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भाग--05
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परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन
पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वन्दन
योग की सर्वोच्च अवस्था है--परमावस्था।
इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए साधक को समय की एक लंबी यात्रा करनी पड़ती है। कई जन्म बीत जाते हैं। न जाने कितने मानसिक, वैचारिक और आत्मिक संघर्ष करने पड़ते हैं। साधना-क्रम आगे बढ़ाने के लिए योग्य गर्भ का भी होना आवश्यक है। अन्यथा साधना-क्रम भंग होने की आशंका बनी रहती है। फिर तो इधर-उधर भटकना पड़ता है और साधक को जाने कब और किस जन्म में 'परमावस्था' उपलब्ध होगी और किस जन्म में उपलब्ध होगा 'आत्म साक्षात्कार' ?
'परमावस्था' आत्मा की अद्वैत अवस्था मानी जाती है। इसी अवस्था में आत्मा को अपने निज स्वरुप का ज्ञान होता है। इसी अवस्था में आत्मा के सामने प्रकट होता है--एक दिव्य ज्योतिर्मय प्रकाश जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। क्योंकि वर्णन योग्य शब्द ही नहीं मिलते। वह प्रकाश शब्दातीत, भावातीत और वर्णनातीत है। आखिर ऐसा कौन है वह जो सबसे अतीत है ? कहने की आवश्यकता नहीं--वेदों ने, उपनिषदों ने दर्शन शास्त्रों ने, पुराणों ने उसी दिव्य ज्योतिर्मय को 'परब्रह्म परमात्मा' कहा है। वह मूल अस्तित्व है सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड का जिसकी उपस्थित सदैव से रही है और आगे भी बराबर रहेगी। उसका न कभी निर्माण होता है और न होता है कभी नाश। वह आदि और अंत रहित है। वह साकार है और निराकार भी। वह संसार के समस्त कार्य-कारण का आधार भी है।
जो समस्त चराचर जगत में समान रूप से व्याप्त है, जिसका अंश मानव रूप में राम है, कृष्ण है, रावण है और है कंस भी। जिसका अंश समय-समय पर सिद्ध महात्माओं और सिद्ध योगियों के रूप में भी होता है प्रकट संसार में, उसी का अंश समस्त प्राणियों में विद्यमान है आत्मा के रूप में और वही हैं 'हम'। आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं हम। आत्मा का अनुभव या परमात्मा का अनुभव कह तो देते हैं हम लेकिन वह अनुभव भी नहीं हैं हम। sabhar siyaram tiwari Facebook wall
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