ण शास्त्र ‘तन्त्र शास्त्र’ कहलाता है।
साभार भारत धर्म फेस बुक वॉल
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