भैरव-भैरवी तंत्र: चेतना और ऊर्जा के अद्वैत का रहस्य



जब हम शक्ति को केवल पूजा की प्रतिमा तक सीमित कर देते हैं, तब तंत्र का असली स्वरूप हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है। तंत्र में भैरव-भैरवी का संसार केवल श्रद्धा का विषय नहीं, बल्कि **चेतना और ऊर्जा के परम मिलन** का प्रतीक है। यह वह रहस्य है जहाँ **जीवन और मृत्यु, भय और आनंद, शून्य और ज्वाला** एक बिंदु पर जाकर विलीन हो जाते हैं।

भैरव और भैरवी: अस्तित्व के दो छोर


तंत्र कहता है:

भैरव** — पूर्ण शून्य, जहाँ मन थम जाता हैभैरवी** — प्रचंड ऊर्जा, जो निरंतर नृत्यरत है


ये दोनों अलग नहीं, बल्कि एक ही सत्य के **द्वैत रूप** हैं। साधक का लक्ष्य इन्हें विरोधी नहीं, **एकात्म** रूप में अनुभव करना है।


ऊर्जा-योग: जहाँ शरीर साधन और चेतना साक्षी


भैरव-भैरवी साधना केवल संबंध नहीं, बल्कि **ऊर्जा का योग** है। इस मार्ग में:


* इच्छाएँ  ध्यान  में रूपांतरित होती हैं

* ऊर्जा उत्कर्ष  की ओर मुड़ती है

* साधक अहं को त्याग देता है


यह मिलन शरीर का नहीं, बल्कि **प्राण और चैतन्य** का होता है — जहाँ साधक स्वयं को खोकर वास्तव में **स्वयं को पाता** है।

श्मशान: भय से पार जाने की प्रयोगशाला**


श्मशान इसलिए तांत्रिक भूमि माना गया है क्योंकि वहाँ:


* मृत्यु **साक्षात उपस्थित** होती है

* अहं और डर **छिन्न-भिन्न** हो जाते हैं

* मन शून्य की शांति को **स्वीकार** करता है


वहीं साधक सीखता है कि भय को **दबाना नहीं**, बल्कि **पार करना** होता है।

काम ऊर्जा: पतन नहीं, उत्कर्ष का साधन**


तंत्र का गूढ़ सिद्धांत —

काम सबसे शक्तिशाली ऊर्जा है।**


साधारण मनुष्य इसे क्षणिक सुख में खो देता है, पर तंत्र इसे **मोक्ष की दिशा** में मोड़ता है। इस साधना में:

आनंद साधन नहीं**, परिणाम हैऊर्जा का संचार ऊपर** की ओर होता है

पुरुष-स्त्री नहीं, **अद्वैत चेतना** शेष रहती है


इसी अवस्था को तंत्र **परमानंद** कहता है, जहाँ अनुभव ही सत्य होता है।

तंत्र: शरीर को अस्वीकार नहीं, स्वीकार करता है**


यह मार्ग कहता है:


* शरीर **बंधन नहीं**, माध्यम है

* काम **पाप नहीं**, ऊर्जा है

* भय **रोक नहीं**, द्वार हैi


साधना का अंतिम लक्ष्य **सिद्धि** नहीं, **स्वरूप की पहचान** है।


समापन: अंतर्मन का भैरव-भैरवी जागरण**


तंत्र मानता है कि वास्तविक मुक्ति तब मिलती है जब —


* भीतर का **भैरव जागे** (अचल चेतना)

* भीतर की **भैरवी प्रकट हो** (गतिशील ऊर्जा)


इस मिलन में न कोई बंधन, न पाप-पुण्य का विचार केवल अनुभव यही तंत्र का वह गहन सत्य है जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता —केवल जिया जा  सकता है भैरव भैरवी तंत्र का संसार उन लोगों के लिए नहीं है जो शक्ति को सिर्फ पूजा की मूर्ति मानते हैं. यह वह रहस्य है जहाँ चेतना और ऊर्जा, मृत्यु और जीवन, भय और आनंद – सब एक बिन्दु पर मिलते हैं. भैरव वह शून्य है जहाँ मन बुझ जाता है, भैरवी वह ज्वाला है जहाँ ऊर्जा प्रचंड रूप में नाचती है. दोनों अलग नहीं, एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं, और तंत्र का उद्देश्य इन दोनों का विलय है.भैरव भैरवी के मिलन को तंत्र में साधारण संबंध नहीं, बल्कि ऊर्जा-योग कहा गया है. यह वह क्षण है जब शरीर साधन बनता है और चेतना साक्षी. इसमें सुख की खोज नहीं, ऊर्जा की दिशा बदलने का प्रयत्न होता है. इच्छा को ध्यान में, अग्नि को साहस में, स्पंदन को मौन में बदल दिया जाता है. साधक इस मिलन में खोता नहीं, स्वयं को पाता है, क्योंकि यह मिलन शरीर का नहीं, प्राण और चैतन्य का होता है.शमशान इस साधना की भूमि इसलिए है क्योंकि वहाँ मृत्यु, भय, इच्छा, और शून्यता एक ही समय में जीवित होती हैं. भैरव का मौन और भैरवी का नर्तन वहाँ एकदूसरे को पूर्ण करते हैं. इसी वातावरण में साधक भय को पार करताहै,इच्छा को रूपांतरित करता है और ऊर्जा को ऊपर उठाता है. कहा गया है कि जब अग्नि और श्वास एक गति में चलती हैं तो साधक “स्वयं से मुक्त” हो जाता है.तंत्र मानता है कि मानव की सबसे शक्तिशाली ऊर्जा काम है. साधारण व्यक्ति इसे खो देता है, तांत्रिक इसे साधता है. भैरव भैरवी साधना में संभोग मोक्ष की दिशा में प्रयुक्त होता है, जहाँ वीर्यपात नहीं, ऊर्जा-पात होता है. शरीर का आनंद नहीं, चेतना का उत्कर्ष अनुभव होता है. इसी अवस्था को तंत्र में रहस्यमय परमानंद कहा गया, जहाँ न पुरुष बचता है, न स्त्री, सिर्फ एक कंपन, एक नीरवता, एक अखंड अनुभव.भैरव भैरवी का रहस्य यही है कि यह साधना शरीर को ठुकराती नहीं, उसे साधन बनाती है. काम को रोकती नहीं, उसे ऊपर उठाती है. भय को मिटाती नहीं, उसे पार कराती है. साधक इस मार्ग पर चलकर सिद्धि नहीं, अपने स्वरूप को खोजता है. जब चेतना साक्षी हो जाए और ऊर्जा नृत्य बन जाए, तब मनुष्य देवत्व के उस द्वार पर पहुँचता है जहाँ नाम और रूप अर्थहीन हो जाते हैं.तंत्र कहता है कि इस ब्रह्मांड में सबसे बड़ी मुक्ति वही है जहाँ भीतर का भैरव जागे और भीतर की भैरवी स्वीकार हो. उस मिलन में न बंधन है, न पाप, न पुण्य, सिर्फ अनुभव. यही तंत्र का वह गूढ़ सत्य है जिसे शब्दों में कहा नहीं जा सकता, सिर्फ जिया जा सकता है.


 


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