‘’ऐसे काम-आलिंगन में जब तुम्हारी इन्द्रियाँ
पत्तों की भाँति काँपने लगें उस कम्पन में प्रवेश करो
।‘’
जब प्रेमिका या प्रेमी के साथ ऐसे आलिंगन में,
ऐसे प्रगाढ़ मिलन में तुम्हारी इन्द्रियाँ
पत्तों की तरह काँपने लगें,
उस कम्पन में प्रवेश कर जाओ ।
तुम भयभीत हो गये हो ।
सम्भोग में भी तुम अपने शरीर को
अधिक हलचल नहीं करने देते हो ।
क्योंकि
अगर शरीर को भरपूर गति करने दिया जाए
तो पूरा शरीर इसमें सँलग्न हो जाता है ।
तुम उसे तभी नियन्त्रण में रख सकते हो
जब वह काम-केन्द्र तक ही सीमित रहता है ।
तब उस पर मन नियन्त्रण कर सकता है ।
लेकिन जब वह पूरे शरीर में फैल जाता है
तब तुम उसे नियन्त्रण में नहीं रख सकते हो ।
तुम काँपने लगोगे ।
चीखने चिल्लाने लगोगे ।
और जब शरीर मालिक हो जाता है
तो फिर तुम्हारा नियन्त्रण नहीं रहता ।
हम शारीरिक गति का दमन करते है ।
विशेषकर हम स्त्रियों को दुनिया भर में
शारीरिक हलन-चलन करने से रोकते हैं ।
वे सम्भोग में लाश की तरह पड़ी रहती हैं ।
तुम उनके साथ जरूर कुछ कर रहे हो,
लेकिन वे तुम्हारे साथ कुछ भी नहीं करतीं ।
वे निष्क्रिय सहभागी बनी रहती हैं ।
ऐसा क्यों होता है ?
क्यों सारी दुनिया में पुरूष स्त्रियों को इस तरह दबाते हैं ?
कारण भय है ।
क्योंकि एक बार अगर स्त्री का शरीर
पूरी तरह कामाविष्ट हो जाए तो
पुरूष के लिए उसे सन्तुष्ट करना बहुत कठिन है ।
क्योंकि
स्त्री एक शृंखला में, एक के बाद एक अनेक बार
ओर्गास्म के शिखर को उपलब्ध हो सकती है ।
पुरूष वैसा नहीं कर सकता ।
पुरूष एक बार ही
ओर्गास्म के शिखर अनुभव को छू सकता है ।
स्त्री अनेक बार छू सकती है ।
स्त्रियों के ऐसे अनुभव के अनेक विवरण मिले हैं ।
कोई भी स्त्री एक शृंखला में
तीन-तीन बार शिखर-अनुभव को प्राप्त हो सकती है ।
लेकिन पुरूष एक बार ही हो सकता है ।
सच तो यह है कि
पुरूष के शिखर अनुभव से स्त्री
और-और शिखर अनुभव को उत्तेजित होती है ।
तैयार होती है ।
तब बात कठिन हो जाती है ।
फिर क्या किया जाए ?
स्त्री को तुरन्त दूसरे पुरूष की जरूरत पड़ जाती है ।
और सामूहिक कामाचार निषिद्ध है ।
सारी दुनिया में हमनें
एक विवाह वाले समाज बना रखे हैं ।
हमें लगता है कि स्त्री का दमन करना बेहतर है ।
फलत: अस्सी से नब्बे प्रतिशत स्त्रियाँ
शिखर अनुभव से वँचित रह जाती हैं ।
वे बच्चों को जन्म दे सकती हैं ।
यह और बात है ।
वे पुरूष को तृप्त कर सकती हैं ।
यह भी और बात है ।
लेकिन वे स्वयं कभी तृप्त नहीं हो पातीं ।
अगर सारी दुनिया की स्त्रियाँ
इतनी कड़वाहट से भरी हैं,
दुःखी है,
चिड़चिड़ी है,
हताश अनुभव करती हैं
तो यह स्वाभाविक है ।
उनकी बुनियादी जरूरत पूरी नहीं होती ।
काँपना अद्भुत है ।
क्योंकि
जब सम्भोग करते हुए तुम काँपते हो
तो तुम्हारी ऊर्जा पूरे शरीर में प्रवाहित होने लगती है ।
सारे शरीर में तरँगायित होने लगती है ।
तब तुम्हारे शरीर का अणु-अणु
सम्भोग में सँलग्न हो जाता है ।
प्रत्येक अणु जीवन्त हो उठता है ।
क्योंकि
तुम्हारा प्रत्येक अणु काम अणु है ।
तुम्हारे जन्म में दो कास-अणु आपस में मिले
और तुम्हारा जीवन निर्मित हुआ ।
तुम्हारा शरीर बना ।
वे दो काम अणु तुम्हारे शरीर में सर्वत्र छाये हैं ।
यद्यपि उनकी सँख्या अनन्त गुनी हो गयी है ।
लेकिन तुम्हारी बुनियादी इकाई काम-अणु ही है ।
जब तुम्हारा समूचा शरीर काँपता है
तो प्रेमी प्रेमिका के मिलन के साथ-साथ
तुम्हारे शरीर के भीतर प्रत्येक पुरूष-अणु
स्त्री अणु से मिलता है ।
वह कम्पन यही बताता है ।
यह पशुवत मालूम पड़ेगा ।
लेकिन मनुष्य पशु है और
पशु होने में कुछ गलती नहीं है ।
यह दूसरा सूत्र कहता है :
‘’ऐसे काम-आलिंगन में
जब तुम्हारी इन्द्रियाँ पत्तों की भाँति काँपने लगे ।‘’
मानो तूफान चल रहा है और वृक्ष काँप रहा है ।
उनकी जड़ें तक हिलने लगती हैं ।
पत्ता-पत्ता काँपने लगता है ।
यही हालत सम्भोग में होती है ।
कामवासना भारी तूफान है ।
तुम्हारे आर-पार एक भारी ऊर्जा प्रवाहित हो रही है ।
काँपो ।
तरँगायित होओ ।
अपने शरीर के अणु-अणु को नाचने दो ।
और इस नृत्य में दोनों के शरीरों को भाग लेना चाहिए ।
प्रेमिका को भी नृत्य में सम्मिलित करो ।
अणु-अणु को नाचने दो ।
तभी तुम दोनों का सच्चा मिलन होगा ।
और वह मिलन मानसिक नहीं होगा ।
वह जैविक ऊर्जा का मिलन होगा ।
‘’उस कम्पन में प्रवेश करो ।‘’
और काँपते हुए उससे अलग-थलग मत रहो ।
मन का स्वभाव दर्शक बने रहने का है ।
इसलिए अलग मत रहो ।
कम्पन ही बन जाओ ।
सब कुछ भूल जाओ और
कम्पन ही कम्पन हो रहो ।
ऐसा नहीं कि तुम्हारा शरीर ही काँपता है ।
तुम पूरे के पूरे काँपते हो ।
तुम्हारा पूरा अस्तित्व काँपता है ।
तुम खुद कम्पन ही बन जाते हो ।
तब दो शरीर और दो मन नहीं रह जायेंगे ।
आरम्भ में दो कम्पित ऊर्जाएँ हैं और
अन्त में मात्र एक वर्तुल है ।
दो नहीं रहे ।
इस वर्तुल में क्या घटित होगा ।
पहली बात तो उस समय तुम
अस्तित्वगत सत्ता के अंश हो जाओगे ।
तुम एक सामाजिक चित नहीं रहोगे ।
अस्तित्वगत ऊर्जा बन जाओगे ।
तुम पूरी सृष्टि के अँग हो जाओगे ।
उस कम्पन में तुम पूरे ब्रह्माण्ड के भाग बन जाओगे ।
वह क्षण महान सृजन का क्षण है ।
ठोस शरीरों की तरह तुम विलीन हो गये हो ।
तुम तरल हो कर एक दूसरे में प्रवाहित हो गये हो ।
मन खो गया ।
विभाजन मिट गया ।
तुम एकता को प्राप्त हो गये ।
यही अद्वैत है ।
और अगर तुम इस अद्वैत को अनुभव नहीं करते हो ।
अद्वैत का सारा दर्शन शास्त्र व्यर्थ है ।
वह बस शब्द ही शब्द है ।
जब तुम इस अद्वैत अस्तित्वगत क्षण को जानोंगे
तो ही तुम्हें उपनिषद समझ में आयेंगे ।
और तभी तूम सन्तों को समझ पाओगे ।
कि जब वे
जागतिक एकता की अखण्डता की बात करते हैं
तो उनका क्या मतलब है ।
तब तुम जगत से भिन्न नहीं होगे ।
उससे अजनबी नहीं होगे ।
तब पूरा अस्तित्व तुम्हारा घर बन जाता है ।
और इस भाव के साथ कि पूरा अस्तित्व मेरा घर है ।
सारी चिन्ताएँ समाप्त हो जाती हैं ।
फिर कोई द्वन्द्व न रहा ।
सँघर्ष न रहा ।
सन्ताप न रहा ।
उसका ही लाओत्से ताओ कहते हैं :
शङ्कर अद्वैत कहते हैं ।
तब तुम उसके लिए कोई अपना शब्द भी दे सकते हो ।
लेकिन प्रगाढ़ प्रेम आलिंगन में ही
उसे सरलता से अनुभव किया जाता है ।
लेकिन जीवन्त बनो, काँपो, कम्पन ही बन जाओ ।
ओशो
तन्त्र-सूत्र - भाग - 3,
प्रवचन - 33
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