-----------------:उपदेवता गन्धर्व:-----------------
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यक्ष के बाद गन्धर्व का नाम आता है। इनके शरीर का रंग हल्का सिन्दूरी होता है। गन्धर्व भी यक्षों की राजसी प्रवृत्ति के होते हैं। इनका भी क्रीड़ा-क्षेत्र हिमालय है। इनका भी शरीर यक्षों की तरह सुगठित और लम्बा होता है। ऑंखें मोर जैसी होती हैं जो किसी को भी सम्मोहित कर सकने में समर्थ होती हैं। नाक तोते की तरह नुकीली और कान बड़े-बड़े होते हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के रत्नजड़ित स्वर्णाभूषण इनको प्रिय हैं। आभूषणों से रूप-सौंदर्य और भी निखर उठता है इनका। सिर के बाल घने और काले होते हैं जो पीठ पर बिखरे रहते हैं। सिर पर रत्नजड़ित नीले रेशमी वस्त्र की गोल पगड़ी भी बांधते हैं जिसमें आगे की ओर बड़ा सा मोर पंख लगा रहता है। ये भगवान शिव के भक्त होते हैं। मस्तक पर त्रिपुण्ड धारण किये रहते हैं। गन्धर्व कन्यायें भी अति सुन्दर होती हैं।इनका व्यक्तित्व अत्यन्त मोहक और आकर्षक होता है। ये भी रत्नजड़ित आभूषण धारण करती हैं। नृत्य और गायन कला में निपुण होती हैं गन्धर्व कन्यायें। जहाँ भी नृत्य और गायन का आयोजन होता है, वहां ये उपस्थित हो जाती हैं। ये भी अकाशगामिनी होती हैं। कोई भी पार्थिव वस्तु इनके आवा गमन में बाधक नहीं बन सकती है। कभी कभी इच्छा होने पर मानव शरीर धारण कर प्रकट हो जाती हैं। शैव धर्मावलंबी होने के कारण यक्ष-यक्षिणियों की तरह गन्धर्व और गन्धर्व कन्यायें शिवरात्रि पर्व पर कशी विश्वनाथ (वाराणसी), त्रयम्बकेश्वर महादेव(नासिक)और महाकाल(उज्जैन) का दर्शन करने के लिए अवश्य आती हैं और वह भी मानव रूप में।
यक्षों की तरह ये भी कलाप्रेमी, नृत्यप्रेमी और गायन कला में दक्ष होते हैं। मृदंग, पखावज, तम्बूरा और सारंगी उनके प्रिय वाद्य यंत्र हैं जिनसे निकलने वाली ध्वनि गन्धर्व लोक तक पहुँचती है जिसे सुनकर गन्धर्व गण प्रसन्न होते हैं। जिस कलाकार पर इनकी कृपा हो जाती है तो समझिये कि पुरे संसार में उसकी ख्याति फैलते देर नहीं लगती। संगीत के क्षेत्र में अबतक जितनी भी प्रगति हुई है, उसकी पृष्ठभूमि में अगोचर रूप से गन्धर्व और गन्धर्व कन्याओं की ही प्रेरणा और सहयोग समझना चाहिए।
------------:उपदेवता किन्नर:--------------
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यक्ष और गन्धर्वों के बाद किन्नर हैं। उनकी अपनी विशेषता है और वह यह कि स्त्रीलिंग और पुल्लिंग--दोनों हैं वे।स्त्रीत्व की मात्रा भी है और है पुरुषत्व की भी उनमें। किन्नर और किन्नरियों में केवल तत्व की मात्रा का भेद है। किन्नरों में पुरुष तत्व थोडा अधिक होता है। इसी प्रकार किन्नरियों में स्त्री तत्व की मात्रा कुछ अधिक होती है। यही कारण है कि प्रत्यक्ष रूप में किन्नर और किन्नरियों में समानता दिखाई पड़ती है। वेष-भूषा, व्यवहार आदि दोनों का प्रायः एक सा होता है। सुन्दर, सुगन्धित पुष्प, इत्र, स्वर्णाभूषण, मूल्यवान वस्त्र आदि इनकी प्रिय वस्तुएं हैं। गायन और नृत्य--दोनों कलाओं में निपुण होते हैं किन्नर। उनका कद मझोला, शरीर सुगठित और तांबीए रंग का होता है। उन्हें एक सीमा तक सुन्दर और आकर्षक कहा जा सकता है। वे पीले और नीले रंग के वस्त्र धारण करते हैं और रत्नजड़ित आभूषण भी। कभी कभी स्त्री- पुरुष के रूप में इस संसार में भी विचरण करते हैं। कभी- कभी मानव गर्भ से भी जन्म ले लेते हैं लेकिन मानव शरीर में भी वे अर्धनारीश्वर ही रहते हैं। उनमें स्त्रियोचित गुण विशेष होते हैं। फिर भी वे पुरुषों के संसर्ग में रहना अधिक पसंद करते हैं। आत्माकर्षिणी विद्या से किन्नर और किन्नरियां भी प्रभावित होकर गोचर-अगोचर रूप से साधक की सहायता करती हैं। जिस व्यक्ति को किन्नर या किन्नरी सिद्ध हो जाती है, वह नृत्य और गायन कला का मर्मज्ञ तो हो ही जाता है, साथ ही उसकी ख्याति देश-विदेश तक फैलते देर नहीं लगती। उसके पास धन-वैभव और सुख के सभी साधन भोगने के लिए सुलभ होते हैं।
------------उपदेवता विद्याधर और अप्सराएँ-----------
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उपदेवताओं की अन्तिम श्रेणी में आते हैं विद्याधर और अप्सराएँ। रजोगुणी और तमोगुणी मिश्रित होती हैं इनकी वृत्तियाँ। पृथ्वी और वायु तत्व--दोनों होते हैं इनमें। इसलिए विद्याधर और अप्सराएँ आकाश में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बाहर स्वेच्छानुसार विचरण करती हैं।
विद्याधर अति सुन्दर और गौर वर्ण के होते हैं। इनका शरीर सुगठित और लम्बा होता है। ये शरीर पर अंगवस्त्र और रेशमी पगड़ी धारण करते हैं। इनकी ऑंखें काली और होंठ रक्ताभ होते हैं। विद्याधर वेद शास्त्र मर्मज्ञ और ज्ञानी होते हैं। यज्ञशाला, गोशाला और अश्वशाला के निर्माण में निपुण होते हैं। यज्ञशाला का निर्माण करना अत्यन्त जटिल कार्य है। थोड़ी सी भी गलती होने पर यज्ञ के हविष्य को देवतागण स्वीकार नहीं करते। यज्ञ व्यर्थ सिद्ध हो जाता है। यज्ञ के आचार्य को देवगण शाप दे देते हैं अपने यज्ञ हविष्य के अप्राप्त होने पर।।इसलिए प्राचीन काल में यज्ञशाला की निर्माण की दिशा में विद्याधरों का सहयोग लिया जाता था। धर्मराज युधिष्ठिर के यज्ञ की यज्ञशाला के निर्माण में विद्याधरों का पूर्ण योगदान था। तभी सफल हो सका था यज्ञ।
वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद आदि ग्रन्थों के रहस्यों और गुह्य भावों को जानने-समझने के लिए उच्चकोटि के विद्वान और मनीषी आत्माकर्षिणी विद्या का आश्रय लेकर सहयोग लेते थे विद्याधरों से। अबतक संस्कृत के जितने प्रसिद्ध विद्वान, कवि और साहित्यकार हो चुके हैं, वे सभी किसी न किसी रूप में विद्याधरों से सम्बंधित थे--इसमें सन्देह नहीं।
त्र्यम्बकेश्वर के रहने वाले गजानन शास्त्री जो महाराष्ट्रियन ब्राह्मण थे, वेद, शास्त्र, पुराण आदि के आलावा तंत्रशास्त्र भी था उनके अध्ययन, चिन्तन और मनन का विषय। तंत्र से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण पुस्तकें मराठी भाषा में उन्होंने लिखी थीं। कई पुराणों का अनुवाद भी किया था उन्होंने मराठी भाषा में। बड़े ही मनस्वी और विद्वान पुरुष थे गजानन शास्त्री-इसमें कोई सन्देह नहीं। तंत्र के साथ ज्योतिष का भी भरपूर ज्ञान था उनको। गजानन शास्त्री का गहरा सम्बन्ध किसी 'श्रीधर' नानक विद्याधर से था। वे जो कुछ भी विलक्षण करते थे, उसमें श्रीधर नामक विद्याधर का पूर्ण सहयोग रहता था।
अत्यधिक सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व होता है विद्याधरों का। सिर पर पीले रंग की रेशमी पगड़ी, शरीर पर पीले ही रंग का अंगवस्त्र, गले में मूल्यवान रत्नजड़ित स्वर्णमालायें, कानों में रत्नजड़ित स्वर्ण कुण्डल, मस्तक पर त्रिपुण्ड की रेखाएं, घनी भौंहें, बड़ी बड़ी, कजरारी ऑंखें, नुकीली नाक और रक्ताभ होंठ--ये उनका व्यक्तित्व होता है।
कोष ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि चौबीस प्रकार के होते हैं विद्याधर और चौबीस प्रकार की ही होती हैं--विद्याधरी(अप्सराएँ)।
क्रमशः-- sahar
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आगे है--अप्सराएँ
वैज्ञानिकों को इंडोनेशियाई वर्षावन के अंदरूनी हिस्सों में एक ऐसा मेंढक मिला है जो अंडे देने के बजाय सीधे बच्चे को जन्म देता है. एशिया में मेंढकों की एक खास प्रजाति 'लिम्नोनेक्टेस लार्वीपार्टस' की खोज कुछ दशक पहले इंडोनेशियाई रिसर्चर जोको इस्कांदर ने की थी. वैज्ञानिकों को लगता था कि यह मेंढक अंडों की जगह सीधे टैडपोल पैदा कर सकता है, लेकिन किसी ने भी इनमें प्रजनन की प्रक्रिया को देखा नहीं था. पहली बार रिसर्चरों को एक ऐसा मेंढक मिला है जिसमें मादा ने अंडे नहीं बल्कि सीधे टैडपोल को जन्म दिया. मेंढक के जीवन चक्र में सबसे पहले अंडों के निषेचित होने के बाद उससे टैडपोल निकलते हैं जो कि एक पूर्ण विकसित मेंढक बनने तक की प्रक्रिया में पहली अवस्था है. टैडपोल का शरीर अर्धविकसित दिखाई देता है. इसके सबूत तब मिले जब बर्कले की कैलिफोर्निया यूनीवर्सिटी के रिसर्चर जिम मैकग्वायर इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप के वर्षावन में मेंढकों के प्रजनन संबंधी व्यवहार पर रिसर्च कर रहे थे. इसी दौरान उन्हें यह खास मेंढक मिला जिसे पहले वह नर समझ रहे थे. गौर से देखने पर पता चला कि वह एक मादा मेंढक है, जिसके...
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