श्री कृष्ण ने अर्जुन को 13 प्रकार के योग मुद्रा के बारे में जानकारी देकर उनके मन के मैल को साफ किया था। भागवत गीता में उल्लेखित प्रमुख 13 योग है..
1-विषाद योग :- विषाद यानी दुख। युद्ध के मैदान में जब अर्जुन ने अपनो को सामने देखा तो वह विषाद योग से भर गए। उनके मन में निराशा और अपनो के नाश का भय हावी होने लगा।
तब भगवान श्रीकष्ण ने अर्जुन के मन से यह भय दूर करने का प्रयास किया। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिए, वही गीता बनीं। उन्होंने सर्वप्रथम विषाद योग से अर्जुन को दूर किया और युद्ध के लिए तैयार किया था।
2-सांख्य योग :- सांख्य योग के जरिये भगवान श्रीकृष्ण ने पुरुष की प्रकृति और उसके अंदर मौजूद तत्वों के बारे में समझाया। उन्होनें अर्जुन को बताया कि मनुष्य को जब भी लगे कि उस पर दुख या विषाद हावी हो रहा है ।
उसे सांख्य योग यानी पुरुष प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए। मनुष्य पांच सांख्य से बना है, आग, पानी, मिट्टी, हवा। अंत में मनुष्य इसी में मिलता है।
3-कर्म योग:- भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि जीवन में सबसे बड़ा योग कर्म योग है। इस योग से देवता भी नहीं बच सकते। कर्म योग से सभी बंधे हैं। सभी को कर्म करना है। इस बंधन से कोई मुक्त नहीं हो सकता है।
साथ ही यह भी समझाया की कर्म करना मनुष्य का पहला धर्म है। उन्होंने अर्जुन को समझाया कि सूर्य और चंद्रमा भी अपने कर्म मार्ग पर निरंतर प्रशस्त रहते हैं। तुम्हें भी कर्मशील बनना होगा।
4-ज्ञान योग:- भगवान श्रीकृष्ण अजुर्न से कहा कि ज्ञान अमृत समान होता है। इसे जो पी लेता है उसे कभी कोई बंधन नहीं बांध सकता।
ज्ञान से बढ़कर इस दुनिया में कोई चीज़ नहीं होती है। ज्ञान मनुष्य को कर्म बंधनों में रहकर भी भौतिक संसर्ग से विमुक्त बना देता है।
5-कर्म वैराग्य योग:- भगवान ने अर्जुन को बताया कि कर्म से कोई मुक्त नहीं, यह सच है, लेकिन कर्म को कभी कुछ पाने या फल पाने के लिए नहीं करना चाहिए। मनुष्य को अपना कर्म करना चाहिए।
यह सोचे बिना कि इसका फल उसे कब मिलेगा या क्या मिलेगा। कर्म के फलों की चिंता नहीं करनी चाहिए। ईश्वर बुरे कर्मों का बुरा फल और अच्छे कर्मों का अच्छा फल देते हैं।
6-ध्यान योग:- ध्यान योग से मनुष्य खुद को मूल्यांकन करना सीखता है। इस योग को करना हर किसी के लिए जरूरी है।
ध्यान योग में मन और मस्तिष्क का मिलन होता है और ऐसी स्थिति में दोनों ही शांत होते हैं और विचलित नहीं होते। ध्यान योग मनुष्य को शांत और विचारशील बनता है।
7-विज्ञान योग:- इस योग में मनष्य किसी खोज पर निकलता है। सत्य की खोज विज्ञान योग का ही अंग है। इस मार्ग पर बिना किसी संकोच के मनुष्य को चलना चाहिए। विज्ञान योग तप योग की ओर अग्रसर होता है।
8-अक्षर ब्रह्म योग:- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि अक्षर ब्रह्म योग की प्राप्ति से ही ब्रह्मा, अधिदेव, अध्यात्म और आत्म संयम की प्राप्ति होती है। मनुष्य को अपने भौतिक जीवन का निर्वाह शून्य से करना चाहिए।
अक्षर ब्रह्म योग के लिए मनुष्य को अपने अंदर के हर विचार और सोच को बाहर करना होता है। नए सिरे से मन को शुद्ध कर इस योग को कराना होता है।
9-राज विद्या गुह्य योग:- इस योग में स्थिर रहकर व्यक्ति परम ब्रह्म का ज्ञानी होता है। मनुष्य को परम ज्ञान प्राप्ति के लिए राज विद्या गुह्य योग का आत्मसात करना चाहिए। इसे करने वाला हर बंधनों से मुक्त हो सकता है।
10-विभूति विस्तार योग:- मनुष्य विभूति विस्तार योग के जरिये ही ईश्वर के नजदीक पहुंचता है। इस योग के माध्यम से साधक ब्रह्म में लीन हो कर अपने ईश्वर मार्ग पर प्रशस्त होता है।
11-विश्वरूप दर्शन योग:-इस योग को मनुष्य जब कर लेता है तब उसे ईश्वर के विश्वरूप का दर्शन होता है। ये अनंत योग माना गया है। ईश्वर तक विराट रूप योग के माध्यम से अपना रूप प्राप्त किए हैं।
12-भक्ति योग:- भक्ति योग ईश्वर प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ योग है। बिना इस योग के भगवान नहीं मिल सकते। जिस मनुष्य में भक्ति नहीं होती उसे भगवान कभी नहीं मिलते।
13-क्षेत्र विभाग योग:- क्षेत्र विभाग योग ही वह जरिया है जिसे जरिये मनुष्य आत्मा, परमात्मा और ज्ञान के गूढ़ रहस्य को जान पाता है। इस योग में समा जाने वाले ही साधक योगी होते हैं।
भगवत गीता में वर्णित ये योग, मौजूदा समय में मनुष्य की जरूरत हैं। इसे अपनाने वाला ही असल मायने में अपने जीवन को पूर्ण रूप से जी पाता है।
योगी वह है जो पिण्ड के अन्दर जीव का आत्मा से मिलन (हंसो) साधना के माध्यम (स्वांस-प्रस्वांस) से करते हैं। ज्ञानी या तत्वज्ञानी वह है जो ब्रह्माण्ड के अन्दर मानव का अवतार से मिलन तत्त्वज्ञान के माध्यम से करते हैं।
योगी अपने लक्ष्य रूप आत्मा की प्राप्ति हेतु अपने मन को इन्द्रिय रूपी गोलकों से अथार्त बहिर्मुखी से हटाकर /खींचकर अंतर्मुखी बनाते हुये स्वास-प्रस्वास में लगाकर जीव को समाधि अवस्था में आत्मा से मिलन करता है।
ये समस्त क्रियाएँ पिण्ड में होती, पिण्ड से बाहर योगी की कोई क्रिया-प्रक्रिया नहीं होती है। परन्तु तत्त्वज्ञानी अपने लक्ष्य रूप परमात्मा की प्राप्ति हेतु अपने जीवात्मा से युक्त शरीर /पिण्ड को सम्बन्ध।
ममता-आसक्ति रूपी सम्बन्धियों से मोह आदि से हटाकर पूर्णतः समर्पण /शरणागत होते हुये सत्संग एवं धर्म संस्थापनार्थ अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति को लगाते हुये अनुगामी के रूप में रहता है।
योगी का कार्यक्षेत्र मात्र एक पिण्ड के अन्तर्गत ही रहता है परन्तु ज्ञानी का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड होता है। योगी ‘अहम्’ रूप जीव को आत्मा से मिलाकर जीवात्मा (हंसो) भाव से मात्र समाधि अवस्था तक ही रहता है।
परन्तु ज्ञानी ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप आत्मा से मिलाते हुये परमात्मा से मिलाकर शरणागत भाव से शाश्वत् अद्वैत्तत्त्वबोध रूप में हो जाता है।
योगी-मात्र समाधि में ही आत्मामय (हंसो) रूप में रहता है, जैसे ही समाधि टूटती है, वह पुनः सोsहं रूप होते हुये अहंकारी रूप ‘अहम्’ तत्पश्चात् शरीर में फँस जाता है।
ठीक इसी प्रकार ज्ञानी शरणागत रूप में ही ‘मुक्त’ अमरता, परमपद, परमतत्त्वमय, पापमुक्त, बन्धन मुक्त, सच्चिदानन्दमय (आत्मतत्त्वम्) रूप में रहता है परन्तु शरणागतभाव के टूटते ही वह पुनः मिथ्याज्ञानभिमानी रूप ‘अहम्’ शरीर में फँस जाता है।
जहाँ पर दो नदियाँ मिलकर तीसरा रूप लेकर बहती हैं तो वह मिलन-स्थल ही संगम है। परन्तु जहाँ पर तीनों नदियाँ- गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हों, उसकी महत्ता का वर्णन नहीं किया जा सकता।
उसमें भी जहाँ अक्षय-वट हो, वह भी भारद्वाज ऋषि जैसे उपदेशक के साथ, तो उसकी महिमा में चार चाँद ही ला देता है। परन्तु यह सारी महिमा मात्र कर्मकांडियों के लिए ही है।
योगियों-महात्माओं और ज्ञानियों के लिए नहीं, क्योंकि कर्म-कांड की मर्यादा तभी तक रहती है, जब तक कि योग-साधना नहीं की जाती और ज्ञान में तो ये कर्मकांडी और योगी-महात्मा सभी आकर विलय कर जाते हैं।
भगवद गीता अध्याय: 6 श्लोक 46 में श्री कृष्ण कहते है
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥
योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ sabhar Facebook wall yog shadhana kundalni
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