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क्या हैं सातों शरीर के स्वप्नों के आयाम

 

सातों  शरीर और सात चक्र;- 


1-फिजिकल बॉडी/ भौतिक शरीर>>> मूलाधार चक्र


2-भाव शरीर/ इमोशन बॉडी>>> स्वाधिष्ठान चक्र  


3- कारण शरीर/एस्ट्रल बॉडी>>>मणिपुर चक्र  


4-मेंटल बॉडी /मनस शरीर >>>अनाहत चक्र


5-स्पिरिचुअल बॉडी/आत्म शरीर>>> विशुद्ध चक्र


6- कास्मिक बॉडी/ब्रह्म शरीर>>>आज्ञा चक्र


7-बॉडीलेस बॉडी/ निर्वाण काया>>>सहस्रार चक्र


सातों  शरीर के स्वप्नों के   आयाम;-

07 FACTS;- 


1-भौतिक शरीर ;-


02 POINTS;-

1-अगर तुम अस्वस्थ हो, अगर तुम ज्वरग्रस्त हो तो भौतिक शरीर अपनी तरह से स्वप्न निर्मित करेगा। भौतिक रुग्णता अपना अलग स्वप्न-लोक निर्मित करती है इसलिए भौतिक स्वप्न को बाहर से निर्मित किया जा सकता है।अगर तुम्हारा पेट गड़बड़ है तो एक विशेष प्रकार का स्वप्न निर्मित होगा। तुम नींद में हो अगर तुम्हारे  Legs पर एक भीगा कपड़ा रख दिया जाए तो तुम स्वप्न देखने लगोगे। तुम्हें दिख सकता है कि तुम एक नदी पार कर रहे हो। अगर तुम्हारे सीने पर तकिया रख दिया जाए तो तुम स्वप्न देखने लगोगे कि कोई तुम्हारे ऊपर बैठा है या कोई पत्थर तुम पर गिर पड़ा है। ये स्वप्न भौतिक शरीर से पैदा होते हैं।


2-तुम्हारे भौतिक शरीर के पास सत्य को जानने का उपाय है और इसके बारे में स्वप्न देखने का भी। जब तुम भोजन करते हो, तो यह वास्तविकता है। किंतु जब तुम स्वप्न देखते हो कि तुम भोजन कर रहे हो तो यह वास्तविकता नहीं है बल्कि यह वास्तविक भोजन का एक विकल्प है । भौतिक शरीर की अपनी वास्तविकता है और स्वप्न देखने की अपनी विधि है। ये दो ढंग हैं, जिनसे भौतिक शरीर कार्य करता है। और ये दोनों ढंग एक-दूसरे से पूर्णत: भिन्न हैं।तुम जितना अधिक केंद्र की ओर

 जाओगे वास्तविकता और स्वप्नों की ये रेखाएं एक-दूसरे के निकट और निकटतर होती चली जाएंगी ।वैसे ही जैसे कि किसी वृत्त की परिधि/ Circumference से वृत्त के केंद्र की ओर खींची गई रेखाएं जैसे-जैसे तुम केंद्र के निकट जाते हो  पास आने लगती हैं। अगर तुम परिधि /बाहर की ओर जाओ तो वे दूर और एक-दूसरे से बहुत दूर होती जाती हैं। जहां तक भौतिक शरीर का संबंध है, स्वप्न और सत्य बहुत दूर हैं और उनके बीच की दूरी सर्वाधिक है। इसलिए स्वप्न असत्य हो जाते हैं.. कल्पना बन जाते हैं।

2-भाव शरीर;-


06 POINTS;-

1-दूसरा भाव शरीर–अपने ढंग के स्वप्न देखता है। भाव शरीर के इन स्वप्नों ने अनेक उलझनें और समस्याएं निर्मित कर 

दी हैं।फ्रायड उन्हें दमित इच्छाओं के रूप में समझता है। ये वे स्वप्न हैं जो भौतिक इच्छाओं के दमन से संबंधित हैं लेकिन वे भी पहले  भौतिक शरीर से संबंधित हैं।दूसरा भाव शरीर, इन मनोवैज्ञानिक खोजों से अछूता रह गया है, या इसे भी भौतिक शरीर के रूप में अभिव्यक्त करता है। अगर तुमने अपनी  इच्छाओं का  किया है ..उदाहरण के लिए अगर तुमने उपवास किया है—तो स्वप्न में इस बात की बहुत संभावना है कि तुम्हें कुछ नाश्ता दिखाई पड़े।  

2-भाव शरीर स्वप्नों में यात्रा कर सकता है। इस बात की पूरी संभावना है कि तुम्हारे भौतिक शरीर से तुम्हारा भाव शरीर बाहर निकल जाए। लेकिन जब तुम इसे याद करते हो, तो यह स्वप्न के रूप में याद आता है। लेकिन यह उन अर्थों में स्वप्न नहीं है जिस तरह भौतिक शरीर के स्वप्न हैं। जब तुम सोए हुए होते हो, तो भाव शरीर तुमसे बाहर जा सकता है। तुम्हारा भौतिक शरीर यहीं पर होगा, लेकिन तुम्हारा भाव शरीर बाहर जा सकता है और आकाश में यात्रा कर सकता है। इसके लिए समय और स्थान की कोई सीमा नहीं है। इसके लिए दूरी का भी कोई प्रश्न नहीं है। वे लोग जो इसे नहीं समझते हैं, ऐसा कह सकते हैं कि यह अचेतन का आयाम है, क्योंकि वे मनुष्य के मन को चेतन और अचेतन में बांटते हैं। भौतिक शरीर के स्वप्न चेतन बन जाते हैं, भाव शरीर के स्वप्न अचेतन।

3-भाव शरीर के स्वप्न अचेतन नहीं हैं। ये उतने ही चेतन हैं जितने भौतिक शरीर के स्वप्न लेकिन एक अन्य तल, अलग स्तर पर चेतन हैं। इसलिए अगर तुम अपने भाव शरीर के प्रति चेतन हो सको, तो उस आयाम के स्वप्न चेतन बन जाते हैं।

और जैसे भौतिक स्वप्नों को बाहर से निर्मित किया जा सकता है वैसे ही भाव शरीर के स्वप्न भी बाहर से उद्दीपित, निर्मित किए जा सकते हैं। और  उनमें से एक उपाय है  'मंत्र'... जिससे भाव-दृश्य निर्मित किए जा सकते हैं। एक विशेष मंत्र, ध्वनि का एक विशेष संयोजन ..भाव शरीर के भाव  स्वप्न निर्मित कर सकता है। एक विशेष ध्वनि / शब्द का भाव-केंद्र पर बार-बार उच्चार किया जाए तो भाव शरीर के स्वप्न निर्मित कर सकता है। इसलिए अपने शिष्यों के सम्मुख गुरुओं का प्रकट हो जाना केवल   ..भाव शरीर की यात्रा, भाव शरीर का स्वप्न है।

4-अनेक विधियां हैं जिसमे  ध्वनि और सुगंध भी एक उपाय है।एक विशेष सुगंध किसी विशेष स्वप्न को निर्मित कर सकती है। सूफियों ने भाव-दृश्य निर्मित करने के लिए सुगंध का उपयोग किया है। मोहम्मद साहब सुगंध के बहुत शौकीन थे।रंग से भी 

 सहायता मिल सकती है।  शरीर का आभामंडल…प्रत्येक व्यक्ति का एक विशिष्ट आभामंडल होता है, और उसके रंग ..भाव शरीर के आयाम से आते हैं। जब कोई ध्यान में गहरा उतरता है और अदभुत रंगों को देखता है, और अदभुत सुगंधों का और ध्वनियों का और संगीत का अनुभव करता है जो नितांत अज्ञात हैं, तो वे भी भाव शरीर के स्वप्न है। लेकिन हमने मन के रहस्यों को केवल एक शारीरिक तल पर खोजा है; इसलिए इन स्वप्नों को या तो शरीर के तल पर परिभाषित किया गया या उनकी उपेक्षा कर दी गई ।

5- ‘चेतन’ का अभिप्राय है, वह जो जाना हुआ है। ‘अचेतन’ का अभिप्राय है वह जो अभी तक नहीं जाना गया है, अज्ञात है।

 कुछ भी अचेतन नहीं है किंतु वह प्रत्येक चीज जो किसी गहरे तल पर चेतन है, अपने से पिछले तल पर अचेतन होती है। भौतिक शरीर के लिए भाव शरीर अचेतन है; भाव शरीर के लिए सूक्ष्म शरीर अचेतन है ;सूक्ष्म शरीर के लिए मनस शरीर अचेतन है।सूक्ष्म शरीर के स्वप्नों में तुम अपने पिछले जन्मों में जा सकते हो। यह तुम्हारे स्वप्नों का तीसरा आयाम है। कभी-कभी किसी सामान्य स्वप्न में भी भाव स्वप्न का या सूक्ष्म स्वप्न का अंश हो सकता है। तब वह स्वप्न एक उलझन बन जाता है ..उसे समझना असंभव हो जाता है।क्योंकि तुम्हारे सातों शरीर एक साथ अस्तित्व में हैं, और एक आयाम से कोई चीज दूसरे की सीमा रेखा को पार कर सकती है, प्रवेश कर सकती है या अतिक्रमण कर सकती है।


 6-लेकिन भाव शरीर में वास्तविकता और स्वप्न और पास आ जाते हैं। क्या वास्तविक है और क्या स्वप्न है ..यह जानना भौतिक शरीर की तुलना में भाव शरीर में अधिक कठिन है क्योंकि वे निकट आ गए हैं। किंतु फिर भी अंतर जाना जा सकता है।

 स्वप्न देखने के लिए तुम्हारा नींद में होना जरूरी है और वास्तविक की अनुभूति के लिए तुम्हें जागा हुआ होना चाहिए।  


अंतर जानने के लिए तुम्हें भाव शरीर के तल पर जाग्रत होना पड़ेगा अथार्त Highly Sensitive होना पड़ेगा। दूसरे शरीर के तल पर जागने की विधियां भी हैं। मंत्र की पुनरुक्ति की विधि, जप की विधि और आंतरिक  कार्यप्रणाली तुम्हें बाहर के संसार से अलग कर देती है। तुम एक भीतरी वर्तुल में होते हो  और घूमते ही रहते हो, तुम्हें बाहर के संसार से कुछ समय के अवकाश की जरूरत होती है।यह सतत  मंत्र जप एक सम्मोहित निद्रा पैदा कर सकती है। अगर तुम इस मंत्र जप के कारण 

सो जाते हो तो तुम स्वप्न देखोगे।किंतु अगर तुम अपने जप  के प्रति बोधपूर्ण रह सको और इससे तुम पर कोई सम्मोहक प्रभाव न पड़े तो  भाव शरीर   से सम्बंधित  वास्तविकता को जानोगे।

3-सूक्ष्म शरीर;-  

04 POINTS;-

1-सूक्ष्म शरीर के तीसरे शरीर के स्वप्नों में तुम न केवल आकाश में यात्रा कर सकते हो बल्कि समय में भी यात्रा कर सकते हो। पहले भौतिक शरीर के स्वप्नों में तुम न तो समय में यात्रा कर सकते हो और न आकाश में। तुम अपनी भौतिक अवस्था और अपने विशिष्ट समय तक ही सीमित हो–जैसे कि रात ग्यारह बजे। यह ग्यारह  बजे का समय तय है, एक विशेष कमरे में /एक फिजियोलॉजिकल स्थान में जो तुमने घेर रखा है ..तुम स्वप्न देख सकते हो, लेकिन इनके पार नहीं। भाव शरीर  में तुम आकाश में यात्रा कर सकते हो, किंतु समय में नहीं। तुम यहां पर सो रहे हो और किसी अन्य स्थान में हो सकते हो–यह आकाश में यात्रा है किंतु समय में नहीं। अभी भी रात के ग्यारह ही बजे हैं। तीसरे, सूक्ष्म शरीर में तुम समय के अवरोध का अतिक्रमण कर सकते हो लेकिन केवल अतीत की ओर, भविष्य की ओर नहीं। सूक्ष्म मन अतीत में जा सकता है अथार्त अतीत की पूरी अनंत श्रृंखला में, अमीबा से  मनुष्य तक–संपूर्ण प्रक्रिया में।

 2-मनोविज्ञान में पहले को चेतन दूसरे को अचेतन और तीसरे को सामूहिक अचेतन कहा जाता है। यह सामूहिक अचेतन   तुम्हारे जन्मों का निजी इतिहास है। कभी-कभी यह सामान्य स्वप्नों में प्रविष्ट हो जाता है, लेकिन ऐसा अक्सर बीमारी की अवस्था में होता है। स्वस्थ व्यक्ति के साथ यह नहीं होता। कोई व्यक्ति जो मानसिक रूप से रुग्ण है, उसमें ये तीनों मिले-जुले होते हैं।  बीमारी की अवस्था में उसके ये तीनों शरीर अपनी सामान्य पृथकता खो देते हैं। इसीलिए बीमार/  मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति आमतौर से अपने पिछले जन्मों का स्वप्न देख सकता है, किंतु कोई उसका विश्वास नहीं करेगा। वह स्वयं भी इस पर विश्वास नहीं करेगा। लेकिन यह साधारण स्वप्न नहीं है बल्कि सूक्ष्म शरीर का स्वप्न है। और सूक्ष्म शरीर के स्वप्न में बहुत अर्थ है, सार्थकता है। 

3-लेकिन तीसरा शरीर केवल अतीत के बारे में स्वप्न देख सकता है अथार्त जो हो चुका है, लेकिन उसे नहीं जो होने वाला है।तीसरे शरीर सूक्ष्म शरीर में वास्तविकता और स्वप्न के अंतर को जान पाना और भी कठिन होता है क्योंकि सीमा-रेखाएं और निकट आ चुकी हैं।यदि तुमने असली सूक्ष्म शरीर को जाना है, तो तुम मृत्यु के भय के पार चले जाओगे, क्योंकि उस बिंदु से व्यक्ति अमरत्व को जान लेता है। लेकिन अगर सूक्ष्म शरीर का यह स्वप्न ही है वास्तविकता नहीं है तो तुम मृत्यु के भय से अत्यंत पंगु हो जाओगे।मृत्यु का भय ही पहचान की कसौटी है अथार्त भेद का बिंदु है।अमरत्व में विश्वास नहीं करना है, इसे जानना है। और जानने से पूर्व, इसके बारे में संदेह, अनिश्चितता होनी चाहिए।जो व्यक्ति विश्वास करता है कि आत्मा अमर है 

और बार-बार इसे दोहराता है और अपने आपको सांत्वना दिए चला जाता है वह यह नहीं जान पाएगा कि सूक्ष्म शरीर में जो यथार्थ है और सूक्ष्म शरीर में जो स्वप्न है उनमें क्या अंतर है। 


4- जब यह तथ्य तुम पर उदघाटित हो जाता है कि तुम्हें नहीं मारा जा सकता है ;केवल तब तुम जानोगे कि तुमने इसे जाना 

है या बस स्वप्न में प्रक्षेपित कर लिया है। अगर तुमने अमरत्व को एक विश्वास के रूप में लिया है और इसका अभ्यास किया है तो यह तुम्हारे सूक्ष्म मन तक पहुंच सकता है। तब तुम स्वप्न देखना शुरू कर दोगे  किंतु यह बस एक स्वप्न होगा। अगर तुम्हारे पास ऐसा कोई विश्वास नहीं है, बस जानने की, खोजने की एक प्यास है।तब बिना किसी पूर्व- धारणा या पूर्वाग्रह के तुम शून्य में खोजोगे और अंतर को जान लोगे। जो लोग ऐसे विश्वास की दशा में होते हैं वे बस सूक्ष्म शरीर में स्वप्न देखते रहते हैं और वास्तविकता को नहीं जानते हैं।

4-चौथा शरीर, मनस शरीर;-

05 POINTS;-

1-चौथा शरीर, मनस शरीर है जो दोनों ओर की यात्रा करता है। यह एकतरफा नहीं है बल्कि अतीत और  भविष्य में यात्रा कर सकता है। यह मनस शरीर कभी-कभी भविष्य के बारे में स्वप्न देख सकता है। किसी परम आपातकाल में कोई सामान्य व्यक्ति भी भविष्य की एक झलक पा सकता है। कोई प्रियजन या तुम्हारा कोई निकटतम व्यक्ति मर रहा है तो यह आपातकाल की एक ऐसी अवस्था है जिसका संदेश तुम्हें तुम्हारे सामान्य स्वप्नों में भी दिया जा सकता है ।क्योंकि तुम स्वप्नों का कोई और आयाम नहीं जानते हो इसलिए यह संदेश तुम्हारे सामान्य स्वप्न में प्रविष्ट हो जाएगा।लेकिन यह स्पष्ट नहीं होगा,क्योंकि 

 कुछ ऐसे अवरोध हैं जिन्हें पार किया जाना है और  प्रत्येक मन के अपने प्रतीक होते हैं। 


2-इसलिए जब कोई स्वप्न एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है तो वह उस शरीर के प्रतीक के अनुसार बदल जाता है।दूसरे शरीरों के माध्यम से हर बात उलझ जाती है।अगर तुम स्पष्ट रूप से स्वप्न देखो, जैसे कि चौथे शरीर के स्वप्न होते हैं .. तब तुम भविष्य में झांक सकते हो। किंतु केवल अपने भविष्य में ... तुम दूसरों के भविष्य में नहीं झांक सकते हो।चौथे शरीर के लिए

अतीत ,भविष्य और वर्तमान एक हो जाते हैं। चौथे शरीर के लिए समय नहीं होता है, क्योंकि अतीत भी उतना ही वर्तमान है जितना कि भविष्य वर्तमान है। इसीलिए विभाजन अर्थ खो देता है और  प्रत्येक बात ‘अभी’ बन जाती है। यहां न अतीत है और न भविष्य लेकिन फिर भी समय है जो ‘वर्तमान’ के रूप में है। यह अब भी काल का प्रवाह है इसीलिए तुम्हें अपने मन को एकाग्र करना पड़ेगा।तुम अतीत की ओर देख सकते हो, किंतु यह एकाग्रता होगी, तब भविष्य और वर्तमान ओझल हो गए होंगे। जब तुम भविष्य की ओर एकाग्र होते हो तब वे दोनों अनुपस्थित होंगे। वहां एक क्रमबद्धता होगी। 


3- तुम संपूर्ण को एक साथ नहीं देख सकते हो। समय होगा, किंतु अतीत वर्तमान और भविष्य नहीं होंगे और यह तुम्हारी निजी 

स्वप्नावस्था होगी।चौथे शरीर में ये दोनों अथार्त,स्वप्न और वास्तविकता पड़ोसी हो जाते हैं। और उनके चेहरे इतने एक रूप हो जाते हैं जैसे कि वे जुड़वा हों और उनमें एक को दूसरे की तरह समझ लेने की पूरी संभावना है। मनस शरीर ऐसे स्वप्न देख सकता है जो इतने यथार्थ लगें कि वास्तविक जैसे प्रतीत हों। और उन स्वप्नों को निर्मित करने  के लिए  योग की, तंत्र की और बहुत विधियां हैं। अगर कोई व्यक्ति उपवास ,एकांत, अंधकार आदि का अभ्यास कर रहा हो, तो वह चौथे प्रकार के मानसिक स्वप्न निर्मित कर लेगा। और वे  उस यथार्थ से भी अधिक वास्तविक  होंगे जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है।अब मन सृजन करने के लिए पूर्णत: मुक्त है। वहां पर मन बिना किन्हीं बाह्य बाधाओं के अपनी पूरी सृजनात्मकता में  होता  है।कवि, चित्रकार आदि इस तरह के लोग स्वप्नों के चौथे प्रकार में जीते हैं। सभी कलाएं स्वप्नों के चौथे प्रकार द्वारा निर्मित हुई हैं।  

 4-जो व्यक्ति स्वप्नों के इस चौथे आयाम में स्वप्न देख सकता है वह महान कलाकार हो सकता है परंतु ज्ञानी नहीं।मन के चौथे

आयाम में, चौथे शरीर में व्यक्ति को किसी भी प्रकार के मानसिक सृजन के प्रति होशपूर्ण रहना पड़ेगा। उसे कुछ भी निर्मित या प्रक्षेपित नहीं करना चाहिए, वरना वही निर्मित हो जाएगा। व्यक्ति को कोई इच्छा नहीं करनी चाहिए वरना इस बात का पूरा खतरा है कि वह इच्छा पूरी हो जाएगी। और न केवल अंतस के लोक में बल्कि बाह्य जगत में भी इच्छा पूरी हो जा सकती है। 

चौथे शरीर में मन बहुत शक्तिशाली, बहुत सुस्पष्ट होता है। यह मन के लिए अंतिम घर है। इसके बाद अ-मन आरंभ हो जाता है।चौथा शरीर मन का, मूल-स्रोत है इसलिए तुम कुछ भी निर्मित कर सकते हो।व्यक्ति को इस बात के प्रति निरंतर सजग रहना चाहिए कि उसके भीतर कोई भी वासना, कोई भी कल्पना, कोई प्रतिमा कोई देवता, कोई देवी, कोई गुरु न हो।वरना वे सभी तुमसे निर्मित हो जाएंगे।तुम उनके सृष्टा होओगे और ये अनुभूतियां इतनी आनंददायी हैं कि तुम उन्हें निर्मित 

करना चाहोगे।


5-साधक के लिए यह अंतिम अवरोध है।अगर कोई इसको पार कर लेता है, तो उसे इससे बड़ी कोई और रुकावट नहीं मिलेगी।अगर तुम बोधपूर्ण हो और चौथे शरीर में बस एक साक्षी हो, तो तुम यथार्थ को जान लेते हो।अन्यथा तुम स्वप्न देखते रह सकते हो जो बहुत अच्छे होंगे और किसी भी आनंद या कोई वास्तविकता इनसे तुलना न कर पाएगी।इसलिए 

व्यक्ति को  किसी भी प्रकार की मानसिक प्रतिमा से सावधान रहना है।जैसे ही कोई प्रतिमा आती है, चौथा मन स्वप्न में बहने 

लगेगा।प्रतिमा मन को भटका देगी, तुम स्वप्न देखने लगोगे।चौथे प्रकार के स्वप्नों को सिर्फ तभी रोका या निर्मूल किया जा सकता है ;जब तुम बस एक साक्षी हो जाओ। इसलिए यह साक्षी होना मूल बात है।साक्षी होने से अंतर निर्मित हो जाता है, क्योंकि अगर यह स्वप्न है तो Identification/तादात्म्य होगा। जहां तक चौथे शरीर और उसके स्वप्नों का प्रश्न है तादात्म्य ही स्वप्न है क्योंकि तुम उसके साथ तादात्म्य कर लोगे। सजगता और साक्षी बन गया मन... यथार्थ की ओर जाने वाला पथ है।

5-पांचवां आत्मिक शरीर;- 

09 POINTS;-

1-पांचवां आत्मिक शरीर निजता का ,समय का आयाम पार कर लेता है।अब तुम शाश्वत में होते हो और स्वप्नों को एक अन्य ढंग ...एक और आयाम मिल जाता है। यह आयाम  चेतना के साथ जैसी वह है ...संबद्ध है। जहां तक चेतना का संबंध है, यह 

सामूहिक हो जाती है।अब तुम चेतना का संपूर्ण अतीत जानते हो किंतु भविष्य नहीं जानते ।इस पांचवें शरीर के  स्वप्नों के माध्यम से सृष्टि की सारी पुराण-कथाएं पैदा हुई हैं ..वे सभी एक सी हैं। प्रतीक भिन्न हैं, कहानियां भी कुछ अलग हैं लेकिन ईसाई या हिंदू या यहूदी या मिस्र की परंपराओं की सृजन की सारी पुराण-कथाएं–यह संसार कैसे रचा गया, यह अस्तित्व में कैसे आया-उन सभी में एक सी समानताएं हैं। 


2-पांचवें मन के द्वारा और उसके स्वप्नों के माध्यम से, विराट जलप्रलय की कहानियां.. सारी दुनिया में प्रचलित हैं! उनका कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं है। लेकिन फिर भी रिकॉर्ड है और यह रिकॉर्ड पांचवें मन आत्मिक शरीर से संबद्ध है।वह मन उनके बारे

 में स्वप्न देख सकता है।और तुम भीतर जितना प्रवेश करते जाते हो, स्वप्न उतना वास्तविकता के निकट होता जाता है। भौतिक शरीर का स्वप्न इतना वास्तविक नहीं होता है । भाव शरीर के स्वप्न कुछ अधिक वास्तविक हैं।  सूक्ष्म शरीर के स्वप्न और अधिक वास्तविक हैं । मनस शरीर के स्वप्न लगभग वास्तविक ही हैं और पांचवें शरीर में तुम अपने स्वप्नों में प्रामाणिक रूप से यथार्थ को जानते हो। अब वास्तविकता को जानना संभव है। इसलिए अब इसे स्वप्न कहना भी ठीक नहीं है। लेकिन यह स्वप्न ही है क्योंकि वास्तविकता ऑब्जेक्ट के रूप में सामने नहीं है। 

3-यह एक सब्जेक्टिव अनुभव के रूप में है लेकिन इसका अपना ऑब्जेक्टिव अस्तित्व भी है।ऐसे दो व्यक्ति जिन्होंने पांचवें शरीर का साक्षात कर लिया है ..एक साथ स्वप्न देख सकते हैं जो कि चौथे शरीर तक संभव नहीं है। चौथे शरीर तक हम स्वप्नों में सहभागी नहीं हो सकते हैं। लेकिन पांचवें शरीर से एक ही स्वप्न अनेक लोगों द्वारा एक साथ देखा जा सकता है। इसीलिए एक अर्थों में वे ऑब्जेक्टिव बन जाते हैं। पांचवें शरीर में हम अपने स्वप्नों की ,अपने अनुभवों की तुलना कर सकते हैं। यही कारण है कि अनेक लोगों ने पांचवें शरीर में स्वप्न देखे और उन सभी ने समान पुराण कथाओं को जाना। ये पुराण कथाएं एक-एक व्यक्ति द्वारा नहीं रची गई हैं–सृष्टि रचना की पुराण कथाएं ,वह विराट प्रलय आदि उन विशेष विचारधाराओं द्वारा, विशेष समूहों के द्वारा निर्मित किया गया है जो एक साथ कार्य कर रहे थे। पांचवें शरीर के स्वप्न आश्चर्यजनक रूप से बहुत कुछ वास्तविक हो जाते हैं।

4-पिछले चारों प्रकार के स्वप्न एक प्रकार से अवास्तविक हैं क्योंकि पहली बात वे व्यक्तिगत हैं। दूसरी बात किसी और व्यक्ति के तुम्हारे स्वप्न में सहभागी होने ,इस अनुभव को बांट लेने , इसकी प्रामाणिकता की जांच कर पाने आदि की कोई संभावना नहीं है। और कल्पना और स्वप्नों में भेद होता है। कल्पना ऐसी चीज है जिसे तुमने प्रक्षेपित किया है, और स्वप्न ऐसी चीज है जो अस्तित्व में नहीं है–लेकिन तुमने इसे जान लिया है। इसलिए जैसे-जैसे भीतर की ओर जाना होगा, स्वप्न देखना अधिक वास्तविक अधिक प्रामाणिक हो जाता है।सभी धर्मशास्त्रीय अवधारणाएं पांचवें शरीर ने निर्मित की हैं। उनकी भाषा उनके शब्द, उनके प्रतीक उनकी धारणाएं भिन्न हैं, लेकिन मौलिक रूप से वे एक जैसे हैं और वे पांचवें चक्र के, पांचवें शरीर के स्वप्नों के.. पांचवें आयाम के द्वारा देखे गए हैं।

5-पांचवें शरीर में दोनों में कोई अंतर नहीं होता क्योंकि  स्वप्न और यथार्थ एक हो जाते हैं .. द्वैत का हर रूप खो जाता है। अब व्यक्ति बिना होश के भी हो सकता है–सजगता का कोई प्रश्न नहीं है। अगर तुम बेहोश हो, तो भी तुम अपनी बेहोशी के प्रति होशपूर्ण रहोगे। अब स्वप्न और यथार्थ एक-दूसरे के प्रतिबिंब हो जाते हैं। वे एक जैसे होते हैं परन्तु  एक भेद होता है। अगर  कोई अपने आप को दर्पण में देखता है तो  उसमें और उसके  प्रतिबिंब में कोई अंतर नहीं होता लेकिन एक भेद होता 

है।वह  वास्तविक है और दर्पण में दिख रही छवि वास्तविक नहीं है।पांचवां मन, यदि उसने कुछ धारणाएं बना ली हैं, तो वह अपने आप को दर्पण में जानने के भ्रम में पड़ सकता है।तब वह अपने आपको  दर्पण के माध्यम से जानेगा, किंतु–वैसा नहीं जैसा कि वह है, बल्कि वैसा जैसा कि वह प्रतिबिंबित हो रहा है।  

6-भले ही तुम दर्पण में देख रहे हो लेकिन तुम अपने आप को ही देख रहे हो। इस अर्थ में यहाँ  पर कोई खतरा नहीं है। लेकिन दूसरे अर्थों में इसमें काफी खतरा है। यह हो सकता है कि तुम संतुष्ट हो जाओ और दर्पण में दिख रही छवि को असली समझ 

 बैठो।जहां तक पांचवें शरीर का प्रश्न है, कोई खतरा नहीं है लेकिन छठवें शरीर  में  खतरा है। अगर तुमने अपने आप को दर्पण में देखा है, तो तुम पांचवें शरीर की सीमा पार नहीं करोगे। तुम छठवें शरीर में नहीं जाओगे, क्योंकि दर्पणों के द्वारा तुम कोई भी सीमा पार नहीं कर सकते हो। ऐसे लोग हुए हैं जो पांचवें में ही रुके रहे-वे लोग जो कहते हैं कि अनंत आत्माएं हैं और प्रत्येक आत्मा की अपनी निजता है-ये लोग पांचवें शरीर में ही ठहरे हुए हैं और वहीं पर रुक गए हैं, क्योंकि उन्होंने अपने आपको जाना तो है, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से नहीं जाना है, बल्कि दर्पण के माध्यम से जाना है।


7-वास्तव में,यह दर्पण  धारणाओं के माध्यम से आता है ‘मैं आत्मा हूं–शाश्वत अमर ..मृत्यु से परे ,जन्म से परे। अपने आपको बिना जाने आत्मा के रूप में मान लेने से दर्पण बन जाता है। और अगर दर्पण बन गया है तो तुम अपने आप को जानोगे, लेकिन वैसा नहीं जैसे कि तुम हो, बल्कि तुम्हारा वह रूप जानोगे जो तुम्हारी धारणाओं के माध्यम से प्रतिबिंबित हो रहा है। अंतर केवल यह होगा कि अगर यह ज्ञान दर्पण के माध्यम से आया है तो यह स्वप्न है और अगर यह सीधा प्रत्यक्ष है.. बिना 

किसी दर्पण के माध्यम से आया है, तो यह वास्तविक है।यही एक मात्र भेद है किंतु यह भेद विराट है।यह भेद उन शरीरों के संबंध में नहीं  है जिनको तुमने पार कर लिया है, बल्कि उन शरीरों के संबंध में जिनको अभी भी पार किया जाना है। 


8-कोई व्यक्ति इस बारे में कैसे सजग हो सकता है कि वह पांचवें शरीर में स्वप्न देख रहा है या वास्तविकता में जी रहा है? इसका एकमात्र उपाय है कि व्यक्ति को प्रत्येक प्रकार के सिद्धांतों , शास्त्रों का त्याग कर देना चाहिए और   प्रत्येक प्रकार के दर्शनशास्त्र से भी मुक्त हो जाना चाहिए।यहां से आगे कोई गुरु नहीं होना चाहिए, अन्यथा वह गुरु ही दर्पण बन जाएगा।यहां से आगे तुम पूरी तरह से अकेले हो। किसी को अब पथ-प्रदर्शक के रूप में साथ नहीं रखना चाहिए, अन्यथा वह पथ-प्रदर्शक ही दर्पण बन जाएगा।यहां से आगे एकांत पूर्ण और समग्र होता है। अकेलापन नहीं, वरन एकांत।अकेलापन सदा दूसरों से संबंधित होता है,जबकि एकांत स्वयं से संबंधित है।  

 9-हमें अकेलापन तभी लगता है जब किसी की कमी की अनुभूति, साथी के न होने की अनुभूति होती है। हमें एकांत की अनुभूति तब होती है, जब हमें अपने होने की अनुभूति होती है। यहां से व्यक्ति को एकांत में हो जाना है.. अकेला नहीं।शब्दों अवधारणाओं, सिद्धांतों, दर्शनशास्त्रों, नीतिशास्त्रों, गुरुओं, शास्त्रों ,ईसाइयत, हिंदू ,बुद्ध, ईसा, श्री कृष्ण, महावीर सभी से अलग होकर; पूर्ण एकांत में हो जाना है। अन्यथा वहां पर जो भी उपस्थित होगा, दर्पण बन जाएगा।अगर तुम एकाकी हो.. तो  

यही कसौटी है, क्योंकि अब ऐसा कुछ भी नहीं है जिसमें तुम प्रतिबिंबित हो सको। पांचवें शरीर के लिए उचित शब्द है–ध्यान। ध्यान का अभिप्राय है.. किसी भी प्रकार के मनन से हट कर पूरी तरह से  एकाकी होना ..अ-मन होना। अगर मन किसी भी रूप में रह गया, तो वह दर्पण बन जाएगा और तुम उसमें प्रतिबिंबित हो जाओगे।अब व्यक्ति को बिना विचारों के, बिना मनन के, अ-मन होना चाहिए।

6-छठवां ब्रह्म शरीर;-

05 POINTS;-

1-आगे है छठवां  ब्रह्म शरीर। अब तुम चेतना की सीमा पार कर लेते हो।चेतन और अचेतन , पदार्थ और मन  के भेद मिट जाते हैं। छठवां ब्रह्म शरीर ब्रह्मांड के स्वप्न देखता है ;चेतना  और इनसानों के बारे में स्वप्न नहीं देखता ।अब कोई भी वस्तु सम्मिलित नहीं है ..तुम चेतना का अतिक्रमण कर जाते हो। ऐसा नहीं कि तुम अचेतन हो जाते हो बल्कि अचेतन संसार चेतन हो जाता है। अब प्रत्येक चीज जीवित और चेतन होती है। यहां तक कि जिसे हम पदार्थ कहते हैं, वह भी पदार्थ 

नहीं, बल्कि चेतन हो जाता है।छठवें शरीर में ब्रह्मांडीय सत्यों के स्वप्नों का साक्षात होता है। ब्रह्म और माया के सिद्धांत, अद्वैतवाद ,अनंत की अवधारणाएं ..ये सभी छठवें प्रकार के स्वप्नों में प्रत्यक्ष हो जाते हैं। जिन लोगों ने ब्रह्मांडीय आयाम में स्वप्न देखे उन्होंने महान व्यवस्थाओं की रचना की। यहां भी प्रतीकों में भेद है लेकिन कोई बहुत अधिक अंतर नहीं है। स्मृति अब प्रतीकों में बंधी हुई नहीं रहती। 

 2-भाषा एक आमंत्रण बन जाती है ;किसी की ओर संकेत भर करती है। हमने निजता को, चेतना को ,समय और आकाश को पार कर लिया है, लेकिन अब भी भाषा पॉजिटिव है।छठवें प्रकार का मन होने के आयाम में स्वप्न देखता है, न होने के आयाम में नहीं;वह पॉजिटिव अस्तित्व के स्वप्न देखता है... अनअस्तित्व के नहीं। अब भी वहां पर अस्तित्व के प्रति पकड़ है और अनअस्तित्व से भय है। पदार्थ और मन एक हो चुके हैं ;किंतु अस्तित्व और अनअस्तित्व एक नहीं हुए हैंअथार्त होना और न 

होना एक नहीं हुआ है। वे अभी तक भिन्न हैं और यह अंतिम अवरोध है।छठवें शरीर में अब कोई दर्पण नहीं है ...अब ब्रह्म है ;तुम खो गए हो अथार्त तुम नहीं बचे ..स्वप्न देखने वाला नहीं बचा। किंतु स्वप्न अब भी स्वप्न देखने वाले के बिना हो सकता है और जब स्वप्न देखने वाले के बिना स्वप्न होता है तो वह प्रामाणिक यथार्थ की भांति प्रतीत होता है। वहां मन या सोच-विचार करने वाला कोई भी नहीं है। 

3-जो कुछ भी जान लिया जाता है तो वह ज्ञान बन जाता है। सृजन की वे पुराण-कथाएं  Sliding  करती हैं।वहां निर्णय करने वाला कोई नहीं होता स्वप्न देखने वाला कोई नहीं होता।किंतु वह मन जो नहीं है, वह अभी भी है। वह मन जो विलीन हो गया है, अब भी है–निजी मन की भांति नहीं, वरन ब्रह्मांडीय समग्रता की भांति। तुम नहीं हो, परंतु ब्रह्म है। इसीलिए कहा जाता है कि यह संसार ब्रह्म का, छठवें शरीर का स्वप्न है। यह सारा संसार, यह सारा ब्रह्मांड स्वप्न है माया है। लेकिन हमारा व्यक्तिगत

 स्वप्न नहीं बल्कि समग्र का स्वप्न। समग्र स्वप्न देख रहा है। तुम नहीं हो लेकिन समग्र है।अब एकमात्र अंतर होगा क्या यह पॉजिटिव है? यदि यह पॉजिटिव है, तो यह छलावा है, स्वप्न है क्योंकि परम अर्थों में केवल Negation/नकार होता है। परम अर्थों में जब सभी कुछ अरूप पर ,मूल-स्रोत पर वापस आ गया है। तब प्रत्येक चीज है भी और फिर भी नहीं है। 

 4-बस पॉजिटिव ही बचा है और  इसके भी पार जाना होगा।इसलिए अगर छठवें शरीर में पॉजिटिव  खो जाए तो तुम सातवें में प्रविष्ट हो जाओगे। छठवें की वास्तविकता ही सातवें का द्वार है। अगर वहां कुछ भी पॉजिटिव  नहीं है–न कोई पुराण कथा, न कोई प्रतिमा–तब स्वप्न समाप्त हो चुका है। तब वहां वही  नित्य और स्थायी तत्त्व  है। अब वहां किसी चीज का अस्तित्व 

नहीं है.. सिर्फ अस्तित्व है , स्रोत है। वृक्ष नहीं है, पर बीज है ;जिसे  सबीज समाधि कहा जाता है। प्रत्येक चीज खो चुकी है और अपने मूल-स्रोत ..ब्रह्मांडीय बीज  में वापस आ गई है  किंतु फिर भी बीज है। तो यह समाधि है–सबीज ..बीज सहित।अथार्त वृक्ष नहीं है.. लेकिन बीज है। 

5-किंतु बीज से स्वप्न देख सकना अब भी संभव है इसलिए बीज को भी नष्ट करना पड़ेगा।सातवें में न तो स्वप्न है और न वास्तविकता। तुम वास्तविकता को वहां तक देख सकते हो जहां तक स्वप्न देखना संभव हो। अगर स्वप्नों की कोई संभावना न हो, तब न तो यथार्थ बचता है और न ही भ्रम ;इसलिए सातवां केंद्र है। अब स्वप्न और वास्तविकता एक हो गए हैं ..कोई अंतर नहीं है। या तो तुम ‘ना-कुछ’ का स्वप्न देखते हो या तुम ‘ना-कुछ’ को जानते हो, किंतु यह ‘ना-कुछपन’ वही का वही बना रहता 

है। अगर तुम किसी चीज की अनुपस्थिति के बारे में स्वप्न देखो, तो वह स्वप्न वैसा ही होगा जैसी कि अनुपस्थिति अपने आप में है। केवल किसी पॉजिटिव चीज के बारे में वास्तविक अंतर होता है। इसलिए छठवें शरीर तक अंतर होता है। 

7-सातवां शरीर, निर्वाण शरीर ;-

02 POINTS;-

1-इसके बाद  सातवां निर्वाण शरीर है जो पॉजिटिविटी की सीमा पार कर लेता है और शून्यता में छलांग लगा लेता है। सातवें शरीर के पास अपने स्वयं के स्वप्न हैं, अनअस्तित्व के , ना-कुछ के या शून्यता के स्वप्न। ‘हां’ पीछे छूट गई है और ‘न’ भी अब निष्किय हो जाती है। यह ना-कुछ होना भी अब कुछ नहीं है बल्कि अब और भी असीम हो गया है। क्योंकि एक अर्थ में  पॉजिटिव  कभी असीम नहीं हो सकता। हम कितना भी विचार कर लें, कल्पना कर लें..  परन्तु पॉजिटिव   होने में तो सीमा 

होगी ही। केवल न–होना ही सीमा रहित आयाम हो सकता है।इस तरह सातवें शरीर के अपने स्वप्न होते हैं।अब कोई प्रतीक 

या रूप नहीं है ..केवल अरूप है। अब कोई ध्वनि नहीं है बल्कि सन्नाटा है। अब मौन का यह स्वप्न संपूर्ण अनंत है तो ये सात शरीर हैं और सातों शरीरों के अपने स्वप्न हैं।मनोविज्ञान अभी स्वप्नों के बारे में जानने से काफी दूर है। इसे  केवल भौतिक और   भाव शरीर के स्वप्नों के बारे में ही पता है। 


2-अब एक बात समझना  है कि ये सात शरीर और स्वप्नों के ये सात आयाम वास्तविकता के सात रूपों को जानने में रुकावट बन सकते हैं।सातवें शरीर में केवल ‘ना-कुछपन’ बचता है। यहां बीज भी अनुपस्थित है। यह निर्बीज बीजरहित समाधि है।

अब यहां पर स्वप्नों की कोई संभावना नहीं है।इस प्रकार से ये सात प्रकार के स्वप्न और सात प्रकार की वास्तविकताएं हैं। वे आपस में गुंथे हुए हैं और इसी के कारण इतनी उलझन है। किंतु अगर तुम सातों के मध्य अंतर कर लो अथार्त इसके बारे में तुम्हारे पास स्पष्ट समझ  हो तो इससे काफी मदद मिल जाएगी। । लेकिन भाव शरीर के स्वप्नों की व्याख्या भी भौतिक शरीर के स्वप्नों की भांति की जाती है। 

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स्वप्न और  विज्ञान भैरव तंत्र विधि 75;- 


 08 FACTS;-

1-''जागते हुए सोते हुए, स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को प्रकाश समझो।’'  पहले जागरण से शुरू करो। योग और  तंत्र मनुष्‍य के मन के जीवन को तीन भागों में बाँटता है .. जाग्रत,सुषुप्‍ति और स्‍वप्‍न। ये तुम्‍हारी चेतना के नहीं,तुम्‍हारे मन के भाग है।तीन के नाम है परन्तु चेतना चौथी है—तुरीय। वे बादल है जिनके नाम हो सकते है ..कोई जागता हुआ बादल है, कोई सोया हुआ बादल है और कोई स्‍वप्‍न देखता हुआ बादल है। और जिस आकाश में वह घूमते है,वह अनाम है, उसे मात्र तुरीय कहां जाता है।  तुम तब तक किसी मनुष्‍य को सच में नहीं जान सकते जब तक तुम यह नहीं जानते कि वह अपने स्‍वप्‍नों में क्‍या करता है।क्‍योंकि वह जागते समय में जो भी करता है वह अभिनय या झूठ हो सकता है  क्‍योंकि  बहुत मजबूरी में करता है। वह स्‍वतंत्र नहीं है; समाज है, नियम है, नैतिक व्‍यवस्‍था है।वह निरंतर अपनी कामनाओं के साथ संघर्ष करता है, उनका दमन करता है। उनमें हेर-फेर करता है। समाज के ढांचे के अनुरूप उन्‍हें बदलता है। और समाज तुम्‍हें कभी तुम्‍हारी समग्रता में स्‍वीकार नहीं करता है। वह चुनाव करता है,काट-छांट करता है।  


2- संस्‍कृति का यही अर्थ है  क्‍योंकि संस्‍कृति चुनाव है। प्रत्‍येक संस्‍कृति एक संस्‍कार है जिसमें   कुछ चीजें स्‍वीकृत है और कुछ चीजें अस्‍वीकृत है। कहीं भी तुम्‍हारे समग्र अस्‍तित्‍व को, तुम्‍हारी निजता को स्‍वीकृति नहीं दी जाती है।इसीलिए  जाग्रत अवस्‍था में तुम झूठे, नकली ,कृत्रिम और दमित होने के लिए मजबूर हो। तुम जागते हुए  सहज या प्रामाणिक नहीं हो सकते, अभिनेता भर हो सकते हो। तुम   अंत: प्ररेणा से नहीं चलते,इसीलिए   केवल अपने स्‍वप्‍नों में तुम प्रामाणिक हो सकते हो। तुम अपने स्‍वप्‍नों में जो चाहे कर सकते हो। उससे किसी को लेना-देना नहीं है। वहां  तुम्‍हारे सिवाय कोई भी उसमें प्रवेश नहीं कर सकता 


 है।सपने तुम्‍हारे बिलकुल निजी है क्‍योंकि उनका किसी से कोई लेना देना नहीं है। इसलिए तुम स्‍वतंत्र हो सकते हो।तो जब तक तुम्‍हारे सपनों को नहीं जाना जाता, तुम्‍हारे असली चेहरे से भी परिचित नहीं हुआ जा सकता है। सपनों में प्रवेश करना अनिवार्य है ;लेकिन सपने भी बादल ही है। यद्यपि ये बादल निजी है, कुछ स्‍वतंत्र है;  फिर भी बादल ही तो है। उनके भी पार जाना है।ये तीन अवस्‍थाएं है: जाग्रत सुषुप्‍ति और स्‍वप्‍न। फ्रायड के साथ सपनों पर काम शुरू हुआ। अब सुषुप्‍ति पर,गहरी नींद पर काम होने लगा है।  


 3-यह अभी वैज्ञानिक ढंग से नहीं जाना गया है कि  नींद में यथार्थत:क्‍या  घटित होता है।और अगर हम नींद को नहीं जान सकते तो मनुष्‍य को जानना बहुत कठिन होगा। क्‍योंकि मनुष्‍य अपने जिंदगी का एक तिहाई हिस्‍सा नींद से गुजारता है। इतना बड़ा हिस्‍सा है ..यह।जागरण की अवस्‍था में तुम समाज के साथ होते हो। स्‍वप्‍न के अवस्‍था में तुम अपनी कामनाओं के साथ होते हो। और गहरी नींद में तुम प्रकृति के गहन गर्भ में होते हो। योग और तंत्र का कहना है कि इन तीनों के पार जाने पर ही तुम ब्रह्म में प्रवेश कर सकते हो। इन तीनों से गुजरना होगा , पार जाना होगा,इनका अतिक्रमण करना होगा।यह विधि 


अतिक्रमण  की विधि  है।‘जागते हुए, सोते हुए,स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को प्रकाश समझो।’ ये विधि बहुत कठिन है क्‍योंकि तुम सचेतन रूप से कोई स्‍वप्‍न नहीं पैदा कर सकते हो? लेकिन कुछ विधियां है जिनके द्वारा स्‍वप्‍न निर्मित किए जा सकते है। और ये विधि अतिक्रमण करने में बहुत सहयोगी है। क्‍योंकि अगर तुम स्‍वप्‍न निर्मित कर सकते हो तो तुम उसका अतिक्रमण भी कर सकते हो। लेकिन आरंभ तो जाग्रत अवस्‍था से  ही करना होगा।जागते समय ,चलते समय, खाते समय,काम करते समय ...अपने को प्रकाश रूप में स्‍मरण रखो। मानो तुम्‍हारा ह्रदय में एक ज्‍योति जल रही है और तुम्‍हारा शरीर उस ज्‍योति का प्रभामंडल भर है। 


 4-कल्‍पना करो कि तुम्‍हारे ह्रदय में एक लपट जल रही है। और तुम्‍हारा शरीर उस लपट के चारों और प्रभामंडल के अतिरिक्‍त कुछ नहीं है; तुम्‍हारा शरीर उस लपट के चारों और फैला प्रकाश है। इस कल्‍पना को, इस भाव को ,अपने मन ओर चेतना की गहराई में उतरने दो। इसे आत्‍मसात करो ...थोड़ा समय लगेगा। लेकिन यदि तुम यह स्‍मरण करते रहे,कल्‍पना करते रहे,तो धीरे-धीरे तुम इसे पूरे दिन स्‍मरण रखने में समर्थ हो जाओगे। जागते हुए, सड़क पर चलते हुए,  तुम एक चलती फिरती ज्‍योति हो जाओगे। शुरू-शुरू में किसी दूसरे को इसका बोध नहीं होगा; लेकिन अगर तुमने यह स्‍मरण जारी रखा तो तीन महीनों में दूसरों को भी इसका बोध होने लगेगा। और जब दूसरों को आभास होने लगे तो तुम निश्‍चिंत हो  सकते हो। किसी से कहना नहीं है। सिर्फ ज्‍योति का  भाव करना है कि तुम्‍हारा शरीर उसके चारों और फैला प्रभामंडल है। यह स्‍थूल शरीर नहीं  ...विद्युत , प्रकाश शरीर है। अगर तुम धैर्य पूर्वक लगे रहे तो  करीब-करीब तीन महीनों में दूसरों को बोध होने लगेगा कि तुम्‍हें कुछ घटित हो रहा हे। 


 5-वे तुम्‍हारे चारों और एक सूक्ष्म प्रकाश महसूस करेंगें। जब तुम निकट जाओगे,उन्‍हें एक तरह की अलग उष्‍मा महसूस होगी। तुम यदि उन्‍हें स्‍पर्श करोगे तो उन्‍हें उष्‍मा स्‍पर्श महसूस होगी। उन्‍हें पता चल जायेगा कि तुम्‍हें कुछ अद्भुत घटित हो रहा है। पर किसी से कहो मत और जब दूसरों को पता चलने लगे तो तुम आश्‍वस्‍त हो सकते हो और तब तुम दूसरे चरण में प्रवेश कर सकते हो ..उसके पहले नहीं। दूसरे चरण में इस विधि को स्‍वप्‍नावस्‍था में ले चलना है। अब तुम स्‍वप्‍न जगत में इसका प्रयोग शुरू कर सकते हो। यह अब यथार्थ है, अब यह कल्‍पना ही नहीं है। कल्‍पना के द्वारा तुम ने सत्‍य को जान  लिया है कि  सब कुछ प्रकाश से बना है ,प्रकाश मय है। तुम प्रकाश हो;  क्‍योंकि पदार्थ का कण-कण प्रकाश है..हालांकि तुम्‍हें इसका बोध नहीं है। वैज्ञानिक कहते है कि पदार्थ इलेक्ट्रॉन से बना है और प्रकाश ही सब का स्‍त्रोत है। इस सत्‍य को आत्‍मसात करो और जब तुम  घनीभूत प्रकाश हो जाओ तो उसे दूसरे चरण में, स्‍वप्‍न में ले जा सकते हो। 


 6- तो नींद में उतरते हुए ज्‍योति को स्‍मरण करते रहो ,देखते रहो, भाव करते रहो कि मैं प्रकाश हूं। और इसी स्‍मरण के साथ नींद में उतर जाओ, ताकि  नींद में भी यही स्‍मरण जारी रहे ।आरंभ में कुछ ही स्‍वप्‍न ऐसे होंगे जिनमें तुम्‍हें भाव होगा कि तुम्‍हारे भीतर ज्‍योति है या तुम प्रकाश हो। पर धीरे-धीरे स्‍वप्‍न में भी तुम्‍हें यह भाव बना रहने लगेगा और जब यह भाव स्‍वप्‍न में प्रवेश कर जाएगा तो सपने विलीन होने लगेंगे ,खोने लगेंगे और कम से कम होने लगेंगे। तब गहरी नींद की मात्रा बढ़ने लगेगी।  और जब स्‍वप्‍न विदा हो जाते है, तभी इस भाव को सुषुप्‍ति में ,गहन नींद में  लाया जा सकता है ..उसके पहले नहीं। जब सपने विदा हो गए है और तुम अपने को ज्‍योति की भांति स्‍मरण रखते हो तो तुम नींद के द्वार पर हो।अब तुम इस भाव के साथ नींद


 में प्रवेश कर सकते हो और यदि तुम एक बार नींद में इस भाव के साथ उतर गये  कि मैं ज्‍योति हूं तो तुम्‍हें नींद में भी बोध बना रहेगा।तब नींद केवल तुम्‍हारे शरीर को घटित होगी ..तुम्‍हें नहीं।


7-श्री कृष्‍ण गीता में यही कहते है कि योगी कभी नहीं सोते; जब दूसरे सोते है तब भी वे जागते है। ऐसा नहीं है कि उनके शरीर को नींद नही आती। उनके शरीर तो सोते है ..लेकिन शरीर ही। शरीर को विश्राम की जरूरत है क्‍योंकि शरीर यंत्र है। चेतना को विश्राम की कोई जरूरत नहीं है।शरीर को ईंधन चाहिए , विश्राम चाहिए। यही कारण है कि शरीर जन्‍म लेता है, युवा होता है, वृद्ध होता है और मर जाता है। चेतना न कभी जन्‍म लेती है,न कभी बूढी होती है,और न कभी मरती है। उसे न ईंधन की जरूरत है और न विश्राम की। यह शुद्ध ,नित्‍य-शाश्‍वत ऊर्जा।अगर तुम इस ज्‍योति के, प्रकाश के बिंब को नींद के भीतर ले जा सके तो तुम फिर कभी नहीं सोओगे। सिर्फ तुम्‍हारा शरीर विश्राम करेगा और जब शरीर सोया है तो तुम यह जानते रहोगे। और   तब यह घटित होता है कि तुम तुरीय हो, चतुर्थ हो। स्‍वप्‍न और सुषुप्‍ति मन के अंश है और तुम तुरीय ..चतुर्थ हो गए हो। 


 8-तुरीय वह आकाश है जिसमे से बादल   गुजरता है, लेकिन उनमें से कोई बादल नहीं है। वास्तव में, अगर तुम जाग्रत हो  और  फिर तुम स्‍वप्‍न देखने लगते हो ..तो तुम दोनों नहीं हो सकते। अगर तुम जाग्रत हो तो तुम स्‍वप्‍न नहीं देख सकते। और अगर तुम स्‍वप्‍न हो तो तुम सुषुप्ति में नहीं उतर सकते हो, क्योकि वहां कोई सपने   नहीं होते। तुम एक यात्रा हो और ये अवस्‍थाएं पड़ाव है ..तभी तुम यहां से वहां जा सकते हो और फिर वापस आ सकते हो। सुबह तुम फिर जाग्रत अवस्‍था में वापस आ जाओगे। ये अवस्‍थाएं है; और जो  इन अवस्‍थाओं से गुजरता है वह तुम हो। लेकिन वह तुम चतुर्थ हो और इसी चतुर्थ को आत्‍मा ,अमृत तत्‍व , शाश्‍वत जीवन कहते है। जागते हुए,सोते हुए,स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को प्रकाश समझो।यह बहुत सुंदर विधि है।लेकिन  जाग्रत अवस्‍था से आरंभ करो और स्‍मरण रहे कि जब दूसरों को इसका बोध होने लगे तभी तुम सफल हुए। उन्‍हें बोध होगा। और तब तुम स्‍वप्‍न में और फिर निद्रा में प्रवेश कर सकते हो। और अंत में तुम उसके प्रति जागोगे जो तुम हो ...तुरीय।


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