सहजबोध को मेघा बुद्धि ( तर्क-वितर्क) के साथ नही जोडना चाहिए क्योंकि मेधा का अवलोकन कभी सही और कभी गलत हो सकता है। मगर सहजबोध का अवलोकन सर्वदा सही ही होंगा।
प्रत्येक व्यक्ति को कार्य शक्ति प्राप्त करने के लिए चालीस हजार प्रोटींस की आवश्यकता होती है। नित्य सुबह-शाम क्रियायोग कर हम इन प्रोटींस मे वृद्धि कर सकते है एवम वृद्धावस्था और व्याधियों का भी निवारण कर सकते है।
फेफडों, कालेय(जिगर), गुर्दो इत्यादि अंगों के बीच मे असंतुलन ही वृद्धावस्था और व्याधियों का प्रमुख कारण है। जेनेस ही व्याधिग्रस्थ कोशिकाओ(सेल्सो) को आरोग्यवंत करा सकते है।
हम क्रियायोग द्वारा इन जेनेस को जो आवश्यक प्रेरणा है वह देकर फेफडों, कालेय(जिगर), गुर्दा इत्यादि अंगों के बीच मे असंतुलित को दूर कर सकते है।शरीर के भीतर की प्रत्येक कोशिका उस आदमी का प्रतिरूप होती है।
हर जीवित कोशिका मे जेने विध्यमान रहता है।जेने का अंदर क्रोमोजोम होते है और इन क्रोमोजोम के अंदर डी.एन.ए होते है! जीवित सेल के अंदर डी.एन.ए मालिक्यूल अति मुख्य साझेदारी रखता है।
प्रोटीन, जेने और ऐंजाईम्स का उत्पादन करने मे प्रत्येक कोशिका शक्तिशाली होती है।हम जेने से वंशपरंपराणुगत गुण निर्धारित कर सकते है। हार्मोंस इस जेनेस को आवश्यक उत्प्रेरणा देते है ।
जिसकी वजह से यह जेनेस आरोग्यता बनाए रखते है हजारों जेनेस मे से शास्त्रज्ञो ने व्याधिकारक जेनेस को पहचाना है। यदि हम नियम से चक्रों मे ध्यान, क्रियायोग इत्यादि करे तो जो 40 से 50 हजार प्रोटींस है ।
वह अपने-अपने शरीरिक स्वास्थ्य के लिये स्वयं ही तैयारी कर सकते है जिससे हम समस्त जीवन सुख और शांति से आराम से रह सकते है। इंद्रियों मे ज्यादा लालच या चंचलता होने पर हम ।
जीवकणो का सुधारस न पी सकते है और न ही अनुभव कर सकते है।हर एक जीवकण मे डियोक्सी अडेनिलिक, गुआनिलिक, रिबोसी, सिटेडिलिक, थैमिडिलिक और फास्फारिक नाम के छः अम्ल और मिठापन होता है!
साधक खेचरी मुद्रा मेंॐ का ध्यान करते हुवे सहस्रार चक्र मे पहुंच कर स्थिर हो जाता है तब ये मिठा-सा अमृत जैसे सोमरस का आस्वादन अवश्य मिलता है। पहले कारण शरीर मे फिर सूक्ष्मशरीर मे स्थूल शरीर मे प्रवेश करता है।
कुण्डलिनी शक्ति को व्यष्टि मे कुंडलिनी और समिष्ठि मे माया कहते हैकुंडलिनी शक्ती चर(चलनेवाली चीजो मे) और अचर (नही चलनेवाली चीजों मे) प्रपंच मे उपस्थित है।सृष्टि, स्थिति और लय कारक है यह कुंडलिनी शक्ति।
प्रत्येक प्राण कण मे प्राणशक्ति उपस्तिथ रहती है।यह प्राणशक्ति जेनेस के रूप मे होती है, ये जेने क्रोमोजोम मे उपस्थित रहते है।जेनेस वंशानुगत गुणों के वाहक होते है। जेनेस मे डी.एन.ए मालिक्यूल्स रहते है।
ये डी.एन.ए मालिक्यूल्स बहुत ही मुख्य एवम आवश्यक होते है, इन डी.एन.ए मालिक्यूल्स मे छः अम्ल होते।अगर हम इन छः अम्लों को संतुलित कर पाए तो हम वृद्धावस्था और व्याधियों का निवारण कर सकते है।
इस संसार मे प्रत्येक व्यक्ति का जेनेस 99.9 फिसदी मिलता-जुलता है । बाकी 0.01 फिसदी की भिन्नता से ही एक व्यक्ति और दुसरे व्यक्ती के रंग, गुण और प्रकृती मे परख होती है।
विस्तार इतना है कई बार कलम स्वयं बढ़ती जाती हमे वापस लौटना पड़ता । यह विषय पेढ की शाखाओं की तरह है और आगे से आगे अंनत विस्तृत है न लोटे तो मुख्य विषय ही छूट जाता।
इडा नाडी गंगा, पिंगला नाडी यमुना और शुषुम्ना नाडी सरस्वती नदी है। ये तीनों सूक्ष्म नाडिया जब कूटस्थ यानि आज्ञाचक्र मे मिल जाती है तब इसी मिलन को गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का त्रिवेणीसंग़म कहते है।
अधिक साधना से प्राणशक्ति कूटस्थ से आगे बढकर केवल शुषुम्ना नाडी द्वारा ही सहस्रारचक्र मे पहुंचती है, इडा और पिंगला नाडियाँ केवल कूटस्थ तक ही शुषुम्ना के साथ रहती है।
स्वास अंदर खींचने और कूटस्थ को इस प्राणशक्ति से भरने को पूरक कहते है, कूटस्थ को इस प्राणशक्ति से भर के थोडा देर रखने को यानि कुंम्भक करने को अंतः कुंभक कहते है बाहर निकालने को रेचक कहते है ।
प्राणशक्ति को बाहर थोडी देर रोकने को बाह्य कुंभक कहते है। पूरक करके प्राणशक्ति को कूटस्थ मे अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार रोककर फिर इस प्राणशक्ति को रेचक करके मूलाधारचक्र द्वारा छोडने से विद्युत अयस्कांत शक्ति का उत्पादन होता है!
Sabhar Facebook wall sadhana yog sakti kundalni
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
vigyan ke naye samachar ke liye dekhe