• आकाश मे हजार सूर्यो के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश हो , वह भी उस विश्वरुप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित ही हो । ( 12 )
• पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त अर्थात पृथक – पृथक सम्पूर्ण जगत के देवो के देव श्री कृष्ण भगवान के उस शरीर मै एक जगह स्थित देखा । ( 13 )
• उसके अनन्तर वे आश्चर्य से चकित और पुलकित शरीर अर्जुन प्रकाशमय विश्वरुप परमात्मा श्रद्धा भक्ति सहित सिर से प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोले । ( 14 )
• अर्जुन बोले – हे देव ! मै आपके शरीर मे सम्पूर्ण देवो को तथा अनेक भूतो के समुदायो को , कमल के आसन पर विराजित ब्रह्मा को , महादेव को और सम्पूर्ण ऋषियो को तथा दिव्य सर्पो को देखता हू । ( 15 )
• हे सम्पूर्ण विश्व के स्वामिन ! आपको अनेक भूजा , पेट , मुह और नेत्रो से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रुपो वाला देखता हू । हे विश्वरुप ! मै आपके न अन्त को देखता हू , न मध्य को और न आदि को ही । ( 16 )
• आपको मै मुकुटयुक्त , गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुन्ज प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त , कठिनता से देखे जाने योग्य और सब ओर से अप्रमेय स्वरुप देखता हू । ( 17 )
• आप ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात परब्रह्म परमात्मा है , आप ही इस जगत के परम आश्रय है , आप ही अनादि धर्म के रक्षक है और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष है । ऐसा मेरा मत है । ( 18 )
• आपको आदि , अन्त और मध्यरहित अनन्त सामर्थ्य से युक्त्त , अनन्त भुजा वाले , चन्द्र – सूर्यरुप नेत्रो वाले , प्रज्वलित अग्निरुप मुखवाले और अपने तेज से इस जगत को संतप्त करते हुए देखता हू । ( 19 )
• हे माहत्मन ! यह स्वर्ग़ और पृथ्वी के बीच का सम्पूर्ण आकाश तथा सब दिशाए एक आपसे ही परिपूर्ण है तथा आपके इस अलौकिक और भंयकर रुप को देखकर तीनो लोक अति व्यथा को प्राप्त हो रहे है । ( 20 )
गीता दर्शन , अध्याय 11 ( विश्वरुप दर्शन योग )
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