1-भगवान शिव कहते है 'योनिवर्ग और कलाशरीरम'... योनिवर्ग और कला शरीर है।योनि से अर्थ है प्रकृति और प्रकृति ही शरीर देती है।कला का अर्थ है ..कर्त्ता का भाव। एक ही कला है और वह है संसार में उतरने की कला अथार्त कर्त्ता का भाव। इन दो चीजों से मिलकर तुम्हारा शरीर निर्मित होता है ...तुम्हारा कर्त्ता का भाव, तुम्हारा अहंकार, और प्रकृति से मिला हुआ शरीर। अगर तुम्हारे भीतर कर्ता का भाव है, तो प्रकृति तुम्हें योग्य शरीर देती चली जायेगी।प्रकृति तो सिर्फ योनि है ...गर्भ है। तुम्हारा अहंकार उस योनि में बीज बनता है। तुम्हारे कर्तृत्व का भाव, कि मैं यह करूं, मैं यह पाऊं, मैं यह हो जाऊं ..उसमें बीज बनता है। और जहां भी तुम्हारे कर्तृत्व का कला और प्रकृति की योनि का मिलन होता है, शरीर निर्मित हो जाता है। तुम बार बार जन्मे हो। कभी तुम पशु थे, कभी पक्षी थे, कभी वृक्ष थे, कभी मनुष्य ..तुमने जो चाहा है, वह तुम्हें मिला है।
2-तुमने जो आकांक्षा की है, जो कर्तृत्व की वासना की है, वही घट गया है। तुम्हारे कर्तृत्व की वासना घटना बन जाती है और विचार वस्तुएं बन जाते हैं। इसलिए सोच विचारकर वासना करना है क्योंकि देर अबेर सभी वासनाएं पूरी हो जाती हैं।
अगर तुम बहुत बार आकाश में पक्षी को देखते हो और सोचते हो कि कैसी स्वतंत्रता है पक्षी को ..काश हम पक्षी होते! तो देर न लगेगी, जल्दी ही तुम पक्षी हो जाओगे।तुम जो भी वासना अपने भीतर संगृहीत करते हो, वह बीज बन जाती है।प्रकृति तो केवल शरीर देती है; स्वयं को निर्माण करने वाले कलाकार तो तुम्हीं हो।कला का अर्थ है कि अपने शरीर को तुमने ही बनाया है।तुम्हारी वासना ही शरीर निर्मित करती है।अगर हम ध्यान दे तो रात में सोते समय जो आखिरी विचार होता है , वही सुबह उठते वक्त पहला विचार होता है। और रातभर तुम सोये रहे। वह विचार बीज की तरह भीतर पड़ा रहा। जो अंतिम था, वह सुबह प्रथम हो गया।
3-आखिरी मरते क्षण में, तुम्हारे सारे जीवन की वासना संगृहीत होकर बीज बन' जायेगी। वही बीज नया गर्भ बन जायेगा। जहां से तुम मिटे, वहीं से तुम फिर शुरू हो जाओगे।आज तुम जो भी हो, वह तुम्हारा ही कृत्य है।इसीलिए किसी दूसरे को दोष मत देना।यहां कोई दूसरा है भी नहीं, जिसको दोष दिया जा सके। यह तुम्हारे ही कर्मों का संचित फल है। तुम जो भी हों ...रूपवान या कुरूप, दुखी या सुखी, स्री या पुरुष ... यह तुम्हारे ही कृत्यों का फल है। तुम ही अपने जीवन के कलाकार हो ।इसीलिए यह मत कहना कि भाग्य ने बनाया है; क्योंकि वह धोखा है। तुम परमात्मा पर जिम्मेवारी मत डालना; क्योंकि वह तरकीब है, खुद के दायित्व से बचने की। इस कारागृह में तुम अपने ही कारण हो। जो व्यक्ति इस बात को ठीक से समझ लेता है कि अपने ही कारण मैं यहां हूं उसके जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है।इसलिए Enlightened One कहते हैं कि सभी वासनाओं को छोड़ दो, तभी तुम मुक्त हो सकोगे।
4-तुमने अगर स्वर्ग की वासना की तो तुम देवता हो जाओगे, लेकिन वह भी मुक्ति न होगी। क्योंकि वासनाओं से कभी भी अशरीर की स्थिति पैदा नहीं होती; सभी वासनाओं से शरीर ही निर्मित होता है। जब तक तुम Lustless को उपलब्ध नहीं होते; तब तक तुम नये शरीरों में भटकते रहोगे।भिन्न -भिन्न शरीर के ढंग अलग हों,परन्तु शरीर की मौलिक स्थिति एक ही जैसी है।शरीर के दुख समान है; चाहे पक्षी का शरीर हो,या चाहे मनुष्य का शरीर 'हो। दुखों में कोई भेद नहीं है। क्योंकि मौलिक दुख है ..आत्मा का शरीर में बंध जाना या कारागृह में प्रविष्ट हो जाना। फिर कारागृह की दीवालें Circular हैं या कि Triangular या Square ...उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।कारागृह, कारागृह है। पक्षी का शरीर हो या मनुष्य का, बहुत फर्क नहीं पड़ता। तुम बंध गये हो.. बस वही दुख है। वासना बांधती है। वासना है रज्जु,अथार्त रस्सी जिससे हम बंधते है। और ध्यान रखना है कि तुम्हारे अतिरिक्त कोई और जिम्मेवार नहीं है।
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