दो व्यक्ति ध्यान में बैठे, उनके बीच उज्जवल ऊर्जा धारा कई रिश्ते सिर्फ एक-दूसरे को देखकर, स्पर्श करके और बातें बाँटकर रह जाते हैं। पर कभी-कभी ऐसा भी घटता है कि दो लोग केवल बाहरी रूप से नहीं, भीतर से जुड़ जाते हैं — उनकी ऊर्जा एक ही ताल पर धड़कने लगती है। ऐसे मिलन में केवल दो शरीर नहीं मिलते; दो अंदरूनी संसार, दो दिशाएँ और दो अनुभव एक साथ गूँजने लगते हैं। जब प्रेम सतर्कता और जागरूकता के साथ होता है, तब वह सतही मिलन से ऊपर उठ जाता है। दोनों साथी अपनी छोटी-छोटी पहचानें भूलकर एक समग्र अनुभूति में खो जाते हैं — शांति, सृजन और आनन्द की एक नई लय बनती है। यह कोई अधिकार या माँग का खेल नहीं, बल्कि एक साझा अनुनाद है। ऊर्जा की समानता पुरुष और स्त्री की ऊर्जा को अक्सर सूर्य और चंद्र की तरह देखा जाता है: पुरुष ऊर्जा सक्रिय और बाहर की ओर जाती है; स्त्री ऊर्जा ग्रहणशील और शांत होती है। जब ये दो तरह की ऊर्जा सचेत रूप से मिलती हैं, तब रिश्ता सिर्फ भौतिक नहीं रह जाता — वह आध्यात्मिक बन जाता है। “पूर्ण स्त्री” का मतलब यह नहीं कि वह साथी की हर चाह पूरी करे, बल्कि वह व्यक्ति का सच्चा प्रतिबिंब बन जाए। ...
“जब किसी पुरुष की ऊर्जा किसी स्त्री की ऊर्जा से गहरे सामंजस्य में मिलती है, तो कुछ ऐसा घटता है जो पारलौकिक है। यह केवल दो शरीरों का मिलन नहीं होता — यह दो ब्रह्मांडों का एक लय में विलय होना है। जब यह पूर्णता से होता है, तब दोनों खो जाते हैं। तब न पुरुष रहता है, न स्त्री; केवल एक ऊर्जा रह जाती है — पूर्णता की ऊर्जा। सामान्य प्रेम में तुम केवल सतह पर मिलते हो — शरीर को छूते हो, बातें करते हो, भावनाएँ साझा करते हो — लेकिन भीतर से अलग ही रहते हो। जब प्रेम ध्यानमय हो जाता है, जब उसमें जागरूकता उपस्थित होती है, तब यह मिलन दो व्यक्तियों का नहीं, दो ध्रुवों का हो जाता है। पुरुष सूर्य की ऊर्जा लिए होता है — सक्रिय, पैठनेवाली, बाहर की ओर जानेवाली। स्त्री चंद्रमा की ऊर्जा लिए होती है — ग्रहणशील, ठंडी, स्वागतपूर्ण। जब ये दोनों ऊर्जा जागरूकता में मिलती हैं, तब एक नई दिशा खुलती है — वही ईश्वर का द्वार है। किसी पुरुष के लिए “पूर्ण स्त्री” वह नहीं जो उसकी इच्छाओं को पूरा करे, बल्कि वह है जो उसके अस्तित्व का दर्पण बन जाए। और किसी स्त्री के लिए “पूर्ण पुरुष” वह नहीं जो उस पर अधिकार करे, बल्कि वह है...