निद्रा को योगसूत्र में पाँच कठिन दोषों में से एक माना गया है | गहरी नीन्द वालों की स्मृति कमजोर हो जाती है | इसलिए ब्रह्मचर्य आश्रम वालों को श्वाननिद्रा का आदेश दिया जाता था |
इन्द्रियाँ सो जाए किन्तु मन जागता रहे उसे स्वप्न कहते हैं | मन की सात्विकता के अनुसार स्वप्न की सत्यता होती है | सात्विक संस्कारों वाला मन स्वप्न में सु+अप्न अर्थात समस्याओं का अच्छा समाधान प्राप्त करता है | इसकी विधि लोमश संहिता में वर्णित है |
स्वप्न से निकलते समय जो अन्तिम स्वप्न होता है वही याद रहता है | सात घण्टे बारह मिनट की औसत निद्रा में वास्तविक सुषुप्ति अत्यल्प काल की होती है जिसके बाद स्वप्न का दीर्घकाल होता है, पुनः सुषुप्ति आती है | इस प्रकार इन्द्रियों की जागृति के स्तर का उतार-चढ़ाव होता रहता है, एक सीमा से अधिक ऊपर चढ़ने पर जागृति होती है |
मन भी सो जाय उसे सुषुप्ति कहते हैं, जिसमे सभी प्राणी ब्रह्मलोक में रहते हैं और शारीरिक एवं मानसिक थकान दूर करके नयी ऊर्जा प्राप्त करते हैं | अज्ञानी जीव सुषुप्ति में चित्त की निद्रावृत्ति को देखकर स्वयं को निद्रा में अनुभव करता है, सोचता है कि कुछ नहीं है, न तो मैं हूँ और न ही विश्व है | सुषुप्ति में भी जीव को आत्मज्ञान रहे तो अवस्था को समाधि कहते हैं | चित्त की ये चार अवस्थाएं हैं जिनका वर्णन योगवासिष्ठ में है |
आत्मा से संसर्ग के कारण जड़ चित्त में एक आभासीय मिथ्या चेतना होती है जो अज्ञानी जीव को वास्तविक चेतना प्रतीत होती है | असली चेतना तो आत्मा है, चित्त तो पूर्णतः जड़ है, अभ्यास की गुलाम है, जबतक बाह्य बल न लगे तबतक बदल नहीं सकती |
किन्तु अनन्त जन्मों के अभ्यास के कारण चित्त की जड़ आदतों से पिण्ड छुड़ाना जीव के लिए बड़ा ही कठिन है | विरले ही ऐसे भाग्यवान होते हैं जो पिछले जन्मों के पुण्य के कारण बिना कठिन क्रियायोग के समाधि तक पँहुच सकते हैं, अधिकाँश मनुष्य बिना कठोर क्रियायोग के ऐसा नहीं कर सकते |
पिछले जन्मों के कर्मों का क्रियमाण फल ही वर्तमान जीवन में प्रारब्ध बनता है | उदाहरणार्थ, यदि बलवान धनयोग हो तो वास्तविक जीवन में धन मिलेगा, कमजोर धनयोग है तो स्वप्न में धन मिलेगा और जागने पर गरीबी
आज बस इतना ही....
अष्टावक्र वैदिक विज्ञान संशोधन
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