“जब किसी पुरुष की ऊर्जा किसी स्त्री की ऊर्जा से गहरे सामंजस्य में मिलती है,
तो कुछ ऐसा घटता है जो पारलौकिक है।
यह केवल दो शरीरों का मिलन नहीं होता —
यह दो ब्रह्मांडों का एक लय में विलय होना है।
जब यह पूर्णता से होता है, तब दोनों खो जाते हैं।
तब न पुरुष रहता है, न स्त्री;
केवल एक ऊर्जा रह जाती है — पूर्णता की ऊर्जा।
सामान्य प्रेम में तुम केवल सतह पर मिलते हो —
शरीर को छूते हो, बातें करते हो, भावनाएँ साझा करते हो —
लेकिन भीतर से अलग ही रहते हो।
जब प्रेम ध्यानमय हो जाता है, जब उसमें जागरूकता उपस्थित होती है,
तब यह मिलन दो व्यक्तियों का नहीं, दो ध्रुवों का हो जाता है।
पुरुष सूर्य की ऊर्जा लिए होता है — सक्रिय, पैठनेवाली, बाहर की ओर जानेवाली।
स्त्री चंद्रमा की ऊर्जा लिए होती है — ग्रहणशील, ठंडी, स्वागतपूर्ण।
जब ये दोनों ऊर्जा जागरूकता में मिलती हैं,
तब एक नई दिशा खुलती है — वही ईश्वर का द्वार है।
किसी पुरुष के लिए “पूर्ण स्त्री” वह नहीं जो उसकी इच्छाओं को पूरा करे,
बल्कि वह है जो उसके अस्तित्व का दर्पण बन जाए।
और किसी स्त्री के लिए “पूर्ण पुरुष” वह नहीं जो उस पर अधिकार करे,
बल्कि वह है जिसकी उपस्थिति में वह खिल सके।
पुरुष को कभी-कभी समर्पण करना सीखना होता है —
यही उसका स्त्री के माध्यम से दीक्षा है।
और स्त्री को मौन और साक्षी होना सीखना होता है —
यही उसकी पुरुष के माध्यम से दीक्षा है।
जब यह द्वंद्व नाच बन जाता है —
जब न शक्ति की लड़ाई होती है, न कोई माँग, न कोई भय —
तब उनके बीच जो ऊर्जा बहती है, वह आनंदमय, सृजनशील और प्रार्थनापूर्ण बन जाती है।
तब सेक्स अब सेक्स नहीं रहता — वह समाधि बन जाता है।
प्रेमी किसी विशालता में खो जाते हैं;
वे अस्तित्व के सार को छू लेते हैं।
“पूर्ण ऊर्जा” का मिलना किसी “पूर्ण व्यक्ति” को पाना नहीं है —
यह एक “पूर्ण अनुनाद” को पाना है।
यह किसी के साथ भी घट सकता है,
जब दोनों खुले हों, निडर हों, और उपस्थित हों।
जिस क्षण दोनों की ऊर्जाएँ एक स्वर में गूँजती हैं,
उसी क्षण तुमने दिव्य प्रिय को पा लिया।”
~ ♡sH♡
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