सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

क्या है पंचमकार का यौगिक रूप

 ?
क्या है पञ्च मकार ? - 
10  FACTS;-
1-प्रायः हम-आप और साधारण जन तांत्रिक साधना प्रसंग चलने पर कुछ अलग ही अनुभव करने लगते हैं। तंत्र का नाम सुनते ही जादू-टोना, काला जादू, झाड़-फूँक, खोपड़ी, मुर्दा, श्मशान, बलि, आदि के विचार स्वतः ही मस्तिष्क में आने लगते हैं और मन अजीब-सी अरुचि से भर जाता है। दर असल यह सब विचार या धारणा तन्त्र के बारे में समाज में फैले हुए हुए नाना प्रकार के भ्रम के परिणाम स्वरुप है।तंत्र के कौलमत के आरम्भ काल से ही प्रायः ‘पञ्चमकार’, ‘कुमारी-पूजन’ और ‘योनिपूजा’ का वर्णन और प्रचलन चर्चा का विषय रहा है जिस कारण तंत्र के विषय में तरह-तरह की भ्रांतियां समाज में फ़ैल गईं और तभी से जन-साधारण के मन में तंत्र के प्रति घृणा और नफ़रत की भावना घर कर गयी।वास्तव में यदि देखा जाय तो ऐसा नहीं है। तंत्र एक उच्चकोटि की विद्या है , एक प्रकृष्ट विज्ञान है जिसे कुछ भ्रष्ट और स्वार्थी तांत्रिकों ने अपने निहित स्वार्थ के चलते बदनाम कर दिया है।हमें तंत्र की वास्तविकता और उसमें आये हुए ‘पञ्च मकार'(मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन) का वास्तविक आशय समझने का प्रयास करना  चाहिए ।

2-तंत्र के बारे में जो अनेक भ्रम और गलत धारणाएं फैली हुई हैं, उनमें तंत्र-परम्परा का दोष नहीं है, वरन उन तांत्रिकों का दोष है जो बिना आस्था और श्रद्धा के ही तांत्रिक बन गए।तंत्र के प्रति अज्ञानता का लाभ उठाकर ऐसे लोग जन-साधारण की दुर्बलता से तन्त्र-मन्त्र के नाम पर फायदा उठाने का प्रयत्न करते रहे हैं। ऐसे ही लोगों के द्वारा तंत्र की पूजा-पाठ की आड़ में व्यभिचार, भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन दिया गया। लेकिन इस पञ्च मकार और उससे जुड़ी हुई सभी बातें और वस्तुएं जानने से पहले तांत्रिक साधना में प्रचलित ‘कौलमत’ को भी जानना  हैं।कौलमत मुख्यतया दो भागों में विभक्त है–पूर्वकौल और उत्तरकौल। पूर्वकौल समायाचारी साधना मार्ग है और उत्तरकौल है वामाचारी साधनामार्ग। दोनों मार्गों में शक्ति की प्रतीक ‘योनि’ की पूजा है।योनिपूजा के बिना की गयी कोई भी पूजा, पूजा ही नहीं है।लेकिन पूर्वकौल मतावलम्बी और अनुयायी श्रीयंत्र योनि की पूजा करते हैं। उत्तरकौल के मत के अनुयायी प्रत्यक्ष योनि के उपासक होते हैं। दोनों मार्ग की साधना का आधार ‘पञ्चमकार’ है। पहले में वह प्रतीक रूप में है और दूसरे में है प्रत्यक्ष रूप में।
3-वामाचारी साधनामार्ग अत्यन्त कठिन है और दुरूह है। इस पर चलना सभी के वश की बात नहीं है। ‘वामा’ का अर्थ है–स्त्री। इस मार्ग की जितनी भी साधनाएं हैं, सबका आधार है स्त्री। इसलिए इसे ‘वामाचार’ की संज्ञा दी गयी है।साधना की दृष्टि से स्त्री के साथ जो आचरण किया जाता है, वह है–‘वामाचार’।‘यह मार्ग स्पष्ट रूप से कहता है -''स्त्री कोई भी जाति या धर्म की हो, वह योगतांत्रिक दीक्षा से साधक की साधना के योग्य हो जाती है''।यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो वामाचारी साधना मार्ग भी प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर ले जाता है। बाह्य क्रियाओं का सहारा लेकर यह साधना की आतंरिक भूमि में प्रवेश कराता है। कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग, सातत्ययोग आदि जितने भी योग हैं, उन सबका ‘कुण्डलिनी योग’ में समावेश है। कुण्डलिनी जागरण का अभ्यास सद्गुरु के सानिध्य और निर्देशन में ही सम्भव है।
 4- ‘कौलमत’ के अनुसार मनुष्य के भीतर  रहस्यमयी अलौकिक शक्तियां छिपी हुई हैं।उनका मूल स्रोत क्या है ..इसे जानना आवश्यक है। योग-तंत्र की जितनी भी साधनाएं हैं, वे सब उन्हीं पर आधारित हैं। योग-तंत्र का आश्रय लेकर मनुष्य को उसके शरीर में स्थित उन अव्यक्त शक्तियों का साक्षात्कार करा देना ही भारतीय संस्कृति का चरम लक्ष्य है। जो मनुष्य मानव शरीर ग्रहण कर इस लक्ष्य को प्राप्त न कर सका तो वास्तव में उसका जीवन समस्त भौतिक सुखों के बाद भी व्यर्थ चला गया।इस चरम लक्ष्य को पाना वास्तव में परम पुरुषार्थ है ।योग-तन्त्र एक प्रकृष्ट विज्ञान है और इस विज्ञान के अनुसार संपूर्ण ब्रह्माण्ड के मूल में केवल एक तत्व है जिसे ‘परमतत्व’ कहते हैं। सृष्टि के प्राक्काल में वही ‘परमतत्व’ दो भागों में विभक्त होकर ‘शिव’ और ‘शक्ति’ के रूप में जाना गया।‘शिव’ क्या है, ‘शक्ति’ क्या है ?यदि वैज्ञानिक दृष्टि से इस पर विचार करें तो ये दोनों ही ब्रह्मांडीय मौलिक ऊर्जा से संबद्ध हैं। एक है विधायिका शक्ति और दूसरी है निषेधात्मिका शक्ति। दोनों का मूल स्रोत वास्तव में वह ‘परमतत्व’ है।
 5-पुरुष परमेश्वर है तो प्रकृति परमेश्वरी है। शिव कामेश्वर है तो शक्ति कामेश्वरी है। सभी पुरुष परमेश्वर और सभी स्त्रियां परमेश्वरी हैं और हैं कामेश्वर और कामेश्वरी। इन दोनों का मिथुनात्मक सम्बन्ध ही मूल है। वही मूल आकर्षण है या काम है।
कौल मत की आध्यात्मिक भावना अत्यन्त गहरी और सूक्ष्म है–इसमें कोई संदेह नही। जैसे ‘शिव’ और ‘शक्ति’ के संयोग से सृष्टि हुई है, वैसी ही यदि देखा जाय तो ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ की भी उत्पत्ति हुई है और निवृत्तिशक्ति और प्रवृत्तिशक्ति भी निष्पन्न हुई है।
शब्द की निष्पत्ति और जप को भी मैथुन की संज्ञा से स्पष्ट किया गया है। जप करने वाले साधक को जप करते समय अपने दोनों होंठों का सहयोग लेना पड़ता है। जहाँ युगल या मिथुन का आपस में व्यापार होता है तो दोनों के उस क्रिया-व्यापार को मैथुन की संज्ञा दी गयी है।जप नीचे और ऊपर दोनों होंठों के मिथुनात्मक संयोग का फल है। नीचे का होंठ शक्ति और ऊपर का होंठ शिव की ओर संकेत करता है। होठों का मिथुनात्मक रूप जप में हिलना ही मैथुन है और उससे निकलने वाला शब्द ‘बिन्दुश्वरूप’ है।
 6-मानव शरीर ब्रह्माण्ड का एक संक्षिप्त संस्करण है।ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु किसी न किसी रूप में मानव पिण्ड में विद्यमान है। इसीलिये मानव शरीर को दुर्लभ बतलाया गया है।पञ्चतत्वों से निर्मित मानव शरीर में तीन तत्व सबसे अधिक मूल्यवान हैं–‘प्राणतत्व’, ‘मनस्तत्व’ और ‘बिन्दुतत्व’। ये तीन तत्व कौल मतावलंबियों की समस्त योग-तांत्रिक साधनाओं के आधार हैं। अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त वह ‘परमतत्व’ अपनी सर्वश्रेष्ठ लीलाएं मानव शरीर का ही आश्रय लेकर प्रकट करता है। विष्णु के अनेक अवतार हुए लेकिन जो अवतार सबसे अधिक मानवीय हैं –राम, कृष्ण और बुद्ध, उन्हीं का आश्रय लेकर हमारे देश की धर्मसाधना और काव्यकला विकसित हुई।तत्ववेत्ता ऋषियों ने अपने अनुभव के आधार पर भगवान्, ईश्वर्, परमात्मा या परमेश्वर के विषय में हमें बहुत कुछ स्पष्ट दिशा दी है। उनका कहना है कि उस भगवान् को बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है। उसका वास्तविक निवास तो एकमात्र मानव शरीर है।
 7-कौल मत की इस धारणा को और अधिक बल उस समय मिला जब परमतत्व के दो रूप ‘अहम्’ और ‘इदम्’ की कल्पना ‘शिव’ और ‘शक्ति’ या ‘पुरुष’ और ‘प्रकृति’ के रूप में की गयी और यह बतलाया गया कि मानव शरीर के दो हिस्से हैं।कंठ स्थान से ऊपर का हिस्सा ‘ज्ञानखण्ड’ और नीचे का हिस्सा ‘कर्मखण्ड’ है।ज्ञानखण्ड में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मखण्ड में कर्मेन्द्रियाँ हैं। ज्ञानखण्ड का मूलकेंद्र सहस्रार चक्र है और कर्मखण्ड का मूलकेंद्र है–मूलाधार चक्र। सहस्रार चक्र में शिव का वास है और मूलाधार चक्र में वास है शक्ति का। पहला परमेश्वर है और दूसरी परमेश्वरी है।मूलाधार चक्र में बाल से भी पतला गोलाकार घूमा हुआ एक नाड़ी तन्तु है, उसी नाड़ीतन्तु में वह महा जीवनीशक्ति पराशक्ति ‘कुण्डलिनी’ सुप्तावस्था में विद्यमान है। तन्तु का रूप सर्पिणी के कुंडली के समान होने के कारण कौलमत ने उस शक्ति को नाम् दिया–कुण्डलिनी शक्ति’।सनातन काल से ही इस देश को तंत्र ज्ञान, कर्म और उपासना का स्रोत समझा जाता रहा है। 
 8-परन्तु तांत्रिक साधना में जिन गोपनीय क्रियाओं और सामग्रियों के उपयोग की अनुमति विशेष् परिस्थिति में दे रखी है–उनका दुरुपयोग हुआ है। लेकिन उससे तन्त्र और उसकी साधना कदापि दूषित नहीं हो सकती। तांत्रिक साधना अत्यन्त गम्भीर और उच्च आध्यात्मिक साधना है।तन्त्र शब्द की व्युत्पत्ति ‘तनु’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है... 'विस्तार करना' जिसके द्वारा ज्ञान का विस्तार हो, उसे तंत्र कहते हैं।तंत्र ज्ञान का विस्तार तो करता ही है, साथ ही साथ यह रक्षा भी करता है। तन्त्र साधक को आदिभौतिक, आदिदैविक और आध्यात्मिक– तीनों प्रकार के तापों से मुक्ति दिलाता है। वह भय मुक्त करता है।प्राचीन काल से ही अनेक देवगण तांत्रिक साधना के पथिक रहे हैं। शक्ति-साधना उनका आदर्श रहा है जिसका लक्ष्य है–महाशक्ति जगदम्बा की मातृरूप में उपासना। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, चंद्र, स्कन्द, वीरभद्र, लक्ष्मीश्वर, कामेश्वर, मन्मथ–ये सब श्रीमाता के उपासक थे।प्रसिद्ध ऋषियों में कोई कोई तांत्रिक मार्ग के उपासक थे और कोई कोई तो तांत्रिक मार्ग के प्रवर्तक भी थे। उनमें वृहस्पति, दधीचि, सनतकुमार, उशना, नकुमीश आदि का वर्णन आया है। जो प्रवर्तक ऋषि थे, उनमें दुर्वासा, गौतम, याज्ञवल्क्य, भृगु,कात्यायन, गालब, शातातप, आपस्तम्ब, सनक, विष्णुकश्यप, संवर्तविश्वामित्र आदि थे।

 9-तंत्रविज्ञान में कौलमत का मुख्य लक्ष्य है–अद्वैत लाभ जिसका आशय है–जीवभाव से मुक्ति और परम निर्वाण, जो शरीर में स्थित शिव और शक्ति के मिलन से ही सम्भव है। यहाँ जिस मिलन या योग की बात की गयी है, वह है–कुण्डलिनी योग।समस्त योगों में यही एकमात्र योग है जो तंत्र के गुह्य आयामों पर आधारित है। इसीलये इसे महायोग कहा गया है।कुण्डलिनी योग साधना के मुख्य चार चरण हैं। प्रथम चरण में कुण्डलिनी जागरण, दूसरे चरण में उसका उत्थान, तीसरे चरण में क्रमशः चक्र भेदन और चौथे चरण में सहस्रार स्थित शिव के साथ शक्ति का ‘सामरस्य महामिलन’। इन चारों चरणों की साधना योगतंत्र की बाह्य और आतंरिक क्रियाओं द्वारा संपन्न होती हैं। हम हिन्दू हैं, मुस्लमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं ..भीतर तो हम सभी एक हैं, समान हैं–वही क्रोध, वही घृणा, वही द्वेष, वही ईर्ष्या, वही हिन्सा, वही कामुकता और वही आक्रामकता ।जो वास्तविकता है, वह सभी जाति में, सभी धर्म में समान है; कहीं कोई अन्तर नहीं। तंत्र के लिए जाति, धर्म, संप्रदाय केवल  एक आवरण है। आवरण को वह कोई महत्त्व नहीं देता। 

 10-तंत्र केवल और केवल योग्यता देखता है। हम जहाँ हैं, जिस स्थिति में हैं, एक अंधे के समान हैं और उसी अंधेपन को दूर करना ही तंत्र का काम है।समस्त तंत्र भगवान शंकर और माँ  पार्वती के बीच संवाद है।माँ  पार्वती का प्रश्न और भगवान शंकर का उत्तर है। लेकिन वह संवाद अर्थपूर्ण है, साधरण गुरु-शिष्य के बीच का संवाद नहीं है। दो महान् प्रेमी-प्रेमिका के बीच का गहन और गम्भीर संवाद है, गहनतम प्रेम की भाषा है। प्रत्येक अक्षर प्रेममय है। इसकी भाषा आत्मा को स्पर्श करने वाली है।तंत्र का कहना है कि शिष्य में प्रेम के साथ ग्राहकता भी होनी चाहिए, तभी विज्ञान प्रकाश में आता है। शिष्य के लिए स्त्री का होना आवश्यक नहीं लेकिन उसमें स्त्रैण ग्राहकता का भाव अवश्य होना चाहिए।माँ पार्वती के प्रश्न का अर्थ ही है कि स्त्रैण भाव प्रश्न कर रहा है। स्त्रैण भाव का मतलब ही है ग्राहकता और समर्पण। प्रेम भी पूर्ण है। प्रेम में गंभीरता नहीं, निर्मलता और समर्पण होता है।पुरुष और स्त्री के अस्तित्व पर यदि हम वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों है। कोई भी मनुष्य न मात्र पुरुष है और न तो मात्र स्त्री है। वह उभयलिंगी है।इसीलिए भगवान  शंकर का एक स्वरुप ‘अर्धनारीश्वर’ है।जब तक हम ऐसा नहीं बनेंगे तब तक कोई सार्थक लाभ नहीं। 
क्या है योगतंत्र की साधना ?- 

05 FACTS;- 

1-क्या है कुलाचार?- 

03 POINTS;-
1-कौलाचार—इसका रहस्य अत्यन्त गूढ़ है। ‘कौल’ कुल शब्द से बना हुआ है। ‘कुल’ का अर्थ है–कुण्डलिनी शक्ति। तथा ‘अकुल’ का अर्थ है–‘शिव’। दोनों का सामरस्य कराने वाला कौल है। जो व्यक्ति योगविद्या के सहारे कुण्डलिनी का उत्थान कर सहस्रार में स्थित ‘शिव’ के साथ संयोग करा देता है, उसे ही ‘कौल’ कहते हैं।कुण्डलिनी शक्ति ही कुलाचार का मूल आलम्बन है। कुण्डलिनी के साथ जो आचार किया जाता है, उसको ‘कुलाचार’ कहते हैं। यह आचार मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन–इन पञ्च मकारों के सहयोग से अनुष्ठित होता है। पंचमकार का रहस्य नितान्त गूढ़ है। उसे ठीक-ठीक न जानने के कारण लोगों में अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैली हुई हैं। इन पांचों मकारों का सम्बन्ध अंतर्योग से है।‘कुलाचार’ ही ‘कौलाचार’ या ‘वामाचार’ के नाम से प्रसिद्ध है। पंचतत्व को मुद्रा समझना चाहिये। वास्तव में ये पञ्चमकार योगी की पञ्चमुद्रा हैं जो उसे मुक्ति देने वाले हैं–‘मद्यम् मासं व मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च।मकारपंचकं प्राहुर्योगिन: मुक्ति दायिकम्।''अर्थात्–मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन–ये पंचमकार योगी को मुक्ति देने वाले कहे गए हैं।

2-कौल मार्ग के साधक मद्य, माँस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन नामक पंच मकारों का सेवन करते हैं।ब्रह्मरंध्र से स्रवित मधु मदिरा है, वासना रूपी पशु का वध माँस है, इडा-पिगला के बीच प्रवाहित श्वास-प्रश्वास मत्स्य है। प्राणायाम की प्रक्रिया से इनका प्रवाह मुद्रा है तथा सहस्रार में मौज़ूद शिव से शक्ति रूप कुण्डलिनी का मिलन मैथुन है।किन्हीं आचार्यों   के अनुसार समयाचार ही श्रेष्ठ, विशुद्ध तांत्रिक आचार है तथा कौलाचार उससे भिन्न तांत्रिक मार्ग है। शंकराचार्य तथा उनके अनुयायी समयाचार के अनुयायी थे। तो अभिनवगुप्त तथा गौडीयशाक्त कौलाचार के अनुवर्ती थे। समयमार्ग में अंतर्योग (हृदयस्थ उपासना) का महत्व है, तो कौल मत में बहिर्योग का। पंच मकार- मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन दोनों में ही उपासना के मुख्य साधन हैं। अंतर केवल यह है कि समय मार्गी इन पदार्थों का प्रत्यक्ष प्रयोग न करके इनके स्थान पर इनके प्रतिनिधिभूत अन्य वस्तुओं (जिन्हें तांत्रिक ग्रथों में अनुकल्प कहा जाता है) का प्रयोग करता है; कौल इन वस्तुओं का ही अपनी पूजा में उपयोग करता है। 

3-सौंदर्य लहरी के भाष्यकार लक्ष्मीधर ने 41वें श्लोक की व्याख्या में कौलों के दो अवांतर भेदों का निर्देश किया है। उनके अनुसार पूर्वकौल श्री चक्र के भीतर स्थित योनि की पूजा करते हैं; उत्तरकौल प्रत्यक्ष योनि के पूजक हैं और अन्य मकारों का भी प्रत्यक्ष प्रयोग करते हैं। उत्तरकौलों के इन कुत्सापूर्ण अनुष्ठानों के कारण कौलाचार वामाचार के नाम से अभिहित होने लगा और जनसाधारण की विरक्ति तथा अवहेलना का भाजन बना। कौलाचार के इस उत्तरकालीन रूप पर तिब्बती तंत्रों का प्रभाव बहुश: लक्षित होता है। गंधर्वतंत्र, तारातंत्र, रुद्रयामल तथा विष्णायामल के कथानानुसार इस पूजा प्रकार का प्रचार महाचीन (तिब्बत) से लाकर वसिष्ठ ने कामरूप में किया। प्राचीनकाल में असम तथा तिब्बत का परस्पर धार्मिक आदान प्रदान भी होता रहा। इससे इस मत की पुष्टि के लिये आधार प्राप्त होता है।

4-कौल काली के उपासक होते है। उनके अनुष्ठान गुप्त होते है। इन अनुष्ठानों में मद्य, मांस, मीन, मुद्रा एवं मैथुन वर्जित नहीं हैं। उत्तर कौल, कापालिक और दिगंबर स्वयं को भैरव मानते हैं। इन संप्रदायों का अधिक प्रभाव बंगाल एवं अविजित आसाम के अधिकांश क्षेत्रों में रहा है। शक्तों के समयाचारी संप्रदाय में श्रीचक्र का पूजन होता है। उनकी आस्था षट्चक्रों में है। दक्षिण भारत में समयाचारी साधना का प्रचलन रहा है। आदि शंकराचार्य जैसे योगियों ने इसी प्रकार की साधना को अपनाया है और उसे आश्रय प्रदान किया है। कौल सम्प्रदाय में दो मत हैं ~ उत्तर कौल मत और पूर्व कौल मत ! इनके अपने ~अपने आचार हैं उत्तर कौल मत के आचार को कौलाचार और पूर्व मत के आचार को समयाचार कहते हैं ! उत्तर कौल मत और उसका आचार कौलाचार रजोगुणी और तमोगुणी मिश्रित है , जबकि पूर्व कॉल और उसका आचार समयाचार पूर्णत: सात्विक है ! 

5-उत्तर कौल मत के अनुयायिओं का प्रमुख साधना केंद्र कामख्या ( असम ) है और पूर्व कौल के मानने वालों का साधना केंद्र श्रीनगर है ! इन दोनों सिद्धांतों को मिलाकर बाद में एक नया सिद्धांत प्रकाश में आया जिसे ”योगिनी कौल ” कहते हैं ! योगिनी कौल सम्प्रदाय के केंद्र की स्थापना कामख्या में हुई ! कहा भी गया है ~ कामरूप इदं शास्त्रं योगिनीनं गृहे गृहे ! यह वही प्रिय सम्प्रदाय है जिसके गर्भ से आगे चलकर ” हठयोग ” का सर्वाधिक प्रिय नाथ सम्प्रदाय प्रकाश में आया और सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ ! सुप्रसिद्ध चौरासी सिद्ध इस सम्प्रदाय से सम्बंधित थे !इस देश में 8वीं से 11वीं सदी मध्य तक सिद्ध और नाथ नाम के मुख्य तांत्रिक संप्रदायों का बहुत प्रभाव रहा है। आज भी इन दोनों संप्रदायों के अनेक स्थानों पर बड़े-बड़े सिद्ध पीठ हैं।इन दोनों संप्रदायों में अनेक प्रकार की साधनाओं का प्रचलन है। सिद्धों में पंचमकार वर्जित नहीं है लेकिन नाथ संप्रदाय में वर्जित है। 

2-क्या है आगम?-

03 POINTS;-
1-तन्त्र का ही दूसरा नाम ‘आगम’ है। जिससे अभ्युदय, लौकिक कल्याण तथा निःश्रेयस (मोक्ष) के उपायों का प्रतिपादन हो, वह शास्त्र ही ‘आगम’ है।आगम का मुख्य लक्ष्य है साधना और उपदेश। तंत्र के दो रूप हैं–बहिरंग रूप और अंतरंग रूप। बहिरंग साधना के अंतर्गत तंत्र का साधना-उपदेश है। अपने उपदेश के आधार पर क्रिया और अनुष्ठान पर वह अधिक बल देता है। ‘अपरा पूजा’और ‘इष्टोपासना’ इसी के अंतर्गत है।आगम के सात लक्षण है जिनसे यह बात सिद्ध होती है। ये सात लक्षण निम्न लिखित हैं–सृष्टि, प्रलय, देवार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्म और ध्यान। ये सातों लक्षण व्यापक रूप से तंत्र के बहिरंग रूप की ओर संकेत करते हैं। बहिरंग साधना का एकमात्र मुख्य विषय है-मन्त्र, यंत्र और देव प्रतिमा।इन तीनों की सिद्धि और साधना के मूल में ‘ध्यानयोग’ है। देवता के गुण, कर्म, स्वभाव, स्वरुप के चिन्तन के आधार पर मन्त्रों का ‘उद्धार’ एवम् ‘सिध्दि’ की जाती है तब उन मन्त्रों को यज्ञ से संयोजित कर देवता का ध्यान और उपासना का वर्णन किया जाता है।तंत्र की विशेषता उसकी ‘क्रिया’ है। अर्थात् तंत्र की बहिरंग साधना और उपासना क्रिया प्रधान है। ज्ञान को क्रिया रूप में न बदलने से वह ज्ञान भार बन जाता है।''ज्ञानसंपन्न साधक जब तक उस ज्ञान को जीवन में परिणत कर उसे क्रियात्मक नहीं बनाता, तबतक वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। तंत्र के जितने लक्ष्य हैं, उनमें एक यह भी है–ज्ञान को कर्म में बदलना और फिर उक्त कर्म को ज्ञान में परिवर्तित करना''।

2-तंत्र साहित्य का क्षेत्र बहुत विस्तृत है जिसे मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया गया है–विष्णुक्रान्ता, रथक्रान्ता और अश्वक्रान्ता। प्रत्येक के 64 तंत्र हैं।इन 64 तंत्र के साहित्य की विचारधाराओं को भी तीन अलग-अलग भागों में विभक्त किया जा सकता है–ब्राह्मण तंत्र, बौद्ध तंत्र और जैन तंत्र। ब्राह्मण तंत्र की भी तीन विशिष्ट शाखाएं है–वैष्णवतंत्र, शैवतंत्र और शाक्ततन्त्र।
इन तीनों तंत्रों का विशाल साहित्य उपलब्ध् है। फिर भी यह स्वीकार किया जाता है कि इनमें शाक्त तंत्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।शाक्त तंत्र में शक्ति की उपासना की जाती है।करीब दो हज़ार वर्ष पहले तांत्रिक साधना में सिद्धि लाभ के लिए चार मुख्य पीठों की स्थापना हुई–जालंधर पीठ, कामाख्या पीठ, पूर्णागिरि पीठ और उड्डयान पीठ।पीठ का अर्थ है–शक्ति केंद्र–एक ऐसा शक्ति केंद्र जिसका अगोचर सम्बन्ध दैवीय राज्य और भावराज्य से जुड़ा होता है। इनके विषय में और उनकी महत्ता के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है पर् वास्तविक ज्ञान तो गुरुमुख से उनके सान्निध्य में रहकर ही मिलता है। 

3-लेकिन मुश्किल यह है कि सच्चे गुरु पहले तो मिलते ही नहीं हैं, यदि मिल भी जाएँ तो वे तंत्र के रहस्यों के बारे में चुप ही रहते हैं।एक ओर तो ये समस्याएं हैं और दूसरी ओर यह भी निस्संदेह सत्य है कि तंत्र और उनकी साधना के नाम पर मदिरा, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन के सेवन का मार्ग चारों ओर प्रशस्त हुआ मिलता है।आज के तथाकथित तांत्रिक जहाँ देखो , वहां इन पञ्च मकारों के नाम पर समाज में व्यभिचार, पापाचार फैलाते मिल जाते हैं।जगह-जगह पर गुप्त साधना केंद्र बनाकर लोगों को ठगने का तो धन्धा चला ही रहे हैं।एक अभियान आदिगुरु शंकराचार्य ने समाज में सहस्राब्दियों पहले चलाया था और उन्होंने वास्तविक सनातन धर्म और वैदिक धर्म की स्थापना के लिए पूरे भारत वर्ष की पदयात्रा की थी और चार धामों की स्थापना की थी। आज फिर से एक और आदि शंकराचार्य की समाज को महती आवश्यकता है।तंत्र में दो प्रकार की साधनाएं शास्त्र सम्मत हैं- कुलाचार और समयाचार। कुलाचार साधना में बाह्य अनुष्ठान प्रधान है। इसका अभ्यास समहू बद्ध हाकेर किया जाता है | इसमें यज्ञाहुति, मंत्र-जप और कई प्रकार की पूजा-विधियों का प्रचलन है।समयाचार आंतरिक साधना है। यह रुद्र कमल पर ध्यान लगाकार की जाती है। बौद्धों की महायान शाखा में वज्रयान साधना-पद्धति इसी से विकसित हुई है। इसमें अनिवार्य गुरु दीक्षा के बाद साधक गुरु आज्ञा से एकांत में रहकर ध्यानावस्थित होता है। इस साधना में मानस-दर्शन मुख्य है।  

3-क्या है बहिरंग और अंतरंग साधना?-
बहिरंग और अंतरंग साधना का संधिकेंद्र है–ध्यान। बहिरंग साधना के भीतर तीन प्रमुख तत्व हैं–शुद्धि, ध्यान और उपलब्धि। बिना शुद्धि के ध्यान की उपलब्धि नहीं, बिना ध्यान के सिद्धि की उपलब्धि नहीं। ध्यान के द्वारा ‘इष्ट’ के प्रति जो कुछ उपलब्ध् होता है, वह बहिरंग साधना की मूल संपत्ति समझी जाती है और उसीके आधार पर अंतरंग साधना का श्रीगणेश होता है।
बहिरंग साधना, उपासना, पूजा आदि जो कुछ है, वह सब ‘अपरा’ है। ध्यान की उपलब्धि होने पर अपरा ‘परा’ में बदल जाता है। यदि साधक की ध्यानयोग में गति और पूर्णता नहीं है तो सब कुछ व्यर्थ है। न किसी प्रकार की सिद्धि हो सकती है और न तो किसी प्रकार की बहिरंग साधना ही पुष्ट हो सकती है। अंतरंग साधना भूमि में तो प्रवेश करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
पूर्ण ध्यान की उपलब्धि ‘सहज समाधि’ है। इस अवस्था विशेष् में साधक का साध्य(इष्ट) से नित्य सम्बन्ध होता है। गीता का यही ‘सातत्य योग’ है। जबतक साधक और साध्य के बीच में साधन रहेगा, तबतक पूर्ण उपलब्धि संभव नहीं।तंत्र की बहिरंग साधना भूमि में पंचमकार(मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन) साधन का कार्य करते हैं। इसमें जो मदिरा है, वह ध्यानयोग की सिद्धि के निमित्त है, न कि नशे के लिए।
4-क्या है बहिरंग साधना दीक्षा?–
मानव शरीर की जितनी विशेषताएं हैं, उनमें एक यह भी है कि स्थूल शरीर के साथ अन्य शरीर भी दूध में जल की तरह मिले हुए विद्यमान रहते हैं। बहिरंग साधना तीन शरीरों द्वारा होती है–स्थूल शरीर, भाव शरीर और सूक्ष्म शरीर।स्थूल शरीर का केंद्र हृदय है। भाव शरीर का केंद्र नाभि है। ध्यान की सिद्धि और पूर्णता भाव शरीर में होती है तथा सहज समाधि की अवस्था प्राप्त होती है सूक्ष्म शरीर में। इन दोनों शरीरों का ज्ञान होना आवश्यक है।मन्त्र के अधिष्ठात्र देवता का दर्शन भाव शरीर द्वारा होता है। इसी प्रकार मंत्रबद्ध सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं का साक्षात्कार भी सूक्ष्म शरीर द्वारा ही होता है।जो बहिरंग साधना मार्ग के उच्च साधक हैं, वे भूत-प्रेत, पिशाच, पिशाचिनी, यक्ष, यक्षिणी आदि सूक्ष्म शरीरधारी शक्ति संपन्न आत्माओं को मंत्रशक्ति के द्वारा बांधकर उनसे अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा ही कार्य लेते हैं।इसी प्रकार ध्यानयोग के द्वारा भाव शरीर के माध्यम से देवताओं से साक्षात्कार करते हैं। बहुत से साधक ऐसे होते हैं कि तांत्रिक क्रियाओं द्वारा स्थूल शरीर को कुछ समय के लिए त्यागकर भाव शरीर या सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और उनके द्वारा अगम्य स्थानों की यात्रा करते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरे के शरीर में प्रवेश कर उसके भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में पूरी जानकारी कर लेते हैं।यह तंत्र की बड़ी ऊँची क्रिया पद्धति मानी जाती है। किन्तु जरा-सी चूक होने पर इसमें जान भी जा सकती है ।
5-क्या है अंतरंग साधना में दीक्षा?–
अंतरंग साधना में छः प्रकार की दीक्षा का क्रम है जिनमें प्रमुख है–शक्तिपात दीक्षा। साधक के बहिरंग साधना में पारंगत होने पर ही उसे अंतरंग साधना में प्रवेश मिलता है तभी वह शक्तिपात दीक्षा का अधिकारी बनता है।साधक के पूर्व संस्कार के अनुसार यथा समय सद्गुरु स्वयम् उपस्थित होकर यह दीक्षा प्रदान करते हैं। इसका सीधा सा तात्पर्य है कि सद्गुरु अपने अन्तर्चक्षुओं के माध्यम से अपने भावी शिष्य, उसके संस्कार और उसकी साधना प्रक्रिया पर दृष्टि रखे रहते हैं।शक्तिपात् दीक्षा के पूर्व सद्गुरु शिष्य के स्थूल शरीर को विशेष् तांत्रिक क्रिया द्वारा भाव शरीर और सूक्ष्म शरीर से अलग करते हैं और दोनों के साथ अपने भाव शरीर और सूक्ष्म शरीर का सम्बन्ध स्थापित करते हैं। इस क्रिया के बाद क्रम से दोनों शरीरों का अतिक्रमण कर मनोमय शरीर से तादात्म्य स्थापित करते हैं और उसी मनोमय शरीर में शक्तिपात् दीक्षा प्रदान करते हैं।तंत्र ने अपना द्वार सबके लिए खोल रखा है। तांत्रिक साधना मार्ग की भूमि में कोई भी अपना पद-चिन्ह अंकित कर सकता है। कोई भी वर्ण हो, कोई भी जाति हो, स्त्री हो या हो पुरुष , किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं। तंत्र की ओर बहुत-से लोगों के आकर्षित होने का यही एक मात्र कारण है। सच कहा जाय तो कलियुग में तंत्र साधना ही एकमात्र सफल होती है।इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी तंत्र साधना का अधिकारी बन सकता है। इस मार्ग में पात्रता होना सबसे महत्वपूर्ण है। यह कार्य गुरु का है कि वह योग्यतानुसार शिष्य की परीक्षा करे और उसके अनुसार तंत्र की दीक्षा देकर उसको इस मार्ग में प्रविष्टि दे। तांत्रिक साधना की परीक्षा अत्यन्त कठिन है। योग्य गुरु तरह-तरह से अपने शिष्य की परीक्षा लेता है और प्रत्येक दृष्टि से सफल होने पर ही उसे तंत्र की दीक्षा देता है।अंतरंग साधना यात्रा का प्रथम सोपान ‘सविकल्प समाधि’ है जो सहज समाधि का परिष्कृत रूप है।

6-क्या है सात प्रकार की साधना पद्धतिया ?-

 तंत्र शास्त्र के अंतर्गत  साधना क्षेत्र में तीन भावों तथा सात आचारों की विशिष्ट स्थिति होती है। पशुभाव, वीरभाव और दिव्यभाव ये तो तीन भावों के संकेत हैं। वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणचार, वामाचार, सिद्धांताचार और कौलाचार ये पूर्वोल्लिखित भावत्रय से संबद्ध सात आचार हैं। इनमें दिव्यभाव के साधक का संबंध कौलाचार से है..जब सम्पूर्ण प्रकार सिद्धि के पश्चात साधक स्वयं शिव तथा शक्ति के समान हो जाता हैं।।जो साधक द्वैतभावना का सर्वथा निराकरण कर देता है और उपास्य देवता की सत्ता में अपनी सत्ता डुबा कर अद्वैतानंद का आस्वादन करता है, वह तांत्रिक भाषा में दिव्य कहलाता है और उसकी मानसिक दशा दिव्यभाव कहलाती है। कौलाचार तांत्रिक आचारों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि यह पूर्ण अद्वैत भावना में रमनेवाले दिव्य साधक के द्वारा ही पूर्णत: गम्य और अनुसरणीय होता है।संप्रदाय भेद से तंत्र जगत के संबंध में अनेक प्रकार के मत प्रचलित हैं। इनमें वेदमार्गी, बौद्ध मार्गी, दक्षिणाचारी  मंत्रमार्गी भक्तिमार्गी और ज्ञानमार्गी प्रमुख हैं। भिन्न-भिन्न तंत्रों में दक्षिणा-चार, वीरा-चार तथा कुला-चार, इन तीन प्रकार के पद्धति या आचारों से शक्ति साधना करने का वर्णन प्राप्त होता हैं। शैव तथा शक्ति संप्रदाय के क्रमानुसार साधन मार्ग निम्नलिखित हैं।

 6-1-दक्षिणा-चार या पशु भाव) ;-

03 POINTS;-

 1-इसके अंतर्गत, वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार के कर्म निहित हैं जैसे, दिन में पूजन, प्रातः स्नान, शुद्ध तथा सात्विक आचार-विचार तथा आहार, त्रि-संध्या जप तथा पूजन, रात्रि पूजन का पूर्ण रूप से त्याग, रुद्राक्ष माला का प्रयोग, ब्रह्मचर्य इत्यादि नियम सम्मिलित हैं, मांस-मत्स्यादी से पूजन निषिद्ध हैं। ब्रह्मचर्य का पालन अत्यंत आवश्यक हैं, अथवा अपनी ही स्त्री में ही रत रहना ब्रह्मचर्य पालन ही समझा जाता हैं। पंच-मकार से पूजन सर्वथा निषिद्ध हैं, यदि कही आवश्यकता पड़ जाये तो उनके प्रतिनिधि प्रयुक्त हो सकते हैं। साधना का आरंभ पशु भाव से शुरू होता हैं, तत्पश्चात शनै-शनै साधक सिद्धि की ओर बढ़ता हैं। मनुष्य पशुओं में सर्वश्रेष्ठ तथा सोचने-समझने या बुद्धि युक्त है। जब तक मनुष्य के बुद्धि का पूर्ण रूप से विकास ना हो, वह पशु के ही श्रेणी में आता है। जिसकी जितनी बुद्धि होगी उसका ज्ञान भी उतना ही श्रेष्ठ होगा।

2- यहां पशु भाव से ही साधन प्रारंभ करने का विधान है, यह प्रारंभिक साधन का क्रम है, आत्म तथा सर्व समर्पण भाव उदय का प्रथम कारक पशु भाव क्रम से साधना करना है। यह भाव निम्न कोटि का माना गया है, स्वयं त्रिपुर-सुंदरी, श्री देवी ने अपने मुखारविंद से भाव चूड़ामणि तंत्र में पशु भाव को सर्व-निन्दित तथा सर्व-निम्न श्रेणी का बताया है। अपनी साधना द्वारा प्राप्त ज्ञान द्वारा जब अज्ञान का अन्धकार समाप्त हो जाता है, पशु भाव स्वतः ही लुप्त हो जाता है। शास्त्रों के अनुसार पशुत्व लक्षण आठ प्रकार से युक्त मानव स्वभाव लक्षणों या पाशों से है; 1. घृणा, 2. शंका, 3. भय, 4. लज्जा, 5. जुगुप्सा, 6. कुल, 7. शील तथा 8. जाति। यही अष्टपाश युक्त मानव लक्षण सर्वदा ही मनुष्य के आध्यात्मिक उन्नति हेतु बाधक माने गए हैं, तथा साधना पथ में त्याज्य हैं। पशु भाव साधना क्रम के अनुसार साधक इन्हीं लक्षणों या पाशों पर विजय पाने का प्रयास करता है। जो इन अष्ट-पाशों में से किसी एक से भी ग्रस्त है, मनोविकार युक्त है, वह सर्वदा, सर्व-काल तथा सर्व-व्यवस्था में साधना करने में समर्थ नहीं हो सकता। चित निर्मल हुए बिना, समदर्शिता तथा त्याग की भावना का उदय होना अत्यंत कठिन है, चित को निर्मल निर्विकार करने हेतु पशु भाव का त्याग अत्यंत आवश्यक है। पशु भाव से साधना प्रारंभ कर अष्ट पाशों, मनोविकार पर विजय पाकर ही साधक वीर-भाव में गमन का अधिकारी है। वस्तुतः पशु भाव युक्त साधना कर साधक इन अष्ट-पाशों या विकारों से मुक्त होने का प्रयास करता है।

 3-पशु भाव के अंतर्गत चार प्रकार के साधन पद्धतियों को समाहित किया गया हैं जो निम्नलिखित हैं।
 1-वेदाचार 2-वैष्णवाचार 3-शैवाचार 4-दक्षिणाचार।
1-वेदाचार : तंत्र के अनुसार सर्व निम्न कोटि की उपासना पद्धति वेदाचार हैं, जिसके तहत वैदिक याग-यज्ञादि कर्म विहित हैं।2-वैष्णवाचार : सत्व गुण से सम्बद्ध, सात्विक आहार तथा विहार, निरामिष भोजन, पवित्रता, व्रत, ब्रह्मचर्य, भजन-कीर्तन इत्यादि कर्म विहित हैं।
 3- शैवाचार : शिव तथा शक्ति की उपासना, यम-नियम, ध्यान, समाधि कर्म विहित हैं।
 4-दक्षिणाचार : उपर्युक्त तीनों पद्धतियों का एक साथ पालन करते हुए, मादक द्रव्यों का प्रयोग विहित हैं।

6- 2- वामा-चार या वीर भाव  ;-

03 POINTS;-

 इस पद्धति में शारीरिक पवित्रता स्नान-शौच इत्यादि का कोई बंधन नहीं हैं, साधक सर्वदा, सर्व स्थान पर जप-पूजन इत्यादि करने का अधिकारी हैं। मध्य या अर्ध रात्रि में पूजन तय प्रशस्त हैं, मद्य-मांस-मतस्य से देव पूजन, भेद-भाव रहित, सर्व वर्णों के प्रति सम दृष्टि तथा सम्मान इत्यादि निहित हैं। साधक स्वयं को शक्ति या वामा कल्पना कर साधना करता हैं।इस भाव तक आते-आते साधक! अष्ट-पाशों के कारण होने वाले दुष्परिणामों को समझने लगता है, परन्तु उनका पूर्ण रूप से वह त्याग नहीं कर पाता है, परन्तु करना चाहता है। इसी प्रकार पशु भाव से अपने देह तथा मन की शुद्धि करने के प्रयासरत साधक, वीर-भाव से साधना कर पाता है। वीर-भाव का मुख्य आधार केवल यह है कि साधक अपने आप में तथा अपने इष्ट देवता में कोई अंतर न समझे, तथा साधना में रत रहा कर अपने इष्ट देव के समान ही गुण-स्वभाव वाला बने। 

2-वीर-भाव बहुत ही कठिन मार्ग है, बिना गुरु आज्ञा तथा मार्गदर्शन के यह साधन हानिकारक ही होता है, इस मार्ग को कुल, वाम, कौल, वीरा-चार नाम से भी जाना जाता है। साथ ही साधक का दृढ़ निश्चयी भी होना अत्यंत आवश्यक है, किसी भी कारण इस मार्ग का मध्य में त्याग करना उचित नहीं है, अन्यथा दुष्परिणाम अवश्य प्रकट होते हैं। जिस साधक में किसी भी प्रकार से कोई शंका नहीं है, वह भय मुक्त है, निर्भीक है, निर्भय हो किसी भी समय कही पर भी चला जाये, लज्जा व कुतूहल से रहित है, वेद तथा शास्त्रों के अध्ययन में सर्वदा रत रहता है, वह वीर साधन करने का अधिकारी है। साधन के इस क्रम में मूल पञ्च-तत्व के प्रतीक पञ्च-तत्वों से साधना करने का विधान है, जिसे पञ्च-मकार नाम से जाना जाता है। पंच-मकार मार्ग समस्त प्रकार के वैभव-भोगो में रत रहते हुए, धीरे-धीरे त्याग का मार्ग है। 

3-इसी मार्ग का अनुसरण कर महर्षि वशिष्ठ ने, नील वर्णा महा-विद्या तारा की सिद्धि प्राप्त की थी। सर्वप्रथम, अपने पिता ब्रह्मा जी की आज्ञा से महर्षि वशिष्ठ ने देवी तारा की वैदिक रीति से साधना प्रारंभ की परन्तु सहस्त्र वर्षों तक कठोर साधना करने पर भी मुनि-राज सफल न हो सके। परिणामस्वरूप क्रोध-वश उन्होंने तारा मंत्र को श्राप दे दिया। तदनंतर दैवीय आकाशवाणी के अनुसार, मुनि राज ने कौल या कुलागम मार्ग का ज्ञान प्राप्त किया, तथा देवी के प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त कर, सिद्धि प्राप्त की।

 कुला-चार केवल साधन का एक मार्ग है, तथा इस मार्ग में प्रयोग किये जाने वाले इन पञ्च-तत्वों को केवल अष्ट-पाशों का भेदन कर, साधक को स्वतंत्र-उन्मुक्त बनाने हेतु प्रयोग किया जाता है। साधक इन समस्त तत्वों का प्रयोग अपनी आत्म-तृप्ति हेतु नहीं कर सकता,  साधक केवल अपने इष्ट देवता को समर्पित कर ग्रहण करने का अधिकारी है, यह केवल उपासना की सामग्री है, उपभोग की नहीं। अति-प्रिय होने पर भी, इन तत्वों से साधक किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रख सकता है, यह ही साधक के साधना की चरम पराकाष्ठा है।वीर-साधना या शक्ति साधना का मुख्य उद्देश्य शिव तथा समस्त जीवों में ऐक्य प्राप्त करना है। यहाँ मानव देह देवालय है तथा आत्म स्वरूप में शिव इसी देवालय में विराजमान है, अष्ट पाशों से मुक्त हुए बिना देह में व्याप्त सदा-शिव का अनुभव संभव नहीं है। शक्ति साधना के अंतर्गत पशु भाव, वीर-भाव जैसे साधन कर्मों का पालन कर मनुष्य सफल योगी बन पाता है।  

 6-3-सिद्धान्ताचार या दिव्य  भाव:-

 इसी पद्धति या आचार के साधन काल में 'शुद्ध बुद्धि' का उदय होता हैं । अपने अन्दर साधक शिव तथा शक्ति का साक्षात् अनुभव कर पाने में समर्थ होता हैं। संसार की प्रत्येक वस्तु या तत्व, साधक को शुद्ध तथा परमेश्वर या परमशिव से युक्त या सम्बंधित हैं, अहंकार, घृणा, लज्जा इत्यादि पाशों का पूर्ण रूप से त्याग कर देता हैं। अंतिम स्थान कौलाचार /राज-योग ही हैं। साधक साधना के सर्वोच्च स्थान को प्राप्त कर लेता हैं। इस स्तर तक पहुँचने पर साधक सोना और मिट्टी में, श्मशान तथा गृह में, प्रिय तथा शत्रु में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं रखता हैं, उनके निमित्त सब एक हैं, उसे अद्वैत ज्ञान की प्राप्ति हो जाती हैं।
क्या पञ्च मकारों जैसे भौतिक तत्वों का प्रयोग साधना में करना चाहिए ?- 

02 FACTS;- 
1-अनेक प्राचीन तांत्रिक ग्रन्थों के अनुसार वशिष्ठ ने अनार्य तंत्रों से प्रभावित होकर पंचमकार की विशिष्ट पद्धति का प्रचार किया था।जिनमें पांच ऐसे तत्वों की गणना है जिनका प्रथम अक्षर ‘म’ है और इसीलिये इन्हें ‘मादितत्व’ भी कहा जाता है।कौलाचार के मूल ग्रन्थ ‘कुलार्णवतंत्र’ में इन पांचों को समझाया गया है–''हे देवि ! मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन –ये पांचों देवता को प्रसन्न करने वाले कारक हैं। ये उपासना के लिए परम आवश्यक हैं। यदि इनके बिना कोई साधना करता है तो उसकी साधना निष्फल जाती है।श्रीविद्या के उपासक ‘समयाचार’ के मतावलंबी साधक इन पांचों तत्वों का प्रत्यक्ष प्रयोग न कर उनकी कल्पना कर लेते हैं अथवा उनके स्थान पर वे किसी अन्य वस्तु का प्रयोग प्रतीक के रूप में करते हैं।महानिर्वाण तंत्र, कुलार्णव तंत्र, योगिनी तंत्र, शक्ति-संगम तंत्र आदि तंत्रों में पंचमकार के विकल्प या रहस्यवादी अर्थ कर दिए हैं। जैसे मांस के लिए लवण, मत्स्य के लिए अदरक, मुद्रा के लिए चर्वनिय द्रव्य, मद्य के स्थान पर दूध, शहद, नारियल का पानी, मैथुन के स्थान पर साधक का समर्पण या कुंडलिनी शक्ति का सहस्त्रार में विराजित शिव से मिलन।  

2-इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता है। यदि ये पांचों  तत्व भौतिक ही हैं तो इनके प्रत्येक के साथ ‘गोपनीय’ और ‘रहस्यमय’ शब्द क्यों लगाये गए हैं और यदि इनका अर्थ सामान्य अर्थ में किया गया है तो इस मार्ग पर चलना अत्यन्त कठिन क्यों कहा गया है ?‘कुलार्णव तंत्र’ कहा गया है ''यदि मदिरा पान करने से मनुष्य को सिद्धि प्राप्त होने लगे तो फिर मदिरा सेवन करने वाले सभी गवांर सिद्धि को प्राप्त कर ही लेंगे। यदि मांस भक्षण करने से ही लोगों की पुण्यगति हो जाये तो इस लोक में सभी मांसाहारी पुण्य के भागी हो जायेंगे। इसी प्रकार मैथुन से  किसी को भी मोक्ष प्राप्त होता हो तो इस संसार में कोई ऐसा जीव या प्राणी नहीं रहेगा जिसको मोक्ष उपलब्ध् न हो जाये।इस प्रकार ‘कुलार्णव तंत्र’ में स्पष्ट उल्लेख होने के कारण हमें यह मानना पड़ेगा ये पञ्च मकार कोई भौतिक तत्व न होकर किसी आतंरिक तथ्य की ओर संकेत करते हैं।ये आतंरिक तथ्य पूर्णतया यौगिक और रहस्यमय हैं।

क्या है पंचमकार का यौगिक रूप?–

05 FACTS;- 
1-मद्य(मदिरा);–

02 POINTS;-
 1-इन पञ्च मकारों में सबसे पहले ‘मद्य’ का नाम् आता है जो साधारण मदिरा न होकर उससे करोड़ों गुना अधिक आनंद प्रदान करने वाला होता है। इसमें प्रत्यक्ष मदिरा का कोई स्थान नहीं है।''इस मद्य(सुरा) का तात्पर्य ब्रह्मरंध्र में स्थित सहस्रदल कमल से अनवरत नि:स्यन्दमान अमृत से है। इस मद्य के सेवन की बात छोड़िए, मात्र दर्शन से ही सूर्य मण्डल का अवलोकन होता है और इसके सेवन करने से साधक के प्राणों का विस्तार हो जाता है और वह सूर्यलोक में संचरण करने लग जाता है।इसलिए साधक को इसी सुधारूपी मद्य से अपने पात्र को भरना चाहिए। यह मद्य गुरुकृपा से देवता को प्रसन्न करने के लिए साधक को प्राप्त होता है जिसका पान उसे अविचलित मन से करना चाहिए।इस मद्य के आनन्द में इच्छाशक्ति पाने में, ज्ञानशक्ति स्वाद में, क्रियाशक्ति उल्लास में पराशक्ति का निवास रहता है। यह मद्य मायाजाल का नाश करता है, मोक्षमार्ग का निरूपण करता है। सभी प्रकार के दुखों का शमन करता है। इस मद्य का पान योगी लोग ही कर सकते हैं।हमें चाहिए कि ऐसे योगी  का हम उपहास न करें। साथ ही साधक को भी चाहिए कि वह अपने किसी भी चक्र के रहस्यमय आनंद को कभी बाहर प्रकट न करे। 2-संयमी साधक इस चक्र में स्थित होकर अपने कुल देवता का स्मरण करे। इस चक्र में स्थित आनंद का वर्णन कुलार्णव तंत्र करता है–''दिव्य मद्यपान करने में रत योगियों का आनंद निश्चय ही चक्रवर्ती सम्राट को भी उपलब्ध् नहीं हो पाता''।
मदिरा में तीन तत्वों का समावेश होता है। वे तीन तत्व हैं–‘पृथ्वीतत्व’, ‘जलतत्व’ और ‘अग्नितत्व’। इन तीनों तत्वों के गुणों को अपने में समेटने वाली मदिरा के सही और उचित ढंग से तंत्र क्रिया में साधन के रूप में उपयोग करने से साधक का सूक्ष्म शरीर उसके स्थूल शरीर से पृथक हो जाता है।सहज समाधि की अवस्था प्राप्त होने पर ‘साधनरूप मदिरा-ग्रहण’ समाप्त हो जाता है। उसके स्थान पर ‘योगमदिरा’ को स्वीकार कर अंतरंग भूमि में प्रवेश किया जाता है जिसका प्रवेश द्वार सहज समाधि की पूर्व अवस्था है और यहीं से तंत्र की अंतरंग साधना शुरू हो जाती है जो पूर्णतया योगपरक और आध्यात्मिक है।
2-मांस;–

02 POINTS;-
1-तांत्रिक साधना में ‘मद्य’ की तरह ‘मांस’ का सेवन करने का विधान है। लेकिन यह ‘मांस’ क्या वही मांस है जिसका सेवन आमतौर पर लोग करते हैं ? नहीं, ये मांस अलग है। इसका अर्थ अलग है।इसका आशय है-प्रिय। कल्याणकारी होने के कारण, अमृत स्वरूप आनन्द प्रदान करने के कारण और सभी देवताओं का प्रिय होने के कारण उसका नाम ‘मांस’ है।क्या ये सारे गुण साधारण मांस में मिलते हैं ?नहीं, यद्यपि ‘पाशुपत’ मत के अनुसार ‘पशु’ शब्द का अर्थ जीव से लिया गया है, लेकिन यहाँ पशु का अर्थ ‘पाप-पुण्य भाव रूपी पशु’ से लिया गया है। हमारे ह्रदय में जो भी भाव होते हैं, तंत्र उन्हें पशुभाव मानता है। तंत्र में पुण्य और पाप को महत्त्व न देकर भाव रहित अवस्था को श्रेष्ठ माना गया है।जब तक साधक के मन में पाप या पुण्य के भाव का अस्तित्व है, तब तक वह पशु की श्रेणी में है। ऐसे ही अज्ञानरूपी पशु को ज्ञानरूपी खड्ग से मारकर मांस भक्षण करना मांसाहार के सामान है। कुलार्णव तंत्र में कहा गया है–हे देवि ! ज्ञानरूपी खड्ग के द्वारा पुण्य और पापरूूपी पशुओं का हनन करने वाला और अपने मन को पर(ब्रह्म) में लीन करने वाला साधक ही वास्तव में मांसाहारी है। केवल वही योग के ज्ञाता साधक मांसाहारी कहे जा सकते हैं जो सभी इंद्रियों का मन के द्वारा संयोजन करके आत्मा में उन्हें प्रविष्ट करा देते हैं।
2-भगवान् शिव भगवती शक्ति को तन्त्र के रहस्य को समझाते हुए आगे कहते हैं ''हे प्रिये !–पूर्णरूपेण अर्थ समझें बिना इन पञ्च मकारों में मांस आदि का भौतिक रूप से सेवन करने वाले साधक बहुत बड़ी भूल करते हैं।''हे प्रिये ! अपने प्रयोजन के लिए प्राणियों की हिन्सा की बात तो दूर, एक तिनके की नोक से छेदकर भी किसी को कष्ट नहीं देना चाहिए''।जहाँ हमारे तंत्र ग्रंथों में अहिंसा की इतनी उच्च भावना उल्लिखित हो, वहां मांस खाने के लिए पर जीव की हिंसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता।फिर ये मद्य, मांस आदि की बात तांत्रिक परंपरा में कहाँ से प्रवेश कर गयी ?इसका सीधा सा उत्तर है कि जिस प्रकार से महर्षि वशिष्ठ ने तंत्र की विधा को अपनाया था लेकिन उन्होंने अपनी ऋषि परंपरा और उसकी मर्यादा का ध्यान रखकर उसमें आर्य तत्वों का समावेश कर सुधार कर लिया। लेकिन ऐसे कितने वशिष्ठ थे जो आर्य अनुकूल मार्ग पर चले ?शायद उनके अनेक   समसामयिक साधकों ने उन्हीं अनार्य तांत्रिक क्रियाओं का पालन किया। वास्तव में, अच्छाई की तुलना में बुराई शीघ्र फैलती है, इसका भी वही परिणाम हुआ जो बाद के वर्षों में देखा गया।
3-मत्स्य;- 
तीसरा साधन है–‘मत्स्य’ या ‘मीन’ जिसका अर्थ है–मछली। तंत्रों में बहुत से संकेत अधिकांशतया रूपकों पर आधारित हैं। मत्स्य शब्द का भी यहाँ रूपक के अर्थ में ही प्रयोग हुआ है।''यहाँ गंगा और यमुना शरीर में स्थित ‘इड़ा’ और ‘पिंगला’ दोनों नाड़ियाँ हैं। उन मत्स्यों का सेवन करने वाला अर्थात् प्राणायाम के द्वारा श्वास-प्रश्वास को ‘सुषुम्ना’ नाड़ी के भीतर संचालित कर लेने वाला साधक ही वास्तव में मत्स्य सेवी है''।
4-मुद्रा;- 

02 POINTS;-
1-मादितत्व के विचार क्रम में साधारणतया ‘मुद्रा’ से अभिप्राय एक विशिष्ट शारीरिक क्रिया से लिया जाता है।तंत्र में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत आदि चक्रों के साथ साथ ‘खेचरी’ आदि मुद्राएं तथा पूरक, कुम्भक ,रेचक आदि प्राणायामों की विवेचना है जो योगदर्शन की कर्तव्य मीमांसा में दिखाई देती है। परंतु यहाँ मुद्रा का एक दूसरा ही अर्थ है जिसका प्रमाण ‘विजय तंत्र’ के एक श्लोक से मिलता है–''संत्सगति के प्रभाव से मुक्ति प्राप्त होती है और कुसंगति के प्रभाव से नाना प्रकार के मोह-माया आदि बन्धन प्राप्त होता है। इसी कुसंगति के त्याग का नाम ‘मुद्रा’ है। इस प्रकार ‘मुद्रा’ से तात्पर्य ‘असत्संग का परित्याग’ है''।लोग वेद, पुराण, शास्त्र, उपनिषद, दर्शन, इतिहास आदि सब कुछ पढ़ लेते हैं। कंठस्थ भी कर लेते हैं। संतुष्ट भी हो जाते हैं। अपने आप को परम ज्ञानी भी समझने लगते हैं। लेकिन रहते हैं पहले जैसे ही। उनका बाहरी व्यक्तित्व तो अवश्य बदल जाता है, लेकिन आतंरिक स्थिति पहले जैसी ही रहती है।उनका ज्ञान उनके आतंरिक स्वरूप को परिवर्तित नहीं कर पाता है।
2-लेकिन तंत्र ऐसा नहीं है। वह न वेद है, न शास्त्र है, न पुराण है, न उपनिषद है, न तो है कोई दर्शन ही। वह तो क्रियापरक विधि का प्रकृष्ट परम विज्ञान है। उसकी भाषा क्रिया और विधि की भाषा है।भौतिक विज्ञान की तरह देश-काल के अनुसार उसके नियम, सिद्धान्त, क्रिया और विधियां बदलती नहीं। हर युग में, हर काल में और हर अवस्था में एक सी रहती हैं। इसीलिए वह प्रकृष्ट विज्ञान है। वह सर्वव्यापिनी महाशक्ति का विज्ञान है। जिसकी उपयोगिता क्रिया में है, इसीलिए वह गुह्य और गोपनीय है।वेद और तंत्र भारतीय साधना-संस्कृति के मूल तत्व हैं। वेद परम ज्ञान है और तंत्र है–गुह्य ज्ञान। यह योग्य और संस्कार संपन्न लोगों के लिए है। शुभ संस्कार के उदय होने पर तंत्र में रूचि जाग्रत होती है।उच्च संस्कारों के उदय होने पर सद्गुरु के दर्शन होते हैं। उच्चतम संस्कार के जागने पर सद्गुरु के मार्गदर्शन से सिद्धिलाभ होता है। फिर सिद्धिलाभ के परे है–महाशक्ति का करुणामय अनुग्रह का उपलब्ध् होना।यह करुणामय अनुग्रह ही साधक की सबसे बड़ी परम संपत्ति है और यह परम संपत्ति ही परम कल्याणकारी है।सच तो यह है कि तब साधक स्वयम् माँ महामाया जगज्जननी का साकार रूप हो जाता है। 
5-मैथुन–
तंत्र के कौलाचार में पांचवां और अंतिम मकार है–‘मैथुन’।भगवान शंकर माँ पार्वती से कह रहे है कि 'हे देवि ! वह व्यक्ति जो विषयों में ही केवल आसक्त होता है, उसका पतन होता है, इसमें कोई संशय नहीं है'। जो कौलाचारी साधक अपने आचार का उल्लघन करता है, वह पतित हो जाता है।तंत्र के अनुसार अत्यन्त मजबूत लोहे के पाशों से  बद्ध मनुष्य भी मुक्त हो सकता है, परंतु स्त्री, धन आदि में आसक्त मनुष्य कभी मुक्त नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, जितनी भी स्त्रियां हैं, सभी कौलाचारियों के लिए माँ के समान हैं। उनके मन में जरा भी विषय विकार आने पर कुल योगिनियां उसका सर्वनाश कर देती हैं। मैथुन’ पञ्च मकार के रहस्य को समझाते हुए तंत्र कहता है कि आत्मा और पराशक्ति के संयोग से उत्पन्न आनन्द के आस्वादन का नाम ‘मैथुन’ है। इसके विपरीत अर्थ का प्रयोग करने वाले मात्र ‘स्त्री सेवक’ हैं, कौलाचारी नहीं।यह सिद्धि बिना विषयवासना पर विजय प्राप्त किये हो ही नहीं सकती। कामवासना को जीतना परम आवश्यक माना गया है।सहस्रार में स्थित शिव और कुंडलिंनी अथवा प्राण और सुषुम्ना का मिलन का नाम ही  'मैथुनं’ है। शास्त्रों के निर्देश को ताख पर रखकर जो साधक अनैतिक आचरण करता है, उसे सिद्धि तो दूर की बात रही, नरक गामी बनना पड़ता है।
NOTE;-

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कौलाचार के ये पांचों मकार अंतर्योग से सम्बंधित हैं। इनको भौतिक अर्थ में ग्रहण करना भारी भूल है।

.....SHIVOHAM....

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

क्या है आदि शंकर द्वारा लिखित ''सौंदर्य लहरी''की महिमा

?     ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥  अर्थ :'' हे! परमेश्वर ,हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों  (गुरू और शिष्य) को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए। हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें। हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो। हम दोनों परस्पर द्वेष न करें''।      ''सौंदर्य लहरी''की महिमा   ;- 17 FACTS;- 1-सौंदर्य लहरी (संस्कृत: सौन्दरयलहरी) जिसका अर्थ है “सौंदर्य की लहरें” ऋषि आदि शंकर द्वारा लिखित संस्कृत में एक प्रसिद्ध साहित्यिक कृति है। कुछ लोगों का मानना है कि पहला भाग “आनंद लहरी” मेरु पर्वत पर स्वयं गणेश (या पुष्पदंत द्वारा) द्वारा उकेरा गया था। शंकर के शिक्षक गोविंद भगवदपाद के शिक्षक ऋषि गौड़पाद ने पुष्पदंत के लेखन को याद किया जिसे आदि शंकराचार्य तक ले जाया गया था। इसके एक सौ तीन श्लोक (छंद) शिव की पत्नी देवी पार्वती / दक्षिणायनी की सुंदरता, कृपा और उदारता की प्रशंसा करते हैं।सौन्दर्यलहरी/शाब्दिक अर्थ सौन्दर्य का

क्या हैआदि शंकराचार्य कृत दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्( Dakshinamurti Stotram) का महत्व

? 1-दक्षिणामूर्ति स्तोत्र ;- 02 FACTS;- दक्षिणा मूर्ति स्तोत्र मुख्य रूप से गुरु की वंदना है। श्रीदक्षिणा मूर्ति परमात्मस्वरूप शंकर जी हैं जो ऋषि मुनियों को उपदेश देने के लिए कैलाश पर्वत पर दक्षिणाभिमुख होकर विराजमान हैं। वहीं से चलती हुई वेदांत ज्ञान की परम्परा आज तक चली आ रही  हैं।व्यास, शुक्र, गौड़पाद, शंकर, सुरेश्वर आदि परम पूजनीय गुरुगण उसी परम्परा की कड़ी हैं। उनकी वंदना में यह स्त्रोत समर्पित है।भगवान् शिव को गुरु स्वरुप में दक्षिणामूर्ति  कहा गया है, दक्षिणामूर्ति ( Dakshinamurti ) अर्थात दक्षिण की ओर मुख किये हुए शिव इस रूप में योग, संगीत और तर्क का ज्ञान प्रदान करते हैं और शास्त्रों की व्याख्या करते हैं। कुछ शास्त्रों के अनुसार, यदि किसी साधक को गुरु की प्राप्ति न हो, तो वह भगवान् दक्षिणामूर्ति को अपना गुरु मान सकता है, कुछ समय बाद उसके योग्य होने पर उसे आत्मज्ञानी गुरु की प्राप्ति होती है।  2-गुरुवार (बृहस्पतिवार) का दिन किसी भी प्रकार के शैक्षिक आरम्भ के लिए शुभ होता है, इस दिन सर्वप्रथम भगवान् दक्षिणामूर्ति की वंदना करना चाहिए।दक्षिणामूर्ति हिंदू भगवान शिव का एक

पहला मेंढक जो अंडे नहीं बच्चे देता है

वैज्ञानिकों को इंडोनेशियाई वर्षावन के अंदरूनी हिस्सों में एक ऐसा मेंढक मिला है जो अंडे देने के बजाय सीधे बच्चे को जन्म देता है. एशिया में मेंढकों की एक खास प्रजाति 'लिम्नोनेक्टेस लार्वीपार्टस' की खोज कुछ दशक पहले इंडोनेशियाई रिसर्चर जोको इस्कांदर ने की थी. वैज्ञानिकों को लगता था कि यह मेंढक अंडों की जगह सीधे टैडपोल पैदा कर सकता है, लेकिन किसी ने भी इनमें प्रजनन की प्रक्रिया को देखा नहीं था. पहली बार रिसर्चरों को एक ऐसा मेंढक मिला है जिसमें मादा ने अंडे नहीं बल्कि सीधे टैडपोल को जन्म दिया. मेंढक के जीवन चक्र में सबसे पहले अंडों के निषेचित होने के बाद उससे टैडपोल निकलते हैं जो कि एक पूर्ण विकसित मेंढक बनने तक की प्रक्रिया में पहली अवस्था है. टैडपोल का शरीर अर्धविकसित दिखाई देता है. इसके सबूत तब मिले जब बर्कले की कैलिफोर्निया यूनीवर्सिटी के रिसर्चर जिम मैकग्वायर इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप के वर्षावन में मेंढकों के प्रजनन संबंधी व्यवहार पर रिसर्च कर रहे थे. इसी दौरान उन्हें यह खास मेंढक मिला जिसे पहले वह नर समझ रहे थे. गौर से देखने पर पता चला कि वह एक मादा मेंढक है, जिसके