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क्या है ओम की ध्वनि का रहस्य?

NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...… 1-आधुनिक विज्ञान ने पदार्थ के विश्‍लेषण से निश्चय किया कि यदि हम पदार्थ को खंडित करे या तोड़ते जाए, तो अंत में जो तत्‍व शेष रह जाता है ...जिसे तोड़ा नहीं जा सकता, जो आखिरी इकाई बचती है। वह इकाई विद्युत/इलेक्‍ट्रॉन की है। इसलिए विज्ञान के अनुसार, जगत में जो भी दिखाई पड़ रहा है, वह विद्युत का ही समागम है। विभिन्न-विभिन्न रूपों में विद्युत ही सघन होकर पदार्थ हो गई है। विद्युत मौलिक तत्व है।विज्ञान ने पदार्थ को तोड़ -तोड़कर आखिरी अणु, परमाणु और परमाणु का भी विभाजन करके जिस तत्व को पाया है, वह है विद्युत।पूरब के मनीषियों ने भी एक मौलिक तत्व खोजा था। पर उनकी खोज दूसरी तरह से थी, और दूसरी दिशा से थी।उन्होंने भी चेतना की आत्यंतिक गहराई में उतरकर चेतना का जो आखिरी बिंदु है, उसे पकड़ा था। उस बिंदु को उन्होंने कहा था ...ध्वनि, साउंड। पूरब की खोज है कि सारा अस्तित्व ध्वनि का ही घनीभूत रूप है, शब्द का घनीभूत रूप है। इसलिए वेद को हमने परमेश्वर कहा, क्योंकि वह शब्द है। और ऐसी खोज यही नहीं है, बल्कि जिन्होंने भी आत्मा की तरफ से यात्रा की है, उन्होंने भी यही कहा है। 2-बाइबिल कहती है, जगत के प्राथमिक चरण में 'शब्द 'था, 'लोगोस'..दि वर्ड। फिर शब्द से ही सब उत्पत्ति हुई।जिन्होंने आत्मा के भीतर प्रवेश करके जीवन की आधारशिला खोजनी चाही, उन सभी ने ध्वनि को आधारभूत माना है। जिन्होंने पदार्थ की खोज की है, उन्होंने विद्युत को आधारभूत माना है। पर एक आश्चर्य की बात यह है कि विज्ञान कहता है कि ध्वनि विद्युत का एक रूप है। और योग कहता है कि विद्युत ध्वनि का एक रूप है।इस मामले में विज्ञान और योग दोनों सहमत हैं कि विद्युत और ध्वनि दो चीजें नहीं हैं। यह परिभाषा की बात है कि हम विद्युत को ध्वनि का रूप कहें, कि ध्वनि को विद्युत का रूप कहें। लेकिन एक बात में दोनों राजी हैं कि जीवन की चरम, आखिरी, आत्यंतिक जो इकाई है, वह या तो विद्युत जैसी है, या ध्वनि जैसी है। और विद्युत और ध्वनि में कोई भेद नहीं है। पर दोनों ने अलग -अलग तरह से यात्रा की है, और अलग -अलग रूप से आत्यंतिक को पकड़ा है।यदि पदार्थ से खोज की जाए तो विद्युत ही मिलती है। पदार्थ जड है। विद्युत भी जड़ है। लेकिन अगर चैतन्य से खोज की जाए, तो चैतन्य का आधारभूत स्वरूप ध्वनि है, शब्द है, विचार है, चैतन्य है, मन है, मनन है। 3-जितने ही गहरे हम उतरते चले जाएं, तो ध्वनि के शुद्धतम रूप शेष रह जाते हैं। ध्वनि का यह अंतिम जो रूप है, उसे हमने नाम दिया है ...ओंकार, ओम।यह ओम कुछ हिंदुओं से बंधा हुआ नहीं है।तत्व दर्शन में, जैन हिंदुओं से राजी नहीं हैं लेकिन इस बात में राजी हैं कि जो आत्यंतिक घटना भीतर घटती है, उसकी ध्वनि ओंकार की है। बौद्ध राजी नहीं हैं सब सिद्धातो में भेद हैं, लेकिन जब समाधि फलती है और पूर्ण होती है, तो जो ध्वनि भीतर स्फुरित होती है, वह ओंकार की है, वह ओम है।मुसलमान अपनी प्रार्थना के बाद आमीन शब्द का प्रयोग करते हैं; ईसाई भी, यहूदी भी। शब्दशास्त्री कहते हैं कि आमीन ओम का ही रूप है। वह जो भीतर ध्वनि होती है, उसे कोई ओम की तरह भी समझ सकता है, कोई ओमीन की तरह भी समझ सकता है। ध्वनि में अपनी तरफ से समझ लेने की बहुत आसानी है।तो आप जो भी चाहें सुनना वह सुन सकते हैं।बादलो की रिमझिम में आप चाहें तो किसी गीत की कड़ी भी सुन सकते हैं।और अगर कोई भक्त हो, तो उसे राधे -राधे भी सुनाई पड़ जाएगा।ध्वनि बहुत सूक्ष्म है। पूरब के मनीषियों ने उसे ओम की तरह पकड़ा। यहूदी, मुसलमान फकीरों ने उसे ओमीन की तरह पकड़ा, जिसका आमीन रूप हो गया। 3-अंग्रेजी में कुछ शब्द हैं, जिसको अंग्रेजी भाषाशास्त्री समझा नहीं पाते कि उनकी उत्पत्ति क्या है। जैसे ओमनीप्रेजेंट, ओमनीपोटेट। लेकिन जो लोग ओम के विज्ञान को समझते हैं, वे कहेंगे कि इन शब्दों का जन्म ओम से हुआ है। ओमनीपोटेट का अर्थ है कि ओम की तरह जो शक्तिशाली हो गया -विराट। ओमनीप्रेजेट का अर्थ है कि ओम की भांति जो सब जगह उपस्थित हो गया -सर्वकाल में।संस्कृत से संसार की करीब -करीब सभी सुसंस्कृत भाषाओं का जन्म हुआ है। संस्कृत आदि भाषा है। अंग्रेजी हो कि फ्रेंच हो कि स्लाव, रशियन हो 

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     इटेलियन हो, स्पेनिश हो, स्विस हो, डेनिश हो, सारी भाषाओं में संस्कृत की मूल धातुएं उपस्थित हैं।ओम संस्कृत की आधारभूत ध्वनि है। इस ओम में संस्कृत की जितनी ध्वनियां हैं, सभी का समावेश है। ओम बना है अ, उ और म—तीन ध्वनियों के जोड़ से ..ए यू एम। ये तीन मूल स्वर हैं। बाकी सारी भाषा इन्हीं से पैदा होती है। सारे शब्द फिर इनसे ही निर्मित होते हैं। ओम मूल है, अ, उ, म उसकी तीन शाखाएं हैं। और फिर इन तीन शाखाओं से सारी ध्वनि का जाल और सारे शब्दों का जन्म होता है। ओम को यहूदियों की भाषा में लोगोस कहेंगे ; ईसाइयों की भाषा में शब्द कहेंगे। इस ओम के संबंध में ही सारे सूत्र है। 4- इस सूत्र को बहुत ठीक से समझना है क्योंकि भीतर जिन्हें प्रवेश करना है, वे इस ध्वनि के सहारे बड़े आसानी से भीतर प्रवेश कर सकते हैं। क्योंकि प्रतिक्षण यह ध्वनि भीतर गूंज रही है। यह ध्वनि ही आपका प्राण है। यह ध्वनि भीतर से खो जाए, आप खो जाएंगे। आपका अस्तित्व इसी ध्वनि की स्फुरणा है।लेकिन हम इतने शब्दों, शोरगुल और इतनी ध्वनियों से भरे हैं कि भीतर की धुन सुनाई नहीं पड़ती। यह बड़ी सूक्ष्म है, और यह बड़ी गहरे में है। और हम इतने उलझे हैं, यहां इतना उपद्रव है, इतना शोरगुल है कि इस छोटी सी, धीमी सी, मौलिक गहरी आवाज को हम सुन नहीं पाते।इसे सुनने के लिए जरूरी है कि हमारा मन पूरी तरह शांत हो जाए। इसके लिए जरूरी है कि हमारे बाहर का जो शोरगुल है, वह छूट जाए। हमारा मन अनआकुपाइड हो जाए। बाहर से हम कुछ भी न सुनें और भीतर कोई विचार न चलें, तो धीरे -धीरे इस ध्वनि का अनुभव होना शुरू हो जाता है। इसमें एक खतरा है और वह खतरा बड़े गहरे खड्डे में ले जाता है। जैसे ही अज्ञानियों को यह पता चल गया कि ओम मूलमंत्र है, तो उन्होंने बैठकर ओम का पाठ शुरू कर दिया। 5-यह जो आप पाठ करते हैं, यह मूल नहीं है। जो बिना पाठ किए भीतर गूंज रहा है, वह मूल है। जो आप बोलते हैं होंठों से या मन से, वह तो आपका ही है परन्तु ऊपर -ऊपर है। वह जो भीतर से बिना किसी प्रयास के, पर्त -पर्त उघाड़कर आता है, जो आपके ऊपर छा जाता है, जो आपका कृत्य नहीं है, वह आपके भीतर घटी घटना है ।उस ओम से जिसका संबंध जुड़ जाता है, वह जीवन के परम आधार से एक हो गया। उसने ब्रह्म के साथ मैत्री बना ली। वह मोक्ष को उपलब्ध हो गया।लेकिन जैसे ही यह पता चल गया, तो हमने इस पता का यह उपयोग किया कि हम बैठकर ओम का पाठ करने लगे। अगर आप इसका पाठ करेंगे तो धीरे -धीरे आपका मन ओम की ध्वनि से भर जाएगा। लेकिन वह ध्वनि पैदा की हुई है। वह आपके ही द्वारा पैदा की हुई है। और जो आप पैदा करते हैं, वह आपसे बड़ा नहीं हो सकता।इसे बहुत ठीक से समझ लें। और जो भी आप पैदा करते हैं, वह हाथ के मैल की तरह है। जिसने आपको पैदा किया, जिससे आप पैदा हुए हैं, उसे आप पैदा नहीं कर सकते। कोई भी अपने पिता को जन्म नहीं दे सकता। इसका कोई उपाय नहीं है। 6-लेकिन जो लोग ओम का पाठ करके सोचते हैं कि मूल ध्वनि में उतर जाएंगे, वे अपने पिता को जन्म देने की कोशिश कर रहे हैं। यह असंभव है। इसके होने का कोई उपाय ही नहीं है। खतरा यह है कि वह ओम जपते जपते कहीं इतना कंठस्थ हो जाए और इतना यांत्रिक हो जाए, तो वे यह भूल ही जाएंगे कि यह असली नहीं है, नकली है।हमने हर चीज में नकल पैदा की है। हमने मंत्र भी नकली पैदा कर लिए! मनुष्य नकल करने में इतना कुशल है कि जैसे ही उसे पता चल जाए कि मूल कैसा है, वह उसकी नकल बना लेता है। हमने प्लास्टिक के या कागज के ही फूल नहीं बनाए,बल्कि हमने महामंत्र भी कागज के बना लिए हैं। फिर उन कागज के महामंत्रों को लेकर हम घूमते फिरते हैं, इस खयाल में कि शायद वास्तविक जीवन का फूल, हमारे हाथ लग गया।खतरा यह है कि आप ओम का पाठ कर-कर के इतना शोरगुल भीतर पैदा कर लें कि वह जो भीतर की सूक्ष्मातिसूक्ष्म ध्वनि है, वह सुनाई ही न पड़े। आपका ओम ही उसमें बाधा बन जाए। ऋषियों ने कहा है कि वह जो भीतर का ओम है, वह अनाहत नाद है। 7-अनाहत नाद का अर्थ होता है, जो किसी चीज की चोट से पैदा न हो, आहत न हो। उदाहरण के लिए ताली बजाना आहत नाद है। दो चीजें टकराईं, उनसे शब्द पैदा हुआ। होंठ टकराए शब्द पैदा हुआ। जीभ तालू से टकराई, शब्द पैदा हुआ। जो भी चीज दो चीजों के टक्कर से पैदा होती है, वह अनाहत नहीं है। और यह जो ओम है, अनाहत नाद है। यह किसी चीज की टक्कर से पैदा नहीं होता। यह है। यह अस्तित्व का स्वरूप है। यह पैदा कभी हुआ ही नहीं।और ध्यान रहे, जो चीज भी पैदा होती है, वह मर जाएगी। और जो चीज दो चीजों की टकराहट से पैदा होती है, वह ज्यादा देर नहीं टिक पाएगी और मिट जाएगी। ताली बज भी नहीं पाई कि खो गई और ओम है शाश्वत ,सदा, सदैव, नित्य। वह दो चीजों की टक्कर से पैदा नहीं हो रहा है। वह है, वह पैदा हो ही नहीं रहा है।इस अनाहत की खोज में आप ओम के मंत्र का सहारा ले सकते हैं, लेकिन बड़ी कुशलता की जरूरत है। इसलिए रात को आप सिर्फ ओ की आवाज करें। म को मत आने दें। आप सिर्फ करें ओ.... सिर्फ ओ.... करते रहें। और एक दिन आप अचानक पाएंगे कि ओम आना शुरू हो गया। आप सिर्फ ओ से चोट मार रहे थे, सिर्फ साज बिठा रहे थे, ताकि भीतर का साज बैठ जाए। 8-और जिस दिन आप अचानक चौंककर पाएं कि आप तो ओ कहते हैं, लेकिन भीतर से ओम आता है, उस दिन आप समझना कि कोई और धारा भीतर टूट गई। तो प्रतीक्षा करना ...जल्दी मत करना। आप सिर्फ ओ का उपयोग करना और आधे हिस्से को छोड़ देना भीतर पर। जिस दिन धारा बहेगी, उस दिन वह जुड़ जाएगा।और जिस दिन आपको ऐसा लगे कि आपके ओ में कोई नई चीज भीतर से आकर जुड़ गई है, उस दिन से आप ओ का उच्चारण भी बंद कर देना। उस दिन से सिर्फ आप आंख बंद करके बैठ जाना और सुनने की कोशिश करना।अर्थात मंत्र बोलने की नहीं बल्कि मंत्र को सुनने की कोशिश करना। होंठ और जीभ का प्रयोग मत करना, भीतर कान का प्रयोग करना । सुनना, कि भीतर क्या हो रहा है। और आप पाएंगे कि ओम का नाद भीतर हो रहा है। वह आपका पैदा किया हुआ नहीं है। आप नहीं थे तब वह था, आप नहीं होंगे तब भी वह होगा। आपका होना एक लहर की तरह है, वह आपके नीचे छिपा हुआ सागर है।मनुष्य कभी -कभी अधैर्य में बहुत जल्दी कर लेता है। इसलिए आधा मंत्र दिया गया है और आधा छोड़ रखा है। ताकि आधा भीतर से पूरा हो, तो आपको पता चल जाए कि अब कोई नई घटना घट रही है, जो मैं नहीं कर रहा हूं। उसी वक्त आप रुक जाना और मंत्र बोलने की जगह मंत्र को सुनना शुरू कर देना। ऋषियों ने मंत्र को सुना है, बोला नहीं है। लेकिन जहां आप खड़े हैं, वहां कुछ तो बोलने से शुरू करना पड़ेगा, 'ताकि पत्थर हट जाए और झरना बहने लगे। 9-यह 'ओ' की चोट सिर्फ पत्थर को हटाने के लिए है। और जैसे ही पत्थर हटेगा कि ओम का झरना बहने रनगेगा। फिर आप चुपचाप हो जाना। फिर आप बोलना मत। फिर आहत नाद पैदा मत करना। फिर तो अनाहत करीब है। और जरा कान उसमें लग जाएंगे, एक टयूनिंग हो जाएगी, तो बस सुनाई पड़ना शुरू हो जाएगा। और तब आप चकित होंगे कि यह तो स्वर निरंतर गूंज रहा था, अब तक मैंने क्यों नहीं सुना...।वास्तव में, आप कहीं और उलझे थे, मन कहीं और व्यस्त था। मन जहाँ व्यस्त होता है, उतना ही उसे बोध होता है। और जब मन ही बहुत ज्यादा व्यस्त होता है, तो शेष सब जगह अनुपस्थित हो जाता है।एक युवक क्रिकेट के मैदान में खेल रहा है। पैर में चोट लग जाती है,और खून बहना शुरू हो जाता है। दर्शक जो ग्राउंड के किनारे बैठे है , उन्हें दिखाई पड़ता है कि पैर से खून बह रहा है, जमीन पर खून के दाग पड़ गए है। लेकिन उस युवक को न तो चोट का पता है, न दर्द हो रहा है, न खून के बहने का कोई खयाल है। उसका सारा ध्यान खेल में लगा है।लेकिन जब खेल बंद होगा तब उसे स्मरण आएगा। यह चोट तो बहुत पहले की लग गई थी! लेकिन ध्यान कहीं और था। 10-आपके घर में आग लगी हो और कोई आपको नमस्कार करे। आपको दिखाई भी नहीं पड़ेगा, सुनाई भी नहीं पड़ेगा। आंखे देखेंगी, फिर भी नहीं दिखाई पड़ेगा। कान सुनेंगे, फिर भी सुनाई नहीं पड़ेगा। घर में आग लगी है। आप रोज रास्ते से गुजरते हैं । किनारे लगे दीवालों पर पोस्टर भी पढ़ते हैं, दुकानों के साइनबोर्ड भी पढ़ते हैं। दुकानों में भी झांककर देखते बढ़ते चले जाते हैं। लेकिन घर में आग लगी है, उस दिन आपको कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। उसी रास्ते से आप गुजरेंगे, कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। आंखे तो हैं, लेकिन अब आंखों के पीछे मन नहीं है। और जब तक आंखों के पीछे मन न जुड़ा हो, तब तक कुछ अनुभव नहीं होता।तो आप बाहर इतने व्यस्त हैं, इसलिए भीतर की तरफ ध्यान नहीं है।योग की सारी चेष्टा इतनी है कि आप बाहर से थोड़े मुक्त हो जाएं, ताकि ध्यान की धारा भीतर बहने लगे। और भीतर सब कुछ मौजूद है, जो चाहा जा सकता है। जो चाह -चाहकर नहीं मिलता;जिसको हम जन्मों -जन्मों से खोज रहे हैं , वह मौजूद है। गौतम बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, और किसी ने पूछा कि आपको क्या मिला, तो गौतम बुद्ध ने कहा है कि मुझे मिला कुछ भी नहीं है, केवल जो मिला ही हुआ था उसका पता चला। वह सदा से था ही।यह ओम आपके भीतर गूंज ही रहा है। यह आपके प्राणों का स्वर है। यह आपका होना है ..आपका अस्तित्व है। chidananda Facebook wall ...SHIVOHAM....sabhar

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