एक ही चेतना : ब्रह्मांड का मूल स्वरूप

  एक ही चेतना : ब्रह्मांड का मूल स्वरूप


हममें से अधिकांश लोग अपने को एक अलग “मैं” मानकर जीते हैं — एक शरीर, एक मन, एक कहानी। लेकिन जब हम गहराई में उतरते हैं — चाहे ध्यान की शांति में, चाहे क्वांटम भौतिकी के सूक्ष्म जगत में — तो एक ही बात बार-बार सामने आती है:


सारा ब्रह्मांड एक ही चेतना का खेल है।


वही चेतना जो इस समय आपके भीतर ये शब्द पढ़ रही है, वही चेतना दूर किसी तारे के कोर में हाइड्रोजन को हीलियम में बदल रही है। वही चेतना किसी गली के कुत्ते के भीतर भूख का अहसास बनकर दौड़ रही है और किसी पेड़ की पत्तियों में क्लोरोफिल के रूप में सूर्य का प्रकाश सोख रही है।


यह चेतना कोई “चीज़” नहीं है जिसे हम कहीं रख सकें। यह अनुभव करने वाली ऊर्जा है — वह जीवंतता जो हर परमाणु में कंपन कर रही है।

 लहर और सागर का पुराना दृष्टांत आज भी जीवित है

उपनिषदों ने हजारों साल पहले कहा था — “तत्त्वमसि” (तू वही है)। आधुनिक भौतिकी भी अब उसी निष्कर्ष पर पहुँच रही है, बस अलग भाषा में।


क्वांटम उलझाव (Quantum Entanglement) बताता है कि दो कण एक-दूसरे से अरबों प्रकाश-वर्ष दूर भी हो सकते हैं, फिर भी एक का माप तुरंत दूसरे को प्रभावित करता है — जैसे वे कभी अलग हुए ही न हों। बेल के प्रमेय (Bell’s Theorem) और उसके प्रयोगों ने सिद्ध कर दिया कि ब्रह्मांड “स्थानीय यथार्थवादी” (local realistic) नहीं है। मतलब, अलग-अलग दिखने वाली हर चीज़ वास्तव में किसी गहरे स्तर पर एक ही क्षेत्र की अभिव्यक्ति है।


डेविड बोhm ने इसे “समग्रता और निहित क्रम” (Wholeness and the Implicate Order) कहा। जॉन व्हीलर ने कहा — “It from Bit” — अर्थात भौतिक जगत सूचना (या चेतना) का ही प्रकटीकरण है। यहाँ तक कि न्यूरोसाइंटिस्ट जूलियो टोनोनी की Integrated Information Theory (IIT) भी कहती है कि चेतना किसी मस्तिष्क की निजी संपत्ति नहीं, बल्कि सूचना के एकीकरण का गुण है — जो सैद्धांतिक रूप से पूरे ब्रह्मांड में मौजूद हो सकता है (Panpsychism की ओर एक कदम)।


जब विज्ञान और अध्यात्म हाथ मिलाते हैं

जब कोई व्यक्ति गहरे ध्यान में जाता है, तो अहंकार की सीमाएँ पिघलने लगती हैं। “मैं” और “तू” का भेद मिटता है। समाधि की अवस्था में जो अनुभव होता है, उसे शब्दों में कहें तो यही — “अहम् ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ)।


आधुनिक ध्यान-अध्ययन (जैसे रिचर्ड डेविडसन के प्रयोग) दिखाते हैं कि दीर्घकालीन ध्यान करने वालों के मस्तिष्क में डिफ़ॉल्ट मोड नेटवर्क (जो “मैं” की कहानी बनाता है) शांत हो जाता है और गामा तरंगें बढ़ जाती हैं — ठीक वही तरंगें जो क्वांटम कोहेरेंस से जुड़ी मानी जाती हैं।


मतलब, जब हम भीतर झांकते हैं, तो वही देखते हैं जो दूरबीन से बाहर देखने पर दिखता है — एक अखंड क्षेत्र।


 इस समझ का जीवन पर प्रभाव

जब यह बोध गहराता है कि जिस चेतना से मैं बना हूँ, वही चेतना उस व्यक्ति में भी है जिससे मैं नफ़रत करता हूँ, उस कीड़े में भी है जिसे मैं कुचल देता हूँ, उस पेड़ में भी है जिसे मैं काटता हूँ — तो हिंसा अपने आप असंभव हो जाती है।


करुणा कोई नैतिक नियम नहीं रह जाता; वह स्वाभाविक प्रवाह बन जाता है। जैसे सागर की एक लहर दूसरी लहर को नष्ट नहीं कर सकती — क्योंकि दोनों एक ही हैं।

अंत में

हम अलग-अलग नाम, रूप, कहानियाँ लिए घूम रहे हैं, लेकिन मूल में हम एक ही संगीत के अलग-अलग स्वर हैं। जिस दिन यह स्मृति जागती है, उसी दिन द्वंद्व ख़त्म हो जाता है और प्रेम शुरू होता है — वह प्रेम जो न किसी को देता है, न किसी से लेता है; बस होता है, जैसे सागर होता है।


तुम लहर हो या सागर — यह भूल जाना ही संसार है।  

याद कर लेना ही मोक्ष है।


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