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पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक सुन्दर, सुडौल और आकर्षक क्यों

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                        भाग--02
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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन

पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वन्दन

      शुक्रबिन्दु और रजोबिन्दु में 'प्रोटोन' और 'इलेक्ट्रॉन' की सम्भावना समझनी चाहिए। दोनों की ऊर्जा बराबर एक दूसरे की ओर आकर्षित होती रहती है और जब उनका आकर्षण एक विशेष् सीमा पर जाकर घनीभूत होता है तब उस स्थिति में वहां 'न्यूट्रॉन' की सम्भावना पैदा हो जाती है। फलस्वरूप दोनों प्रकार की ऊर्जाएं और उनमें निहित दोनों प्रकार की विद्युत् चुम्बकीय तरंगें एक दूसरे में मिलकर एक ऐसे विलक्षण 'अणु'  का निर्माण करती हैं जिसे हम 'आणुविक शरीर' या 'एटॉमिक बॉडी' कहते हैं।
      इस आणुविक शरीर में हमारा सारा व्यक्तित्व और संपूर्ण जीवन की घटनाएं व संपूर्ण जीवन का इतिहास छिपा हुआ होता है। यह वह अणुविक शरीर है जिसके निर्माण का आधार पहले ही दिन गर्भ में हो जाता है और जिसमें निर्माण-कार्य पूर्ण होने पर आत्मा प्रवेश करती है। इस अणुविक शरीर की जैसी संरचना है, जैसी स्थिति है, उसी के अनुकूल आत्मा उसमें प्रवेश करती है।
       मनुष्य जाति का जीवन और चेतना आज हर क्षण पतन की ओर अग्रसर होती जा रही है। इसका एकमात्र कारण यह है कि संसार के दम्पति श्रेष्ठ व उच्चकोटि की आत्माओं को उत्पन्न होने का अवसर ही नहीं दे रहे हैं। वे जो अवसर दे रहे हैं, वह निम्नकोटि की आत्माओं के पैदा होने के लिए है। यही कारण है कि अच्छी और उच्चकोटि की आत्माओं का संसार में अभाव हो गया है और दूसरी ओर निम्नकोटि की आत्माओं की संख्या आकाश छूने लगी है।
      यह जरुरी नहीं कि मनुष्य के मर जाने के बाद उसकी आत्मा को तुरन्त जन्म लेने या शरीर पाने का अवसर मिल जाये। साधारण आत्माएं तो 13 दिन के भीतर अपने शरीर को खोज लेती हैं लेकिन जो आत्माएं अत्यन्त निकृष्ट कोटि की होती हैं, वे रुक जाती हैं क्योंकि उनकी निकृष्टता के अनुकूल निकृष्ट गर्भ और अवसर मिलना कठिन होता है। ऐसी ही निकृष्ट आत्माओं को हम 'भूत-प्रेत' कहते हैं। इसी प्रकार बहुत उच्च और श्रेष्ठ कोटि की आत्माएं भी रुक जाती हैं क्योंकि उनके अनुकूल श्रेष्ठ व उच्चकोटि का अवसर उन्हें नहीं मिल पाता। ऐसी ही उत्कृष्ट आत्माओं को हम 'देवता' कहते हैं। यही प्रमुख कारण है अवतार ग्रहण करने योग्य उच्च लोकों की उच्च आत्मा को भूलोक में शीघ्र अवतरित न हो पाने का। पूरा का पूरा कालखंड बीत जाता है, युग परिवर्तन हो जाते हैं, तब कहीं जाकर अवतार होता है।
      पूर्व के समय में मनुष्य रूपी भूत-प्रेत कम थे और देव पुरुष अधिक थे। लेकिन आज भूत-प्रेत मनुष्य के रूप में बहुत अधिक आ गए हैं तथा देव पुरुष कम। श्रेष्ठ आत्माओं के जन्म के लिए आवश्यक बात है प्रेमपूर्ण विवाह का होना। लेकिन आज प्रेमपूर्ण विवाह का सर्वथा अभाव है। सच्चा प्रेम ही आध्यात्मिक जीवन का आधार है। अतः श्रेष्ठ आत्माओं के अवतरण के लिए प्रेममय आध्यात्मिक जीवन की आवश्यकता है।
       स्त्री अखिल विश्वब्रह्माण्ड में चैतन्य और क्रियाशील महाशक्ति का एक विशिष्ट केंद्र है। मगर इस रहस्य से बहुत कम लोग परिचित होंगे कि पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक सुन्दर, सुडौल और आकर्षक क्यों दिखलाई पड़ती है ? उसके व्यक्तित्व के भीतर आखिर ऐसा कौन-सा तत्व है जो आनंद के लिए पुरुष को आकर्षित करता है ? इसका एक कारण है जो बिलकुल साधारण है और जिसकी हम-आप कल्पना तक नहीं कर सकते।
      जिसे हमने 'अणुविक शरीर' अथवा 'एटॉमिक बॉडी' कहा है, उसमें 24 जीवाणु पुरुष के और 24 जीवाणु स्त्री के होते हैं। इन 48 परमाणुओं के मिलन से पहला 'सेल' निर्मित होता है और इस प्रथम सेल से जो प्राण पैदा होता है, उससे स्त्री का शरीर बनता है। 24+24 :48 का यह सन्तुलित सेल होता है। पुरुष का जो सेल होता है और उससे जो प्राण पैदा होता है, वह 47 जीवाणुओं का होता है। उसके सन्तुलन में एक ओर 23 और दूसरी ओर 24 (23+24:47) जीवाणु होते हैं। बस, यहीं से पुरुष के व्यक्तित्व का सन्तुलन टूट जाता है। इसके विपरीत स्त्री का व्यक्तित्व सन्तुलन की दृष्टि से बराबर(24+24:48) है। उसी के परिणाम स्वरूप स्त्री का सौंदर्य, सुडौलता, आकर्षण, सम्मोहन, कला और रस उसके व्यक्तित्व में पैदा हो जाता है।
      पुरुष के व्यक्तित्व में एक ओर 24 जीवाणु हैं और एक ओर 23 जीवाणु हैं, अतः वह असन्तुलित है। उसमें एक जीवाणु की कमी है। उसे माँ से जो जीवाणु मिला, वह 24 का बना हुआ है और पिता से जो मिला, वह 23 का बना हुआ है। बस, इसी असन्तुलन से पुरुषों में जीवनभर बेचैनी बनी रहती है। एक आन्तरिक अभाव खटकता रहता है। क्या करूं, क्या न करूं ? यह कर् लूँ, वह कर लूँ। इस प्रकार की चिन्ता और उधेड़-बिन बराबर बनी रहती है। तात्पर्य यह कि यह एक छोटी-सी घटना अर्थात् एक अणु का अभाव स्त्री-पुरुष के संपूर्ण जीवन में इतना भारी अन्तर ला देता है।
      मगर यह अन्तर स्त्री में सौंदर्य, आकर्षण, सुडौलता, सम्मोहन, कला और रस तो पैदा कर देता है, पर उसको विकसित नहीं कर पाता। क्योंकि जिस व्यक्तित्व में समता होती है, उसके विकास के अवसर कम ही होते हैं। वह जहाँ है, वहीँ रुक जाता है। यही नियम सर्वत्र लागू होता है। सम्भवतया यही एकमात्र ऐसा जैविक कारण है कि हमारे विद्वान् मनीषियों ने समगोत्री कुल और परिवार में स्त्री-पुरुष के विवाह का स्पष्ट निषेध किया है। क्योंकि उनकी जो सन्तान होगी, उसके विकास और गुणवत्ता की विविधता में कमी होगी। इसी विविधता की कमी के कारण ही उसके व्यक्तित्व का बहुआयामी विकास अवरुद्ध हो जाता है। इसके विपरीत पुरुष का व्यक्तित्व सम नहीं, विषम है और इसी विषमता के कारण उसका बहुआयामी विकास स्वाभाविक रूप से हो जाता है। इसके कारण पुरुष जो कार्य करता है, वह स्त्री कभी नहीं कर पाती। यदि वह कोशिश भी कर ले तो भी पुरुष की तरह वह सफल नहीं हो पाती।
       स्त्री और पुरुष के चार भिन्न-भिन्न विद्युतीय शरीर हैं और उन्हीं चार शरीरों तक दोनों में भेद पाया जाता है। स्त्री-पुरुष के चारों शरीर स्त्री-पुरुष के मिश्रित होते हैं। सभी को भली भाँति ज्ञात होना चाहिए कि शरीर संरचना में माँ से प्राप्त एक्स जीवाणु और पिता से प्राप्त एक्स और वाई जीवाणु के संयोग से माँ के गर्भ में प्रथम दिन जो सेल निर्मित होता है और उससे जो प्राण पैदा होता है, उसी से आने वाले शिशु का शरीर विकसित होता है। माँ के डिम्बाशय से जो डिम्ब निकलता है, उसमें केवल एक्स(X) जीवाणु होते हैं और पिता के शुक्र से जो स्पर्म आते हैं, उनमें एक्स और वाई(Xऔर Y) दो प्रकार के जीवाणु होते हैं। ये जीवाणु एक साथ एक समय में करोड़ों की संख्या में निकलते हैं। मगर माँ के डिम्बाशय के जीवाणु से पिता से प्राप्त केवल एक ही जीवाणु संयोग कर पाता है। शेष नष्ट हो जाते हैं। अब यदि माँ से प्राप्त एक्स 
(X) जीवाणु का संयोग पिता से प्राप्त एक्स(X) जीवाणु से हो गया तो दोनों X+X = - अर्थात् माइनस (ऋणात्मक) विद्युत् आवेशयुक्त रहता है। इसी प्रकार यदि माँ से प्राप्त एक्स(X) जीवाणु का संयोग पिता से प्राप्त वाई  जीवाणु से हो गया तो X+Y = + प्लस (धनात्मक) विद्युत् आवेशयुक्त रहता है। दो X X मिलकर र्ऋणात्मक और X और Y मिलकर धनात्मक सेल की रचना करते हैं। 
      ऋणात्मक सेल से स्त्रैण शरीर की और धनात्मक सेल से पुरुष शरीर की रचना प्रक्रिया आरम्भ होती है। मगर यहाँ एक दूसरा तथ्य भी कार्य करता है। पुरुष शरीर में एक साथ चार शरीर और स्त्री शरीर में भी एक साथ चार शरीर मिश्रित होते हैं। ये चार शरीर निम्न लिखित हैं। पहला शरीर जैसा कि दिखाई देता है--स्थूल या भौतिक या पार्थिव शरीर कहलाता है, दूसरा शरीर जो इसके भीतर होता है, उसे भाव या वासना या आकाशीय या विद्युतीय शरीर कहते हैं। तीसरा शरीर जो भाव शरीर के भीतर छिपा होता है, उसे सूक्ष्म शरीर की संज्ञा दी गयी है और चौथा शरीर जो सूक्ष्म शरीर के भी भीतर होता है, उसे मनोमय शरीर कहते हैं। इस तरह ये चारों शरीर स्त्री और पुरुष के शरीर में मिश्रित रूप से इस तरह रहते हैं जैसे दूध और पानी मिश्रित रहते हैं।
       यदि कोई व्यक्ति पुरुष है तो उसका पहला भौतिक् शरीर जैसा कि दिखलाई पड़ता है, पुरुष शरीर होता है। लेकिन जो उसका दूसरा भाव शरीर है, वह स्त्रैण शरीर(स्त्री का शरीर) है। इसका कारण यह है कि पुरुष शरीर धनात्मक और स्त्री शरीर ऋमात्मक विद्युत् अवेशयुक्त हैं। विज्ञान के नियमानुसार कोई धनात्मक ध्रुव या ऋणात्मक ध्रुव अकेला नहीं रह सकता। यदि अकेला है भी तो कौन जानता है क्योंकि उसकी उपस्थिति का आभास नहीं हो सकता। उसकी उपस्थिति दूसरे ध्रुव के मेल से पता चल पाती है जब दोनों के संयोग से विद्युत् धारा का प्रवाह आरम्भ हो जाता है। विद्युत् एक प्रकार की ऊर्जा है, शक्ति है, एक प्रवाह है और उसकी क्रियाशीलता से ही उसका आभास मिल पाता है। अन्यथा तो शक्ति विहीन वस्तु उस प्रकार निष्क्रिय होती है जैसे प्राणविहीन शव। 
      स्त्री का पहला भैतिक शरीर ऋणात्मक है, यही कारण है कि स्त्री अधिकांश मामलों में(अपवाद को छोड़कर) कामवासना के सन्दर्भ में आक्रामक नहीं हो सकती। वह कभी पुरुष पर बलात्कार नहीं कर सकती। वह बलात्कार झेल सकती है, व्यथा सहन कर सकती है। कामवासना के क्षेत्र में बिना पुरुष की इच्छा या  आवाहन के स्त्री कुछ भी नहीं कर सकती। स्त्री का दूसरा भाव शरीर धनात्मक, तीसरा शरीर फिर ऋणात्मक और चौथा शरीर धनात्मक होता है। 
      ऋणात्मक का मतलब शून्य नहीं समझना चाहिए। विद्युत् विज्ञान की भाषा में इसका अर्थ होता है--संग्राहक(ग्रहण करने वाली)। स्त्री के पास एक ऐसा शरीर है जिसमें असीम शक्ति संग्रहीत है। मगर वह असीम शक्ति क्रियाशील नहीं, निष्क्रिय रहती है। हमारे पुराणों ने इस महत्वपूर्ण सिद्धान्त को बहुत ही रोचक और अर्थवान रूपक के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है। देवासुर संग्राम में जब समस्त देवगण अपने सभी प्रयत्नों के बावजूद भी असुरों को परास्त करने में असमर्थ हो गए तो वे सब मिलकर महामाया पराशक्ति के आश्रय में पहुंचे और फिर उन देवों के समवेत अंश से जो एक विलक्षण तेज उत्पन्न हुआ और उससे जो विध्वंसात्मक ऊर्जा पैदा हुई, वह वही महाकाली, कराली, कंकाली, दुर्गा का स्वरुप थी। फिर उस ऊर्जस्वित तेजपुंज के आवेग को रोक पाना किसी देव के वश में भी नहीं था। इसी स्वरुप का सचित्र चित्रण पुराणों और तंत्रग्रंथ 'दुर्गा सप्तशती' में किया गया है। उत्तेजित, आक्रोशित दुर्गा का तेज जब किसी देव के रोके न रुका तो फिर देवों के देव 'महादेव' महाकाली को रोकने के लिए सामने आ गए। फिर भी महादेवी का वेग शीघ्र शान्त नहीं हो पाया और उनके पैर महादेव के ऊपर आ पड़े। महादेव के ऊपर आक्रोशित महाकाली का वह विग्रह इस तथ्य की ओर संकेत है कि जब तक स्त्री की ऋणात्मक शक्ति शान्त है, तबतक वह शान्त है, निष्क्रिय है, लेकिन जैसे ही वह धनात्मक शक्ति के माध्यम से  जबर्दस्ती जाग्रत की जाती है, वैसे ही वह अशान्त, उत्तेजित, आक्रोशित और क्रियाशील हो जाती है। फिर उसकी क्रियाशीलता, उत्तेजना, क्रोध या आवेश शीघ्र शान्त नहीं हो पाता।
       यही कारण है कि स्थूल शरीर की दृष्टि से पुरुष स्त्री की अपेक्षा अधिक ताकतवर है, लेकिन वह कुछ ही क्षणों के लिए है क्योंकि पुरुष का दूसरा शरीर जो स्त्रैण शरीर है, वह नकारात्मक है। यदि उसको स्त्री से लम्बे समय तक संघर्ष करना पड़े तो वह पराजित हो जायेगा। इसका एकमात्र कारण यही है कि स्त्री का दूसरा शरीर जो पुरुष शरीर है, उसमें धनात्मक आवेश विद्यमान है। इसीलिए स्त्री में पुरुष की तुलना में सहनशक्ति अधिक होती है।
      पुरुष और स्त्री में इन चार शरीरों तक भेद रहता है। पांचवां शरीर लिंगभेद से परे है। इसीलिए इसे अलिंग शरीर कहते हैं। क्योंकि आत्मा का कोई लिंग नहीं होता। वह कभी पुरुष शरीर में तो कभी स्त्री शरीर में प्रवेश कर जन्म ग्रहण करती है। कब वह पुरुष शरीर में और कब स्त्री शरीर में प्रवेश करेगी, यह परिस्थितयों, कर्म और प्रारब्ध के ऊपर निर्भर है। यह विषय एक अलग विषय है, इस सम्बन्ध में कभी किसी दूसरी जगह चर्चा अपेक्षित है। यहाँ विषयांतर करने की आवश्यकता नहीं है।
      सफल दाम्पत्य जीवन के लिए आवश्यक है कि स्त्री को ऐसा पति मिले जो उसके भीतर विद्यमान पुरुष शरीर से सामंजस्य रख सके।  उसी प्रकार पुरुष को ऐसी पत्नी मिले जो  पुरुष के भीतर विद्यमान स्त्री शरीर से उचित तालमेल बैठा सके। इसके लिए स्त्री-पुरुष दोनों को अपने-अपने भीतर के विद्युतीय शरीरों को जानना-समझना-पहचानना जरुरी है। और यह तभी संभव है जब वे कुण्डलिनी जागरण के उपाय के रूप में 'बिन्दुसाधना' करते हैं। बिन्दुसाधना वह साधना है जिसमें स्त्री या पुरुष अपने भीतर के विद्युतीय शरीरों से साक्षात्कार करते हैं। उसे जानने-समझने का कार्य करते हैं और उससे सामंजस्य बैठाते हैं।(हमारी प्राचीन भारतीय सनातन संस्कृति में चार आश्रमों की जो व्यवस्था की गयी थी--ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानवप्रस्थ और सन्यास आश्रमों की, उनमें ब्रह्मचर्य आश्रम में 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य शक्ति का संचय करने का विधान किया गया था और गृहस्थ आश्रम को उसके प्रयोग और परीक्षण के लिए व्यवस्थित किया गया था जिसके परिणाम स्वरुप ही 'परिणय' या 'विवाह' की नैतिक और भावनामय परंपरा का सफल निर्वहन करना होता है। परिणय या विवाह का उद्देश्य मात्र कामवासना की तृप्ति ही नहीं है, बल्कि यह एक उच्च गुरुतर उत्तरदायित्व के निर्वाह का परीक्षण काल है। 20-25 वर्षों तक जिस ब्रह्मचर्य तत्व की शक्ति का जो संचय किया गया होगा, उसीका कुण्डलिनी जागरण के क्रम में बिन्दुसाधना की प्रक्रिया का प्रयोग और परीक्षण है, न कि कामवासना की तृप्ति। इस प्रयोजन में यह प्रक्रिया शुद्ध मन, प्राण और भाव से की जाती है, तभी बिन्दुसाधना की सफलता है। साथ ही पितृ ऋण से मुक्ति के लिए उच्चकोटि की आत्मा को स्त्री-पुरुष-समागम के माध्यम से आकर्षित किया जाता है ताकि सृष्टि प्रक्रिया की मर्यादा का पालन  हो सके। उच्च और विशुद्ध भाव से यह ईश्वरीय क्रिया मानकर करने से उच्च आत्माएं आकृष्ट होती हैं और केवल कामवासना के वेग को शान्त करने के लिए स्त्री-पुरुष संसर्ग में  वासनाप्रधान निम्न कोटि की आत्माएं आकृष्ट होती हैं)।
       इन सारे तथ्यों को ध्यान में रखकर भारतीय सनातन समाज में एक विशिष्ट जीवन शैली निर्धारित की गई जिसे 'हिन्दू संस्कृति' या 'सनातन संस्कृति' की संज्ञा दी गयी। इस संस्कृति में सर्वप्रथम स्थूल शरीर को साधन और ब्रह्मचर्य को साध्य बनाया गया था।
       यहाँ मानव शरीर की रचना,  उनसे सम्बंधित तत्वों,  लोकों तथा चक्रों का विवरण नीचे दिया जा रहा है--

1-स्थूल शरीर(physical body): स्थूल जगत् :पृथ्वी तत्व : मूलाधार चक्र।
 2-भाव या वासना शरीर(etheric body): वासना जगत् या प्रेत जगत् या स्वप्न जगत् या भाव जगत्: जल तत्व: स्वाधिष्ठान चक्र।
3-सूक्ष्म शरीर या प्राण शरीर(astral body): सूक्ष्म जगत् : अग्नि तत्व: मणिपूरक चक्र।
4-मनोमय शरीर या मनः शरीर(mental body): मनोमय जगत्: वायुतत्व: अनाहत चक्र।
5-आत्म शरीर(spiritual body) : आत्म- जगत्: आकाश तत्व : विशुद्ध चक्र।
6-ब्रह्म या ब्रह्मांडीय शरीर(cosmic body) : ब्रह्म जगत् या ब्रह्माण्ड जगत् पंचतत्व रहित अवस्था : आज्ञाचक्र।
7-निर्वाण शरीर(bodiless existence): निर्वाण जगत् :शून्यावस्था: सहस्रार चक्र।

                            समाप्त

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